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________________ हो गया। । । तो मुझे तो गोशालक उतना ही बहुमूल्य है, जितने महावीर गोशालक एक तीर्थंकर है। सहज-समाधि उसका योग है सहज-स्वीकार जीवन का उसकी साधना है। नकार नहीं, अस्वीकार नहीं, विरोध नहीं, दमन नहीं। जैसा जीवन आ जाए, उसे वैसा ही आलिंगन कर लेना स्वागत से। यही उसकी जीवन-दृष्टि है। अगर तुम गोशालक का विधायक रूप समझो तो कृष्णमूर्ति से बहुत मिलेगा, मेल खाएगा। लेकिन जैन तो उस विधायक रूप को नहीं समझ सकते थे। विरोधी का हम विधायक रूप देखते ही नहीं । विरोधी में तो हम बुरा - बुरा देखते हैं। अपने में भला-भला देखते हैं, विरोधी में बुरा-बुरा 'देखते हैं। जब तक हमारे मन में यह भाव है कि हमारी अपनी कोई दर्शन-परंपरा है, शास्त्र है, सिद्धांत है, तब तक हम सम्यक रूप से देख ही नहीं सकते। एक जैन मित्र राजस्थान से आए। तो मुझसे कहने लगे, एक जैन मुनि ने कहा, कहां जा रहे हो? वह आदमी तो गोशालक है । मैंने कहा, बात तो उन्होंने ठीक कही । मुझमें कोई खोजना चाहे तो गोशालक को बिलकुल खोज ले सकता है। मैंने उनसे कहा, बात तो उन्होंने ठीक कही । वे बेचारे बड़े परेशान थे। क्योंकि वे भी जैन हैं। और उनको लगा, यह तो बड़ी गाली हो गई। गोशालक कह दिया । मुझसे कहने लगे, आप कुछ कहेंगे नहीं? इसमें आप कोई वक्तव्य दें कि उन्होंने आपको गोशालक कहा। मैंने कहा, गलत तो कहा नहीं। ठीक ही कहते हैं। मुझमें कुछ गोशालक का हिस्सा है। मैं भी मानता हूं, आदमी के किए कुछ होता नहीं। अगर तुमसे करने को भी कहता हूं तो सिर्फ इसलिए कि कर-करके ही तुम जानोगे कि करने से कुछ नहीं होता। बिना कि शायद मन में कोई भाव रह जाए कि कर लेते तो शायद हो जाता । तो मैं कहता हूं, कर लो। करके देख लो। चलो, यह खुजलाहट है, यह भी कर लो। तो तुमसे कहता हूं, ध्यान करो, प्रार्थना करो, पूजा करो। बाकी करने से कभी कुछ हुआ नहीं। कर-करके ही एक दिन तुम्हें अचानक बुद्धि आएगी - अगर बुद्धि है तो जरूर एक दिन आएगी कि अरे! यह मैं क्या कर रहा हूं? मेरे किए तो कुछ भी Jain Education International 2010_03 गोशालक : एक अस्वीकृत तीर्थंकर नहीं होता। उस दिन तुम्हारे ऊपर सदज्ञान उतरा। उस दिन तुम्हारी समाधि पकी । उस दिन फसल काटने के दिन आए। जिस दिन तुमको लगा, मेरे किए भी नहीं होता, उस दिन समर्पण हुआ। अभी तो तुम समर्पण भी करते हो, तो कहते हो कि मैंने समर्पण किया। अब समर्पण भी कोई कर सकता है? अगर तुमने किया, तो समर्पण हुआ ही नहीं । तुम्हारी किए समर्पण होगा ? तो यह तुम्हारा कृत्य रहा । तुम्हारा कृत्य तो तुम किसी भी दिन वापस ले सकते हो। एक दिन तुमने कहा, समर्पण किया, दूसरे दिन तुमने कहा, अच्छा वापस लेते हैं । नहीं करते। तो कोई क्या करेगा ? मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, हम आप पर समर्पण करते हैं। मैंने कहा, जब तक करते हो, तब तक तुम अपने पास ही रखो। क्योंकि यह की हुई चीज झंझट है। यह तो अमानत रही। किसी भी दिन तुम आ गए कि लाओ, वापस दो। हुआ जो किया गया है, वह लौटाना पड़ सकता है। लेकिन जो है, उसे तुम लौटा नहीं सकते। प्रेम होता है। तुम कहते हो, किसी से प्रेम हो गया । तुम्हारे करने जैसा कुछ भी नहीं है। इसलिए जीसस ठीक कहते हैं कि परमात्मा प्रेम जैसा है; होता है, किया नहीं जाता। ध्यान प्रेम जैसा है; होता है, किया नहीं जाता। लेकिन कर-करके जब तक थकोगे न, जब तक तुम ठीक से दौड़ाए न जाओगे, तब तक तुम विश्राम कर ही नहीं सकते। तुम जब थक जाओगे दौड़-दौड़कर, तुम्हारे पैर जब जवाब दे देंगे, तुम्हारा अहंकार जब खुद ही गिर जाएगा, थककर गिर जाएगा कि अब कुछ नहीं होता; तुम बैठ जाओगे, उसी घड़ी कुछ होगा। ऐसा ही बुद्ध को हुआ। शायद बौद्ध शास्त्रों में गोशालक का जो सम्मान से उल्लेख है, इसका एक कारण बुद्ध की समाधि भी रही होगी। क्योंकि बुद्ध ने छह साल तक ऐसा ही किया, जैसा महावीर ने बारह साल तक किया। सब तरह से चेष्टा की। फिर थक गए । कुछ पाया नहीं। तो छह साल के बाद ऊबकर, परेशान होकर छोड़ दिया । और जिस रात छोड़ा, उसी रात समाधि घटी। उसी रात बुद्धत्व उपलब्ध हुआ। तो शायद गोशालक की बात बुद्ध को समझ में आती रही होगी, कि कहता तो यह आदमी ठीक है। हालांकि बड़ी खतरनाक बात है । अगर नकरात्मक रूप से लें तो बड़ी For Private & Personal Use Only 401 www.jainelibrary.org
SR No.001819
Book TitleJina Sutra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages668
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size25 MB
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