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________________ प्रेम का आखिरी विस्तार : अहिंसा बुग्ज़ की आग, नफरत के शोले जाए। सभी अपने हों, ताकि किसी को अपना कहने की कोई मयकशों तक पहुंचने न पायें जरूरत न रह जाए। फस्ल यह मंदिरों मस्जिदों की अब देखना, यहां कैसी आसान तरकीब आदमी निकाल लेता मयकदों की जमीनों में क्यों हो है। महावीर कहते हैं, 'मेरे' को छोड़ो। लेकिन उनका प्रयोजन बुग्ज़ की आग है, ताकि सभी मेरे हो जाएं। जैन-मुनि कहते हैं, 'मेरे' को द्वेष की आग... छोड़ो। उनका प्रयोजन है, ताकि जो मेरे हैं, वे भी न रह जाएं। ये नफरत के शोले दोनों एक-ही तरह के शब्दों का उपयोग करते हैं, लेकिन दोनों में मयकशों तक पहुंचने न पायें बड़ा बुनियादी विरोध है। इन्हें रोकना, शराबियों तक इन्हें मत आने देना। इन्हें सज्जनों | महावीर कहते हैं, किसी घर के मत बनो, ताकि सारा अस्तित्व तक रहने देना। इन्हें संतों-साधुओं तक रहने देना। तुम्हारा घर हो जाए। महावीर कहते हैं, गृहस्थ से संन्यस्त हो बुग्ज़ की आग, नफरत के शोले जाओ। प्रयोजन इतना है कि घर में बंधे न रह जाओ। सारा मयकशों तक पहुंचने न पायें । संसार तुम्हारा घर हो जाए। जैन-साधु जब कहता है, छोड़ो घर, पियक्कड़ों तक न पहुंच पायें ये द्वेष और हिंसा की आग और छोड़ो 'मेरा', तब वह तुमसे वह छोटा-सा जो घर था, वह भी शोले। छीने ले रहा है। महावीर कहते हैं, वह छोटा-सा घर इतना फैले, फस्ल यह मंदिरों मस्जिदों की इतना फैले कि विराट विश्व हो जाए। वह उस छोटे-से घर को यह मंदिरों-मस्जिदों में ठीक है फस्ल। छीनने के लिए आतुर नहीं हैं। इस पूरे विश्व को तुम्हारा घर बना मयकदों की जमीनों में क्यों हो? देना चाहते हैं। कहीं तुम छोटे-से घर में अटके न रह जाओ, मधुशाला की जमीन में नहीं होनी चाहिए। मधुशाला तक | इसलिए छोड़ने को कहते हैं। डरती है कि कहीं मंदिरों की आग यहां न आ जाए। मंदिरों का महावीर का त्याग महाभोग की तरफ कदम है। वह पीड़ित हैं इससे बड़ा कोई पतन हो सकता है! शराबी डरते हैं, कहीं यह देखकर, परेशान हैं, यह देखकर कि तुम जो विराट सागर हो साधु-संतों के उपद्रव यहां न आ जाएं। अब इससे बड़ा पतन सकते थे, कैसा डबरा हो गये हो। वह कहते हैं, छोड़ो यह साधु-संतों का कोई और हो सकता है! डबरा, तुम सागर होने को हो। इतने छोटे में क्यों बंधकर रह गये मंदिर-मस्जिदों ने इतना लड़वाया आदमी को, ऐसे अच्छे | हो? बड़ी तुम्हारी संभावना है। विराट तुम्हारी नियति है। प्रभुता बहाने लेकर लड़वाया, ऐसे सुंदर आदर्श लेकर लड़वाया कि उन तुम्हारा जन्मसिद्ध अधिकार है। लेकिन जब महावीर के पीछे आदर्शों की आड़ में यह दिखायी ही न पड़ा कि यह सिर्फ लड़ने चलनेवाले लोग कहते हैं, छोड़ो घर, तो वे सारे संसार को घर की वृत्ति है। यह विध्वंस की आकांक्षा है, और कुछ भी नहीं। बनाने के लिए नहीं कह रहे हैं; वे कह रहे हैं, यह जो घर है, यह 'अहिंसा सब आश्रमों का हृदय, सब शास्त्रों का रहस्य और भी तुम्हारा न रह जाए, बेघर हो जाओ। इन्हीं शब्दों की भ्रांतियों सब व्रतों और गणों का पिंडभत सार है।' | के कारण अक्सर तो तीर्थंकरों, अवतारों और पैगंबरों ने जो कहा लेकिन इस अहिंसा का अर्थ है, प्रेम। इस अहिंसा का अर्थ है, है, उसके ठीक उल्टे अर्थ लोगों की पकड़ में आ गये। सीधे अर्थ रागमुक्त प्रेम। इस अहिंसा का अर्थ है, वीतराग प्रेम। पकड़ना तो बहुत कठिन। क्योंकि सीधे अर्थ पकड़ने का तो अर्थ इस अहिंसा का अर्थ है प्रेम फैलता चला जाए। प्रेम कोई सीमा होगा-आत्मक्रांति। एक-एक भीतर के कोने-कांतर को न माने। जहां प्रेम ने सीमा मानी, वहीं राग। जब तुमने कहाः | बदलना होगा। अंधेरा जरा-भी न बचने देना होगा। मेरा बेटा, मेरा भाई, वहीं राग। भाईचारा इतना फैले कि गलत अर्थों को पकड़ना बहुत आसान है। प्रेम को इतना 'मेरे-तेरे' की कोई जगह न रह जाए। भाईचारे का सागर हो। विराट बनाना तो बहुत कठिन है, हां प्रेम को बिलकुल खाली कर सभी भाई हों, ताकि किसी को भाई कहने का कोई कारण न रह | लेना बहुत आसान है। वैसे ही खाली हो, वैसे ही प्रेम कुछ है 11697 Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001819
Book TitleJina Sutra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages668
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size25 MB
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