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________________ RECT जीवन ही है गुरु लेकिन क्षमा भी तो क्रोध करने के कारण ही हुई। तो क्षमा भी अपने से न मिल सकेगी। कहीं इससे तुम्हारे मन में हताशा न क्रोध से ही जुड़ी है। क्षमा भी क्रोध का ही अनुसंग है। इसलिए पैदा हो जाए। क्योंकि कभी-कभी ऐसा होता है, अगर बहुत शुद्ध तो नहीं है। अशुद्धि उसके लिए जरूरी है। शुभ कर्म | उत्तुंग शिखर हो, तुम देखकर ही डर जाओ, और तुम सोचो, हम अशुभ कर्म से जुड़े हैं। कैसे जा सकेंगे? चले गये होंगे महावीर, कोई बद्ध, कोई तो पहले तो शभ के द्वारा अशभ को काटे। दान से लोभ को कृष्ण। अद्वितीय पुरुष हैं, अवतारी पुरुष हैं। हम साधारणजन। काटे। क्षमा से क्रोध को काटे। प्रेम से कामवासना को काटे। लेकिन ध्यान रखना, वे भी तुम्हारे जैसे ही साधारणजन थे। क्रूरता को करुणा से काटे। लेकिन ये सब हैं शुभ। और अशुभ इसीलिए महावीर ने अवतार की धारणा को इनकार कर दिया। के साथ इनका संबंध है। ये एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। एक महावीर ने कहा अवतार की धारणा में खतरा है। अवतार का उजला पहलू है, एक अंधेरा पहलू है। लेकिन दोनों जुड़े हैं। मतलब होता है, कोई विशिष्ट व्यक्ति; ईश्वर है, वह ईश्वर की महावीर कहते हैं, परम स्थिति तो तब पैदा होगी, जब शुद्ध | तरह उतरा है। तो ठीक है, अगर उसने इतनी ऊंचाई पा ली तो आत्मा पैदा होगी। न जहां शुभ है, और न अशुभ है। न जहां | कौन से गुण-गौरव की बात है। ऐसी ऊंचाई को लेकर ही उतरा काम है, न जहां क्रोध है; न जहां ब्रह्मचर्य है, न जहां करुणा है। था। साधारणजन, महावीर ने कहा- नहीं है कोई अवतार। क्योंकि ब्रह्मचर्य भी जुड़ा तो कामवासना से ही है। उलटा सही। कोई भी नहीं है। कामवासना नीचे की तरफ जा रही है, ब्रह्मचर्य ऊपर की तरफ जा तीर्थकर की धारणा अवतार से बिलकल उल्टी है। तीर्थकर का रहा है, लेकिन ऊर्जा तो वही है। बात तो वही है। | अर्थ है, नीचे से जो ऊपर चढ़ा है। अवतार का अर्थ है, ऊपर से परम अवस्था में न तो कामवासना है, न ब्रह्मचर्य है। परम जो नीचे अवतरित हुआ है। हिंदुओं की धारणा अवतार की है। अवस्था में न तो क्रोध है, न करुणा है। परम अवस्था में न तो कृष्ण हैं, राम हैं, वे अवतारी पुरुष हैं। महावीर अवतारी पुरुष हिंसा है, न अहिंसा है। इसको महावीर शुद्ध अवस्था कहते हैं। नहीं हैं। वे तीर्थंकर हैं। वे क्रमशः नीचे से ऊपर गये हैं। वे तुम जह व णिरुद्धं असुहं, सुहेण सुहमिव तहेव सुद्धण। | जहां खड़े हो वहीं खड़े थे, वहीं से ऊपर गये हैं। इसलिए तम्हा एण कमेण य, जोई झाएउ णिय आद।। महावीर के साथ यात्रा ज्यादा सुगम है। क्योंकि महावीर तुम जैसे जैसे शुभ के द्वारा अशुभ का निरोध हो जाता है, वैसे ही शुद्ध हैं। अगर तुम अशुद्ध हो, तो वे भी अशुद्ध थे। अगर तुम मनुष्य के द्वारा शुभ का भी निरोध हो जाता है। और जब शुभ और | हो कमजोर, सीमाओं में बंधे, तो वे भी मनुष्य थे। और अगर वे अशुभ दोनों का निरोध हो जाता है, तो जो शेष रह जाता है, वही | कर सके, तो बड़ी आशा पैदा होती है, तुम भी कर सकते हो। निर्वाण है। यह आत्यंतिक कल्पना है। इससे ऊपर मनुष्य का | और जो पाप तुम्हें ऊपर बहुत ज्यादा बोझिल मालूम पड़ते हैं, वे स्वप्न कभी नहीं गया। इससे ऊपर जाने का कोई उपाय भी कछ भी नहीं हैं सिर्फ नींद में देखे गये सपने हैं। नहीं। यह आखिरी उत्तुंग ऊंचाई है। यह गौरीशंकर है चैतन्य उड़ने के लिए ही जो है बनी वह गंध सदा उड़ती ही है, का। इससे ज्यादा पवित्रता की और कोई कल्पना न कभी की चढ़ने के लिए ही जो है बनी वह धूप सदा चढ़ती ही है गयी, न की जा सकती है। यहां शुभ भी अशुभ है। यहां पाप अफसोस न कर सलवट है पड़ी गर तेरे उजले कुर्ते में, भी...पाप तो पाप है ही, यहां पुण्य भी पाप जैसा है। यहां संसार कपड़ा तो है कपड़ा ही आखिर कपड़ों में शिकन पड़ती ही है पूरे द्वंद्व के साथ पीछे छूट गया। यह निर्द्वद्व, अद्वैत चित्त की | यह सारी शिकन कपड़े पर है। शरीर पर है, मन पर है-यह अवस्था है। | सारी शिकन कपड़े पर है। महावीर कहते हैं, योगी ऐसे ही क्रम से, क्रम से ध्यान की इस अफसोस न कर सलवट है पड़ी गर तेरे उजले कुर्ते में, परम अवस्था को उपलब्ध हो, यही समाधि है. यही निर्वाण है। । कपड़ा तो है कपड़ा ही आखिर कपड़े में शिकन पड़ती ही है इस परम उदात्त कल्पना से तुम भयभीत और चिंतित मत हो लेकिन भीतर तुम्हारे अंतर्तम में जो जी रहा है, वहां कोई शिकन जाना। कहीं ऐसा न हो जाए कि यह इतनी ऊंचाई, तुम सोचो कभी नहीं पहुंचती। तुम्हारे अंतर्तम में एक बिंदु है, एक केंद्र है, 99 Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001819
Book TitleJina Sutra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages668
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size25 MB
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