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मुक्ति द्वंद्वातीत है
काव्य से कुछ भी न होगा। कविता काफी नहीं है। सुंदरतम | बसाने की कोई जरूरत नहीं। एक साधै सब सधै। कविताएं करो, लेकिन केवल जीवन से प्रमाण दोगे तो ही कुछ | जिसने पूछा है, उसके लिए प्रेम ही अनुकूल पड़ेगा। ध्यान का होगा। मिटने की तैयारी दिखाना शुरू करो।
शास्त्र बाधा बनेगा। चौबीस घंटे स्मरण रखो कि कैसे-कैसे ढंग से तुम अपने को तुम प्रार्थना की चर्चा करो, पूजा की, अर्चना की चर्चा करो, भरते हो और अहंकार को सख्त करते हो, मजबूत करते हो। धूप-दीये जलाओ, नाचो, गुनगुनाओ, आह्लादित होओ। जरा-जरा सी बात में अहंकार मजबूत होता है। जरा-जरा सी प्रार्थना में उतरो। तुम्हारा मंदिर प्रार्थना की यात्रा से आएगा। बात में अहंकार चोट खाता है। चोट खाए सांप की तरह | जिसने पूछा है, वह इसे ठीक से याद रखे। ध्यान की चिंता में फुफकारता है।
| मत पड़ो। अक्सर ऐसा होता है। मन बड़ा लोभी है। प्रेम सधता इसे जागकर देखो। इस सांप से छुटकारा पाओ। ऐसे जीयो, है तो मन में यह होता है कि अरे! ध्यान नहीं सध रहा है। कहीं जैसे तुम नहीं हो। ऐसे जीयो, जैसे परमात्मा है और तुम नहीं हो। ऐसा तो न होगा कि आखिर में मैं चूक जाऊं! कोई गाली दे तो समझो, उसी को दी गई। तुम परेशान मत उधर वह पीछे मंजु बैठी है। उसको भी फिकर लगी रहती है
मो। कोई सम्मान करे तो समझो, उसी का किया गया। तुम | कि ध्यान नहीं सध रहा भगवान! प्रेम सध रहा है। तो घबड़ाहट गौरवान्वित मत होओ। तुम अहंकार से मत भरो। कांटा चुभे तो लगी रहती है कि कहीं ऐसा तो न होगा कि ध्यान चूक जाए तो जानो, उसी को चुभा। फूल बरसें तो जानो उसी पर बरसे। तुम कुछ चूक जाए! अपने को हटा ही लो। भूख हो तो उसकी, प्यास हो तो उसकी। प्रेम मिल गया तो मिल गया। ध्यान भी अपने आप चला प्रसन्नता हो तो उसकी, तृप्ति हो तो उसकी। तुम अपने को हटा आएगा। फूल खिल गए, सुगंध अपने आप फैलेगी। लेकिन ही लो।
इस चिंता के कारण बाधा पड़ सकती है। तब-केवल तब ही उस महत का पदार्पण होता है।
तो अपनी वृत्ति को ठीक से पहचान लेना। अगर प्रेम में
तन्मयता आती हो, छोड़ दो ध्यान। शब्द ही भल जाओ। यह चौथा प्रश्नः मिठास की याद भी मुंह को स्वाद से भर देती | शब्द तुम्हारे लिए औषधि नहीं है। यह औषधि किसी और के है। प्रकाश का स्मरण अंतस को आलोक और ऊष्मा से भर लिए होगी। तुम्हारे रोग की औषधि तम्हें मिल गई. रामबाण देता है। मैंने सुना था कि 'ध्यानमूलं गुरुमूर्तिः।' और मुझे औषधि मिल गई। अब तुम फिक्र छोड़ो। आपका स्मरण एक प्रगाढ़ रसमयता, आनंद और तन्मयता से तुमने देखा ! केमिस्ट की दुकान पर लाखों औषधियां रखी हैं। भर जाता है। जब मेरी चाल में हर क्षण बूंघर की तरह आपकी | तुम अपना प्रिस्क्रिप्शन लेकर गए, तुम्हें अपनी औषधि मिल धुन बजती है, जब मेरे रोम-रोम में ध्यानमूर्ति, प्रेममूर्ति और गई। डाली अपनी झोली में, चल पड़े। तुम इसकी फिक्र नहीं गरुमर्ति आप बसते हैं तो अब मैं ध्यान को कहां रखं? | करते कि इन सब औषधियों में से और तो कुछ ले लें। इतनी
दुकान पर औषधियां रखी हैं, एक ही लेकर चले? इतने से कहीं प्रेम जग जाए तो ध्यान की चिंता छोड़ो। प्रेम के पीछे-पीछे काम हल होगा! तुम्हारी बीमारी की औषधि मिल गई, बात पूरी छाया की तरह चला आएगा ध्यान। छाया को रखने के लिए हो गई। कोई स्थान तो नहीं बनाना पड़ता। तुम घर में आते हो, तुम्हारे तो अगर प्रेम से रस झर रहा हो तो तुम भाषा प्रेम की सीखो। लिए जगह चाहिए। तुम्हारी छाया के लिए तो कोई अलग से | कंठ को भरो उमंग से। ध्यानी तो खोज रहा है, इसलिए ध्यानी जगह नहीं चाहनी होती। छाया तो कोई जगह घेरती नहीं। थोड़ा रूखा-सूखा होगा ही। भक्त ने तो पा ही लिया। ध्यानी
अगर प्रेम आ गया तो ध्यान छाया की तरह आता है; उसके अंत में कहेगा, रसधार बही। भक्त पहले दिन से कहता है कि लिए कोई अलग से जगह बनाने की जरूरत नहीं है। अगर ध्यान | रसधार बही। भक्त के लिए पहला दिन आखिरी दिन जैसा है। आ गया तो प्रेम छाया की तरह आता है। फिर प्रेम को अलग से महावीर भी कहते हैं, अतिशय हो जाता रस का, अतिरेक हो
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