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जिन सत्र भागः2
था, जैन-मुनि होना चाहता था, छोड़ देना चाहता था, यह सब कोई मरता कहां! हिंसा है-और कृष्ण ने इसको भरमाया, भटकाया! तो जैनों ने | अहिंसा पहले कदम पर सिखाती है: मत मारो। क्योंकि तुममें क्षमा नहीं किया कृष्ण को, सातवें नर्क में डाला है। और सब | मारने की बड़ी आकांक्षा है: दूसरे को विनष्ट करने की बड़ी पापी तो छूट जाएंगे; लेकिन कृष्ण अंततः जब यह सृष्टि पूरी | आकांक्षा है। अभी तुम्हें यह तो दिखायी पड़ना संभव न हो समाप्त होगी तब छूटेंगे।
| सकेगा कि दूसरे में परमात्मा है। पहले मारने से रुको, ताकि बात तर्कपूर्ण है: क्योंकि और पापियों ने पाप किये हों, लेकिन परमात्मा दिखायी पड़ जाए। फिर दिखायी पड़ गया परमात्मा, पाप को दर्शन-शास्त्र तो नहीं बनाया। और पापियों ने हिंसा की फिर कृष्ण कहते हैं, अब क्या फिकिर! अब अगर परमात्मा की हो, लेकिन अपराध का भाव तो उनके भीतर था ही कि हम गलत मर्जी हो तो मारो! क्योंकि अब तुम जानते हो कि मारने से भी कर रहे हैं। कृष्ण ने तो गलत को सही है, ऐसा सिद्ध किया। | कोई मरता नहीं। यह अहिंसा का आखिरी कदम हुआ। गलत को दर्शन दिया। गलत को शास्त्र बनाया। तो साधारण | लेकिन, पहले स्वयं के भीतर प्रतीति सघन होनी चाहिए। पापियों को तो ठीक है कि आज नहीं कल उनका दंड पूरा हो | जिसने स्वयं को जाना उसने सबको जान लिया। जो उस एक को जाएगा। इस आदमी को कितना दंड दें? इसने तो अपराध का | जानने से चूक गया, वह सब जानने से चूक गया। भाव ही हटा दिया। अपराध का भाव हो तो आदमी रूपांतरित पछा है, 'कल आपने कहा आंख आक्रामक होती है....।' होता है। हिंसा हो गयी, दुखी होता है; पश्चात्ताप करता है; आंख क्या आक्रामक होगी? तुम आक्रामक हो, इसलिए व्रत-नियम लेता है। अपने कर्मों को धोने-पोंछने की, निर्जरा की आंख भी आक्रामक हो जाती है। यह तो पहला पाठ तुम्हें दिया चिंता करता है; शुभ कर्म करता है कि अशुभ हो गया है, अब कि आंख की बजाय तुम कान की तरफ झुको। इसको तुम इसको किसी तरह तराजू को बराबर करो, संतुलन करो; जीवन शाब्दिक अर्थों में मत लेना। इसका कुल इतना ही प्रतीक-अर्थ है में हिसाब की व्यवस्था बिठाता है: आज गलती हो गयी कलन | कि तुम सक्रियता से निष्क्रियता की तरफ झुको; करने की बजाय हो, इसका निर्णय लेता है।
| न करने की तरफ झको: बाहर दौडने की बजाय भीतर उतरो: | कष्ण ने तो समझा दिया की गलती है ही नहीं. हो ही नहीं परुष न होकर स्त्री बनो. ग्राहक बनो. आक्रामक नहीं। तम सकती। 'न हन्यते हन्यमाने शरीरे।' मारने से भी कहीं शरीर | इससे यह मतलब मत समझ लेना कि आंखें फोड़ लो, कि आंखें मरता है? न आग में जलाने से जलता, न शस्त्रों से छेदने से | बंद कर लो, कि अब तो कान से ही जीएंगे। छिदता। 'नैनं छिंदंति शस्त्राणि, नैनं दहति पावकः।' यह तो केवल प्रतीक था। कान के लिए जो मैंने समझाया, वह
तो यह तो हिंसा के लिए है। इससे बड़ा और प्रबल समर्थन तो केवल प्रतीक था। अगर तुम्हारी समझ में आ जाए तो फिर क्या होगा? ऐसा जैनों ने समझा। चूक गये! क्योंकि वे महावीर तुम्हारी आंख भी कान-जैसी ही हो जाएगी; तुम्हारे हाथ भी को भी नहीं समझे, तो कृष्ण को कैसे समझेंगे? महावीर को कान-जैसे हो जाएंगे। यह तो इंद्रियां हैं। तुम्हारे हाथ में मैं समझा होता, तो कृष्ण महावीर का ही अंतिम चरण हैं; महावीर तलवार दे दूं; तलवार थोड़े ही कुछ करती है, तुम पर निर्भर है। ने जो कहा, उसकी ही निष्पत्ति हैं, उसका ही परम रूप हैं। तुम चाहो तो किसी स्त्री के साथ बलात्कार कर सकते हो इस
महावीर ने कहा, मत मारो, क्योंकि दूसरे में भी तुम्हारे जैसी ही तलवार के कारण; और तुम चाहो तो कोई किसी स्त्री के साथ चेतना विराजमान है। यह पहला कदम हुआ शिक्षा काः मत बलात्कार करने जा रहा हो, तो तुम उस तलवार के कारण मारो, क्योंकि दूसरे में भी तुम्हारे जैसी ही चेतना विराजमान है। बलात्कार को रोक सकते हो। तलवार क्या करेगी! मैंने तुम्हें जब तुम इसमें निष्णात हो गये, तब दूसरा कदम उठता है, | माचिस दे दी; तुम चाहो तो दीया जला लो, अंधेरे में रोशनी हो आखिरी शिक्षा आती है, चरम शिक्षा आती है, कि अब अगर जाए। तुम्हारे रास्ते पर ही नहीं, दूसरों के रास्ते पर दीया जला तुम मारना चाहो, तो मारो, लेकिन तुम मारनेवाले मत बनना। दो; उनके रास्ते पर भी रोशनी हो जाए। और तुम चाहो तो घर में अगर परमात्मा की मर्जी हो तो तुम निमित्त हो जाओ। क्योंकि आग लगा दो किसी के। माचिस में थोड़े ही कछ है। माचिस ने
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