SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 253
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ हला सूत्र है। हजार काम हों तो भी बीच-बीच में कांटे की चुभन याद आ 'जैसे कांटा चुभने पर सारे शरीर में वेदना या पीड़ा जाती है। कांटा चुभा हो, चलो, बैठो, बात करो, लेकिन हर होती है और कांटे के निकल जाने पर शरीर निशल्य जगह अंतराल में से कांटे की चुभन याद आ जाती है। यह जो अर्थात सर्वांग सुखी हो जाता है, वैसे ही अपने दोषों को प्रगट न चुभन है, इसको महावीर कहते हैं शल्य की अवस्था। इस चुभन करनेवाला मायावी दुखी या व्याकुल रहता है; और उनको गुरु को निकाल दो, तो निशल्य-चित्त का जन्म होता है, स्वस्थ-चित्त के समक्ष प्रगट कर देने पर सुविशुद्ध होकर सुखी हो जाता है। का जन्म होता है। तुम्हारे भीतर ऐसा कुछ भी न रह जाए जो मन में कोई शल्य नहीं रह जाता।' तुमने दबाया है। तुम्हारे भीतर ऐसा कुछ भी न रह जाए जो तुमने | यह सत्र अत्यधिक महत्वपर्ण है। इस सत्र को खोजते छिपाया है। तम्हारे भीतर ऐसा कछ भी न रह जाए जिसे देखने से मनोविज्ञान को बहुत देर लगी। जो महावीर ने कहा पच्चीस सौ तुम डरते हो, जिसे आंख के सामने करने में भय लगता है। पीठ वर्ष पहले, वह फ्रायड को अभी-अभी इस सदी में जाकर खयाल के पीछे कुछ भी न रह जाए, सब आंख के सामने आ जाए, में आया। इस एक सत्र पर सारा आधनिक मनोविज्ञान खडा है। आंख के सामने आते ही कांटे विदा होने शरू हो जाते हैं। मनोचिकित्सक कहते हैं, जो भी मन में दबा पड़ा है अगर प्रगट मनोविश्लेषक वर्षों मेहनत करते हैं। उनकी चिकित्सा का हो जाए, तो उससे मुक्ति हो जाती है। मनोविश्लेषण की सारी सारसूत्र इतना ही है कि जिसे वे बीमार कहते हैं, वह महावीर का प्रक्रिया अचेतन में पड़ी हुई भावनाओं, विचारों, वासनाओं को शल्य से भरा हुआ व्यक्ति है। उसे बीमार कहना शायद ठीक चेतन में लाने की प्रक्रिया है। नहीं। उसे चिकित्सा की उतनी जरूरत नहीं है, जितनी कीमिया का सूत्र है-अचेतन से हम बंधे होते हैं, चेतन होते आत्म-साक्षात्कार की जरूरत है। पर जाने-अनजाने ही हम मुक्त हो जाते हैं। जिसे हमने भीतर ठीक-ठीक जान मनोविश्लेषण यही करता है। मरीज को कह देते हैं कि तुम लेट लिया, उससे हमारा छुटकारा हो जाता है। और जिसे हमने जाओ। चिकित्सक पीछे बैठ जाता है, मरीज से कहता है, तुम्हें अपने भीतर ठीक-ठीक न जाना, जिसका हमने साक्षात्कार न जो भी मन में उठे-प्रासंगिक, अप्रासंगिक-उसे उठने दो और किया, वह अंधेरे में पड़ा हमारी गर्दन में फांसी की तरह लटका बोले जाओ। तुम उसमें काट-छांट न करो। तुम किसी तरह के रहता है। महावीर इस दशा को शल्य की दशा कहते हैं। | सेंसर न बनो। अनर्गल भी आता हो तो आने दो, क्योंकि उनका शब्द भी बड़ा महत्वपूर्ण है। जैसे काटा चुभा हो, तो अनर्गल का भी कोई भीतरी कारण है तभी आ रहा है। असंबद्ध तुम भूल जाओ थोड़ी-बहुत देर को, काम में उलझ जाओ, आता है, उसे भी आने दो, क्योंकि असंबद्ध भी आना चाहता है लेकिन कांटे की चुभन बार-बार तुम्हें अपनी तरफ खींचती रहती | तो उसके भीतर भी कारण है। 243 ___Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001819
Book TitleJina Sutra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages668
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy