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________________ - त्रिगुप्ति और मुक्ति अंतर्जीवन में जाने का विज्ञान बन सकते हैं-कैसे तुम अपने न रह जाए। भीतर जाओ और कैसे तुम अपने को परिशुद्ध कर लो। फिर तुम तो तीन काम महावीर कहते हैं। पहला तो मूलस्रोत को रोक जो भी करोगे वह धार्मिक होगा। इसको खयाल में लेना। दो। दूसरा, जो है उसे उलीचो। तीसरा, सूरज की खुली रोशनी आमतौर से कहा जाता है, तुम धार्मिक हो जाओ, फिर तुम जो को मौका दो ताकि कहीं भी छिपा हुआ, भूमि में दबा हुआ कुछ न भी करोगे वह शुभ होगा। महावीर ने कहा, पहले तुम शुभ हो रह जाए। सब सूख जाए। जाओ. फिर तम जो करोगे वह धार्मिक होगा। इन बातों में बड़ा मनष्य तालाब जैसा है। अनंत-अनंत जन्मों के कर्म भरे पडे फर्क है। हैं। न मालूम कितनी बुराइयां की हैं, न मालूम कितने धोखे दिए हम लोगों को कहते हैं, पहले मंदिर जाओ, पूजा करो, प्रार्थना हैं, न मालूम कितने पाप, न मालूम कितने अशुभ, न मालूम करो, फिर तुम धीरे-धीरे शुभ हो जाओगे। शुभ होने का मार्ग ही कितनी वासनाएं की हैं, आकांक्षाएं की हैं। लोभ, काम, यही है। लेकिन वह जो अशुभ आदमी मंदिर जाएगा, वह मंदिर | क्रोध-वह सब भरा हुआ पड़ा है। को अशुभ कर आएगा। मंदिर उसे शुभ न कर पाएगा। मंदिर तो अब इससे छुटकारा पाना है। इस हृदय की भूमि को मुक्त जड़ है; आदमी को न बदल सकेगा। आदमी मंदिर को बदल करना है। तो पहली बात, स्रोत रोको। देता है। बहुत से लोग हैं, जो यह करना चाहते हैं लेकिन स्रोत नहीं इसलिए महावीर कहते हैं, पहले तुम शुभ होने लगो, फिर तुम रोकते। तो इधर एक हाथ से वे कोशिश भी करते रहते हैं और जहां जाओगे वहीं मंदिर होगा। यह सूत्र समझना। दूसरे हाथ से मिटाते भी चले जाते हैं। _ 'जैसे किसी बड़े तालाब का जल, जल के मार्ग को बंद करने | तुमने भी बहुत बार सोचा होगा कि जीवन में शुभ का अवतरण से, पहले के जल को उलीचने से तथा सूर्य के ताप से क्रमशः | हो, सत्य का पदार्पण हो, मंगल की वर्षा हो, हम भी कुछ सूख जाता है, वैसे ही संयमी का करोड़ों भवों में संचित कर्म, दिव्यता में जीएं। तो कभी-कभी तुमने थोड़ी चेष्टा भी की है। पापकर्म के प्रवेश-मार्ग को रोक देने पर, तथा तप से निर्जरा को कुछ अच्छा करें; दान करें, पुण्य करें, सेवा करें; कर्तव्य को प्राप्त होता है, नष्ट होता है।' निभाएं। यह तुमने थोड़ी-बहुत कोशिश भी की है, लेकिन तुम महावीर कहते हैं, एक तालाब भरा है, इसे हमें सुखा लेना है। जल्दी थक जाते हो। जल्दी ही पाते हो, यह हो नहीं पाता। हम चाहते हैं कि जमीन वापस मिल जाए। इस तालाब को हम क्यों? क्योंकि मूल वृत्ति तो टूटती नहीं। मूल धारा तो बहती समाप्त करना चाहते हैं। तो हम क्या करेंगे? चली जाती है। वह नदी तो गिर रही है, वह तो गिरती ही रहती तीन काम करने जरूरी हैं। एक सबसे बुनियादी, कि इस है। थोड़ा-बहुत उलीचते हो। दान किया तो थोड़ा उलीचा। दान तालाब में आने का जो जलस्रोत है, वह रोक दिया जाए। अगर यानी थोड़ा दिया। मगर इससे क्या होगा? आदमी लाख इस तालाब में जल के झरने पड़ते ही रहे तो हम उलीचते भी रहे | कमाता है तो हजार का दान कर देता है। लाख कमाता तभी तो पागलपन होगा। तुम उलीचते रहोगे और नए जल के झरने | हजार का दान करता है; नहीं तो करता ही नहीं। पानी को भरते रहेंगे। दान का मौलिक अर्थ यह है कि तुम परिग्रह मत करो। लेकिन इसलिए जो प्राथमिक, वैज्ञानिक कदम होगा वह यह कि पहले । दान वही करता है जिसके पास काफी आ रहा है। और वह जल के आनेवाले झरनों को रोक दो। सोचता है, अब करें भी क्या? थोड़ा दान भी कर लें? एक हाथ दूसरा काम होगा, जो भरा हुआ जल है, वह जल के झरने से दान करता है लेकिन दान भी ऐसी जगह करता है, इस ढंग से रोकने से नहीं समाप्त हो जाएगा, उसे उलीचो। करता है कि आगे और आने का इंतजाम हो जाए। तो राजनेताओं और उलीचने से भी परा साफ न हो जाएगा। सर्य के ताप को दान दे देता है, राजनैतिक पार्टियों को दान दे देता है। दान का को...सूर्य के ताप की भी सहायता लेनी होगी, ताकि कहीं भी मजा भी ले लिया और नए लाइसेंस का इंतजाम भी कर लिया। पड़ा न रह जाए। जमीन बिलकुल सूख जाए। जमीन में दबा भी | मूल स्रोत खुला रहता है। मूल धारा गिरती चली जाती है। 595 ___Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary org
SR No.001819
Book TitleJina Sutra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages668
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size25 MB
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