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________________ जीवन ही है गुरु है, कोरा शब्द है। धर्मगुरु से पता चलता है, पुण्य क्या है। यह दी, और कमजोर बनाया। बल न दिया, और नपुंसकता दी। पुण्य भी कोरा शब्द है। जीवन ही तुम्हारा गुरु है। और जीवन से नहीं, अगर तुम्हारे अनुभव से कुछ आया है, अगर तुमने देखा ही सीखे बिना कोई और दूसरा उपाय नहीं। कोई सस्ता उपाय है गौरीशंकर के शिखर को, सूरज की किरणों में जगमगाते, फिर नहीं। कोई करीब का मार्ग नहीं। जीवन के दुर्धर्ष संघर्ष से ही | सारी दुनिया कहे कि नहीं है, तो भी कोई फर्क न पड़ेगा। तुम गुजरे बिना कोई कभी पहुंचता नहीं। कहोगे तम्हारी मर्जी, मानो न मानो, मैंने देखा है। मैंने खद जाना परमात्मा जीवन की यात्रा का अंतिम पड़ाव है। सस्ते में किसी | है। ने कभी परमात्मा पाया नहीं। जिसने पाने की कोशिश की, महावीर कहते हैं, थोड़ा-सा ज्ञान हो, लेकिन अपने जानने से नकली सिक्के हाथ लगे। झूठे सिक्के हाथ लगे। जिसने सस्ते आया हो, तो चरित्रविहीन के बहुत सुने हुए, इकट्ठे किये हुए ज्ञान में पाने की कोशिश की, उसे परमात्मा के नाम पर केवल सिद्धांत से बेहतर है। चरित्रहीन का ज्ञान बड़ा धोखा है। उधार है। हाथ लगे, सत्य हाथ न लगा। | मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन को उसके धर्मगुरु ने बहुत 'चरित्रसंपन्न का अल्पतम ज्ञान भी बहुत है। क्योंकि उसका समझाया और कहा कि तू शराब छोड़ दे। एक दिन उसने कसम अल्पतम ज्ञान उसके ही जीवन का निचोड़ है। सारा संसार भी | भी ले ली। फिर जब लौटने लगा सांझ अपने घर की तरफ और कहे कि तुम गलत हो, तो भी उसे अंतर नहीं पड़ता। शराबघर आया, तो हाथ-पैर कंपने लगे उसके। खींचने लगा विवेकानंद ने रामकृष्ण को पूछा, ईश्वर है? आपके पास कोई | शराबघर उसे। इतनी प्रगाढ़ता से, जैसा पहले भी कभी न खींचा प्रमाण है? रामकृष्ण हंसने लगे। उन्होंने कहा, मैं प्रमाण हूं। मेरे था। क्योंकि पहले तो सिर्फ शराबघर था, आज भीतर एक पास कोई प्रमाण नहीं, मेरा अनुभव प्रमाण है। सारी दुनिया कहे कसम भी ले ली थी, वह भी दूसरे के कहने से ले ली थी। मन कि नहीं है, तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता। मैंने जाना है। बड़ा आतुर होने लगा। मन हजार बहाने खोजने लगा। कि छोड़ो तुम्हें तो कोई जरा-सा संदिग्ध कर दे, तो तुम डांवाडोल हो भी, कौन देख रहा है! किसको पता है स्वर्ग-नर्क का! और क्या जाते हो, नास्तिक से लोग बात करने में डरते हैं। क्योंकि कहीं जरूरत किसी की बातों में पड़ने की! किस प्रभाव में आकर वह तुम्हारे संदेह को जगा न दे। कहीं श्रद्धा को डगमगा न दे। तुमने हां भर दी? लेकिन, गांव के लोग हैं, देख लेंगे, धर्मगुरु ऐसी श्रद्धा दो कौड़ी की है, जिसे कोई डगमगा दे। यह उधार है। | तक खबर पहुंच जाएगी। फिर प्रतिष्ठा भी दांव पर है। फिर उसे यह श्रद्धा उधार है, इसलिए डरती है कि बाहर से आयी श्रद्धा है, यह भी लगने लगा कि यह भी बड़ी मेरी कमजोरी है कि मैं बाहर से संदेह भी आ सकता है और उसे तोड़ सकता है। इतनी-सी बात पर विजय नहीं पा सकता! तो अहंकार ने बल शास्त्रों में लिखा है-हिंदू-शास्त्रों में लिखा है, जैन-मंदिर में पकड़ा। किसी तरह उसने पचास कदम अपने को घसीट लिया मत जाना चाहे पागल हाथी के पैर के नीचे दबकर भी मर जाने घर की तरफ। पचास कदम के बाद, उसने जोर से अपनी पीठ की नौबत क्यों न आ जाए। पागल हाथी पीछे लगा हो, और | थपथपायी, उसने कहा कि नसरुद्दीन, गजब कर दिया! अब जैन-मंदिर आ जाए, तो उसमें शरण मत लेना, पागल हाथी के आ, तुझे दिल खोलकर पिलाता हूं। इस खुशी में कि तू शराबघर पैर के नीचे दबकर मर जाना बेहतर है। ऐसा ही जैन-शास्त्रों में के सामने से निकल आया, पचास कदम। वाह रे तेरा संकल्प! भी लिखा है कि हिंदू मंदिर में शरण मत लेना। जैन हो कि हिंदू, चल, अब इस खुशी में तुझे पिलाता हूं। और उसने खूब मुसलमान हो कि ईसाई, पागलपन एक-जैसा है। पिलायी। दुगुनी पिलायी। क्यों, इतनी क्या घबड़ाहट है? __ अगर हमने उधार लिया है चरित्र, तो ऐसा ही होगा। हम कोई कहीं जैन-सिद्धांत कान में न पड़ जाएं—मंदिर में कहीं कोई न कोई बहाना खोज लेंगे। कोई न कोई रास्ता निकाल ही लेंगे। प्रवचन चलता हो। हिंद-शास्त्र कान में न पड़ जाएं-कहीं इसी से पाखंड पैदा होता है। तुम्हारा संदेह जग न जाए, कहीं श्रद्धा डगमगा न जाए। इन एक चेहरा हम ऊपर बना लेते हैं, एक चेहरा हमारा भीतर होता घबड़ाये हुए लोगों ने लोगों को जगाया नहीं, सुलाया। हिम्मत न है। जो भीतर का चेहरा है, वही परमात्मा के सामने है। जो बाहर Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001819
Book TitleJina Sutra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages668
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size25 MB
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