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ANTAR
नाह ससार, हाना है धर्म
होता है, या खुला होता है; यह आधा क्या मामला है! नसरुद्दीन खतरनाक थी। लाखों लोग अपने घरों को छोड़कर चले गये। ने कहा, मुझे पूरा भरोसा नहीं है कि ट्रेन आयेगी; इसलिए आधा | इसके कारण धर्म को जितना नुकसान पहुंचा, और किसी बात से खोल रखा है।
नहीं पहुंचा। धर्म शब्द ही घबड़ानेवाला हो गया। धर्म में कोई जिनको पूरा भरोसा नहीं है अपने पर, उनको मैंने कहा चलो, उत्सुक हुआ, तो घर के लोग चिंतित हुए कि अब कुछ उपद्रव सफेद वस्त्रों में रहो, 'दूध की दोहनिया!' आधा तो खोला, | होगा। लाखों लोगों ने घर छोड़ दिया। उनके देखेंगे। आधा आगे देख लेंगे। लेकिन कमजोरियां भीतर हैं। | गुजरी, उनके पत्नी-बच्चे भूखे मरे, उनके बाप, मां, बुढ़ापे में अब लोग छोटी-छोटी अजीब-अजीब कमजोरियां लाते हैं। यह | कैसे जीये, किसी ने कोई इतिहास न लिखा! लिखा जाना तो ठीक है कि तुम्हारे पिता ने तुम्हें अच्छा बहाना दिया कि रस्सी | चाहिए। गहन दुख उससे पैदा हुआ होगा। लेकिन सदियों से ले लेंगे। एक सज्जन आये, वे कहने लगे कि और तो सब ठीक | ऐसा चला है। उसके कारण एक भय समा गया। लोग है, गैरिक-वस्त्र भी ले सकते हैं, लेकिन सर्दी में क्या होगा! | भीतर-भीतर डरने लगे। तो ऊपर-ऊपर पूजा भी करते हैं कोट वगैरह सब महंगे बनाकर रखे हैं, उनका क्या होगा! तुम | संन्यासी की, भीतर-भीतर डरते हैं। दूसरे का बेटा संन्यासी हो | सोच ही नहीं सकते आदमी कैसे बहाने खोजता है। तो सर्दी में तो | जाए, तो लोग सम्मान करने आते हैं। खुद का होने लगे, तो पहन सकते हैं ऊनी वस्त्र दूसरे रंगों के? जैसे कुछ वस्त्रों के | रस्सी लेते हैं। यह कैसी दुविधा है! महावीर भी किसी के बेटे थे पहनने से कुछ होना-जाना है! तुम बात ही चूक गये, तुम इशारा | और बुद्ध भी किसी के बेटे थे। जो पिता तुम्हारे संन्यास लेने से ही न समझे। यह तो बात समर्पण की थी। सर्दी और गर्मी का | डर रहा है, वह पिता भी बुद्ध के चरणों में सिर झुका आयेगा और यहां कोई उपाय न था। समर्पण यानी बारहमासी। इसमें कोई | कभी न सोचेगा कि बुद्ध के पिता पर क्या गुजरी! यही गुजरी। एक ऋतु में यह पहन लेंगे, दूसरी ऋतु में वैसा पहन लेंगे। इससे बहुत भयंकर गुजरी।।
लोग संन्यास ले जाते हैं, माला मैं उनके गले में डालता नहीं | मैं तो संन्यास को ऐसा रूप दे रहा हं कि उससे किसी को पीडा कि वे जल्दी से उसे अंदर छिपा लेते हैं। वह है ही इसीलिए कि | न हो। क्योंकि जिस संन्यास से पीड़ा हो वह भी क्या लेने योग्य लोग तुम्हें पागल समझें। कि लोग हंसें, कि लोग मौका दें कि है! जिससे कहीं दुख पैदा हो, उससे तुम्हें सुख पैदा न हो अच्छा, तो तुम भी गये! उसे तुम जल्दी से अंदर छिपा रहे हो! सकेगा। जिसके कारण तुम दूसरों को दुख दो, उसके कारण तुम्हें तो माला रही, न रही, बराबर हो गया। छोटी-छोटी बातें लोग सुख पैदा कैसे हो सकता है? खोजते हैं। लेकिन उन सब बातों के पीछे उनका खुद का ही भय तो मैं तो कहूंगाः तुम संन्यस्त बनो, घर जाओ, जैसी तुमने है। छिपा हुआ है। अपने भय को पहचान लो, फिर तुम्हें कोई सेवा कभी न की थी वैसी मां-बाप की सेवा करो, क्योंकि फिर रोकनेवाला नहीं है।
संन्यासी का दायित्व भी तुम्हारे ऊपर है। दो-चार दिन वे नाराज और किसी के कारण रुकना भी मत। अगर रुकते हो, तो होंगे, चीखेंगे-चिल्लायेंगे, लेकिन तुम अपने व्यवहार से सिद्ध अपने भय के कारण रुकना, अन्यथा तुम दूसरे पर नाराज रहोगे। कर दो कि वे बिलकुल गलत चीख-चिल्ला रहे हैं। बस, तुम समझोगे कि पिता ने, मां ने रोक दिया। यह गलत बात तुम्हारा व्यवहार ही पर्याप्त प्रमाण होगा। और यह मत सोचो कि होगी। यह उनका भाव, उन्होंने प्रगट कर दिया कि वे रस्सी ले वे पढ़े-लिखे नहीं हैं, हिंदी भी नहीं समझते हैं। न समझें, प्रेम तो लेंगे, अगर उनको लेनी होगी तो ले लेंगे। अब जो इतनी-सी समझेंगे! इतना गैर पढ़ा-लिखा कौन है, जो प्रेम न समझे ? ढाई बात पर रस्सी लेते हैं, वे ज्यादा दिन बिना रस्सी लिए रह भी नहीं आखर प्रेम के काफी हैं। तुम उनके पैर दबाओगे, यह तो
ते। कोई और बहाने लेंगे। तम उन्हें अच्छी रस्सी का समझेंगे। और वे कछ भी कहें, तम शांति से सनोगे, यह तो इंतजाम कर देना, और क्या करोगे!
समझेंगे! और एक बात भर तुम्हारे व्यवहार से जाहिर हो जानी लेकिन कोई कभी रस्सी लेता नहीं। दो दिन बाद सब ठीक हो | चाहिए कि तुमने जो संन्यास लिया है, वह संसार-विरोधी नहीं जाता है। घबड़ा गये होंगे, पुरानी धारणा है। और पुरानी धारणा | है। घर-विरोधी नहीं है। हम घर को मंदिर के खिलाफ नहीं लड़ा
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