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________________ ज्ञान है परमयोग A हो जाता है। परमात्मा को इनकार कर दिया। लेकिन परमात्मा अपने-आप मुक्त होने लगोगे। तुम्हें जरा-सी भी याद आ जाए को इस तरह इनकार नहीं किया जैसा चार्वाक, लोकायत और कि तुम कौन हो, जैसे किसी भिखमंगे को याद आ जाए कि अरे! नास्तिक करते हैं। | मैं कहां भटक रहा हूं, मैं तो राजपुत्र हूं! जैसे किसी भिखमंगे को परमात्मा को बाहर तो इनकार कर दिया और भीतर स्थापित | याद आ जाए भूला-बिसरा धन, कि जहां बैठकर भीख मांग रहा कर दिया। कहा, मनुष्य के भीतर है परमात्मा। जो भीतर है, है, वहीं उसकी तिजोड़ी गड़ी है। याद आते ही-अभी तिजोड़ी उसके लिए पंडित और पुरोहित की जरूरत नहीं। वह इतने पास खोदी भी नहीं है लेकिन याद आते ही भिखमंगा भिखमंगा है, जगह कहां कि तुम अपने बीच और परमात्मा के बीच में नहीं रहा, उसके हाथ का भिक्षापात्र गिर जाएगा। पुरोहित को खड़ा कर लो। इतनी भी जगह नहीं। इतना भी स्थान मैंने सुना है, एक सम्राट अपने बेटे से नाराज हो गया तो उसे नहीं। तुम ही परमात्मा हो। इसलिए कहीं दूर का संदेश नहीं है, | निकाल दिया, राज्य के बाहर। राजा का बेटा था, कुछ और संदेशवाहक की जरूरत नहीं है। कहीं चिट्ठी-पाती लिखनी नहीं | करना जानता भी न था। मजदूरी कर न सकता था। कभी सीखी है, इसलिए डाकिये की कोई जरूरत नहीं है। आंख बंद करो, नहीं कोई बात। कोई कला-कौशल न आता था। तो जब कभी जागो, वह मौजूद है। | राजा हट जाए राज्य से, तो भिखारी होने के सिवाय कोई उपाय इसलिए महावीर ने आत्मा को परमात्मा के पद पर उठाया। नहीं रह जाता। तो यह कुछ आश्चर्यजनक नहीं कि महावीर और यह बड़ी अनूठी दृष्टि थी। इस तरह नास्तिक के पास जो खूबी बुद्ध दोनों राजपुत्र थे और दोनों ने जब राज्य छोड़ा, तो दोनों भीख की बात थी—अंधविश्वास नहीं—वह भी महावीर ने पूरी कर मांगने लगे। यह कुछ आश्चर्य की बात नहीं। राजपुत्र और कुछ ली और आस्तिक के पास जो खूबी की बात थी—धर्मभाव, जानता नहीं। या तो वह सम्राट हो सकता है, और या भिखारी हो श्रद्धा—वह भी पूरी कर ली। ऐसा अदभुत समन्वय न इसके सकता है। एक अति से दूसरी अति पर ही जा सकता है। बीच पहले कभी हुआ था, न इसके बाद हुआ। में कोई जगह नहीं। वह राजपत्र भीख मांगने लगा किसी दर की कुफ्रो-इलहास से नफरत है मुझे राजधानी में। और मज़हब से भी बेज़ार हूं मैं वर्षों बीत गये। भूल ही गया यह बात धीरे-धीरे। रोज-रोज नास्तिकता और अधर्म से भी नफरत है, और मजहब से भी भीख मांगो तो कहां, कैसे याद रहे कि तुम सम्राट के बेटे हो! बेजार हूं मैं। और धर्म के नाम पर जो चल रहा है, वह भी मन को कितनी दूर तक इसे याद रखोगे! रोज-रोज भीख मांगना, भीख बहुत पीड़ा देता है। का मिलना मुश्किल है। कपड़े उसके जराजीर्ण हो गये, पैर कुफ्रो-इलहास से नफरत है मुझे लहूलुहान हो गये, शरीर काला हो गया, अपना ही चेहरा दर्पण और मज़हब से भी बेज़ार हूं मैं में देखे तो पहचान न आये, भूल ही गया, फुर्सत कहां रही? हरो-गिल्मां का यहां जिक्र नहीं याद करने की सुविधा कहां रही? भीख मांगने से समय कहां कि नौए-इंसा का परस्तार हूं मैं याद करे, बैठे सोचे कि राजमहल...और फिर वह याद और यहां स्वर्ग के सुखों की कोई बात नहीं, मैं तो सिर्फ आदमी पीड़ादायी भी हो गयी। और उस याद से तो घाव को ही छेड़ना का उपासक हूं। महावीर ने आदमी को, ‘अत्ता' को, आत्मा को है। सार भी क्या है? उससे कुछ सुख तो मिलता नहीं, दुख ही सर्वश्रेष्ठ स्थान पर रखा। महावीर ने मनुष्य को जैसी महिमा दी, | मिलता है। कांटे चुभाने से बार-बार प्रयोजन क्या है! तो किसी ने कभी न दी थी। धीरे-धीरे हम उन बातों को भूल जाते हैं, जिनसे दुख मिलता है। इस बात को खयाल में लेकर चलें तो आज के सूत्र साफ हो | वह भूल गया। सकेंगे। क्योंकि आज के सूत्र मनुष्य की स्तुति में कहे गये सूत्र | उसका पिता बूढ़ा हुआ। एक ही बेटा था। पछताने लगा हैं। आज के सूत्र मनुष्य की महिमा के गीत हैं। इस महिमा की | बाप। अब मौत करीब आती है, अब कौन मालिक होगा इस तुम्हें जरा-सी भी झलक मिलनी शुरू हो जाए तो तुम क्षुद्र से | साम्राज्य का ? बुरा-भला जैसा था, उसने अपने वजीर भेजे कि Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001819
Book TitleJina Sutra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages668
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size25 MB
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