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________________ ही अनाक्रामक हो जाता है। जिस दिन परमात्मा ही दिखायी जिसकी पहचान अपने भीतर न थी, जिसकी प्रत्यभिज्ञा भीतर न पड़ने लगता है, आक्रमण करोगे किस पर ? हुई थी, उसे तुम बाहर पहचानते कैसे? बाहर पहचानने की सारी संभावना अंतर्तम में घटती है। पहले वहां । सबसे पहले वहां । हुस्न ही हुस्न है जिस सिम्त भी उठती है नजर कितना पुरकैफ ये मंजर, ये समां है साकी यहां तुम इतने बैठे हो, मुझे एक ही दिखायी पड़ रहा है। रूप होंगे अनेक | बहुत शैलियों में परमात्मा आया है। रंग-ढंग अलग हैं। आकृति अलग है। लेकिन है वही । जैसे सोने को किसी ने बहुत-बहुत आभूषणों में ढाला हो । जैसे कुम्हार ने एक ही मिट्टी से बहुत-बहुत ढंग के बर्तन बनाए हों। उस अरूप को | देखने की क्षमता लेकिन तभी आती है जब तुमने उसे अपने भीतर पालिया हो । हुस्न ही हुस्न है जिस सिम्त भी उठती है नजर — फिर तो जहां आंख उठती है, सौंदर्य ही सौंदर्य है ! इस अस्तित्व में असुंदर तो कुछ हो नहीं सकता। कहीं देखने में भूल हो गयी होगी। इस अस्तित्व में असुंदर के होने का उपाय नहीं है। अस्तित्व सौंदर्य से भरा है, सौंदर्य का सागर है। कितना पुरकैफ ये मंजर इसे स्मरण रखो । कितना आनंद से भरा हुआ है सब... ये समां है साकी । तुम वही देख सकते हो दूसरे में, जो तुमने स्वयं में पहले देख लिया हो। तुम दूसरे में वही देखते रहोगे जो तुम स्वयं में देखते हो। अगर तुम क्रोधी हो, तो दूसरे में तुम्हें क्रोध दिखायी पड़ता रहेगा। अगर तुम दुष्ट हो, तो दूसरे में तुम्हें दुष्टता दिखायी पड़ती रहेगी। अगर तुम हिंसक हो, तो सारा संसार तुम्हें हिंसक | मालूम पड़ता रहेगा। अगर तुम चोर हो, तो तुम हर एक से डरे रहोगे, क्योंकि तुम्हें हर जगह चोर ही दिखायी पड़ेगा । जगत | प्रतिबिंब है तुम्हारा, दर्पण है— तुम्हारी ही छवि बनती है। जैसे ही तुमने स्वयं को जाना — स्वयं की वास्तविकता में, उसकी परिपूर्णता में वैसे ही रूप खो जाते हैं, अरूप का सागर चारों तरफ फैल जाता है। फिर कुछ भी आक्रमण नहीं, क्योंकि आक्रमण करे कौन? करे किस पर ? कौन मारे ? किसे मारे ? फिर तो ऐसा है जैसे अपने ही दोनों हाथ। एक हाथ से दूसरे हाथ को मारने का अर्थ क्या है? तब दूसरा भी स्वयं है । तब तुम दूसरे में भी अपने को फैला हुआ पाते हो। तभी प्रेम घटता है, जब दूसरा मिट जाता है। लेकिन दूसरा तभी मिटेगा जब तुम मिट जाओ। इसलिए सारी यात्रा अपने घर से शुरू होती है। सारी पूजा, सारी प्रार्थना, सारी साधना अपने अंतर्तम से शुरू होती है। एक बार भीतर के सौंदर्य की झलक मिल गयी कि तुम जहां आंख खोलोगे वहीं, वहीं तुम उसे विराजमान पाओगे। तुम चकित होओगे, तुम चमत्कृत होओगे कि इतने दिन तक चूकते कैसे रहे ! इन्हीं रास्तों से गुजरे, यही वृक्ष थे, यही लोग थे, यही पशु-पक्षी थे, यही कोयल रोज गीत गाती रही, यही आंखें थीं, कल भी इनमें झांका था, लेकिन परमात्मा से चूकते क्यों रहे? Jain Education International 2010_03 यात्रा का प्रारंभ अपने ही घर से लेकिन, यह आनंद पहले भीतर स्वाद लेना पड़े। यह आनंद पहले भीतर उठे। यह भीतर से तुम्हारे प्राणों में जगे और तुम्हारी आंखों और कानों और तुम्हारे हाथों में छा जाए। फिर तुम जो छुओगे वही परमात्मा है। अभी तो तुम जो छुओगे वही मिट्टी जाता है। सोना छुओ, मिट्टी हो जाता है। क्योंकि अभी सिवाय वासना के कुछ भी भीतर नहीं है । वासना सोने को छुए, मिट्टी हो जाता है। प्रार्थना मिट्टी को छुए, सोना हो जाती है। तुम्हारे पास आंख चाहिए, दृष्टि चाहिए। तुम्हारे पास भीतर सघन प्रतीति चाहिए। निश्चित ही तब फिर कुछ आक्रमण नहीं रह जाता। इसीलिए तो कृष्ण गीता में अर्जुन को कह सके, कि तू फिकर मत कर ! तू सिर्फ एक उसको याद रख। तू सिर्फ उसक को अपने भीतर विराजमान देख। तू केवल उस एक को पहचान ले जिसका तू उपकरण मात्र है। जो तुझसे अभिव्यक्त हुआ है, बस तू उसको पहचान ले। उसकी शरणागति हो जा। फिर कोई चिंता नहीं। फिर तू युद्ध कर न कर, कुछ भेद नहीं पड़ता। न कोई कभी मारा गया न कभी कोई मारा जा सकता है। अगर कोई मुझसे पूछे, तो कृष्ण ने गीता में जो कहा है, वह महावीर का परिशिष्ट है। अगर महावीर प्रारंभ हैं, तो गीता अंत है। बड़ा मुश्किल होगा यह समझना; क्योंकि जैनों को तो गीता से बड़ा विरोध रहा है; क्योंकि उन्हें तो लगा यह आदमी कृष्ण, हिंसा की तरफ उत्तेजित कर रहा है लोगों को, हिंसा की तरफ भेज रहा है। जैनों को तो ऐसा लगा कि अर्जुन तो भाग जाना चाहता For Private & Personal Use Only 27 www.jainelibrary.org.
SR No.001819
Book TitleJina Sutra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages668
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size25 MB
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