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________________ जिन सूत्र भागः2 हमने बहुत-से कष्ट तो अर्जित ही कर लिए हैं; वे आ ही रहे हैं। में ही तुम अचानक पाओगे, एक क्रांति हो गई। जब तुम पूरे मन बस उन्हें तुम सहिष्णुता से, समभाव से झेल लेना। दुखी मत से स्वीकार करोगे, तुम पाओगे, सिरदर्द उतना दर्द न रहा, जितना होना। दुख आए तो, स्वीकार कर लेना। जो दुख आए तुम | मालूम होता था। अस्वीकार करने से दुख अनंतगुना मालूम होने उससे परेशान और उद्विग्न मत होना, राजी हो जाना। कहना कि लगता है। स्वीकार करने से क्षीण हो जाता है। अगर तुमने पूरी किसी को कभी दुख दिया होगा, वह लौट आया है। छुटकारा | तरह स्वीकार कर लिया तो तुम अचानक पाओगे कि दर्द तो हुआ जाता है। गया। इतना फासला हो जाता है तुममें और दर्द में। बुद्ध पर एक आदमी थूक गया तो बुद्ध बड़े प्रसन्न हो गए। अगर दर्द को भी तुमने मेहमान की तरफ स्वीकार कर लिया तो उन्होंने आनंद से कहा, देख आनंद! इस आदमी पर जरूर मैंने तप। अलग से दुख देने की कोई जरूरत नहीं है। कभी थूका होगा। जन्मों-जन्मों की यात्रा है। कभी इसे कुछ दुख यह महावीर तो कह ही नहीं सकते कि अपने को दुख दो, दिया होगा, कुछ अपमान किया होगा। आज छुटकारा हुआ। क्योंकि महावीर कहते हैं, किसी को दुख मत दो; उसमें तुम भी अगर यह न थूक जाता तो अटके रहते। इसके साथ उलझे सम्मिलित हो। यह तो बात बड़े पागलपन की हो जाएगी कि रहते। यह छुटकारा होना ही था। आज खाता बंद। आज कहा जाए कि दूसरे को दुख मत दो और अपने को दुख दो। जो लेन-देन पूरा हो गया। तुम दूसरे के साथ नहीं करते वह अपने साथ क्यों करो? दया जब जीवन में दुख आए तो उसे इस भांति स्वीकार कर लेना कि दूसरे के साथ है तो अपने साथ भी चाहिए। अपने किए गए किसी कर्म का फल है, स्वीकार कर लिया। सच तो यह है कि जो अपने साथ दया करता है वही दूसरे के इससे उद्विग्न मत होना, तो नया दुख निर्मित न होगा और पुराना साथ दया कर सकता है। और जो अपने साथ कठोर है वह दुख भस्मीभूत हो जाएगा। किसी के भी साथ कोमल नहीं हो सकता। जो अपने साथ जिंदगी के गमों को अपनाकर कोमल नहीं, वह किसके साथ कोमल होगा? जो अपने से प्रेम हमने दरअसल तुझको अपनाया। नहीं कर सका वह किसी को प्रेम नहीं कर सकेगा। जो व्यक्ति वे जिसने जीवन के दख स्वीकार कर लिये, उसने परमात्मा को अपने को प्रेम करता है वही दसरों को प्रेम कर सकता है। जो स्वीकार कर लिया। घटना घटती है, पहले घर में घटती है, अपने भीतर घटती है; और मजे की बात है...साधारणतः हम सुख खोजते हैं और फिर उसकी किरणें दूसरों तक फैलती हैं। दुख पाते हैं। और जब कोई व्यक्ति दुख को स्वीकार करने इसलिए महावीर यह तो कह ही नहीं सकते कि तुम अपने को लगता है तो जीवन में सुख की वर्षा होने लगती है। यह जीवन दुख दो। इतना ही कहा है कि जो दुख आए वह तुम्हारे दूसरों को का गणित है। खोजो सुख, पाओगे दुख। मिले दुख, स्वीकार दिए हुए दुखों का परिणाम है। उसे स्वीकार कर लो। कर लो और तुम अचानक पाओगे, महत सुख उत्पन्न होने लगा। 'अज्ञानी व्यक्ति तप के द्वारा करोड़ों जन्मों या करोड़ों वर्षों में दुख के स्वीकार में ही सुख की क्षमता पैदा हो जाती है। जितने कर्म का क्षय करता है, उतने कर्मों का नाश ज्ञानी व्यक्ति जरा करके देखो! जब कोई दुख आए, उसे स्वीकार करके त्रिगुप्ति के द्वारा एक सांस में सहज कर डालता है।' देखो। छोटा-मोटा दुख! प्रयोग करो, स्वीकार कर लो। ऐसा | अब यह बात सीधी-साफ है, लेकिन फिर भी न मालूम कैसा सोचो ही मत कि मेरे ऊपर कोई विपदा आ गई है। ऐसा सोचो दर्भाग्य कि महावीर को माननेवाले लोग त्रिगप्ति की तो बात भल मत कि परमात्मा मेरे साथ अन्याय कर रहा है। ऐसा सोचो मत। गए, बस वे करोड़ों वर्षोंवाली तपश्चर्या में लगे हुए हैं। शिकायत लाओ ही मत। गिला, शिकवा लाओ ही मत। इतना ज अन्नाणी कम्मं खवेइ बहुआहिं बासकोडीहिं। ही जानो कि मैंने कुछ दुख बोए होंगे, फल काट रहा हूं, ठीक, हजारों-लाखों वर्ष तक, लाखों जन्मों तक, कोटि-कोटि जन्मों चलो निपटारा हुआ जाता है। | तक कोई तप करे, तब कहीं बड़ा अल्प कर्म का विनाश होता है। सिरदर्द आए...छोटा-सा दुख है, स्वीकार कर लो। स्वीकार तं नाणी तिहिं गुत्तो... 604 Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001819
Book TitleJina Sutra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages668
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size25 MB
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