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जिन सूत्र भाग: 2
जाता है। जैसे दीये के जलने पर अंधेरा नहीं पाया जाता, ऐसे समझ के, प्रज्ञा के दीये के जलने पर मन नहीं पाया जाता।
तो मन से लड़ो मत — पहली बात । लड़ने का अर्थ ही नासमझी है। लड़कर कभी कोई जीता ? तुमने यही सुना है कि जो लड़े वे जीते। मैं तुमसे कहता हूं, लड़कर कोई कभी जीता ? समझकर जीत होती है। लड़नेवाले तो नासमझ हैं। लड़ोगे किससे ! छायाओं से लड़ रहे हो ।
जैसे कोई अपनी छाया से लड़ने लगे, खींच ले तलवार करने लगे हमला । परिणाम क्या होगा ? छाया कटेगी ? परिणाम यही होगा, खुद ही थकेगा । और डर है कि छाया से लड़ने में कहीं अपने हाथ-पैर न काट ले। क्रोध में, उबाल में, पागल न हो उठे। कहीं ऐसी घड़ी न आ जाए कि विक्षिप्तता में अपने को ही काट ले।
अक्सर मन के साथ लड़नेवाले ऐसी ही स्थिति में पड़ जाते हैं। मन तुम्हारा है; तुम्हारी छाया । है नहीं, बस छाया जैसा है। रोशनी बढ़ाओ ।
थोड़े जागकर मन को समझो।
जब ध्यान करो और मन कहे, भजन में, तो जरा जागकर देखो, एक तरफ खड़े होकर देखो कि मन क्या कह रहा है। जब भजन करो और मन कहे, ध्यान लगाओ, तब जागकर देखो कि मन क्या कह रहा है। इसकी चालबाजियां पहचानो । इसकी कूटनीति पहचानो। मन बड़ा राजनीतिज्ञ है। यह तुम्हें भटकाए रहता है। यह तुम्हें चलाए रहता है।
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और तुमने ध्यान करके भी देख लिया, वहां भी नहीं लगा और तुमने भजन करके भी देख लिया, वहां भी नहीं लगा। तो अब यह तो समझो कि मन कहीं लगेगा ही नहीं। मन का लगना धर्म नहीं । न लगना मन की आदत है। कहीं लगता नहीं । जो नहीं लगता वही मन है
तो अब जब मन तुमसे कहे कि ध्यान करो, क्या भजन में पड़े हो? तो जागकर देखना कि यह फिर वही मन, जो कहीं नहीं लगता, भजन में भी नहीं लगा था, तब इसने कहा था, ध्यान करो। अब कहता है भजन करो। पहले कहा, संसार में उलझे रहो । फिर कहा, संन्यास ले लो। अब संन्यास में भी नहीं लगता; कहता है संसार में लौट चलो।
इस मन को जरा देखना। कुछ करने की बात नहीं है, सिर्फ
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शांत भाव से देखना। तुम्हारे देखने में ही तुम पाओगे मन गिरने लगा। तुम पर उसकी पकड़ जाने लगी। तुम पर पकड़ छूट जाए। तुम थोड़े शिथिल हो जाओ मन के पास से । तुम थोड़े बाहर सरकने लगो ।
न तो ध्यान से घटती है बात, न भजन से; घटती है समझ से । इसलिए समस्त धर्मों का सार है जागरूकता ।
प्रश्नकर्ता पूछता है, एकाग्रता नहीं बनती। एकाग्रता की खोज ही गलत है । जागरूकता खोजो । एकाग्रता की खोज तो फिर मन के ही सिक्कों में फंसे। यह मन ही है, जो कहता है एकाग्र बनो। यह तुम्हें असंभव चीजें करने को देता है । फिर वे नहीं होतीं तो तुम हारे-थके परेशान हो जाते हो ।
एकाग्रता की कोई जरूरत ही नहीं है। थोड़ा जीवन की गणित की व्यवस्था के सूत्र समझने चाहिए।
पहला सूत्र : जब भी मन नहीं होता, तब तुम एकाग्र होते हो । कभी अपने काम में पूरे संलग्न । चाहे बुहारी लगा रहे हो घर में, लेकिन पूरे संलग्न । अचानक तुम पाते हो, मन नहीं है। संगीत सुनते संलग्न, मन नहीं है। चित्र बनाते... किसी भी घड़ी जब तुम पाते हो कि मन नहीं है, तुम ही हो, तो एकाग्रता अपने आप घटती है।
एकाग्रता घटाई नहीं जा सकती । एकाग्रता मन की तन्मयता का परिणाम है। जब मन डूबा होता है तब तुम एकाग्र होते हो । जब मन उभर आता है तब तुम अनेकाग्र हो जाते हो। मन तुम्हें अनेक में बांट देता है; खंड-खंड कर देता है।
अब तुम चेष्टा कर रहे हो एकाग्र होने की । एकाग्र होने की चेष्टा और झंझट लाएगी क्योंकि करोगे किससे चेष्टा तुम एकाग्र होने की ? मन से ही करोगे। सब चेष्टा मात्र मन से होती है।
अब तुम एक ऐसे काम में लगे हो, जैसे कोई आदमी अपने जूते के बंद खींच - खींचकर खुद को उठाने की कोशिश करे । खुद को कैसे उठाओगे जूते के बंद खींचकर ? थोड़े-बहुत उछल-कूद लो, फिर बार-बार जमीन पर पड़ जाओगे । यह असंभव चेष्टा है।
मन कभी एकाग्र नहीं होता। जब एकाग्रता होती है तो मन नहीं होता । तो तुम मन के द्वारा एकाग्र होने की चेष्टा ही छोड़ो। तुम तो छोटे-छोटे कामों में रस लो। रस का परिणाम है एकाग्रता । बुहारी लगाओ तो ऐसे लगाओ, जैसे भगवान के मंदिर में लगा
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