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________________ त्रिगुप्ति और मुक्ति नहीं सकता...। वह निकलकर बाहर आ गया। उसने कहा, कर रहे हैं। हालांकि जो वे अर्थ कर रहे हैं वह मेरे अर्थ में तूने समझा क्या है? मैं इधर घर में बैठा हूं। ध्यान कर रहा हूं, समाविष्ट हो जाता है, लेकिन उनके अर्थ में मेरा अर्थ समाविष्ट तुझे पता है। झूठ बोल रही है सरासर! नहीं होता। उसकी पत्नी ने कहा, अब तुम ईमान से कह दो। कम से कम | जो व्यक्ति जागरूकता से जीएगा वह स्वभावतः देखकर तुम्हारे गुरु की मौजूदगी में ईमान से कह दो, कि तुम नहीं चमार | चलेगा कि किसी कीड़े-मकोड़े पर पैर न पड़ जाए। इसके लिए की दुकान पर थे? जूते नहीं खरीद रहे थे? देखकर चलने की अलग से जरूरत न रहेगी, जागकर चलना वह थोड़ा चौंका। और गुरु सामने खड़ा था, एकदम झूठ बोल | काफी है। वह तो नींद में ही, बेहोशी में ही चलते हो इसलिए भी न सका। गुरु ने कहा, क्या मामला क्या है? | ऐसी भूल हो जाती है। उसने कहा, यह बात तो ठीक कह रही है मगर इसको पता कैसे | जो आदमी जागकर जी रहा है उसके सारे जीवन की प्रक्रियाओं चला? क्योंकि जूते फट गए हैं मेरे, तो मैं ध्यान तो कर रहा था, | में जागरण का प्रकाश पड़ने लगेगा। उसके जीवन से हिंसा लेकिन खयाल बाजार का था। और मैं जरूर पहुंच गया था | समाप्त हो जाएगी। जिसके भीतर तनाव नहीं, उसके बाहर हिंसा चमार की दुकान पर। झगड़ा मच गया था, क्योंकि दाम वह | समाप्त हो जाती है। जिसके भीतर संघर्ष नहीं, उसके बाहर बहुत ज्यादा बता रहा था। मोल-भाव कर रहा था। मगर इसको संघर्ष समाप्त हो जाता है। बाहर तो हम लड़ते इसीलिए हैं कि पता कैसे चला? भीतर लड़ रहे हैं। बाहर तो हमारे जीवन में धुआं इसीलिए अब यह तो किसी को भी पता नहीं कि स्त्रियों को पता कैसे दिखाई पड़ता है कि भीतर हम जल रहे हैं। चलता है, मगर चल जाता है। छिपा नहीं सकते स्त्रियों से कुछ। बाहर के बदलने से कछ भी न होगा, भीतर की बदलाहट होगी पता चल ही जाता है। तो बाहर की बदलाहट अपने से हो जाती है। अंतस बदला तो तो तुम जब ध्यान कर रहे हो, तब ध्यान ही हो। मगर यह तभी आचरण अपने से बदल जाता है। हो पाएगा जब तुम और काम भी ध्यानपूर्वक ही करने लगो। तो मेरी दृष्टि में महावीर के सूत्र का अर्थ हुआः अंतस में दीया चलो तो सिर्फ चलो। भोजन करो तो सिर्फ भोजन करो। बिस्तर | जला रहे। पर लेटो तो बस फिर लेट ही जाओ। फिर मन न दौड़ता रहे | तुम जरा कोशिश करो। बहुत कठिन मामला है। जैन मुनि जो हजार जगह! नहीं तो लेटने की क्या जरूरत? दौड़ते ही रहो। | कहता है वह सरल है; इसलिए दो कौड़ी का है। वह तो कोई भी लोग लेट जाते हैं बिस्तर पर, फिर कहते हैं नींद नहीं आती। | अभ्यास कर ले सकता है। उसका कोई बहुत मतलब नहीं है। नींद न आने का कुल कारण इतना है कि तुम लेटते ही नहीं। पानी छानकर पी लेने का कोई बहुत मतलब नहीं है। मैं यह शरीर तो पड़ा है बिस्तर पर लाश की भांति; मन भाग रहा है नहीं कह रहा कि पानी छानकर मत पीना। लेकिन यह मत समझ दूर-दूर लोकों में; न मालूम कहां-कहां की योजनाओं में। लेना कि पानी छानकर पी लिया तो मोक्ष कु जब मन भागा हुआ है तो नींद नहीं घट सकती। विश्राम तो ठीक किया। हाइजनिक है, स्वास्थ्यवर्धक है। पानी छानकर तभी संभव है जब मन और शरीर तालमेल करते हैं। मन कहीं पीया तो वैज्ञानिक दृष्टि से ठीक काम किया। लेकिन इससे कुछ जा रहा है, शरीर बिस्तर पर पड़ा है। दोनों में इतना खिंचाव है, मुक्ति करीब आ रही है ऐसा मत सोच लेना। जमीन बुहारकर तनाव है, नींद संभव नहीं है। | बैठे, ठीक किया। जो करने योग्य था वह किया। लेकिन इससे साधु ही सोता है। साधु ही सो सकता है। क्योंकि साधु ही कुछ अतिमानवीय रोशनी का जन्म नहीं हो जाएगा। इससे कुछ जगता है। जब जगता है तो बस जगता है। जब सोता है तो बस परमात्मा तुममें नहीं उतर आएगा। सोता है। इतने सस्ते में तुम परमात्मा को लाना चाहते हो तो तुम जरा महावीर का जो वचन है, विवेक, जागरूकता, अप्रमाद, जरूरत से ज्यादा मांग रहे हो। तम कहते हो. हम रोज बहारी यतनाचार, जतनपूर्वक जीना-उसका अर्थ जैन मुनि बड़ा क्षुद्र लगाकर बैठे, रोज पानी छानकर पीया, मोक्ष कहां है? लेकिन 1601 Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001819
Book TitleJina Sutra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages668
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size25 MB
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