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________________ पिया का गांव तक कि शुक्ल ध्यान की भी जरूरत न रह जाए तो भी बारह | कोई कहे यहां चली, कोई कहे वहां चली भावनाओं को करते रहना। महावीर कह रहे हैं, जब समाधि भी मैंने कहा पिया के गांव चली रे' उपलब्ध हो जाए तो भी जल्दी मत करना क्योंकि मन के धोखे दूसरों को तो दिखाई भी नहीं पड़ता। इसलिए कोई कहता है, बड़े पुराने हैं। कहां छिपा बैठा हो। कहां अचेतन की किसी गर्त यहां चली, कोई कहता है, वहां चली। कोई कहता है पागल हो | में, गुहा में बैठा हो। कहां भीतर कोई जगह बना ली हो और वहां गई है तरु। कोई कहता है दिमाग फिर गया, दीवानी हो गई। से धीरे-धीरे फिर उपद्रव की शुरुआत कर दे। फिर वहां से कोई कहता है पहले बड़ी बुद्धिमान थी; बुद्धि गंवाई। पहले बड़ी अंकुरित हो जाए। समझदार थी, सब समझ-बूझ खोई। लोकलाज गंवाई। तुमने देखा? घास-पात हम उखाड़कर फेंक देते हैं, मैदान तो कोई तो कुछ कहेगा, कोई कुछ कहेगा। उस समय भीतर साफ हो जाता है। लगता है, सब ठीक हो गया। इतनी जल्दी यह याद रखना ही—'मैंने कहा पिया के गांव चली रे।' क्योंकि मत सोच लेना। बीज पड़े होंगे पिछले वर्ष के। वर्षा आएगी, उस पिया को अगर जरा भी विस्मरण किया तो लोगों की बातें फिर घास-पात पैदा हो जाएगा। माली कहते हैं कि एक साल सार्थक मालूम पड़ सकती हैं। क्योंकि लोग जो कह रहे हैं, वह घास-पात पैदा हो जाए तो बारह साल उखाड़ने में लगते हैं। वही कह रहे हैं, जो तुमने भी अतीत में सोचा होता। तो लोग जो मिल जाते हैं भूमि में, उनका पता भी नहीं चलता। कह रहे हैं उससे मिलते-जुलते भाव कहीं गहन में तुम्हारे भी पड़े और यह आश्चर्य की बात है, यहां अगर फूल बोने हों तो खाद | हैं। जब कोई कहता है किसी को, कि क्या पागल हो गए? तो दो, पानी दो, सम्हालो, तब भी पक्का नहीं कि पैदा होंगे। और उसके कहने का थोड़े ही परिणाम होता है! अगर वह आदमी घास-पात उखाड़ो, हटाओ, जलाओ; फिर वर्षा होती है, न चिंतित हो जाता है तो परिणाम इसलिए होता है कि वह भी खाद की जरूरत, न माली की जरूरत, न सूरज की जरूरतः सोचता है कि पता नहीं, पागल हो ही न गया होऊ! घास-पात फिर पैदा हो जाता है। कल ही मुझे एक पत्र मिला। एक दंपति संन्यास लेकर गए। उतार पर चीजें अपने आप हो जाती हैं, चढ़ाव पर कठिनाई है। भोले लोग हैं, पहाड़ से आए थे। पहाड़ का भोलापन है। दोनों उतार पर आदमी दौड़ता चला जाता है। चढ़ाव पर दौड़ना बड़ी मस्ती में गए। लेकिन जब इतनी मस्ती में गए तो गांव के मुश्किल हो जाता है। चढ़ाव में श्रम है। लोगों ने सोचा कि दिमाग खराब हो गया। और दोनों का तो जो भी ऊर्ध्वगामी यात्राएं हैं, उनमें श्रम है। अधोगामी साथ-साथ हो गया। रिश्तेदारों ने जबर्दस्ती इलाज करवाना शुरू यात्राओं में कोई श्रम नहीं है। ध्यान को सम्हालो, कर दिया। कल मुझे पत्र मिला कि हम अस्पताल में पड़े हैं। हम सम्हाल-सम्हाल छूट-छूट जाता है। काम को दबाओ, हटाओ, हंसते हैं तो लोग कहते हैं, शांत रहो, हंसो मत। हंसने की बात मिटाओ, मिटाते-मिटाते भी उभर आता है। घास-पात की तरह क्या है? इंजेक्शन लगाए जा रहे हैं, ट्रेन्क्विलाइजर दिए जा रहे है। क्रोध को मिटाओ. मिटते-मिटते भी कब उभर पड़ेगा कुछ हैं। हम कहते हैं, हमें तो वैसी ही नींद मस्ती की आ रही है। हम पक्का पता नहीं। करुणा को साधो, साधते-साधते भी कब हाथ तो प्रसन्न हैं, हम नाच-गा रहे हैं, हम कुछ पागल नहीं हैं। से छूट जाएगी कुछ पता नहीं। लेकिन गांव में कोई मानने को तैयार नहीं है। जितना हम इससे यह नतीजा लेना कि जो चीज बिना सम्हाले सम्हल जाती | समझाते हैं कि हम पागल नहीं हैं तो वे कहते हैं, ऐसा तो सभी हो, उससे जरा सावधान रहना। वह घास-पात होने का डर है। पागल कहते हैं। कोई पागल कभी मानता है? तुम चुप रहो। जो सम्हाल-सम्हालकर छूट-छूट जाती हो, उसके लिए परी| हम जानते हैं। चेष्टा करना क्योंकि वहीं खजाना छिपा है। वहीं स्वर्ण-भंडार तो उन्होंने पूछा है, कि अब तो हमें भी शक होने लगा, कहीं है। वहीं जीवन की ऊर्ध्वयात्रा है, उर्ध्वगमन है, तीर्थयात्रा है। यही लोग ठीक न हों। तो अब करना क्या है? 'न जाने किधर आज मेरी नाव चली रे हमारा भी अतीत इन्हीं तर्कों में जीया है। हमारे भी देखने के चली रे चली रे नाव चली रे ढंग जन्मों-जन्मों तक ऐसे ही रहे हैं। तो जब कोई कहने लगा 443 Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001819
Book TitleJina Sutra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages668
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size25 MB
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