SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 418
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 408 जिन सूत्र भाग: 2 ऐसा मत सोचना कि बस, त्राता के पैर पकड़ लिए तो त्राण हो सहारे की आकांक्षा थी, वह नहीं मिल रहा है। असहायता नकारात्मक है। अशरणता विधायक है। इसे ऐसा समझो, जैसा मैं निरंतर कहता हूं। एक आदमी अपने कमरे में अकेला बैठा है, अकेलापन अनुभव कर रहा है। अकेलेपन का अर्थ हुआ कि वह चाहता है कोई साथ होता । किसी की याद आ रही है। किसी की मौजूदगी चाहिए। किसी की मौजूदगी नहीं है, अनुपस्थिति खल रही है, तो अकेलापन, लोनलीनेस | गया। ऐसा ईसाइयत मानती है कि जीसस ने सबके पाप हल कर दिए । अब इससे बड़ा झूठ भी कोई हो सकता है ? जीसस को गए दो हजार साल हो गए। अगर जीसस ने सभी के पाप समाप्त कर दिए तो दो हजार साल से फिर क्या हो रहा है दुनिया में? पाप नहीं हो रहे? इन दो हजार सालों में जितने पाप हुए हैं, उतने शायद ईसा के पहले कभी भी न हुए हों। ये दो हजार साल आदमी के दुख, पीड़ा, घावों के, पाप के, घृणा के, हिंसा के, युद्धों के साल हैं। आदमी खूंखार से खूंखार होता चला गया। और ईसाइयत फिर भी दोहराए चली जाती है कि ईसा ने सबको मुक्त कर दिया। यह बड़ी झूठी बात है। मगर इस झूठ के पीछे तर्क है। आदम ने पाप किया था सबके लिए, उसकी वजह से सब पापी हो गए थे! अब कोई किसी दूसरे के पाप से कैसे पापी हो सकता है ? तो जब आदम ने पाप किया, सब पापी हो गए। जीसस ने सभी के लिए पुण्य कर दिया, सब पुण्यात्मा हो गए। अब इतना ही जरूरी है हर आदमी को कि वह ईसाई हो जाए, बस पर्याप्त । यह बड़ी सस्ती बात हो गई। इसलिए महावीर कहते हैं, शरण मत गहना । चरण छू लेना लेकिन शरण मत गहना । झुकना, शिष्य बनना, दीक्षित होना, सीखना, लेकिन यात्रा तुम्हीं को करनी पड़ेगी । तुम त्राता को त्राण मत समझ लेना । त्राता से सिर्फ इशारे मिलते हैं। चलना पड़ेगा। शास्त्र को सत्य मत समझ लेना और शास्ता को मंजिल मत समझ लेना । इसलिए विरोधी बात कहते मालूम पड़ते हैं। एक तरफ दीक्षा देते हैं, एक तरफ कहते हैं अशरण रहो। आखिरी प्रश्न : अशरण होने और असहाय होने के भावों में क्या भेद है? और क्या दोनों के बीच कुछ समानता भी है ? समानता भी है, भेद भी है। अशरण होने का अर्थ होता है, अपने पैरों पर खड़े होना। असहाय होने का अर्थ होता है, दूसरों के पैरों की आशा थी, वह छूट गई, लेकिन अपने पैरों पर खड़े होने का बल नहीं आया। असहाय होने का अर्थ होता है, अभी Jain Education International 2010_03 और फिर एक आदमी ध्यान में मग्न अकेला बैठा है, उसको अकेलापन नहीं कह सकते - एकांत, अलोननेस । उसे किसी की याद नहीं आ रही है, वह अपनी ही पुलक से भरा है, अपने ही आनंद में लवलीन डूबा है। दोनों अकेले हैं बाहर से देखने पर। लेकिन एक पर की याद से भरा है और एक स्वयं की स्मृति में जगा है। दोनों बड़े भिन्न हैं । ऐसा ही अशरण और असहाय । असहाय का अर्थ है, सहारे की जरूरत है, सहारे की आदत है; और सहारा नहीं मिल रहा है। तो आदमी असहाय मालूम पड़ रहा है। अब डूबा, तब डूबा। क्या करूं, क्या न करूं ? कहां जाऊं ? रास्ते में रुक के दम ले लूं, मेरी आदत नहीं लौटकर वापस चला जाऊं, मेरी फितरत नहीं और कोई हमनवा मिल जाए यह किस्मत नहीं ऐ गमे-दिल क्या करूं ? ऐ वहशते-दिल क्या करूं? दिल में एक शोला भड़क उठा है आखिर क्या करूं? मेरा पैमाना छलक उठा है आखिर क्या करूं? जख्म सीने में महक उठा है आखिर क्या करूं? ऐ गमे-दिल क्या करूं, ऐ वहशते-दिल क्या करूं लौटकर वापिस चला जाऊं मेरी फितरत नहीं रास्ते में रुक के दम ले लूं मेरी आदत नहीं और कोई हमनवा मिल जाए यह किस्मत नहीं लौटकर जा नहीं सकता; जाने का उपाय नहीं । रुक जाऊं, ऐसी आदत नहीं। कोई संगी-साथी मिल जाए ऐसी किस्मत नहीं । ऐ गमे-दिल क्या करूं? ऐ वहशते-दिल क्या करूं? तो फिर आदमी बड़ा असहाय मालूम पड़ता है। जैसे कोई सागर में डूब रहा है । तिनके का भी सहारा नहीं। नाव तो दूर, For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001819
Book TitleJina Sutra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages668
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy