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________________ प हला सूत्र : 'समाधि की भावना वाला तपस्वी इंद्रियों के अनुकूल विषयों में कभी राग-भाव न करे और प्रतिकूल विषयों में भी मन में द्वेष न लाए।' मनुष्य के मन के आधार ही चुनाव में हैं। मनुष्य के मन की बुनियाद चुनने में है । चुना, कि मन आया । न चुनो, मन नहीं है। इसलिए कृष्णमूर्ति बहुत जोर देकर कहते हैं, च्वाइसलेस अवेयरनेस - चुनावरहित सजगता । चुनावरहित सजगता में मन का निर्माण नहीं होता । न रहेगा पेंडुलम की तरह । कभी मित्रता बनाता, कभी शत्रुता बनाता । बांस, न बजेगी बांसुरी । कभी कहता अपना, कभी कहता पराया । मन को तो बहुत लोग मिटाना चाहते हैं। ऐसा आदमी खोजना कठिन है, जो मन से परेशान न हो। मन से बहुत पीड़ा मिलती है, बेचैनी मिलती है। मन का कोई मार्ग शांति तक, आनंद तक जाता नहीं; कांटे ही चुभते हैं। मन आशा देता है फूलों की, भरोसा बंधाता है फूलों का; हाथ आते-आते तक सभी फूल कांटे हो जाते हैं। ऊपर लिखा होता है - सुख । भीतर खोजने पर दुख मिलता है। जहां-जहां स्वर्ग की धारणा बनती है, वहीं-वहीं नर्क की उपलब्धि होती है। जैसे ही तुमने राग बनाया, तुमने द्वेष के भी आधार रख दिए। खयाल किया ? किसी को भी मित्र बनाए बिना शत्रु बनाना संभव नहीं । शत्रु बनाना हो तो पहले मित्र बनाना ही पड़े। तो मित्र बनाया कि शत्रुता की शुरुआत हो गई। तुमने कहा किसी से 'मेरा है', संयोग-मिलन को पकड़ा - बिछोह के बीज बो दिए। जिसे तुमने जोर से पकड़ा, वही तुमसे छीन लिया जाएगा। तो यह भी संभव हो जाता है कि आदमी देखता है, जिसे भी मैं पकड़ता हूं, वही मुझसे छूट जाता है। तो छोड़ने को पकड़ने लगता है, कि सिर्फ छोड़ने को पकड़ लूं। यही तो तुम्हारे त्यागी और विरागियों की पूरी कथा है। धन को पकड़ते थे; पाया कि दुख मिला, तो अब धन को नहीं पकड़ते। लेकिन 'नहीं पकड़ने' पर उतना ही आग्रह है । पहले धन के लिए दीवाने थे, अब धन पास आ जाए तो घबड़ा जाते हैं, जैसे सांप-बिच्छू आया हो; जैसे जहर आया हो। तो स्वाभाविक है कि मनुष्य मन से छूटना चाहे; लेकिन चाह काफी नहीं है। यह भी हो सकता है कि मन से छूटने की चाह भी मन को ही बनाए। क्योंकि सभी चाह मन को बनाती हैं । चाह मात्र मन की निर्मात्री है। तो बुनियाद को खोजना जरूरी है, मन बनता कैसे है ? यह पूछना ठीक नहीं कि मन मिटे कैसे? इतना ही जानना काफी है किन बनता कैसे है ! और हम न बनाएं तो मन नहीं बनता । हमारे बनाए बनता है। हम मालिक हैं। लेकिन ऐसा हो गया है कि बुनियाद में हम झांकते नहीं, जड़ों को हम देखते नहीं, पत्ते काटते रहते हैं। पत्ते काटने से कुछ हल नहीं होता । Jain Education International 2010_03 महावीर का यह पहला सूत्र, निर्विकल्प भावदशा के लिए पहला कदम है। महावीर कहते हैं, न तो राग में, न द्वेष में। ये दो ही तो मन के विकल्प हैं। इन्हीं में तो मन डोलता है, घड़ी के For Private & Personal Use Only 325 www.jainelibrary.org
SR No.001819
Book TitleJina Sutra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages668
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size25 MB
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