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पंडितमरण सुमरण है
हूं। मैं चलकर जाऊंगा मरघट। बहुत हो गया यह दूसरों के कंधों ही है, उससे भय भी व्यर्थ है। धैर्यवान को भी मरना है, वीर पर जाना। जबर्दस्ती मैं न जाऊंगा। कहते हैं, मनुष्य जाति का पुरुष को भी मरना है, साहसी को भी मरना है, कापुरुष को भी पहला आदमी! उस आदमी का नाम था बोकोजू। यह झेन मरना है, कायर को भी मरना है। मरण अवश्यंभावी है। फकीर चलकर गया। कब्र खोदने में भी उसने हाथ बंटाया, फिर तो फिर धीरतापूर्वक मरना ही उचित है। तो फिर शान से मरना लेट गया और मर गया।
| ही उचित है। जब जो होना ही है तो उसे प्रसादपूर्वक करना उचित यह तो कुछ बात हुई। यह इस आदमी ने जीवन का उपयोग है। जो होना ही है उसे शृंगारपूर्वक करना उचित है। जो होना ही नाव की तरह कर लिया। खेकर गया उस पार। लेकिन इसके है, उसे समारोहपूर्वक करना उचित है। जब मरना ही है तो फिर लिए तो बड़ी प्राथमिक, प्रथम से ही तैयारी करनी होगी। इसके रोते, झीकते, चीखते-चिल्लाते अशोभन ढंग से क्यों मरना! लिए तो पूरे जीवन ही आयोजना करनी होगी। मृत्यु से मिलन के आदमी के हाथ में इतना ही है-मरने से बचना तो नहीं | लिए पूरे जीवन धीरे-धीरे मरना सीखना होगा।
है—आदमी के हाथ में इतना ही है, वह कापुरुष की तरह मरे या जीवन-धर्म की दृष्टि में मरने की कला को सीखने का | एक साहसी व्यक्ति की तरह मरे, धीरपुरुष की तरह मरे। चुनाव अवसर है।
मृत्यु और न-मृत्यु में तो है ही नहीं। चुनाव तो इतना ही हमारे 'निश्चय ही धैर्यवान को भी मरना है और कापरुष को भी हाथ में है कि शान से मरें कि रोते मरें। आंसओं से भरे मरें या मरना है। जब मरण अवश्यंभावी है तब फिर धीरतापूर्वक मरना गीतों से भरे मरें। उठकर मौत को आलिंगन कर लें या ही उत्तम है।'
चीखें-चिल्लाएं, भागें; और मृत्यु के द्वारा घसीटे जाएं। धीरेण वि मरियव्वं, काउरिसेण वि अवस्समरियव्वं।
महावीर कहते हैं, विकल्प तो यहां है-मौत को स्वीकार तम्हा अवस्समरणे, वरं खुधीरत्तणे मरिउं।।
करके मरें या अस्वीकार करते हुए मरें। और जब मरना ही है, और जब मरना सुनिश्चित ही है, कहावत है, वीर पुरुष एक बार मरता है। कायर अनेक बार। अवश्यंभावी है, टलने की कोई सुविधा नहीं है, कभी टला नहीं ठीक है कहावत। क्योंकि जितनी बार भयभीत होता है, उतनी है; हालांकि आदमी अपने अज्ञान में ऐसा मानता है कि किसी बार ही मौत घटती है। वीर पुरुष एक बार मरता। अगर मुझसे और का न टला होगा, मैं टाल लूंगा। आदमी की मूढ़ता की कोई पूछो तो कहावत बिलकुल ठीक, पूरी-पूरी ठीक नहीं है। वीर सीमा है।
| पुरुष मरता ही नहीं। कापुरुष बार-बार मरता, क्योंकि जिसने जो कभी नहीं हुआ, आदमी उसको भी मानता है कि कोई मरण को स्वीकार कर लिया उसकी मृत्यु कहां? मृत्यु तो हमारे तरकीब निकल आएगी, मेरे लिए हो जाएगा। आदमी का अस्वीकार के कारण घटती है। वह तो हमारे इनकार के कारण अहंकार ऐसा मदांध है कि यह बात मान लेता है कि मैं अपवाद घटती है। वह तो हम घसीटे जाते हैं इसलिए घटती है। हूं। और कोई मरता है, सदा कोई और मरता है। मैं तो मरता यह बोकोजू जो चल पड़ा जूते पहनकर मरघट की तरफ, यह नहीं। इसलिए मानने में सुविधा भी हो जाती है। जब भी अर्थी मरा? इसको कैसे मारोगे? इससे मौत हार गई। . तुमने देखी, किसी और की निकलते देखी है। और जब भी धैर्यवान को भी मरना, कापुरुष को भी। जब मरण ताबूत सजा, किसी और का सजा। चिता जली, किसी और की अवश्यंभावी है...।' महावीर का तर्क सीधा है: '...तो फिर जली है। तुम तो सदा देखनेवाले रहे। इसलिए लगता भी है कि धीरतापूर्वक मरना उचित है।' शायद कोई रास्ता निकल आएगा। मौत मेरी नहीं। मझे नहीं धीरतापर्वक मरने का क्या अर्थ होता है? धीरतापर्वक मरने घटती, औरों को घटती है। ये और सब मरणधर्मा हैं। मैं कुछ का अर्थ होता है, मृत्यु के भय लिए जरा भी अवसर न देना। अलग, अछूता, नियम के बाहर हूं।
मृत्यु कंपाए न। धीरपुरुष ऐसा है, जैसे निष्कंप जल। झील महावीर कहते हैं मृत्यु अवश्यंभावी है; निरपवाद घटेगी। फिर | शांत। निष्कंप दीये की ज्योति। हवा के कोई झोंके नहीं आते। जो होना ही है, उससे बचने की आकांक्षा व्यर्थ है। फिर जो होना धीरपुरुष की वही परिभाषा है, जो गीता के स्थितप्रज्ञ की।
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