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जिन सूत्र भाग: 2
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एक होटल में गये। खरगोश ने बैरा को आवाज दी और कहा कि नाश्ता ले आओ। बैरा ने पूछा कि और आपके साथी, यह क्या लेंगे? खरगोश ने कहा उनकी छोड़ो, अगर वह भूखे होते तो तुम सोचते हो मैं यहां बैठता ! नाश्ता उन्होंने कर लिया होता; मगर वे भरे - पेट हैं सिंह भरा - पेट हो तो हमला नहीं करता। आदमी भरे पेट हमला करता है। लोग जंगल में शिकार करने जाते हैं, उनसे पूछो, किसलिए? आखेट ! खेल !! क्रीड़ा !!! मारने का खेल ! सिंह की बात तो समझ में आ जाती है कि भूखा है, इसलिए हमला करता है। तुम भरे पेट, किसलिए हमला करने जाते हो? तुम कहते हो, खेलने का मजा ले रहे हैं। कभी खयाल किया, अगर शिकारी पर शेर हमला कर दे तो हम खेल नहीं कहते। और शिकारी बंदूकें लेकर सिंहों को छेदता रहे, तो हम खेल कहते हैं। और पतन की कोई सीमा होगी ! शिकारी अपने घर में सिंहों के सिर लटका कर रखता है दिखाने को कि कितने सिंह उसने मार डाले हैं। खेल में !
राजा-महाराजाओं के महलों में कभी-कभी मुझे जाने को मौका मिला -- कभी कोई राजा-महाराजा निमंत्रित कर लिया, तो वे दिखाते हैं ले जाकर कि उनके पिता ने कितने सिंह मारे। मैं चकित होता हूं, सिंह तुम्हारे पिता को मार डालता तो कुछ बहुत आश्चर्य की बात न थी, लेकिन तुम्हारे पिता ने इतने सिंह किसलिए मारे ? दिखावे के लिए। और मारे ऐसे साधनों से, जो | सिंह के पास नहीं हैं । यह कोई खेल हुआ ! बंदूक सिंह के हाथ | में नहीं है, तलवार सिंह के हाथ में नहीं है; अगर मारना ही था, बहादुरी ही सिद्ध करनी थी, तो नंगे हाथ सिंह से लड़े होते । कम से कम उतनी सुविधा सिंह को भी तो दो ! खेल का इतना तो नियम मानो, अगर यह खेल ही है- चलो खेल ही सही । तो एक आदमी नंगा खड़ा है, हाथ में लकड़ी भी नहीं, बचाव का कोई उपाय भी नहीं है, और तुम बंदूक लिए खड़े हो । और खेल खेल रहे हो! उसको भी तो इतनी ही सुविधा दो। फिर खेल हो कम से कम खेल में दोनों के साथ पक्षपात तो नहीं होना चाहिए किसी के साथ। दोनों समतुल हों। और फिर बहादुरी बता रहे हो ? बंदूकें लेकर, वृक्षों पर मचानें बांधकर, हजारों आदमियों का जत्था लेकर एक गरीब सिंह को घेर लिया और मार डाला। एक महाराजा मुझे अपने महल में ले गये। मैंने उनसे कहा,
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तुम्हारे बाप पागल थे? क्या हुआ था ? वह कहने लगे, पागल नहीं, बड़े शिकारी थे। मैंने कहा, मुझे तो लगता है पागल थे। इन गरीब सिंहों ने बिगाड़ा क्या था उनका ? और उन्होंने किया क्या मारकर ? यह प्रदर्शन लगा रखा है ! और जो मारा जिस ढंग से, वह ढंग बिलकुल गैर-जायज है । जाते, लड़ लेते, हाथ से खुली लड़ाई हो जाती, फिर एकाध सिंह को मार लाते, तो सोचते भी कि कोई बात हुई।
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लेकिन, आदमी अन्याय करता है। और सोचता है अपने को आदमी ! पशुओं के जगत में कोई अन्याय नहीं। अगर भूख लगती है, तो सिंह हमला करता है, क्योंकि वही प्रकृति ने उसे भोजन का उपाय दिया। लेकिन भूख न हो, तो हमला नहीं करता । तुम आदमी की जब निंदा करना चाहते हो, तो उससे कहते हो, पशु मत बनो। महावीर कह रहे हैं, पहले पशु बनो! परमात्मा बनना तो बहुत दूर है। तुम आदमी बन गये हो ।
आदमी यानी झूठ। आदमी यानी पाखंड। सभ्यता यानी ऊपर से थोपा गया जबर्दस्ती का आरोपण । भीतर आग जल रही है, ऊपर फूल चिपकाये हुए हैं। भीतर जहर फैल रहा है, ऊपर अमृत की चर्चा हो रही है। भीतर कुछ है, बाहर कुछ। पशु कम से कम वही तो है— जो भीतर है, वही बाहर है। सिंह को तुम कितना ही छेदो, सिंह ही पाओगे। हर पर्त पर सिंह पाओगे । परिधि से लेकर केंद्र तक सिंह ही मिलेगा । आदमी को छेदो, हजार-हजार चीजें पाओगे । आदमी तुम कहीं न पाओगे। प पर कुछ मिलेगा, थोड़े भीतर जाओ, कुछ और मिलेगा, और भीतर जाओ कुछ और मिलेगा । इसीलिए तो लोग अपने भीतर नहीं जाते। क्योंकि भीतर जाकर घबड़ाहट होती है कि यह मैं क्या हूं? लोग अपना दर्शन नहीं करना चाहते। लोग बातें करते हैं आत्मा की, आत्म-दर्शन की, कोई करना नहीं चाहता । क्योंकि अपना दर्शन करने का अर्थ होगा, यह सब जो विक्षिप्तता की अनेक-अनेक पर्तें हैं, यह सब उघड़ेंगी, इन्हें जानना पड़ेगा। इनसे गुजरकर ही तुम कहीं उस तक पहुंच पाओगे, जो तुम्हारा असली स्वरूप है। महावीर कहते हैं, 'पशु-सा निरीह ।' 'वायु- सा निसंग...।' हवा बहती रहती है। लेकिन निसंग | किसी से संग-साथ नहीं बांधती । फूलों के पास से गुजर जाती है, तो भी वहां ठिठककर रह नहीं जाती कि इतना सौरभ है, अब यहीं रुक जाएं। अब यहीं घर बना लें ! शीतल
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