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जिन सूत्र भागः2
अमृत बरस रहा है। दादू कहते हैं, हजार-हजार सूरज निकल प्रतिक्षण मरते हो और प्रतिक्षण जन्मते हो। जैसे पुराना मर जाता आए ऐसी रोशनी है, कि अंधेरे को खोजो भी तो कहीं मिलता है हर क्षण और नए का आविर्भाव होता है। जैसे प्रतिपल पुराने नहीं। मीरा कहती है, पद धुंघरू बांध नाची।
की धूल उड़ जाती है और तुम्हारा दर्पण फिर नया हो जाता है। ये आठवें की घटनाएं हैं-अपूर्वकरण। यहां अनूठे संगीत जिसको बौद्धों ने क्षण-क्षण जीना कहा है, वह अपूर्वकरण की का जन्म होता है। यही घड़ी है जहां झेन फकीर कहते हैं, एक | स्थिति है। जिसको कृष्णमूर्ति कहते हैं, मरो अतीत के प्रति, हाथ की ताली बजती है। अपूर्व-जो हो नहीं सकता ऐसा होता ताकि भविष्य का जन्म हो सके। छोड़ो अतीत को, पकड़ो मत, है। जो कभी हुआ नहीं ऐसा होता है। जिसको कहा नहीं जा | ताकि अपूर्व घट सके सकता ऐसा होता है। जिसको बताने का कोई उपाय नहीं। गूंगे यह अपूर्वकरण ध्यान का पहला स्वाद है। यहां से तुम दूसरे का गुड़। गूंगे केरी सरकरा।
लोक में प्रविष्ट हुए। यहां से दूसरी दुनिया शुरू हुई। ऐसा इस घड़ी में आदमी बड़े आनंद में लीन होने लगता है। और | समझो, अपूर्वकरण है, जैसा कि कोई यात्री नाव में बैठे नदी के प्रतिपल नया-नया होता जाता है। द्वार के बाद द्वार खुलते चले इस किनारे से और नाव चले, तो मध्य तक तो पुराना किनारा ही जाते हैं, पर्दे के बाद पर्दे उठते चले जाते हैं। सात तक तुम साधो, दिखाई पड़ता रहता है—सातवें तक। नए किनारे का पता नहीं आठ के बाद घटता है।
चलता। दूसरा किनारा अभी धुंध में छिपा है दूर। आठवें से, अपर्वकरण : नाम भी महावीर ने ठीक दिया। पहले जैसा नहीं पराना किनारा तो दिखाई पड़ना बंद होने लगता है, नया किनारा हुआ, कभी नहीं हुआ। और जब तुम्हें पहली दफा होता है तभी | दिखाई पड़ना शुरू होता है। आठवें से पुराना तो धुंध में छिप तुम्हें भरोसा भी आता है। कि महावीर हुए होंगे कि बुद्ध हुए जाता और नए का आविर्भाव होता है। आठवां, साधु के जीवन होंगे, कि कबीर ठीक कहते हैं। तुम गवाही बनते हो। आठवें पर में आत्मा का जन्म है। आठवां, अंधेरे में प्रकाश का अवतरण तुम्हारी गवाही पैदा होती है। आठवें के पहले तुम जो सिर है। आठवां, मरुस्थल में अमृत की वर्षा है-अपूर्वकरण। हिलाते हो वह बहुत सार्थक नहीं है। आठवें के पहले तुम कहते और फिर ऐसा नहीं है कि वही-वही अनुभव रोज दोहरता है, | हो हां, ठीक लगती है बात। बस, वह लगती ही है। तर्क से प्रतिपल नया होता जाता है। जैसे-जैसे तम दसरे किनारे के
लगती होगी, संस्कार से लगती होगी। बार-बार सुनी है, | करीब होने लगते और चीजें स्पष्ट होने लगती हैं, हर घड़ी गहन पुनरुक्ति से लगती होगी। या तुम्हारे भीतर वासना है, आकांक्षा | से गहन, सघन से सघन प्रतीति आनंद की होती चली जाती है। है कि ऐसा घटे, इसलिए तम मान लेते होओगे कि हां, घटता है। नौवाः अनिवत्तिकरण। साधक की नवम भमि में, जिसमें
लेकिन आठवें पर पता चलता है। आठवें पर तुम दस्तखत समान समवर्ती सभी साधकों के परिणाम समान हो जाते हैं और कर सकते हो कि हां, महावीर हुए, कि बुद्ध हुए, कि जीसस प्रतिसमय उत्तरोत्तर अनंतगुनी विशुद्धता को प्राप्त होते हैं।
कहा है, ठीक कहा है। क्योंकि अब अनिवत्तिकरण नौवीं साधक की भमि है। यह समझने जैसी है। तुम्हारे अनुभव में आ रही बात। अब अस्तित्वगत प्रमाण मिल | इस स्थिति में लोगों के व्यक्तित्व समाप्त हो जाते हैं, व्यक्तिगत रहा है।
भेद समाप्त हो जाते हैं। इस स्थिति में आकर सभी साधक एक अपूर्वकरण की स्थिति में ही कोई कह सकता है, आत्मा है। जैसे हो जाते हैं। उनकी समान दशा हो जाती है। इस समय तक अपूर्वकरण की स्थिति में ही कोई कह सकता है कि परमात्मा है। व्यक्तित्व की छाया रहती है। कोई स्त्री है, कोई पुरुष है, कोई अपूर्वकरण की स्थिति में ही कोई कह सकता है, समाधि है। बुद्धिमान है, कोई बहुत बौद्धिक है, कोई संगीत में कुशल है, इसके पहले सब तर्कजाल है। इसके बाद ही अनुभव के स्रोत कोई गणित में कशल है, कोई कलाकार है, कोई कछ है। खुलने शुरू होते हैं।
__ आठवें तक भेद बने रहते हैं। नौवें से अभेद शुरू होता है। इस प्रतिसमय अपूर्व-अपूर्व। तब कुछ भी जीवन में जड़ता जैसी | समय, जो भी साधक नौवें में पहुंचता है उसके व्यक्तित्व की नहीं रह जाती। यंत्रवत कुछ भी नहीं रह जाता। जैसे तुम खोल गिर जाती है। जैसे सांप सरक जाता है पुरानी चमड़ी को
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