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________________ जिन सूत्र भाग: 2 कोई एकाध व्यक्ति ब्रह्मचर्य को उपलब्ध हो पाता है । यह बात हो ? क्या ऐसी भी कोई सीमा आती है, जहां कि मैं भूल जाऊं कठिन है। कि मैं साक्षी हूं और कर्ता हो जाऊं ? मैं यह कह रहा हूं कि कामवासना दूसरों का भोजन है, भविष्य का भोजन है, आनेवाली पीढ़ियों का भोजन है। इसीलिए कामवासना का इतना प्रबल प्रभाव है। तुम्हारे बच्चे तुमसे आने को रहे हैं। इसलिए तुम लाख चेष्टा करो ब्रह्मचर्य साधने की, उनके प्राण संकट में पड़े हैं। वे धक्के मारेंगे। वे तुम्हारे नियम तोड़ेंगे, तुम्हारी प्रतिज्ञा का खंडन करेंगे और जन्म लेने की आतुरता प्रगट करेंगे। तड़फ तुम्हारे भीतर कामवासना उठती है तो वह भी तुम्हारी नहीं है। वह भी आनेवाले जन्मों का, आनेवाले जीवनों का आकर्षण है, खिंचाव है। तुमसे आनेवाले जीवन कह रहे हैं कि अपना काम पूरा करो। इसके पहले कि तुम विदा हो जाओ, तुम माध्यम बनो। जीवन की शृंखला जारी रहे। 1 तो 'एक' तो कामवासना का आदमी पर बड़ा प्रभाव है। लेकिन वह इतना बड़ा प्रभाव नहीं है कि आदमी ब्रह्मचर्य से न रह सके। क्योंकि दूसरे का जीवन संकट में पड़ता है, तुम्हारा तो पड़ता नहीं। तुम तो हो । तुम्हारा तो पड़ता - तुम्हारे मां बाप, उनके मां बाप अगर ब्रह्मचर्य का नियम लेते। तुम तो हो गए। तुम तो हो । तुम्हारा तो अब कोई संकट में पड़ने का कोई कारण नहीं है। दूसरी महत्वपूर्ण वासना है भोजन की । वह कामवासना से ज्यादा गहरी है, क्योंकि उससे तुम्हारा ही जीवन संकट में पड़ता है। कामवासना से कोई होनेवाले लोग, जिनका हमें कोई पता नहीं है, न होंगे। क्या लेना-देना है ? लेकिन भोजन छोड़ने से तुम नहीं हो जाओगे । तो महावीर ने उपवास को बड़ा गहरा प्रयोग बनाया । जैसे-जैसे भूख बढ़ती जाती है, तुम्हारा जीवन संकट में पड़ता है, वैसे-वैसे तुम्हारे भीतर होश की क्षमता क्षीण होती जाती है। भूखा क्या न करता ? मनोवैज्ञानिक कहते हैं, भूख सब पापों की जड़ है। शायद सच | कहते हैं। जब तक भूख न मिटे, दुनिया से शायद पाप मिट भी न सकेंगे। भूखा कुछ भी कर सकता है। और भूखा कुछ करे तो क्षम्य भी मालूम पड़ता है। महावीर ने गहरे उपवास किए। सिर्फ एक बात जानने के लिए कि क्या ऐसी भी कोई सीमा है भूख की, जहां मेरा होश खो जाता 372 Jain Education International 2010_03 इस गहरे परीक्षण के लिए उपवास । उपवास आत्मदमन नहीं है महावीर का ध्यान का एक गहन प्रयोग है। उपवास शब्द में भी वह बात छिपी है। इसलिए महावीर ने उपवास को अनशन नहीं कहा, भूखा रहना नहीं कहा, उपवास कहा। उपवास का अर्थ होता है : अपने निकट होना। अपने निकट वास । उपवास का अर्थ होता है: आत्मा के पास होना । उपवास का अर्थ होता है, कर्ता से हटना, साक्षी की तरफ धीरे-धीरे सरकना । तो तुम कुछ भी करो, उस करने में अगर साक्षीभाव बना रहे तो धीरे-धीरे कर्ता से मुक्ति हो जाती है। और कर्ता से मुक्ति होते ही सारे कर्मों का जाल, अनंत जन्मों का, एक क्षण में भस्मीभूत हो जाता है। यह महावीर की बड़ी अनूठी उदघोषणा है। इस उदघोषणा में ही मनुष्य की संभावना है। अगर ऐसा नहीं होता तो फिर मोक्ष की कोई संभावना मानी नहीं जा सकती। अगर हम कर्म से ही छूटकर मुक्त हो सकेंगे तो फिर हम कर्म से कभी छूट नहीं सकते। कर्ता से छूटने से अगर मुक्ति होती हो तो मुक्ति संभव है। इसे खयाल में रख लेना । यही गीता का भी आत्यंतिक संदेश है कि अर्जुन, तू कर्ता न रह जा। बड़े दूसरे मार्ग से कृष्ण इसी निष्पत्ति पर पहुंचते हैं कि अर्जुन, तू कर्ता न रह जा । तू कर्म की फिक्र छोड़। कर्म तो होता रहा, होता रहेगा। तू ऐसा भाव छोड़ दे कि मैं कर रहा हूं। महावीर की और गीता की भाषा बड़ी विपरीत है। इसलिए यह समझना भी जरूरी है कि कभी-कभी विपरीत भाषाओं से भी एक ही सत्य की उदघोषणा होती है। भाषा में मत उलझ जाना। जैन गीता को पढ़ते भी नहीं। जैनों के लिए गीता में कुछ सार भी नहीं मालूम होता । सार तो दूर, खतरनाक मालूम होती है, हिंसात्मक मालूम होती है। हिंदुओं ने महावीर का उल्लेख ही नहीं किया अपने शास्त्रों में । इतना जीवंत व्यक्ति इस भूमि पर चला, हिंदू शास्त्रों में उल्लेख भी नहीं है। इससे गहरी और निंदा और विरोध क्या हो सकता था? जैनों ने तो फिर भी कम से कम थोड़ी भलमनसाहत की । कृष्ण का उल्लेख तो किया। माना कि नर्क में डाला, माना कि For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001819
Book TitleJina Sutra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages668
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size25 MB
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