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________________ 100 जिन सूत्र भाग: 2 जिसको महावीर आत्मा कहते हैं। उस आत्मा तक कोई पाप कभी नहीं पहुंचता। वहां तुम अभी भी गौरीशंकर पर ही विहार कर रहे हो। वहां तुम अभी भी परमात्मा में ही बसे हो। बाहर की परिधि गंदली हो गयी है; लंबी यात्रा है जन्मों-जन्मों की, कपड़े धूल से भर गये हैं । कपड़े उतार डालो। अपने को पहचानो, तुम कपड़े नहीं हो। तुम देह नहीं, मन नहीं। तुम साक्षी हो; चैतन्य हो। तुम परम बोध की अवस्था हो । वहां तुम वैसे ही शुद्ध हो जैसे महावीर, जैसे बुद्ध, जैसे कृष्ण। वहां परमात्मा विराजमान है। I इसलिए इस ऊंचाई की बात से हताश मत हो जाना। यह ऊंचाई की बात तो केवल तथ्य की सूचना है। इस ऊंचाई की बात से तो तुम उत्साह से भरना कि अहो! ऐसी संभावना मेरे भीतर भी है। जो महावीर के लिए हो सका, वह सब के लिए हो सकता है। महावीर ने मनुष्य को बड़ा आश्वासन दिया है। दो कारणों से। एक, महावीर ने घोषणा की कि मनुष्य के ऊपर और कोई भी नहीं। कोई परमात्मा नहीं। मनुष्य ही अपनी शुद्ध अवस्था में परमात्मा हो जाता है। महावीर ने कहा, आत्मा के तीन रूप हैं। बहिअत्मा- - जब चेतना बाहर जा रही है। अंतरात्मा - जब चेतना भीतर आ रही है। और परमात्मा – जब चेतना कहीं भी नहीं जा रही; न बाहर, न भीतर । बहिर्भ्रात्मा — जब चेतना पाप कर रही है। अंतरात्मा – जब चेतना पुण्य कर रही है । |परमात्मा -- जब चेतना न पाप कर रही है, न पुण्य कर रही है। बहित्मा - जब अशुभ से संबंध जुड़ा। अंतरात्मा - जब शुभ से संबंध जुड़ा। परमात्मा— जब सब संबंध छूट गये । असंग का महुआ । निर्विकल्प का जन्म हुआ। वही निर्वाण है। उसे पाये बिना चैन मत पाना । उसे पाये बिना रुकना मत। आज कितना ही कठिन मालूम पड़े, लेकिन तुम्हारा जन्मसिद्ध | अधिकार है। उसे पाया जा सकता है। उसे पाया गया है। और जो एक मनुष्य के जीवन में घटा, वह सभी मनुष्यों के जीवन में घट सकता है। वह सभी की नियति है। लेकिन तुम्हारे ऊपर है। तुम अगर दावा करो, तो ही पा सकोगे। तुम अगर भिखारी की तरह बैठे रहो, तो खो दोगे । दूसरी बात । पहले तो महावीर ने कहा आदमी के ऊपर कोई भी नहीं, परमात्मा भी नहीं। इसलिए मनुष्य को उन्होंने Jain Education International 2010_03 आत्यंतिक गरिमा दी। और दूसरी बात उन्होंने कहा, किसी से मांगने को यहां कुछ भी नहीं । परमात्मा ही नहीं है, मांगोगे किससे ? मुफ्त यहां कुछ भी न मिलेगा । श्रम करना होगा । इसलिए महावीर की संस्कृति श्रमण संस्कृति कहलायी । श्रम करना होगा। पूजा से न मिलेगा, श्रम से मिलेगा। भिखारी की तरह मांगकर न मिलेगा, अर्जित करना होगा। यह पहाड़ चढ़ने से ही चढ़ा जा सकेगा। यह किसी दूसरे के कंधों पर यात्रा होनेवाली नहीं है। लोग तीर्थयात्रा को जाते हैं, डोली में बैठ जाते हैं। यह ऐसा तीर्थ नहीं है जहां डोली में बैठकर यात्रा हो सकेगी। अपने ही पैरों से चलना होगा । इसलिए महावीर ने कहा, जब ऊर्जा जगती हो, जब जीवन में प्रफुल्लता हो, शक्ति हो, तब कल पर मत टालना। यह मत कहना कि कल बुढ़ापे में। महावीर पहले मनुष्य हैं, जिन्होंने पृथ्वी पर धर्म को युवा के साथ जोड़ा और कहा, यौवन और धर्म का गहन मेल है। क्योंकि ऊर्जा चाहिए यात्रा के लिए, संघर्ष के लिए, तपश्चर्या के लिए, संयम के लिए, विवेक के लिए, . बोध के लिए- ऊर्जा चाहिए। ऊर्जा के अश्व पर ही सवार होकर तो हम पहुंच सकेंगे। इसलिए कल पर मत टालना । महावीर ने मनुष्य को परम स्वतंत्रता भी दी और परम दायित्व भी । परम स्वतंत्रता, कि कोई परमात्मा ऊपर नहीं है। और परम दायित्व, कि तुम्हारी जिंदगी तुम्हारे हाथ में है । भी परिणाम होगा, तुम ही जिम्मेवार होओगे। कोई और जिम्मेवार नहीं है। महावीर की इस स्वाधीनता को, और महावीर के इस दायित्व को जिसने समझ लिया, वही जिन है। जैन-घर में पैदा होने से कोई जिन नहीं होता । जिन तो एक भावदशा है। परम उत्तरदायित्व और परम स्वातंत्र्य की इकट्ठी भावदशा का नाम जिनत्व है। तो जहां भी कोई इस अवस्था को उपलब्ध हो जाएगा, उसका संग-साथ महावीर से जुड़ गया। जैन-घर में पैदा होने के कारण ही मत सोचना कि तुम जैन हो गये। इतना सस्ता काम नहीं है। श्रम । श्रम से अर्जित । मिल सकता है हृदय - धन । हृदय-धन तुम्हारे पास है ही । सिर्फ भीतर आंख खोलनी है। For Private & Personal Use Only इतना ही www.jainelibrary.org
SR No.001819
Book TitleJina Sutra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages668
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size25 MB
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