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प्रेम का आखिरी विस्तार : अहिंसा
हम सूरते-जानां भूल गये
छोर नापते थके न पल छिन, अब गल से नजर मिलती ही नहीं
ये कैसे अभ्यास बन गये अब दिल की कली खिलती ही नहीं
तम मेरे आकाश बन गये। जैसे ही कोई जागता है, गुल से नजर मिलने लगती है। दिल | दिवस, मास या वर्ष गिनूं क्या, की कली खिलने लगती है। सोये-सोये हमारी हालत ऐसी है- सारा जीवन एक तपस्या ऐ शौके-नजारा क्या कहिए,
सांसों के जितने शिशु जन्मे, नजरों में कोई सूरत ही नहीं
सभी तुम्हारे दास बन गये सोये आदमी की दृष्टि में सत्य का दर्शन कैसे! परमात्मा का तुम मेरे आकाश बन गये। दर्शन कैसे! प्रिय दिखायी कैसे पड़े नींद-भरी आंखों में ! वहां तो | विवेक तुम्हारा आकाश बन जाए, वही-वही एकमात्र तुम्हारा सिर्फ सपने दिखायी पड़ सकते हैं। सत्य दिखायी नहीं पड़ लक्ष्य बन जाए, तो तुम्हारा पूरा जीवन तपस्या हो गयी। सकता।
दिवस मास या वर्ष गिनूं क्या, ऐशौके-नजारा क्या कहिए,
सारा जीवन एक तपस्या नजरों में कोई सूरत ही नहीं
महावीर तुम्हें एक खंड को सुंदर बनाने को नहीं कहते। वे यह ऐ जौके-तसव्वुर क्या कीजे,
नहीं कहते कि एक घड़ी को धार्मिक बना लो और तेईस घड़ी जीए हम सूरते-जानां भूल गये
जाओ संसार में। वह कहते हैं, कुछ ऐसा करो, कुछ ऐसे जीओ अब याद भी करें उस परम की, प्रभु की, तो कैसे करें, हम तो कि चौबीस घंटा एक ही धागे में पिरो जाए। उसकी सूरत भी भूल चुके!
तो अगर पूजा करो, तो चौबीस घंटे तो नहीं कर सकते। कम हम सूरते-जानां भूल गये
से कम भोजन के लिए छुट्टी लेनी पड़ेगी। मंदिर में बैठो, तो उस प्रीतम की सूरत भी याद नहीं, याद क्या करें? स्मरण कैसे | चौबीस घंटे तो नहीं बैठ सकते। रात सोना तो पड़ेगा। स्नान
| करने के लिए तो उठना पड़ेगा। माला फेरो तो चौबीस घंटे तो अब गुल से नजर मिलती ही नहीं
नहीं फेर सकते। जीवन पंगु हो जाएगा। लेकिन महावीर कहते अब दिल की कली खिलती ही नहीं
हैं, विवेक कुछ ऐसी बात है कि चौबीस घंटे साध सकते हो, कोई जैसे ही कोई विवेक को उपलब्ध हआ, मिलने लगती है गल | बाधा न पड़ेगी। स्नान करो, तो भी-जागे। बैठो, उठो, भोजन से नजर, खिलने लगती है दिल की कली।
करो, बात करो, सुनो—जागे। दुकान जाओ, मंदिर जाओ, यह विवेक का बल एकमात्र बल है, जो तुम्हें तीर्थ तक पहुंचा बजार जाओ, घर आओ—जागे। भीड़ में, अकेले में-जागे। देगा। यह विवेक के पंख ही तुम्हें खुले आकाश में उड़ा सकेंगे। और महावीर कहते हैं, अगर तुम्हारा सारा कृत्य जागरण से जुड़ यह विवेक के पैर ही तुम्हें उस परम यात्रा तक पहुंचा सकेंगे। जाए, तो तुम एक दिन अचानक पाओगे कि रात तुम सोते हो अगर महावीर के सारे शास्त्र को दो शब्दों में रखा जा सके, तो वे | और जागे। इसको कृष्ण ने कहा है, 'या निशा सर्वभूतानां तस्यां होंगे, 'विवेक' और 'अहिंसा'। अहिंसा है गंतव्य। विवेक है | जागर्ति संयमी।' जब सब सो जाते हैं, तब भी संयमी जागता है, उस तरफ गति। अहिंसा है साध्य, विवेक है साधन। अहिंसा है | इससे तुम ऐसा मतलब मत लेना कि संयमी बैठा रहता है बिस्तर मंजिल, विवेक है मार्ग।
पर। पागल हो जाएगा! शरीर को तो नींद जरूरी है। लेकिन मन पंछी इस तरह उड़ा कुछ,
भीतर का दीया जलता रहता है। रात के गहनतम अंधेरे में भी, तुम मेरे आकाश बन गये।
शरीर जब सो जाता है, तब भी आत्मा जागी रहती है 'तस्यां पंखों की बिसात ही कितनी,
जागर्ति संयमी।' भरी उड़ानें फिर भी इतनी,
लेकिन इस जागरण को पहले जागी अवस्था में साधो।
करें?
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