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ज्ञान ही क्रांति ।
वह बोझ बन जाएगा। जैसे बाहर संदेह काम देता है, वैसे भीतर विचार से मिला हुआ सब मौत छीन लेती है। क्योंकि विचार से | श्रद्धा काम देती है। जैसे बाहर विचार काम देता है, वैसे भीतर जो मिलता है, बाहर है। मौत सब छीन लेती है जो बाहर है। निर्विचार काम देता है। उलटी यात्रा है।
मौत तो तुम्हें फिर से तुम्हारे केंद्र पर फेंक देती है। ध्यान में तुम | बाहर की तरफ जाओ, अपने से दूर जाओ, तो विचार को स्वयं ही उस जगह पहुंच जाते हो, जहां मौत तुम्हें पहुंचाती है। पकड़ना पड़ेगा। अपनी तरफ आओ, विचार को छोड़ना पड़ेगा। इसलिए ध्यानी की कोई मौत नहीं। ध्यानी कभी मरता नहीं। | ठीक अपने में आ जाओ, सब विचार छूट जाएगा। कहो उसे | मर सकता नहीं। मरते तो तुम भी नहीं हो, लेकिन तड़फते व्यर्थ निर्विचार समाधि, निर्विकल्प समाधि, श्रद्धा या जो भी नाम तुम्हें हो। इस खयाल में तड़फते हो कि मरे! क्योंकि तुमने बाहर सब देने हों। लेकिन एक बात पक्की है, नाम कुछ भी हो, वहां संबंध बनाये, मौत आकर सब पर्दे गिरा देती है। बाहर से सब विचार नहीं है, महावीर ने उस स्थिति को सामायिक कहा है। संबंध तोड़ देती है। अचानक अकेला छोड़ देती है। और तुमने वहां बस शुद्ध आत्मा है। वहां कोई विपरीत नहीं है, जिससे अकेले होने को कभी जाना नहीं। तुमने अकेले होने में कभी घर्षण होकर विचार की तरंग उठ सके।
डुबकी न ली। तो तुम जानते ही नहीं कि अकेला होना भी क्या | तो मैं कहता हूं कि बुद्धि भी बाधा है। भला यहां तक बुद्धि ही है। तुम घबड़ाते हो। तुम कहते हो, मर गये! तुम्हारा
ले आयी हो-पढ़ा हो, सुना हो मेरे संबंध में तो ही आये | तादात्म्य बाहर से-धन छिना, मकान छिना, पत्नी-पति छिने, होओगे लेकिन अब जब आ ही गये, तो सुनो मैं क्या कह रहा बेटे-बेटियां छिनी, मित्र-प्रियजन छिने; बाहर का सूरज, बाहर हूं। मैं कह रहा हूं, अब बुद्धि को हटाकर रख दो। अब जरा के चांद, बाहर के फूल, सब छिने, आंख बंद होने लगी, भीतर निर्बुद्धि होकर मेरे पास हो लो। अब जरा तरंगों को क्षीण करो। तुम डूबने लगे, तुम घबड़ाये, तुमने कहा हम मरे! क्योंकि तुमने अब जरा निस्तरंग हो लो। निस्तरंग होते ही मेरे और तुम्हारे बीच इस बाहर के जोड़ का ही नाम समझा था, अपना होना। की सब दूरी समाप्त हो जाती है। निस्तरंग होते ही एक ही बचता काश! तुम एकाध बार पहले भी इस अंतर्यात्रा पर गये होते है। न वहां मैं हूं, न तुम हो। वहां वही है। रसो वै सः। उसी का मौत के आने के पूर्व और तुमने जाना होता कि सब छिन जाए रस बरस रहा है। बस एक ही है। वही अमृत, वही अनाहत बाहर का, तो भी मैं हूं। वस्तुतः जब सब छिन जाता है बाहर का, नाद, जिसको झेन फकीर कहते हैं-एक हाथ की ताली। वहां तब मैं शुद्धतम होता हूं। क्योंकि तब कोई विजातीय नहीं होता। दुसरा हाथ भी नहीं है ताली बजाने को। जिसको हिंदू ओंकार का बाहर की कोई छाया नहीं पड़ती। दर्पण एकदम खाली होता है। नाद कहते हैं-वहां कोई नाद करनेवाला नहीं है, नाद हो रहा निपट खाली होता है। शुद्ध होता है। है। वहां नाद शाश्वत है। वहां संगीत किसी तार को छेड़कर नहीं ऐसा तुमने जाना होता, तो मौत भी तुम्हारे लिए ध्यान बनकर है, ताली बजाकर नहीं है, आहत नहीं है, अनाहत है। अकेले का | आती। तो मौत भी तुम्हारे लिए समाधि बनकर आती। तुम्हारे नाद है। वहां गानेवाला, गीत और सुननेवाला, सभी एक हैं। पहचान की भूल है। उसी पहचान के लिए तुमसे बार-बार कह
हटाओ बुद्धि को। थोड़ा प्रयोग करके देखो, थोड़ी हिम्मत | रहा हूं-छोड़ो सोच-विचार। करके देखो। विचार तो करके बहुत देखा, उससे जो मिल सकता | बुद्धिमानी से कुछ भी नहीं मिलता, ऐसा मैं नहीं कहता हूं। | था वह मिला। धन मिल सकता था, मिला। पर धन पाकर भी बुद्धिमानी से संसार मिलता है। सिकंदर होना हो, तो ठीक है,
कहां धन मिला! उससे जो मिल सकता था मिला। शरीर | बुद्धिमानी पकड़ो। लेकिन जब तुम परमात्मा की यात्रा पर मिला। शरीरों के संबंध मिले। लेकिन शरीरों के संबंध कहां | निकलते हो, तब बुद्धिमानी मत पकड़ना। वहां तो जिनको तृप्ति लाते हैं, जब तक आत्मा के संबंध न हों। उससे जो मिल | संसार में बुद्ध कहते हैं, वे पहले पहुंच जाएंगे उनसे, जिनको सकता था, मिला। घर बना लिये, दुकानें सजा लीं, तिजोड़ी भर | संसार में बुद्धिमान कहते हैं। वहां तो तर्कशून्य पहले पहुंच ली, लेकिन मौत सब छीनकर ले जाएगी।
जाएंगे तार्किकों से। वहां तो मतवाले पहले पहुंच जाते हैं मौत सिर्फ उसी को नहीं छीन पाती, जो ध्यान से मिलता है। बुद्धिमानों से। वहां पागलों की गति है।
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