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________________ जिन सूत्र भाग : 2 | जब सालभर बाद पिता वापस लौटा तो पहले बेटे ने लाकर ऊर्जा को एक दांव पर लगाया। जिसकी ऊर्जा तीर बनी और बाजार से तत्क्षण बीज वापस लौटा दिए। लेकिन बाप ने कहा, लक्ष्य की तरफ जिसने अपनी प्रत्यंचा को साधा। देशविरतः ये वे बीज नहीं हैं, जो मैंने तुम्हें दिए थे। शर्त यही थी कि वही लक्ष्य दिया, दिशा दी, मर्यादा बांधी। जो व्यर्थ करता नहीं, व्यर्थ लौटाने हैं। दूसरा बड़ा प्रसन्न हुआ। उसने जल्दी से तिजोड़ी बोलता नहीं, व्यर्थ सोचता नहीं। जिसका सारा जीवन एक खोली। जिन बीजों से बड़े सुगंध वाले फूल पैदा होते थे वे सब संगति है। और प्रत्येक कदम दूसरे कदम से जुड़ा है। और सड़ गए थे। उनसे सिर्फ दुर्गंध आ रही थी। बाप ने कहा, मैंने जिसके जीवन में एक मर्यादा है। तुम्हें बीज दिए थे। ये तो बीज न रहे, राख हो गई। बीज का तो अगर नदी बनना हो तो किनारा चाहिए। तो सागर तक पहुंच अर्थ है, जिसमें पौधा पैदा हो सके। क्या इनमें पौधा पैदा हो सकोगे। अगर किनारे छोड़कर बहने लगे, मर्यादा टूट गई तो सकता है? और मैंने तुम्हें सुगंध की संभावना दी थी, और तुम सागर तक कभी न पहुंच सकोगे। किसी मरुस्थल में खो दुर्गंध लौटा रहे हो। मैंने तुम्हें जीते-जागते बीज दिए थे, तुम मुझे जाओगे। सागर तक पहुंचने के लिए नदी को किनारे में बंधे मुर्दा राख लौटा रहे हो? यह शर्त पूरी न हुई। रहना जरूरी है। तीसरे बेटे से पूछा। बाप बड़ा चिंतित भी हुआ कि क्या तीनों देशविरत का अर्थ है, किनारों में बंधा हुआ व्यक्तित्व। अयोग्य सिद्ध होंगे? तीसरे बेटे ने कहा, मैं मुश्किल में हूं। जो छठवां गुणस्थान है: प्रमत्तविरत। संयम के साथ-साथ मंद बीज आप दे गए थे वे मैंने बो दिए। उनकी जगह करोड़ गुने बीज रागादि के रूप में प्रमाद रहता है। संयम तो आ गया, अनुशासन हो गए हैं। क्योंकि मैंने सोचा जितना पिता दे गए हैं, उतना भी | आ गया, लेकिन जन्मों-जन्मों तक जो हमने राग किया है, मोह क्या लौटाना! उतना ही लौटाना तो कोई योग्यता न होगी। किया है, लोभ किया है, उसकी मंद छाया रहती है। एकदम बाजार में मैं बेच न सका क्योंकि ये वे बीज दूसरे होंगे। दूसरे मेरे | चली नहीं जाती। हम उसके ऊपर उठ आते हैं, लेकिन हमारे भी बीज हैं लेकिन आप जो बीज दे गए थे, उनकी ही संतान हैं; अचेतन में दबी मंद छाया रहती है। हम ऊपर से क्रोध नहीं भी उन्हीं का सिलसिला है. उन्हीं की शंखला है। लेकिन जितने आप करते तो भी क्रोध की तरंगें भीतर अचेतन में उठती रहती हैं। हम दे गए थे, मैं उतने ही लौटाने में असमर्थ हूं क्योंकि मैंने कभी | लोभ नहीं भी करते। हम नियंत्रण कर लेते हैं, लेकिन भीतर गिनती नहीं की। करोड़ गुने हो गए हैं। आप सब ले लें। अचेतन लोभ के संदेश भेजता है। बाप पीछे गया भवन में। दूर-दूर तक फूल ही फूल खिले थे। कहते हैं भर्तृहरि ने सब राज्य छोड़ दिया, वे जंगल में जाकर बीज ही बीज भरे थे। बाप ने कहा, तुम जीत गए। तुम मेरे बैठ गए। बड़े अनूठे व्यक्ति थे। पहले लिखा शृंगार उत्तराधिकारी हो। क्योंकि वही बेटा योग्य है, जो संपदा को शतक-जीवन के भोग का काव्य। जीवन के भोग की जैसी पदा को जीवित रखे. जो संपदा को फैलाए जो स्तति हो सकती है वैसी भर्तहरि ने की। कोई और फिर कभी संपदा को और मूल्यवान करे। | उनके साथ मुकाबला न कर पाया। कोई और उन्हें पीछे न कर हम सभी को बराबर ऊर्जा मिली है, बराबर बीज मिले हैं। पाया। फिर लिखा वैराग्य शतक। पहले राग की स्तुति की, फिर कोई महावीर उसे खिला देता है, परमात्म-स्थिति उपलब्ध हो वैराग्य की स्तुति की। अक्सर ऐसा होता है, जो राग को ठीक से जाती है। कोई बुद्ध कमल बन जाता है। और हम ऐसे ही जीएगा, वह किसी न किसी दिन वैराग्य को उपलब्ध हो जाएगा। सिकड़े-सिकड़े या तो बाजार में बिक जाते हैं-अधिक तो हम जो शंगार शतक से ठीक से गुजरेगा, वह वैराग्य शतक को बाजार में बिक जाते हैं या तिजोडियों में सड़ जाते हैं। जो कर्मठ हैं उपलब्ध होगा। | बहुत, वे बाजार में बिक जाते हैं, जो सुस्त, काहिल हैं वे भर्तृहरि ने सब छोड़ दिया, वे जंगल में बैठे-सब बड़ा तिजोड़ियों में सड़ जाते हैं। लेकिन जीवन की इस ऊर्जा का साम्राज्य, धन-वैभव, मणि-माणिक्य। अचानक आंख खुली, फैलाव हमसे नहीं हो पाता। दो घुड़सवार सामने की ही पगडंडी पर घोड़ों को दौड़ाते हुए महावीर कहते हैं : देशविरत का अर्थ है, जिसने अपनी सारी आए। आंख खुल गई। ध्यान में बैठ थे, ध्यान टूट गया। देखा, 516 Jal Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001819
Book TitleJina Sutra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages668
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size25 MB
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