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________________ गुरु है द्वार गिर गया। खड्ड में गिरा तो उसने एक वृक्ष की जड़ को पकड़ है। या कि प्रेम के पास ऐसी आंखें हैं, जिनको सिर्फ प्रेमी ही लिया जोर से। सारी रात कैसे कटी, कहना कठिन है। रोते ही, जानते हैं, और कोई नहीं जानता। और प्रेम तो एक पागलपन है, आंसू बहाते ही रात बीती। सर्द रात, ठिठुर रहा, हाथ जड़ हए एक दीवानगी है। प्रेम तो मजन होना है। प्रेम का तो अर्थ ही यही जाते, कब वृक्ष की जड़ हाथ से छूट जाएगी, कहना मुश्किल! है कि अब सब दांव पर लगाने की तैयारी है, लेकिन अब और बल खोता जाता, मृत्यु निश्चित है, पता नहीं नीचे कितना बड़ा | देर सहने की तैयारी नहीं। खड्ड हो! और फिर आधी रात के करीब हाथ बिलकुल ठंडे सुन्न | तो तुम पूछते हो कि पागल हो जाऊंगा। मेरी तरफ से तो जिस हो गये। पकड़ संभव न रही। जड़ छूट गयी और वह आदमी | दिन तुम्हें संन्यास दिया, उसी दिन मैंने मान लिया कि तुम पागल गिरा। और गिरने के बाद उस घाटी में एक खिलखिलाहट की हो गये। पागल हुए बिना परमात्मा को कब किसने पाया है ? आवाज आयी, क्योंकि नीचे कोई खाई न थी, समतल जमीन पागल होने का इतना ही अर्थ है कि जीवन में बड़ी त्वरा से खोज थी। गिरकर पता चला कि गिरने को कुछ नीचे था ही नहीं। हो रही है। कुनकुनी नहीं, उबलती हुई खोज। दुकानदारी नहीं, नाहक कष्ट झेला। जुआरी की तरह-सब लगा दिया। लेकिन अंधेर में पता कैसे चले? गिरकर पता चला कि नीचे | होशियार मेरे पास नहीं आते। मेरे पास तो प्यासे आते हैं। समतल भूमि थी। खिलखिलाकर हंसने लगा। होशियारों के लिए तो बहुत और जगहें हैं, जहां वे संसार को भी सुनो मेरी, उतर आओ! लौटकर मत देखो; जो गया, गया। सम्हाले रहते हैं, परमात्मा का भी थोड़ा सहारा पकड़े रहते हैं। न और प्रभु द्वार पर खड़ा है। सुनो मेरी। स्वागत कर लो! गले यह दुनिया जाए, न वह दुनिया जाए। कुछ दांव पर लगाना नहीं भेंट लो। आनंद से उतर आओ। नाचते, गुनगुनाते। सौभाग्य है। सब सम्हालकर रखना है, दोनों नाव पर सवार रहना है। मेरे समझो! प्रकाश आया, प्राची लाल हो उठी, सूरज करीब है। मैं | पास तो तुम आये हो, तो उसका अर्थ ही यही है कि तुमने पागल तुमसे कहता हूं-मरो! होने की हिम्मत जुटायी। और दूसरे तुम्हारे हृदय को नहीं देख सकते। पूछा है, तीसरा प्रश्न : अफसोस, कोई दिल का हाल नहीं पूछता। | 'अफसोस कोई दिल का हाल नहीं पूछता।' और सब यही कह रहे हैं तेरी सूरत बदल गयी। और यह भी | दिल तो दूसरों को दिखायी पड़ नहीं सकता। दिल तो वही है कह रहे हैं कि सब कुछ लुटाकर होश में आये तो क्या आये! | जिसे तुम जानते हो, अपने निजी एकांत में। दिल तो अत्यंत ऐसी मेरी हालत है, मैं क्या करूं? मेरे प्रश्न का उत्तर देने की वैयक्तिक है। वहां तो तम किसी को निमंत्रण भी नहीं दे सकते। कृपा करेंगे। आपने उत्तर नहीं दिया, तो मैं सचमुच पागल हो अपने निकटतम मित्र को भी वहां तुम नहीं ले जा सकते। उस जाऊंगा। जगह तो बस तुम्हारा ही आना-जाना है। दूसरे को तुम्हारे दिल का क्या पता चलेगा? इसलिए यह आशा ही छोड़ दो कि कोई तो अभी क्या ढोंग ही रच रहे हो! सचमुच पागल हो तुमसे दिल का हाल पूछेगा। कोई पूछे तो तुम बता भी न जाओगे? तो पागल होना भी तुम्हारी स्वेच्छा पर है? कि जब सकोगे। एक तो कोई पूछेगा ही नहीं। दूसरे को तो यह भी पक्का होना चाहोगे तब हो जाओगे। तो स्वांग होगा। मेरे उत्तर देने न नहीं होता कि तम में दिल है भी। देने से पागल होने का क्या संबंध है? या तो पागल हो; और या इसीलिए तो लोग कहते हैं, आत्मा नहीं है। क्योंकि बाहर से पागल नहीं हो तो कैसे हो जाओगे? | तो सिर्फ इतना ही दिखायी पड़ता है, शरीर है; बहुत से बहुत जिसने संन्यास लिया, मेरे लिए तो पागल हो ही गया। अनुमान लगता है कि मन होगा, वह भी न है, दिखायी तो संन्यास का अर्थ ही यह है कि तुम अब ऐसी डगर पर चले जहां कुछ पड़ता नहीं। | हिसाब-किताब नहीं, जहां तर्क व्यर्थ हैं। जहां श्रद्धा सार्थक है। हृदय की तो बात ही नहीं जमती कि तुम्हारे भीतर हृदय होगा। तुम ऐसी डगर पर चले, जो प्रेम की डगर है। और प्रेम तो अंधा | फिर आत्मा तो और भी आखिरी बात हो गयी। 317 Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001819
Book TitleJina Sutra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages668
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size25 MB
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