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जिन सत्र भागः2
बड़ी भूल की, जो तीर्थंकर महावीर का जीवनभर विरोध महावीर को सहानुभूति से देखो, बुद्ध को सहानुभूति से देखो, किया-मरते वक्त समझ में आया उसको कि मैंने जीवनभर जो | कृष्ण को सहानुभूति से देखो, क्योंकि और समझने का कोई तीर्थंकर महावीर का विरोध किया, बड़ी भूल की। पापी को उपाय नहीं है। वैसे ही कहता हूं, गोशालक को भी सहानुभूति से अपना पाप अनुभव हुआ, पश्चात्ताप हआ।
देखो। नकारात्मक नहीं, विधायक दृष्टि से देखो। तो उसने क्या कहा? उसने अपने पास जो दो-चार-दस शिष्य विधायक दृष्टि का यह अर्थ हआ कि अगर मेरे किए कछ भी थे, दो-चार-दस! क्योंकि ज्यादा तो जैन मान नहीं सकते कि रहे | नहीं होता तो तुम्हारी चिंता कहां बचेगी? चिंता तो इसीलिए होंगे। दो-चार-दस जो शिष्य थे, उनसे कहा, सुनो, मैंने | उठती है कि मेरे किए कुछ हो सकता है। मैं कुछ करूंगा तो कुछ जीवनभर जो कहा, वह गलत था। महावीर जो कहते हैं, फर्क हो सकता है, इसलिए मन में तनाव पैदा होता है। इसलिए शत-प्रतिशत ठीक कहते हैं। वही तीर्थंकर हैं। मैं तो एक झठा, अशांति पैदा होती है, चिंता पैदा होती है। धोखेबाज आदमी था। खैर! मैं मर रहा हूं, लेकिन मेरी बात याद और कभी-कभी तुम्हारे मंतव्य में और जगत की गति में रखना। तुम सब अब महावीर के अनुयायी हो जाना। और मैंने कभी-कभी संयोगवशात मेल पड़ जाता है तो तुम अहंकार से जो पाप किया है जीवनभर में, उसके पश्चात्ताप के लिए तुमसे मैं भर जाते हो। कभी अधिक मौकों पर मेल नहीं पड़ता तो तुम दुख कहता हूं, कि जब मैं मर जाऊं तो मेरी अर्थी मत निकालना, रास्ते और विषाद से भर जाते हो। पर मझे खींचना। मेरे ऊपर थंकना। कत्तों से मेरे ऊपर पेशाब। अगर गोशालक की बात सही है तो न दख का कोई क करवाना। और पूरे नगर में मेरी लाश को सड़क पर खींचते ले न सुख का कोई कारण है। जो होना था, हुआ है। जो हो रहा है, जाना, ताकि सारे देश को पता चला जाए कि गोशालक ने | वही होना है। जो होना है, वही होगा। तुम अपने आप शांत हो पश्चात्ताप कर लिया है।
| जाते हो। न कोई तनाव, न कोई चिंता, न कोई दौड़, न कोई ये जैन शास्त्र इस तरह की बात करें, यह थोड़ा विचारणीय है। संघर्ष, न कोई अकड़, न कोई हार, न कोई जीत, न कोई विषाद, गोशालक जैसा व्यक्ति हमारे लिए खो गया है। अब जो न कोई संताप। उल्लेख रह गए हैं, वे विरोधियों के हैं। विरोधियों से कभी भी इस संतापशून्य अवस्था में जिसका तुम्हें अनुभव होगा, निर्णय मत लेना। एक बात पक्की है कि विरोधियों ने जो कहा है, | गोशालक उसी को ध्यान कहता है। वह करने की बात नहीं है; वह तो सही हो ही नहीं सकता। तो बड़ी छानबीन करके तुम्हें जब करना छूट जाता है, तब जो शेष रह जाता है वही ध्यान है। खोजना पड़ेगा। बौद्ध और जैन ग्रंथों में देखकर कुछ बातें जो लेकिन गोशालक ध्यान शब्द का भी उपयोग नहीं करता। साफ होती हैं, उनमें एक बात सबसे महत्वपूर्ण है, वह है: क्योंकि ध्यान शब्द से भी क्रिया का पता चलता है। हम कहते हैं, अकर्मण्यतावाद का सिद्धांत।
ध्यान करने जा रहे हैं। गोशालक कहता है, करने से क्या 'प्राणियों में दुख का कोई हेतु नहीं है, न विशुद्धि का कोई हेतु | होगा? और तुमने अगर ध्यान किया होगा तो तुम्हें पता होगा। है। पुरुषार्थ और पराक्रम काम नहीं आते। नियति या भाग्य ही करने से क्या होता है? उछलो-कूदो, शोरगुल मचाओ, या सब कुछ है। जो हुआ, वह होना था। जो होना है, वह होगा। आंख बंद करके बैठो। करने से होता क्या है? हां, कभी-कभी जो हो रहा है, वही हो सकता है। सब कुछ नपा-तुला है। और | ऐसा होता है कि हो जाता है। हो सकता है कि करने के समय ही कर्म से, पाप या पुण्य से कोई भेद नहीं पड़ता है।' | कभी-कभी हो जाए। इसको अगर नकारात्मक दृष्टि से लें तो इसका अर्थ हुआ कि गोशालक कहता है, वह संयोग मात्र है। तुम अगर ध्यान न आदमी को अधार्मिक होने की बड़ी सुविधा दे दी। क्योंकि भी कर रहे होते तो उस वक्त होता। वह यह नहीं कह रहा है कि पाप-पुण्य से कोई फर्क नहीं पड़ता, तो करो जो करना है। तुम ध्यान मत करो। वह इतना ही कह रहा है, तुम्हारी दृष्टि करने
लेकिन यह गोशालक को विरोधी की दृष्टि से देखना होगा। | से ऊपर उठे, होने पर जगे। और जिस व्यक्ति को करने का बोझ गोशालक को सहानुभूति से देखो। जैसा मैं तुमसे कहता हूं, उतर गया, जिसने सारी चिंता छोड़ दी अस्तित्व पर, उसका ध्यान
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