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________________ जिन सूत्र भाग: 2 शरीर की पहचान तो साफ है। मन की थोड़ी-बहुत अनुमान से अन्यथा कौन किसकी सूरत देखता है! अपनी देखने से फुर्सत पहचान होती है कि मेरे भीतर भी विचार चलते हैं, दूसरे के भीतर मिले तो आदमी दूसरे की सूरत देखे! अपनी देखने से तो फुर्सत भी चलते होंगे। चलने चाहिए। क्योंकि शरीर मेरा जैसा लगता मिलती नहीं। तुम जब घर से निकलते हो तो तुम्हीं बहुत परेशान है, तो मन भी शायद मेरे जैसा हो। फिर मन के भीतर छिपा हुआ होते हो आईना वगैरह देखकर कि कहीं कुछ गलती न रह जाए, हृदय, उस तक तो पहुंच नहीं हो पाती। उस तक तो केवल प्रेम कोई दाग न रह जाए, कोई कचरा न लगा रह जाए, कहीं कोई से पहंच हो पाती है. अनमान से नहीं। फिर हृदय के भीतर छिपी आदमी देख ले। कौन देखता है, तम इसकी फिकर तो करो? आत्मा है। उस तक तो प्रेम से भी पहुंच नहीं हो पाती। उस तक तुम किसकी सूरत देखते हो? कोई किसी की सूरत नहीं देख तो ध्यान से ही पहंच हो पाती है। फिर आत्मा के भीतर छिपा रहा। लोग अपने-अपने अहंकारों में ग्रस्त हैं। लोग परमात्मा है, उस तक तो किसी चीज से भी पहुंच नहीं होती, अपने-अपने में बंद हैं।। ध्यान से भी नहीं होती। लेकिन जब तुम आत्मा में पहुंच जाते हो, तो कोई अगर तुम्हारी सूरत भी देख लेता है, तो बड़ी कृपा! तो परमात्मा तुम्हें खींच लेता है। आत्मा तक मनुष्य जा सकता और कोई अगर इतना भी पहचान लेता है कि तुम्हारी सूरत बदल है, वहां तक मनुष्य के कृत्य की सीमा है। गयी है, तो उसे धन्यवाद दो। उसके मन में तुम्हारे लिए कुछ इसीलिए तो महावीर ने परमात्मा की बात नहीं की। क्योंकि सहानभति होगी। कछ जगह होगी तम्हारे लिए। कछ लगाव जहां तक मनुष्य जा सकता है वहीं तक बात करनी उचित है, होगा, कुछ राग होगा। और लोग पहले सूरत ही पहचान पाते आगे की क्या बात करनी! आगे तो घटना घटती है—अपने से हैं। लेकिन सूरत निश्चित बदलती है, यह पक्का है। कभी तो घटती है। ऐसा समझो कि तुम छत पर खड़े हो। जब तक खड़े क्षणभर में क्रांति हो जाती है। हो, ठीक; छलांग लगा लो, तो छलांग लगाने के बाद फिर कभी-कभी मैं देखता हूं, एक आदमी आता है, अस्त- व्यस्त, जमीन तक आने के लिए थोड़े ही तुम्हें कुछ करना पड़ता है। संदिग्ध, मन डांवाडोल; उसकी चाल भी देखकर कह सकते हैं छलांग लगा ली कि फिर तो गुरुत्वाकर्षण काम करने लगता है। कि डांवाडोल है, कुछ तय नहीं किया है; भीतर कंपन है, बाहर फिर तो जमीन का ग्रेविटेशन तुम्हें खींच लेता है, कशिश खींच भी कंपन है मेरे सामने बैठता है, कहता है कि संन्यास लूं, या लेती है। फिर तुम यह थोड़े ही पूछोगे कि छलांग लगाने के बाद न लूं? कई दिन से सोच रहा हूं, कुछ तय नहीं हो पाता। जब फिर मैं क्या करूं कि जमीन तक आ जाऊं? हम कहेंगे, तुम कोई चीज तय नहीं हो पाती, तो तुम भीतर बहुत डांवाडोल हो सिर्फ छलांग लगा लो, बाकी काम छोड़ो, फिक्र तुम मत मरो, जाते हो, बंट जाते हो। फिर वह हिम्मत जुटा लेता है, सुन लेता वह जमीन कर लेगी। है मेरी पुकार। मैं कहता हूं-कूदो, देखेंगे; सोचना बाद में कर आत्मा तक मनुष्य जाता है। आत्मा के बाद कशिश परमात्मा लेंगे। सोचना इतना जरूरी भी नहीं है। वह कहता है, बिना सोचे की शुरू होती है। वहां से सीमा परमात्मा की। छलांग लग गयी, कैसे संन्यास ले लूं? फिर वह तुम्हें खींच लेता, उसका गुरुत्वाकर्षण खींच लेता। मैं कहता हूं, जिन्होंने लिया, बिना सोचे ही लिया। हालांकि 'अफसोस, कोई दिल का हाल नहीं पूछता।' लेने के बाद पछताये नहीं। क्योंकि लेने के बाद पाया कि लेने अफसोस मत करो। ऐसे अफसोस किया तो व्यर्थ ही परेशान | योग्य था। कुछ चीजें हैं, जिनको लेकर ही पता चलता है क्या होओगे। कौन पूछेगा दिल का हाल तुमसे? कोई जरूरत भी हैं। स्वाद से ही पता चलता है क्या हैं। पहले से पता भी कैसे नहीं किसी को पूछने की। और बताने की भी आकांक्षा मत चले? मैं कहता हूं, तुम ले लो। मैं देता हूं, तुम ले लो। फिर | करो। तुम्हारी प्रार्थना प्रदर्शन न बने। भीतर-भीतर स्वाद ले लेना, फिर बाद में तय कर लेना कि लेने 'हां, लोग कहते हैं कि तेरी सूरत बदल गयी।' योग्य था या नहीं। हिम्मतवर आदमी होता है, साहसी होता है, सूरत तक उनकी पहचान है। चेहरा दिखायी पड़ता है, तुम उतर जाता है। इधर मैं माला उसके गले में डालता हूं, उधर एक थोड़े ही दिखायी पड़ते हो। उतना भी पूछ लेते हैं, बड़ी कृपा है, | रूपांतरण शुरू होता है, उसकी सूरत बदलने लगती है। क्योंकि 318 Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001819
Book TitleJina Sutra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages668
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size25 MB
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