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जिन सूत्र भाग : 2
महातरंग से जूझने के योग्य हो जाओगे। फिर तुम्हें वह तरंग तैयार रहोगे, अन्यथा विचलित हो जाओगे। मिटा न पाएगी। जिसने धीर की अवस्था पा ली, उसे फिर कुछ अनेक लोग ऐसा सोचते हैं कि मृत्यु के क्षण में सम्हाल भी नहीं मिटा पाता है।
लेंगे-अभी क्या जल्दी है ? अनेक लोग ऐसा सोचते हैं कि ले इसे महावीर एक बड़ा अनूठा शब्द देते हैं। वह उन्हीं ने दिया लेंगे राम का नाम मरते क्षण में। मगर तुम ले न पाओगे। अगर है। इसे वे कहते हैं : पंडितमरण। यह बड़ा प्यारा शब्द है। तुम्हारे पूरे जीवन पर राम का नाम नहीं लिखा है, तो मृत्यु के क्षण
‘एक पंडितमरण-ज्ञानपूर्वक, बोधपूर्वक मरण-सैकड़ों में भी तम ले न पाओगे। अगर पूरे जीवन काम-काम-काम जन्मों का नाश कर देता है। अतः इस तरह मरना चाहिए, जिससे चलता रहा तो मरते वक्त राम नहीं चल सकेगा। क्योंकि मरते मरण सुमरण हो जाए।'
| वक्त तो सारे जीवन का जो सार-निचोड़ है वही गूंजेगा। अगर हम तो जीवन तक को व्यर्थ कर लेते हैं। महावीर कहते हैं. जिंदगीभर धन ही धन गिनते रहे तो मरते वक्त तम रुपये गिनते मृत्यु को भी सार्थक किया जा सकता है। इस तरह मरो कि मृत्यु ही मरोगे। मन में गिनते मरोगे। सोचते मरोगे कि क्या होगा, भी, मरण भी सुमरण हो जाए। पंडितमरण इसे उन्होंने नाम दिया इतनी संपत्ति इकट्ठी कर ली है। अब क्या होगा, क्या नहीं होगा।
महावीर ने जितना चिंतन मृत्यु पर किया है उतना शायद किसी एक आदमी मर रहा था। उसने अपनी पत्नी से पूछा कि मेरा मनीषी ने नहीं किया। इसलिए महावीर ने कुछ बातें कहीं हैं, जो बड़ा बेटा कहां है? उसने कहा कि आप घबड़ाएं मत, वह किसी ने भी नहीं कहीं। उन्हें हम धीरे-धीरे समझें, समझ आपके पैर के पास बैठा है। उसने कहा, और मंझला? कहा, पाएंगे। पहली बात, उन्होंने मृत्यु में एक भेद कियाः वह भी पास बैठा है, आप विश्राम करें। और उसने कहा, सबसे पंडितमरण। मरते तो सभी हैं। प्रज्ञापूर्वक मरना। पंडित शब्द छोटा? उसने कहा कि वह तो आपके दायें हाथ पर बैठा हुआ बनता है प्रज्ञा से-जिसकी प्रज्ञा जाग्रत हुई। जो देखता है; है। वह आदमी हाथ के घुटने टेककर उठने लगा। पत्नी ने कहा, होशपूर्वक है। ऐसे ही सोए-सोए नहीं मर जाता, जागा-जागा आप यह क्या कर रहे हैं? कहां जा रहे हैं उठकर? उसने कहा, मरता है। जो मृत्यु का स्वागत नींद में नहीं करता, होश के दीये कहीं जा नहीं रहा हूं। मैं यह पूछता हूं कि फिर दुकान कौन चला जलाकर करता है।
रहा है? तीनों यहीं इक्कं पंडियमरणं छिंदइ जाईसयाणि बहुयाणि।
अब यह आदमी मर रहा है। गिर पड़ा और मर गया लेकिन तं मरणं मरियव्वं, जेण मओ सुम्मओ होइ।।
दुकान चलाता रहा। जा रहा है लेकिन चिंता दकान की बनी है। ‘ऐसे मरो कि मृत्यु सुमरण बन जाए। ऐसे मरो कि तुम्हारी जल्दी लौट आएगा। फिर दुकान पर बैठ जाएगा। फिर बेटे होंगे मृत्यु पंडितमरण बन जाए।'
| बड़े, मंझले, छोटे। फिर दुकान चलेगी, फिर मरेगा। फिर समझें हम। सीखना होगा जीवन की यात्रा में ही। क्योंकि घुटने, कोहनियां टेककर पूछेगा, दुकान कौन चला रहा है। मृत्यु तो एक बार आती है, इसलिए रिहर्सल का मौका नहीं है। ऐसे घूमता रहता चाक जीवन का। हम पुनरुक्त करते रहते तुम ऐसा नहीं कर सकते कि चलो, मरने का थोड़ा अभ्यास कर वही-वही। लेकिन एक बात याद रखना, यह धोखा कभी कोई लें। क्योंकि मृत्यु तो दुबारा नहीं आती, एक ही बार आती है। नहीं दे पाया। यद्यपि ऐसी कथाएं लिखी हैं। अजामिल की कथा
तो जीवन में अभ्यास करना होगा मृत्यु का; और कोई उपाय है, कि मरते वक्त-सदा का पापी-बुलाया, 'नारायण, नहीं है। मृत्यु तो जब आएगी तो बस आ जाएगी। पहले से नारायण!' नारायण उसके बेटे का नाम था। पापी अक्सर ऐसे खबर करके भी नहीं आती। कोई पूर्वसूचना नहीं देती। मृत्यु | नाम रख लेते हैं। छिपाने के लिए नाम बड़े काम देते हैं। और अतिथि है। आने की तिथि नहीं बताती, इसलिए अतिथि। खबर कहते हैं, ऊपर के नारायण धोखे में आ गए। और जब | नहीं देती कि अब आती हूं, तब आती हूं। बस आ जाती है। अजामिल मरा तो उन्होंने समझा कि मेरा नाम बुलाया था। तो अचानक एक दिन द्वार पर खड़ी हो जाती है। फिर क्षणभर वह स्वर्ग में बैठा है। सोचने का भी अवसर नहीं देती। तो अगर तुम तैयार ही हो तो ही यह जिन्होंने भी कहानी गढ़ी है, धोखेबाज लोग रहे होंगे,
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