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जिन सूत्र भागः 2
था। लेकिन हैं तो दोनों ही अहंकार।
खोजनेवाला भटक रहा है। कस्तूरी कुंडल बसै। लेकिन मृग है महावीर कहते हैं, ध्यान। ध्यान का अर्थ है कि तम्हें पता चले कि पागल है, दीवाना है, गंध की खोज में भाग रहा है। उसे याद तुम कर्ता ही नहीं हो। न क्रोध के न करुणा के, न लोभ के न दान | ही नहीं। आये भी कैसे याद! आदमी को याद नहीं आती, मृग के। तुम अकर्ता हो, साक्षी हो।।
| को कैसे याद आये! कैसे पता चले कि मेरी ही नाभि में छिपा है 'ध्यान में लीन साधु सब दोषों का परित्याग करता है।' | नाफा कस्तूरी का! वहीं से आ रही है गंध और मुझे पागल किये परित्याग हो जाता है। 'ध्यान ही समस्त अतिचारों का, दोषों का दे रही है। प्रतिक्रमण है।'
जिस आनंद को तुम खोज रहे हो, जिस मुरली की आवाज के झाणणिलीणो साहू, परिचागं कुणइ सव्वदोसाणं। लिए तुम दौड़ रहे हो, वह तुम्हारे भीतर बज रही है। लेकिन तुम तम्हा द झाणमेव हि, सव्वादिचारस्स पडिक्कमणं।। सपनों में खोये हो। बाहर की खोज सपना है। और इसलिए जैसे ध्यान सारभूत है। जो निज को निज-भाव से देखता है। ही तुम्हारे बाहर के सपने टूटते हैं, तुम उदास हो जाते हो। एक 'जो निज-भाव को नहीं छोड़ता और किसी भी पर-भाव को सपने को दूसरे सपने से जल्दी से परिपूरक बना लेते हो। और ग्रहण नहीं करता, तथा जो सबका ज्ञाता-द्रष्टा है, वह परम-तत्व जिस दिन सब सपने हाथ से छूटने लगते हैं उस दिन तुम. मैं ही हैं। आत्मध्यान में लीन साध ऐसा चिंतन करता, ऐसा | आत्महत्या करने की सोचने लगते हो। सत्य को पाये बिना कोई अनुभव करता है।'
जीवन नहीं है। सपनों में सिर्फ आभास है। 'जो निज-भाव को नहीं छोड़ता।' ध्यान का अर्थ है निजता में गो हमसे भागती रही ये तेजगाम उम्र आ जाना; अपने में आ जाना। बाहर से सब नाते छोड़ देना। ख्वाबों के आसरे पे कटी है तमाम उम्र बाहर से सब नाते तोड़ देना। इसके लिए जरूरी नहीं है कि तुम जुल्फों के ख्वाब, होंठों के ख्वाब और बदन के ख्वाब घर से भागो। क्योंकि यह बात तो आंतरिक है। घर से भागना मिराजे-फन के ख्वाब, कमाले-सुखन के ख्वाब भी बाहर से ही जुड़े रहना है। घर तो बाहर है, न पकड़ो, न तहजीबे-जिंदगी के, फरोगे-वतन के ख्वाब भागो। धन तो बाहर है, न पकड़ो, न छोड़ो। सिर्फ एक बात जिंदा के ख्वाब, कूचए-दारो-रसन के ख्वाब स्मरण रखो कि यह मैं नहीं हूं। यह शरीर मैं नहीं। यह घर मैं ये ख्वाब ही तो अपनी जवानी के पास थे नहीं। यह धन मैं नहीं। यह मन मैं नहीं। इतना भर स्मरण रखो। ये ख्वाब ही तो अपनी अमल की असास थे इतना ही याद रहे कि मैं सिर्फ साक्षी है, द्रष्टा हं, देखनेवाला हूं। ये ख्वाब मर गये हैं तो बेरंग है हयात णियभावं ण वि मुच्चइ, परभाव णेव गेहए केइं।
यूं है कि जैसे दस्ते-तहे-संग है हयात जाणदि पस्सदि सव्वं, सोऽहं इदि चिंतए णाणी।।
ये ख्वाब ही तो अपनी जवानी के पास थे पर-भाव को छोड़कर निज-भाव को नहीं छोड़ता। सबका ये ख्वाब ही तो अपने अमल की असास थे ज्ञाता-द्रष्टा हूं, वह परम तत्व मैं ही हूं, ऐसी चिंतन-धारा जिसमें ये अपने सारे जीवन-आचरण की नींव थे—ख्वाब! सपने! सतत बहती रहती है, आत्मध्यान में लीन ज्ञानी ऐसी परम दशा कहीं पा लेने के। को जब उपलब्ध होता है, तो घटता है—असंभव घटता है, ये ख्वाब मर गये हैं तो बेरंग है हयात आनंद घटता है, सच्चिदानंद घटता है। जिसकी हम कल्पना भी | जब ये ख्वाब मरते हैं तो लगता है जीवन रंगहीन हो गया। ' नहीं कर सकते वह भी घटता है। जिसका हमें कभी कोई स्वाद | यूं है कि जैसे दस्ते-तहे-संग है हयात नहीं मिला, यद्यपि हम उसी के लिए तड़फ रहे हैं, उसी के लिए जब ख्वाब मरते हैं, तो ऐसा लगता है जैसे दो चट्टानों के बीच भाग रहे हैं, दौड़ रहे हैं; अनेक-अनेक दिशाओं में उसी को खोज | में हाथ पिचल गया हो। ऐसी जिंदगी पिचल जाती है। बुढ़ापे में रहे हैं जो भीतर विराजमान है; दसों दिशाओं में उसकी खोज कर इसीलिए दुख है। बुढ़ापे का नहीं है, मरे हुए ख्वाबों का। पिचले रहे हैं जो ग्यारहवीं दिशा में बैठा है। खोजनेवाले में बैठा है और | हुए ख्वाबों का है। धूल में गिर गये इंद्रधनुषों का। पैरों में रुंध
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