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________________ w जिन सूत्र भाग : 2 धर्म और राजनीति विपरीत दिशाएं हैं। राजधानी की तरफ का छेद छोटा है, धागा पतला है। मगर अगर चेष्टा जारी रहे, तो जाना हो तो तीर्थ कभी न पहुंच सकोगे। तीर्थ जाना हो, तो आज नहीं कल, कल नहीं परसों धागा पिरोया जा सकता है। राजधानी की तरफ पीठ कर लेना। कठिन होगा, असंभव नहीं। धर्म और राजनीति विपरीत हैं। एक दफा पापी भी पहंच | और महावीर कहते हैं, जिस सई में धागा पिरो लिया गया, वह स्वर्ग, राजनीतिज्ञ-संदिग्ध है बात! | गिर भी जाए तो खोती नहीं। और जिस सुई में धागा नहीं पिरोया ___ मैंने सुना है, एक दफा स्वर्ग के द्वार पर दो आदमी साथ-साथ है, वह अगर गिर जाए तो खो जाती है। पहुंचे-एक फकीर और एक राजनीतिज्ञ। द्वार खुला, फकीर यह ध्यान का धागा तुम्हारे प्राण की सई में पोना ही है। इसे | को तो बाहर रोक दिया द्वारपाल ने, राजनीतिज्ञ को बड़े बैंडबाजे डालना ही है। यह ध्यान का सूत्र ही तुम्हें भटकने से बचायेगा। बजाकर भीतर लिया। बड़े फलहार, स्वागतद्वार। फकीर बड़ा | तुम गिर भी जाओगे, तो भी खोओगे नहीं: वापिस उठ चिंतित हुआ। उसने कहा यह तो हद्द हो गयी अन्याय की! वहां आओगे। यह कठिन तो बहुत है। जो तुमसे कहते हैं, सरल है, भी यही आदमी जमीन पर भी हार लेता रहा, हम सोचते थे कि | वे तुम्हें धोखा देते हैं। जो तुमसे कहते हैं, सरल है, वे तुम्हारा कम से कम स्वर्ग में तो हमें स्वागत मिलेगा, सांत्वना थी, वह भी शोषण करते हैं। यह सरल तो निश्चित नहीं है, यह कठिन तो है गयी। यहां भी इस आदमी को फिर अंदर पहले लिया गया, मुझे ही, लेकिन कठिनाई ध्यान के कारण नहीं है, कठिनाई तुम्हारे कहा कि रुको बाहर। यह कैसा स्वर्ग है! यहां भी राजनीतिज्ञ ही | कारण है। चला जा रहा है! बड़े फूल बरसाये, दुदुभी बजी। ध्यान अपने आप में तो बड़ा सरल है, सीधी-सी बात है। सब जब सब शोरगुल बंद हो गया, तब फिर द्वार खुला और थिर हो जाए, शांत हो जाए, ध्यान घट जाता है। लेकिन तुमने द्वारपाल ने कहा, अब आप...आप भी भीतर आ जाएं। उसने कंपने का इतना अभ्यास किया है कि थोड़ा अभ्यास अकंपन का सोचा कि शायद मेरे लिए भी कोई इंतजाम होगा, लेकिन वहां भी करना होगा। तुमने मन चलाने के लिए इतनी स्पर्धा की है कोई नहीं था; न बैंड, न बाजा। वह थोड़ा चकित हुआ। उसने अब तक, सारा शिक्षण, सारा संस्कार मन को ही चलाने का है। कहा, क्षमा करें, लेकिन यह मामला क्या है? हम जिंदगीभर तुमने मन को तो खूब सीखा है, ध्यान को सीखा नहीं, बस यही परमात्मा की पूजा और प्रार्थना में लगे रहे, और यह स्वागत! अड़चन है। तुम्हारा सारा जीवन-व्यापार मन से चला है। और और यह आदमी कभी भूलकर भी परमात्मा का नाम न लिया! | ध्यान के लिए तो कोई जीवन में जगह नहीं है। इसलिए तम भूल तो उस द्वारपाल ने कहा, तुम समझे नहीं। तुम्हारे जैसे फकीर तो गये। तुम्हारी ध्यान की क्षमता जंग खा गयी है। बस उतनी ही सदा से आते रहे, राजनीतिज्ञ पहली दफा आया है। और फिर कठिनाई है। जिस दिन ध्यान देना शुरू करोगे, जंग थोड़ी साफ सदियां बीत जाएंगी फिर शायद कभी आये! वह तो आता ही करोगे, फिर निखर आयेगा तुम्हारा स्वभाव। नहीं. इधर कभी आने का मौका ही नहीं मिलता। | वह ध्यान, वह ध्याता आसन बांधकर और मन-वचनबाहर का जगत है, वहां राग है, द्वेष है, स्पर्धा है। मोह है। काया के व्यापार को रोककर दष्टि को नासाग्र पर स्थिर करके मित्र हैं, शत्रु हैं। भीतर के जगत में तुम बिलकुल अकेले हो। मंद-मंद श्वासोच्छवास ले।' शुद्ध एकांत है। उस शुद्ध एकांत में राग-द्वेष खो जाते हैं। मोह पहले शरीर को थिर कर लिया, फिर मन-वचन-काया को खो जाता। लेकिन तुम्हें ये शर्ते पूरी करनी पड़ें-काया, वचन, थिर किया, फिर शांत थिर आसन में बैठे हुए दृष्टि नासाग्र पर मन। इन तीनों को थिर करना पड़े। इस चेष्टा में लग जाओ। रखी। इसका उपयोग है। सिर्फ इतना ही उपयोग है, वह खयाल यह चेष्टा शरू में बड़ी कठिन होती है। ऐसे जैसे आंखें कमजोर लेना। अगर तम आंख खोलकर बैठो ध्यान में-परी आंख हों और कोई आदमी सुई में धागा डाल रहा हो। बस ऐसी ही खोलकर बैठो-तो हजार व्यवधान होंगे। कोई निकला, कोई कठिनाई है। आंखें हमारी कमजोर हैं। दृष्टि हमारे पास नहीं है, गया, पक्षी उड़ा, सड़क से कोई गुजरा—कुछ न कुछ होता हाथ कंपते हैं। सुई में धागा डाल रहे हैं, कंप-कंप जाता है। सुई | रहेगा। तो आंख पर जब दृश्य बदलते रहते हैं, तो उनकी वजह 1296 Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001819
Book TitleJina Sutra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages668
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size25 MB
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