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________________ जिन सत्र भाग: 2 RANA - महावीर कहते हैं, महर्षिजन शरीर को नाव बनाकर, जन्म के थोड़े ही घटती है। इंच-इंच आती है. रत्ती-रत्ती आती है। किनारे को चेष्टापूर्वक छोड़ते हुए, मृत्यु के किनारे को अपने आप | रोज-रोज मरते हो, तब सत्तर साल में मर पाते हो। बूंद-बूंद उपलब्ध हो जाते हैं। वे खींचे-घसीटे नहीं जाते। उनके साथ | मरते हो तब सत्तर साल में मर पाते हो। यह जीवन का घड़ा जबर्दस्ती नहीं की जाती, वे स्वेच्छा से संक्रमण करते हैं। बूंद-बूंद रिक्त होता है, तब एक दिन पूरा खाली हो पाता है। इसका अर्थ हुआ, ऐसे जीयो कि तुम्हारा जीना मृत्यु के विपरीत ऐसा थोड़े ही कि एक दिन आदमी अचानक जिंदा था और एक न हो। ऐसे जीयो कि तुम्हारे जीवन में भी मृत्यु का स्वाद हो। दिन अचानक मर गया! सांझ सोए तो पूरे जिंदा थे, सुबह मरे ऐसे जीयो कि जीवन का लगाव ही तुम्हारे मन को पूरा न घेर ले, अपने को पाया; ऐसा नहीं होता। जीवन का विराग भी जगा रहे। जन्म के बाद ही मरना शुरू हो जाता है। इधर जन्मे, ली भीतर विजय आनंद एक फिल्म बनाता था। कहानी में नायक के | श्वास कि बाहर-श्वास लेने की तैयारी हो गई। फिर जन्म से मरने की घड़ी आती। नायक गिर-गिर पड़ता है, मरता है, निरंतर जीवन और मरण साथ-साथ चलते हैं। समझो कि जैसे लेकिन विजय आनंद का मन नहीं भरता। तो आखिर में वह दोनों तुम्हारे दो पैर हैं; या पक्षी के दो पंख हैं। न पक्षी उड़ सकेगा झल्लाकर, चिल्लाकर नायक से कहता है, अपने मरने में जरा दो पंखों के बिना, न तुम चल सकोगे दो पैरों के बिना। और जान डालिए। जन्म और मृत्यु जीवन के दो पैर हैं, दो पंख हैं। मैंने सुना तो मुझे लगा, यह सूत्र तो महत्वपूर्ण है। जरा उलटा तुम एक पर ही जोर मत दो। इसीलिए तो लंगड़ा रहे हो। तुमने कर लो। विजय आनंद ने कहा, अपने मरने में जरा और जान जिंदगी को लंगड़ी दौड़ बना लिया है। एक पैर को तुम ऐसा डालिए। मैं तुमसे कहता है, अपने जीवन में थोड़ी और मृत्यु | इनकार किए हो कि स्वीकार ही नहीं करते कि मेरा है। कोई डालिए। मृत्यु से घबड़ाइए मत। मृत्यु को काट-काट अलग बताए तो तुम देखना भी नहीं चाहते। कोई तुमसे कहे कि मरना मत करिए। रोज-रोज मरिए, क्षण-क्षण मरिए, प्रतिक्षण। पड़ेगा तो तुम नाराज हो जाते हो। तुम समझते हो यह आदमी जैसे हम श्वास लेते हैं और प्रतिक्षण श्वास छोड़ते हैं। भीतर | दश्मन है। कोई कहे कि मत्य आ रही है तो तम इस बात को जाती श्वास जीवन का प्रतीक है। बाहर जाती श्वास मृत्यु का स्वागत से स्वीकार नहीं करते। न भी कुछ कहो तो भी इतना तो प्रतीक है। जब बच्चा पैदा होता है, तो पहली श्वास भीतर लेता मान लेते हो कि यह आदमी अशिष्ट है। मौत भी कोई बात करने है, क्योंकि जीवन का प्रवेश होता है। जब आदमी मरता, तो की बात है? मौत की कोई बात करता है? । आखिरी श्वास बाहर छोड़ता, क्योंकि जीवन बाहर जाता। इसलिए तो हम कब्रिस्तान को गांव के बाहर बनाते हैं, ताकि भीतर आती श्वास नाव में बैठना है, बाहर जाती श्वास नाव से | वह दिखाई न पड़े। मेरा बस चले तो गांव के ठीक बीच में होना उतरना है। प्रतिपल घट रहा है। जब तुम भीतर श्वास लेते हो तो चाहिए। सारे गांव को पता चलना चाहिए एक आदमी मरे तो। जीवन। जब तुम बाहर श्वास लेते हो तो मृत्यु। पूरे गांव को पता चलना चाहिए। चिता बीच में जलनी चाहिए ऐसा ही काश! तुम्हारे मन के क्षितिज पर भी उभरता रहे। | ताकि हर एक के मन पर चोट पड़ती रहे। ऐसा क्यों बाहर प्रतिक्षण तुम मरो और जीयो। और प्रतिक्षण जन्म और मृत्यु | छिपाया हुआ गांव से बिलकुल दूर? जिनको जाना ही पड़ता है घटते रहें, और तुम किसी को भी पकड़ो न। और तुम दोनों में मजबूरी में, वही जाते हैं। जो भी जाते हैं, वे भी चार आदमी के संतरण करो और सरलता से बहो, तो एक दिन जब विराट मृत्यु कंधों पर चढ़कर जाते हैं, अपने पैर से नहीं जाते। आएगी, तुम अपने को तैयार पाओगे। तो तुम नाव में रहे। तो एक झेन फकीर मर रहा था। मरते वक्त एकदम उठकर बैठ तुमने शरीर का नाव की तरह उपयोग कर लिया। गया और उसने अपने शिष्यों से कहा कि मेरे जूते कहां हैं? ध्यान रहे, प्रतिपल कुछ मर रहा है। ऐसा मत सोचना, जैसा उन्होंने कहा, क्या मतलब है? जूते का क्या करियेगा? लोग सोचते हैं कि सत्तर साल के बाद एक दिन आदमी अचानक चिकित्सक तो कहते हैं, आप आखिरी क्षण में हैं और आप ने भी मर जाता है। यह भी कोई गणित हुआ? मृत्यु कोई आकस्मिक | कहा, यह आखिरी दिन है। उसने कहा, इसीलिए तो जूते मांगता 1550 Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001819
Book TitleJina Sutra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages668
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size25 MB
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