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________________ जिन सूत्र भाग 2 कफस तोड़ना बाद की बात है सूत्र हैअभी ख्वाहिसे-बालो-पर कीजिए। जयं चरे जयं चिट्टे, जयमासे जयं सए। पिंजड़े में बंद हैं हम। अभी पिंजड़े को तोड़ना तो बहुत मुश्किल | जयं भुंजतो भासंतो, पावं कम्मं न बंधइ।। है। अभी तो पहले पंख पैदा हो जाएं, इसकी आकांक्षा कीजिए। विवेक से। 'विवेकपूर्वक चलने से, विवेकपूर्वक रहने से, जमीं सख्त है, आसमां दूर है विवेकपूर्वक बैठने से, विवेकपूर्वक सोने से, विवेकपूर्वक खाने बसर हो सके तो बसर कीजिए और विवेकपूर्वक बोलने से साधु को पापकर्म का बंध नहीं कफस तोड़ना बाद की बात है होता।' जो करो उसे विवेकपूर्वक करना। जो करो, एक शर्त अभी ख्वाहिसे-बालो-पर कीजिए जरूर पूरी करना कि वह विवेकपूर्वक हो, होशपूर्वक हो। निद्रा, अभी तो मेरे पंख पैदा हो जाएं, इसकी आकांक्षा, इस दिशा में मूर्छा में न हो। बेहोशी में न हो। क्या परिणाम होता है इसका? प्रयास। अभी तो पैर मजबूत हो जाएं, इस दिशा में प्रयत्न। फिर यह जीवन के शास्त्र की बड़ी गहरी बात है। जीवन-शास्त्र का यात्रा है। मंजिल दूर की है। बल चाहिए। भाव चाहिए। अदम्य बड़ा प्रगट लेकिन फिर भी बहुत गुप्त रहस्य है। जो तुम विवेक आशा चाहिए। से कर सको, वही पुण्य है। और जो विवेक के कारण न कर महावीर कहते हैं, 'यत्नाचारिता धर्म को बढ़ाती है। सको, वही पाप है। यत्नाचारिता एकांत सुखावह है।' जितना यत्न होगा, उतना जैसे मैं कहता हूं, क्रोध करते हो तो मैं नहीं कहता क्रोध मत सुख होगा। क्योंकि जितना हम दूसरे को दुख देना चाहते हैं, करो; मैं कहता हूं विवेकपूर्वक करो। क्रोध आये, जाग जाओ। उतना ही अपने दुख के बीज बोते हैं। जो हम काटते हैं वह हमारा झकझोर दो अपने को। जैसे सुबह नींद से उठते हो, अंगड़ाई लेते ही बोया हुआ है। जो हम बोते हैं, वह हमीं काटेंगे। जो गड्ढे हम हो, ऐसे भीतर चैतन्य की अंगड़ाई लो। झकझोर दो अपने को। दूसरों के लिए खोदते हैं, उनमें हम ही गिरेंगे। इसलिए किसी के | जागो! जानो कि क्रोध हो रहा है। करो जानकर। और तुम लिए दुख के बीज मत बोना। अगर तुम दुखी हो, तो इसका चकित हो जाओगे, तुम क्रोध न कर पाओगे। अगर प्रेम फैल इतना ही अर्थ है कि अब तक तुमने दुख के बीज दूसरों के लिए रहा हो और तुम जाग जाओ, तो तुम हैरान होओगे, जागने के बोये। यह जगत एक प्रतिबिंब है। तुम जैसे होते हो वैसी ही कारण प्रेम करोड़ गुना होकर फैलेगा। क्रोध तत्क्षण जलकर गिर तस्वीर तुम्हें दिखायी पड़ती है। यह जगत एक प्रतिध्वनि है। तुम जाएगा। प्रेम फैलेगा। अगर तुम किसी को मिटाने चले थे, तो गीत गुनगुनाओ, तो गीत लौट आता है। तुम गाली दो, तो गाली | जागने के कारण पैर वहीं ठिठक जाएंगे। और अगर किसी को ही तुम पर हजार गुना होकर बरस जाती है। उठाने चले थे, तो जागने के कारण तुम दौड़ पड़ोगे। जो जागने से आदमी ने वक्त को ललकारा है हो सके, वही पुण्य है। और जो जागने से न हो सके, वही पाप आदमी ने मौत को भी मारा है है। पाप और पुण्य की इससे ज्यादा गहरी कोई परिभाषा कभी जीते हैं आदमी ने सारे लोक नहीं की गयी है। आदमी खद से मगर हारा है महावीर कहते हैं, पाप वही है, जो सोये-सोये होता है, वहीं एक हार है। अपने पर बस नहीं हमारा। अपने पर जागकर नहीं होता। पुण्य वही है, जो सोये-सोये कभी नहीं समिति, संयम नहीं हमारा। अपने हम मालिक नहीं। महावीर ने होता, केवल जागकर ही होता है। इसलिए एक ही बात पकड़ इस पर इतना जोर दिया, स्वयं की मालकियत पर, कि उनका पूरा | लेने जैसी है, और वह है जागरण। ध्यानपूर्वक जीना। जो जाग धर्म जिन-धर्म कहलाया। जिन का अर्थ होता है. जीता जिसने। गया. उसका संबंध परम सत्य से जड जाता है। जैन-घर में पैदा होने से मत समझ लेना कि जैन हो गये। जब ऐ शौके-नजारा क्या कहिए, तक जिन न हो जाओ, तब तक जैन कैसे होओगे? जब तक | नजरों में कोई सूरत ही नहीं | जीत न लो अपने को...और जीत कैसे आयेगी, उसका परम ऐ जौके-तसव्वुर क्या कीजे, Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001819
Book TitleJina Sutra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages668
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size25 MB
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