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________________ ‘अतः सुनकर हित और अहित दोनों का मार्ग जानकर जो कि यह मुर्दा है । आधा सत्य खतरनाक है । क्योंकि आधे सत्य में श्रेयस्कर हो उसका आचरण करना।' थोड़ी-सी प्राणों की झलक है। श्वास अभी चलती है, मरीज अभी मरा नहीं । लगता है जिंदा है। अभी शरीर थोड़ा गरम है, ठंडा नहीं हो गया है। खून अभी बहता है । लगता है जिंदा है। आधा सत्य असत्य से बदतर है। इसलिए महावीर का सारा संघर्ष आधे सत्यों के खिलाफ है, असत्य के खिलाफ नहीं । उन्होंने कहा असत्य तो सुनकर ही समझ में आ जाता है असत्य है। लेकिन आधे सत्य बड़े भरमाते हैं । महावीर यह भी नहीं कहते कि पाप को छोड़ो। कहने की जरूरत नहीं। ठीक से सुननेवाले को पाप पकड़ता ही नहीं। महावीर यह भी नहीं कहते कि सत्य का अनुसरण करो । यह बात ही व्यर्थ होगी। जिसने ठीक से सुना है वह सत्य के अनुसरण में लग जाता है। अनुसंधान में लग जाता है। इसका यह अर्थ हुआ - सम्यक - श्रवण कुंजी है सत्य के द्वार की जिसके हाथ में सम्यक-श्रवण है, वह पहुंच जाएगा। उसे कोई रोक न सकेगा। । इसे हम थोड़े वैज्ञानिक अर्थों में समझें । आदमी के पास आंख है देखने को, कान हैं सुनने को । आंख से जब तुम देखते हो, तो एक ही दिशा में देख सकते हो । आंख बहु-आयामी नहीं है। 'मल्टी-डायमेंशनल' नहीं है। एक तरफ देखो, तो सब दिशाएं बंद हो जाती हैं। आंख एकांगी है। आंख एकांत है। इसलिए महावीर का जोर कान पर ज्यादा है, आंख की बजाय । कान बहु-आयामी है। आंख बंद करके सुनो, तो चारों तरफ की आवाजें सुनायी पड़ती हैं। आंख समग्र को नहीं ले पाती। कान समग्र को भीतर ले लेता है। यह पहली बात खयाल में लेने की ! आंख से जब भी तुम देखते हो, तो एक दिशा में, एक रेखा में। उतनी रेखा को छोड़कर शेष सब बंद हो जाता है। आंख है जैसे टार्च। एक दिशा में प्रकाश की धारा पड़ती है। लेकिन शेष सब अंधकार में हो जाता है। महावीर कहते हैं, यह एकांगी होगा; यह एकांत होगा । तुम एक पहलू को जान लोगे, लेकिन शेष पहलुओं से अनजान रह जाओगे। यह ऐसा ही होगा जैसे उन पांच अंधों की कथा है, जो हाथी को देखने गये थे। सबने हाथी के अंग छुए, लेकिन सभी का दर्शन–अंधे थे, सभी की प्रतीति एकांगी थी। जिसने पैर छुआ उसने सोचा कि हाथी खंभे की भांति है। जिसने कान छुए उसने सोचा कि हाथी पंखे की भांति है। अलग-अलग। वे सभी सत्य थे, लेकिन सभी अधूरे सत्य थे। और महावीर कहते हैं, अधूरा सत्य असत्य से भी बदतर है । क्योंकि असत्य को तो पहचानने में कठिनाई नहीं, वह तो निष्प्राण है, वह तो लाश की तरह है । उसको तो तुम समझ ही जाओगे Jain Education International 2010_03 सत्य के द्वार की कुंजी : सम्यक-श्रवण महावीर ने एक नये जीवन-दर्शन को जन्म दिया। उसे कहा, स्यातवाद । उसे कहा, अनेकांतवाद । उसे कहा कि मैं सारे एकांगी सत्यों को इकट्ठा कर लेना चाहता हूं। ये पांचों अंधों ने जो कहा है हाथी के संबंध में, यह सभी सच है । और सत्य इन सभी का इकट्ठा जोड़ है, समन्वय है। कान की खूबी है कि कान आंख से ज्यादा समग्र है। जब तुम सुनते हो तो चारों दिशाओं से सुनते हो। कान ऐसे हैं जैसे दीया जले। सब तरफ प्रकाश पड़े। आंख ऐसे हैं जैसे टार्च। एक दिशा में । एकांगी। महावीर कहते हैं कि दर्शनशास्त्र एकांगी है। श्रवणशास्त्र बहु - अंगी है। इसलिए महावीर ने एक बड़ी क्रांतिकारी प्रज्ञा दी। उन्होंने कहा कि सुनो। अगर ध्यान में जाना है, तो सुनकर जल्दी जा सकोगे, बजाय देखकर। इसलिए समस्त ध्यानियों ने आंख बंद कर लेनी चाही है। समस्त ध्यान की प्रक्रियाएं कहती हैं आंख बंद कर लो। यह भी थोड़ा समझने जैसा है कि परमात्मा ने आंख को ऐसा बनाया है कि चाहो तो खोल लो, चाहो तो बंद कर लो। कान को ऐसा नहीं बनाया। कान खुला है। बंद करने का उपाय नहीं । आंख तुम्हारे हाथ में है। कान अब भी परमात्मा के हाथ में है। तुम्हारे वश में नहीं कि तुम उसे खोलो, बंद करो। सदा खुला है। तुम्हारी गहरी से गहरी नींद में भी कान खुला है। आंख तो बंद है। जब तुम मूर्च्छा में खोये हो, तब भी कान खुला है। आंख तो बंद है। नींद में पड़े आदमी के पास जागा आदमी खड़ा रहे, तो देख न पायेगा। नींद में पड़ा आदमी देखेगा कैसे, आंख तो बंद है । लेकिन अगर वह आदमी उसका नाम ले, आवाज दे, तो सुन तो पायेगा । हम सोये हैं । श्रवण से रास्ता मिलेगा। आंख तो हमारी बंद ही है। और खुली भी हो तो ज्यादा से ज्यादा अधूरा सत्य देख For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001819
Book TitleJina Sutra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages668
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size25 MB
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