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सुवहुं पि सुयमहीयं किं काहिइ चरणविप्पहीणस्स। अंधस्स जह पलित्ता, दीवसयसहस्सकोडी वि ।।१०।।
थोवम्मि सिक्खिदे जिणइ, बहुसुदं जो चरित्तसंपुण्णो। जो पुण चरित्तहीणो, किं तस्स सुदेण बहुएण।।९१।।
णिच्छयणयस्स एवं, अप्पा अप्पमि अप्पणे सुरदो। सो होदि हु सुचरित्तो, जोई सो लहइ णिव्वाणं।।९२।।
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जं जाणिऊण जोई, परिहारं कुणइ पुण्णपावाणं। तं चारित्तं भणियं, अवियप्पं कम्मरहिएहिं।।९३।।
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अब्भंतरसोधीए, बाहिरसोधी वि होदि णियमेण। अब्भंतर-दोसेण हु, कुणदि णरो बाहिरे दोसे।।९४ ।।
जह व णिरुद्धं असुहं, सुहेण सुहमवि तहेव सुद्धेण। तम्हा एण कमेण य, जोई झाएउ णियआदं।।९५।।
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