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________________ चौदह गुणस्थान - यह जो ग्यारहवीं अवस्था है, यह है उपशांतमोह। मोह शांत | हो गया है। जिनः जाग गया है। केवल-ज्ञान की उपलब्धि, हो गया। जैसे धूल, कूड़ा-कर्कट झरने में नीचे बैठ गया; | परमात्मा या भगवान की संज्ञा। लेकिन मिट नहीं गया है। बहुत सम्हल-सम्हलकर चलना | महावीर कहते हैं, इस तेरहवीं अवस्था में व्यक्ति भगवान की होगा। इस अवस्था में व्यक्ति को ऐसे चलना होता है, जैसे कोई | स्थिति में है लेकिन अभी काया से जुड़ा है। अभी देह से संबंध गर्भिणी स्त्री चलती है। एक गर्भ है; पेट में एक नया जीवन है। | है। सब समाप्त हो गया, लेकिन अभी देह से मुक्ति नहीं हुई है। सम्हलकर चलती है, कहीं गिर न जाए, फिसल न जाए। अभी देह के भीतर है। जैसे-जैसे गर्भ बड़ा होने लगता है, वैसे-वैसे सावधानी ऐसा समझो कि तुम जेलखाने में बंद हो और खबर आ गई। बरतनी होती है। इस ग्यारहवीं अवस्था में हम आखिरी अवस्था | जेलर ने आकर कहा कि खड़े हो जाओ, छुटकारे का समय आ के बहुत करीब आ गए। समझो कि सात महीने पूरे हुए गर्भ के; | गया। तुम्हारी मुक्ति का क्षण आ गया। जंजीरें खोल दी गईं, तुम कि आठवां महीना लग गया; कि अब नौवां महीना करीब आ चल पड़े जेलर के साथ दरवाजे की तरफ, लेकिन अभी तुम रहा है। अब बड़ी सावधानी की जरूरत है। दरवाजे के भीतर हो। एक अर्थ में मुक्त हो गए। हो ही गए उस सावधानी पर जोर देने के लिए ही इसको महावीर ने मुक्त। अब कुछ बचा नहीं। जंजीरें भी छूट गईं, मुक्ति का उपशांतमोह कहा है। बैठ गई तलहटी में धुल, उठ सकती है। आदेश भी आ गया, द्वार की तरफ चल भी पड़े, लेकिन अभी भी निश्चित होकर मत बैठ जाना। अभी अंत नहीं आ गया। बड़ी कारागृह में हो। अब कोई कारण नहीं कि तुम रहोगे कारागृह में सुखद अवस्था है, बड़ी शांति की अवस्था है। कुछ क्षण में तो लेकिन हो अभी भी। ऐसा लगेगा कि सिद्ध हो गए। कुछ फर्क नहीं है सिद्ध में और महावीर कहते हैं, इस अवस्था में व्यक्ति को भगवान या इस अवस्था में, जहां तक पानी की स्वच्छता का संबंध है। फर्क | परमात्मा की संज्ञा उपलब्ध होती है। इतना ही है कि सिद्ध का पानी अब तुम कितना ही उछलो-कूदो, फिर चौदहवीं अवस्था है : अयोगिकेवलीजिन। अयोगी यानी गंदा नहीं हो सकता। यह अभी गंदा हो सकता है। अगर किनारे | जब शरीर से भी संबंध छूट गया, तब तुम कारागृह के बाहर हो से बैठकर देखो तो दोनों बिलकुल एक जैसे हैं। | गए। जरा-सा फर्क है; शायद इंचभर का। एक क्षणभर पहले उपशांतमोह की अवस्था का व्यक्ति ठीक सिद्ध जैसा मालूम तुम कारागृह के भीतर थे, एक क्षण के बाद कारागृह के बाहर हो होगा। साधारणतः बाहर से लोग फर्क भी नहीं कर सकते, मगर गए। बहत बड़ा भेद नहीं है। इसलिए महावीर कहते हैं, तेरहवीं वह स्वयं फर्क कर सकता है। अभी विकृति उठ सकती है। अवस्था में व्यक्ति को भगवान कहा जा सकता है। सब अभी सांप आखिरी बार फन उठा सकता है। व्यावहारिक अर्थों में वह भगवत्ता को उपलब्ध हो गया। बारहवीं अवस्था है: क्षीणमोह, कषायों का समूल नाश। अब जरा-सी बात रह गई है कि अभी कारागह के दरवाजे के पार नहीं ऐसा नहीं कि झरने में नीचे कचरा बैठा है, कचरा झरने से समाप्त | हुआ है। कर दिया गया। जब बिलकल शद्ध हो गया है। अयोगिकेवलीजिनः साधक की अंतिम भूमि। जिसमें मन, फिर भी महावीर अभी इसको बारहवीं अवस्था कहते हैं। वचन, काया की समस्त चेष्टाएं शांत होकर शैलेशी स्थिति प्राप्त महावीर का गणित बहुत साफ है। होती है। तेरहवीं अवस्था हैः संयोगिकेवलीजिन। महावीर कहते हैं अब डिग नहीं सकता। तेरहवीं अवस्था तक थोड़ा-सा खतरा सब ठीक हो गया, लेकिन अभी देह से संबंध है। अभी देह से | है। जेलर का मन बदल जाए, कोई दुर्घटना हो जाए, वह जो द्वार संयोग है। सब समाप्त हो गया, लेकिन अभी जो चैतन्य जागा | पर खड़ा पहरेदार है चाबी घर भूल आया हो; कि चाबी लगे न, है, वह अभी देह में है। अभी देह से जुड़ा है। | कि चाबी खराब हो गई हो, कि ताला अटक जाए। अभी भीतर संयोगी, केवली, जिन-तीन शब्द हैं। संयोगी : संयोगी का है, बिलकुल चल पड़ा है बाहर होने के लिए, लेकिन अभी देह से अर्थ है, अभी देह से संबंध है। केवली : केवलज्ञान को उपलब्ध | जुड़ा है। चौदहवीं अवस्था में देह से संबंध पूर्ण रूप से छूट 5211 ___Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001819
Book TitleJina Sutra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages668
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size25 MB
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