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जिन सूत्र भाग: 2
कोई बवंडर न था। बवंडर की भी कील होती है। बिना कील के के प्रकाश जैसा ताप नहीं। सूरज में प्रकाश तो है, बहुत है, बवंडर भी नहीं हो सकता।
लेकिन ताप भी है। जलाता भी है। सूरज के ज्यादा पास न जा मनुष्य एक बवंडर है धूल का, मिट्टी का, लेकिन भीतर आत्मा | सकोगे। झुलसा देगा। चंद्रमा में ताप नहीं है, सिर्फ प्रकाश है। की कील है।
| चंद्रमा के प्रकाश में जैसे अमृत है। मनुष्य-जाति सदा से चंद्रमा महावीर कहते हैं, 'मेरु-सा निश्चल।' चलते समय याद के पास जाने को आतुर रही है। छोटे बच्चे पैदा होते से ही चांद रखना उसकी, जो कभी नहीं चला। भोजन करते वक्त याद की तरफ हाथ बढ़ाने लगते हैं। 'चंदामामा' को पकड़ने की रखना उसकी, जो कभी भोजन नहीं करता। भूख में याद रखना चेष्टा शुरू हो जाती है। आदमी सदियों से चांद पर जाने की उसकी. जिसको कभी भख नहीं लगती। दख आये, याद रखना सोचता रहा, अब तो पहंच भी गया। लेकिन यह असली चांद उसकी जिस पर कभी दुख नहीं पहुंचता न दुख, न सुख; न नहीं है। यह खोज किसी और चांद की है। तुम पहुंच गये बाहर प्रीति, न अप्रीति; न सफलता, न असफलता। सभी द्वंद्व चके | के चांद पर, पहंचना था भीतर के चांद पर। पर हैं। कील बाहर है।
महावीर कहते हैं, 'चंद्रमा-सा शीतल।' साधु प्रकाशोज्ज्वल उस अतिक्रमण करनेवाली कील को पकड़ना। साधु की सारी होता है, लेकिन उसका प्रकाश शीतल है। दग्ध नहीं करता चेष्टा यही है। ध्यान में, समाधि में यही तो चेष्टा है कि किसी जलाता नहीं। मलहम की भांति है घावों पर। भरता है घाव को। तरह अपनी कील को पकड़ ले।
प्राणों को तृप्त करता है। सूरज से तो तुम ऊब सकते हो कभी, कबीर का बड़ा प्रसिद्ध वचन है- 'दो पाटन के बीच में चांद से कभी नहीं ऊब सकते। चांद आदमी को आंदोलित ही साबित बचा न कोय।'
करता रहा है सदा-सदा। उसकी शीतलता बड़ी आकर्षक रही कबीर ने एक चक्की चलते देखी। कोई चक्की चला रही है | है। चांद की रात प्रेम की रात है। चांद की रात काव्य की रात है। औरत सुबह-सुबह, कबीर लौटते होंगे सुबह कहीं भ्रमण के | चांद से सागर ही आंदोलित नहीं होता, मनुष्य के हृदय में भी बाद, देखा सब पिसा जा रहा है। लौटकर घर उन्होंने यह पद | बड़ी तरंगें उठती हैं, बड़े ज्वार आते हैं। । | रचा। उनका बेटा कमाल बैठा सुन रहा था। उसने कहा कि चांद-सा शीतल हो साधु। उसमें प्रकाश तो हो, देदीप्यमान रुको, ठीक कहते हो कि पाट के बीच कोई भी साबित नहीं बचा, हो, लेकिन प्रकाश किसी को झुलसाये न। उसके पास जाकर लेकिन बीच में एक कील है, कभी उसका खयाल किया? तुम्हारे घावों पर मलहम-पट्टी हो, चोट न लगे। तुम बड़े हैरान उसके सहारे जो गेहूं के दाने लग जाते हैं, वे नहीं पिसते। होओगे, जिनको साधारणतः तुम साधु कहते हो, वे सदा तुम्हारी
चक्की चलायी तुमने कभी? अब चक्की खो गयी है, इसलिए निंदा कर रहे हैं। चोट करना ही उनका धंधा है। तुम्हारा अपमान शायद तुम्हें खयाल भी न हो, लेकिन बीच की कील के सहारे जो करना ही उनका व्यवसाय है। तुम्हें गाली देना ही उनके प्रवचन दाने लग जाते हैं, वे फिर पिस नहीं पाते। उनको फिर दुबारा हैं। तुम्हें चोर, पापी बताना ही उनका कुल उपदेश है। लेकिन डालना पड़ता है। जिसने कील का सहारा लिया, वह बच गया। इन घावों से तुम कोई जीवन-पथ पर थोड़े ही आ जाओगे। इनसे
संसार दो पाटों की तरह पीस रहा है। लेकिन इसमें मेरु की एक ही परिणाम होता है कि तुम आत्मनिंदा से भर जाते हो। तुम कील भी है। शरीर और मन के दो पाट तुम्हें पीस रहे हैं, पर अपने ही प्रति विरोध से भर जाते हो। तुम्हारे भीतर 'गिल्ट', इसके बीच में आत्मा की कील भी है। उसे पकड़ो। उसे गहो। अपराध भाव पैदा होता है। उसका साथ लो। उसके सहारे हो जाओ। फिर तुम्हें कोई भी और जिस आदमी के जीवन में अपराध-भाव पैदा हो गया, पीस न पायेगा। जन्म आये, जन्म; मौत आये, मौत; दुख, वह आदमी नर्क में जीने लगता है। क्योंकि वह जो करता है, सुख, जो आये, आये; तुम अछूते, पार, दूर बने रहोगे। तुम्हें वही गलत मालूम होता है। पत्नी को प्रेम करो, तो पाप। बेटे को कुछ भी छु न पायेगा।
| प्रेम करो, तो पाप। सुंदर मकान बनाओ, तो पाप। एक बगिया 'चंद्रमा-सा शीतल...।' चंद्रमा में प्रकाश है, लेकिन सूरज बनाओ, तो पाप। अच्छे कपड़े पहनकर निकल जाओ, तो
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