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जिन सूत्र भाग: 2
फिर आकांक्षा है।
और पक्का मानना, उनके किनारे पहुंचते ही फिर आकांक्षा कहीं और चली जाएगी। मन बड़ा अदभुत है। तुम जहां होते हो, वहां तुम्हें नहीं होने देता। मन की सारी पकड़ यही है कि तुम जहां हो वहां नहीं होने देता। तुम्हें कहीं और ले जाता है । और ध्यान का कुल इतना ही अर्थ है कि जहां हो, वहीं हो रहो। मन को यह खेल न खेलने दो। मन को कह दो कि मैं जहां हूं, वही रहूंगा।
अभी मन सधा है, समता बनी है, पीओ इसे ! अगर पीना सीख गये, शाश्वत हो जाएगी। अगर सोचने लगे कि कहीं हिल तो न जाएगा, कहीं खो तो न जाएगा, कहीं यह क्षणभर का सपना तो न हो जाएगा, कल कहीं चिंता फिर तो न पकड़ेगी, कहीं फिर विषाद तो न आयेगा — आ ही गया, कल की कहां जरूरत रही! आ ही गया, तुम चिंता में पड़ ही गये। तुम्हारी इस चिंता के कारण ही कंप जाती है लौ ।
पूछते हो, भीतर समता का आनंद का दीया अधिक समय स्थिर रहने पर भी कभी-कभी टिमटिमाने लगता है। स्थिरता की बात ही भूल जाओ । स्थिरता मन की ही आकांक्षा है। स्थिर करने की चेष्टा क्यों करते हो? पत्थर होना चाहते हो ? जलधार रहो । बहते - बहते अपने को पकड़ो, पहचानो । घबड़ाओ मत रूपांतरण से, परिवर्तन से। अगर कभी लौ कंप भी जाए, तो कंपने का भी आनंद लो। नहीं तो यह नये आध्यात्मिक लोभ हुए। यह नयी आध्यात्मिक वासना जगी कि अब कंप न जाए लौ ! कहीं ऐसा तो न होगा कि कंप जाएगी! कभी कंप भी जाए, उसे भी स्वीकार करो। तो समता पैदा हुई।
अब इसे तुम समझना, यह थोड़ा जटिल हुआ।
समता कंप जाए, तो भी तुम्हारे भीतर कोई परेशानी न हो, तुम कहो ठीक है; यह भी ठीक है, कभी-कभी कंपती है, | इसको भी स्वीकार कर लो, तो समता वास्तविक समता पैदा हुई। जब विषमता को भी स्वीकार करने की कला आ जाए, तो समता पैदा हुई। लोग कहते हैं, सुख खो तो न जाएगा ! नहीं, जब दुख में भी तुम दुख न देखोगे; जब दुख भी आयेगा तब भी तुम कहोगे, यह भी ठीक है, इसे भी स्वीकार करते हैं, यह भी परमात्मा का प्रसाद है, तब फिर सुख कभी न हटेगा |
मेरी बात समझे? सुख कभी-कभी हटेगा, दुख आयेगा, वह दुख परीक्षा है | वह दुख चुनौती है। वह दुख तुम्हें एक अवसर है
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कि तुम महासुख को पाने की नींव रख लो। उस दुख के क्षण में तुम घबड़ाना मत कि अरे ! वह सुख मिला था, गया; यह फिर दुख आ गया ! जो सुख दुख के आने से गिर जाए, वह सुख धोखा था । वह पकड़ने योग्य ही न था । जो सुख दुख के आने पर भी बदले न; दुख आ जाए, फिर भी तुम कहो, ठीक, यह भी स्वीकार; तुम्हारी स्वीकृति में रंचमात्र कोई बाधा न पड़े, तुम इसे भी धन्यभाव से, कृतज्ञभाव से स्वीकार कर लो; तुम परमात्मा को सुखों के लिए तो धन्यवाद दो ही, वह तुम्हें जो दुख देता है उनके लिए भी धन्यवाद दे सको, फिर कौन हिला सकेगा? फिर तुम पार हुए। जब दुख भी तुम्हें दुखी न कर सकेगा, तभी सुख थिर होगा। तभी सुख शाश्वत होगा । अशांति के क्षणों को भी शांति से अंगीकार कर लो।
शांति अशांति के आने से नहीं मिटती, अशांति को अस्वीकार करने से मिटती है। अशांति के आने से अगर शांति मिटती होती, तो शांति का बल ही क्या है फिर ! अशांति के आने से नहीं मिटती, तुम अशांति को अस्वीकार करते हो, धकाते हो; नहीं, नहीं चाहिए; चिल्लाते हो कि यह क्या हुआ, फिर अशांति आ गयी ! इस चिल्लाने, चीख-पुकार करने से शांति मिटती है !
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अब जब दुबारा तुम्हारे दीये की लौ कंपे, तो कंपने का भी आनंद लेना। क्या बुरा है। बिजली का बल्ब नहीं कंपता, लेकिन दीये का मजा ही और है! दीये की लौ कंपती है। बिजली का बल्ब बिलकुल नहीं कंपता । लेकिन दीया जिंदा है, बिजली का बल्ब मुर्दा है। दीया जीवंत धारा है। ठहरता भी, कंपता भी। लौ में प्राण हैं। बिजली का बल्ब बिलकुल यांत्रिक है। उसमें प्राण नहीं हैं। घबड़ाना मत। कभी-कभी कंपेगी ही! ठीक है, स्वीकार है । तुम्हारा स्वीकार - भाव सदा बना रहे, तो धीरे-धीरे तुम पाओगे, जब तुम कंपन को भी स्वीकार करने लगे तो कंपन कम होने लगा। एक दिन तुम पाओगे, जिस दिन स्वीकार पूरा हो गया, उस दिन कंपन समाप्त हो गया। उस दिन दीये की लौ सतत, शाश्वत होकर जलने लगती है।
लेकिन खयाल रखना, शाश्वत और स्थिर में फर्क है। नित्य और स्थिर में फर्क है। स्थिर में तो आकांक्षा है मन की, कि स्थिर हो जाए। शाश्वत घटना है, मन की आकांक्षा नहीं है। स्थिर की तो चिंता पैदा होती है, शाश्वत की कोई चिंता नहीं । वस्तुतः ऐसा समझो कि स्थिर के लिए सोच-सोचकर तुम लहर को कंपा जाते
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