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________________ त्वरा से जीना ध्यान हे Bimal तुम थोड़ा सोचो, अगर तुम्हें स्वर्ग भी किसी तरकीब | मतलब, जो तिथि बिना बताये आता है। अतिथि शब्द बड़ा से-पीछे के रास्ते से सही, रिश्वत के द्वारा, कोई तरकीब अदभुत है। 'गेस्ट' शब्द में वह बात नहीं है। 'मेहमान' में से-पहंचा भी दिया जाए, तो स्वर्ग तुम भोग सकोगे? तुम नर्क वह बात नहीं है। अब हमें अतिथि तो कहना ही नहीं चाहिए, बना ही लोगे। तुम्हारा नर्क तुम अपने भीतर लिये चलते हो। क्योंकि अब तो सभी तिथि बताकर आते हैं। पहले ही तुम जानते सब बात हो, चिट्ठी-तार करके आते हैं कि आ रहे हैं। अब कोई अतिथि नहीं दिन हो कि आधी रात हो, रहा। अतिथि का मतलब, जो अचानक आ जाए। अकस्मात! मैं जागता रहता कि कब तुम्हें ख्याल भी न था। सपने में झलक न थी, और आ जाए। मंजीर की आहट मिले, परमात्मा अतिथि है। जागे रहना है। कब आ जाएगा, पता मेरे कमल-वन में उदय नहीं। किस क्षण तुम्हारी अंतरंग-वीणा उसकी वीणा के साथ किस काल पुण्य प्रभात हो; बजने लगेगी, किस क्षण तुम नाचने लगोगे उसके साथ, किस किस लग्न में हो जाए कब क्षण उसके हाथ में हाथ आ जाएगा, कछ पक्का नहीं है। इसकी जाने कृपा भगवान की! कोई घोषणा नहीं हो सकती। एक ही उपाय है कि हम जागते ध्यान का केवल इतना ही अर्थ है-जागते रहना। सतत रहें। हम एक क्षण भी न गंवायें। वह कभी भी आये, हमें जागा जागते रहना। भीतर अंधेरा न हो, निद्रा न हो। पाये। वह कभी भी आये, हमें स्वागत के लिए तैयार पाये। तुम जानते सब बात हो, जागो हे अविनाशी! दिन हो कि आधी रात हो, जागो किरण-पुरुष, कुमुदासन, मैं जागता रहता कि कब विधुमंडल के वासी, मंजीर की आहट मिले, जागो, हे अविनाशी! कौन जाने कब परमात्मा पुकार दे! कौन जाने किस क्षण रत्नजड़ित पथचारी जागो, अस्तित्व बरस उठे! कौन जाने किस क्षण आकाश टूटे! उडु, वन, वीथि-बिहारी जागो, तुम जानते सब बात हो, जागो रसिक विराग लोक के, दिन हो कि आधी रात हो, मधुबन के संन्यासी, मैं जागता रहता कि कब जागो, हे अविनाशी! मंजीर की आहट मिले, जागने की कला का नाम ध्यान है। सोये रहना-संसारी; मेरे कमल-वन में उदय जागे रहना–संन्यासी। भीतर की घटना है। उठो-बैठो, किस काल पुण्य प्रभात हो; चलो-फिरो, जागरण न खोये। किस लग्न में हो जाए कब जागो, हे अविनाशी! जाने कृपा भगवान की! । जागो, मधुबन के संन्यासी!! जीसस की कहानी। एक धनी तीर्थयात्रा को गया। उसने जागो, हे अविनाशी!!! अपने नौकरों को कहा कि तुम जागे रहना, मैं कभी भी वापिस आ सकता हूं। घर लापरवाही में न मिले। तुम मुझे सोये न आज इतना ही। मिलो। तुम जागे रहना। मेरे आने की तिथि तय नहीं है। मैं कल आ सकता, मैं परसों आ सकता, मैं महीनेभर बाद आऊं, मैं सालभर बाद आऊं। पुराने शास्त्र परमात्मा को अतिथि कहते हैं। अतिथि का 301 ___Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001819
Book TitleJina Sutra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages668
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size25 MB
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