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जिन सूत्र भाग: 2
विवाह का निवेदन भी किया था और उसने स्वीकार भी कर बेटे को सुख दे रहा है। बेटा कहता है, बाप को सुख दे रहा है। लिया था। तो मित्र ने पूछा कि फिर क्या हुआ? फिर हुआ क्यों पति कहता है,पत्नी को सुख दे रहा है। पत्नी कहती है, पति के नहीं विवाह? उसने कहा, गड़बड़ हो गयी। तीसरे दिन मैंने | सुख के लिए चेष्टा कर रही है। सब एक-दूसरे को सुख देने की दोबारा उससे निवेदन कर दी। स्वीकार भी कर लिया था, चेष्टा में लगे हैं लेकिन जीवन में सिवाय दुख के कुछ भी नहीं है। निवेदन भी कर दिया था और तीसरे दिन मैंने उससे दुबारा | मामला क्या है? जहां इतने लोग सुख दे रहे हैं, सुख ही सुख निवेदन कर दिया, मैं भूल ही गया। उसी से वह नाराज हो गयी। भर जाना था। सुख कहीं दिखायी नहीं पड़ता।
स्मृति अच्छी चाहिए। झूठ जितना बोलता है आदमी, उतनी ही | महावीर कहते हैं, सुख कोई दे नहीं सकता। सुख आंतरिक अच्छी स्मृति चाहिए।
दशा है। इसलिए वह कहते हैं, एक ऐसी घड़ी आती है जब और सत्य बोलनेवाले को स्मृति की कोई भी जरूरत नहीं है। सत्य | भीतर की गहराइयों का पता चलता है, तो आदमी दुख देने की तो बोलनेवाला तो वही बोलता है, जो है। सीधा-साफ होता है। बात दूर, दूसरे को सुख देने की चेष्टा भी नहीं करता। हां, कोई | सत्य बोलनेवाले के भीतर खंड-खंड, टुकड़े-टुकड़े नहीं होते। लेले सुख, उसकी मर्जी। कोई लेले दुख, उसकी मर्जी। कोई विभाजन नहीं होता। अखंड होता है।
__ आत्मस्थित हुआ व्यक्ति अपने स्वभाव में जीता है। फिर. तो जिसने एक दंफा भीतर डुबकी लगायी, उस अखंड का | तुम्हारी मर्जी। महावीर से बहुत लोगों ने दुख भी ले लिया। आनंद ले लिया, वह झूठ न बोल सकेगा। क्योंकि जब भी वह महावीर ने दिया नहीं। किसी को इसीलिए दुख हो गया कि वह झूठ बोलेगा, तभी पायेगा कि बहुत दूर फेंक दिया गया भीतर की नग्न खड़े थे। कोई इसीलिए दुखी हो गया। तुम्हारा क्या शांति से। बेचैनी आ गयी। बेईमानी न कर पायेगा। क्योंकि जब लेना-देना था? महावीर नग्न खड़े थे, तुम्हें क्या अड़चन थी? भी बेईमानी करेगा, तभी पायेगा कि अपने से बहुत फासला हो तुम्हें तकलीफ थी, आंख बंद करके गुजर जाते। यह तुम्हारा गया। किसी को चोट न पहुंचा पायेगा। क्योंकि जब भी किसी प्रश्न था। महावीर को इससे क्या लेना-देना था? लेकिन कोई को चोट पहंचायेगा, तभी पायेगा अपने घर का रास्ता भूल गया। इसी से दुखी हो गया। किसी स्वर्ग के लिए नहीं बोलता है सच। और न किसी पुण्य कोई दुखी हो जाता है, कोई सुखी हो जाता है, यह उसकी के लिए बोलता है। न किसी भय से, न किसी प्रलोभन से। मर्जी। यह उसकी समस्या है। महावीर कहते हैं, जो अपने में लेकिन जो भीतर आनंद घटा है, उस आनंद के कारण अब गलत डूबा वह अपने में डूबकर रह जाता है। तब वह न तो सुख देता होना मुश्किल हो जाता है।
| है, न दुख देता है। न वह पाप करता है, न वह पुण्य करता है। "जिसे जानकर योगी पाप और पुण्य दोनों का परिहार कर देता अगर ठीक से समझो, तो वह कुछ करता ही नहीं। वह सिर्फ है, उसे ही कर्मरहित निर्विकल्प चारित्र्य कहा गया है।' होता है। वह शुद्ध अस्तित्व होता है। करने की बात ही
महावीर कहते हैं कि न केवल परमयोग की अवस्था में पाप का धीरे-धीरे समाप्त हो जाती है। परिहार हो जाता है, पुण्य का भी परिहार हो जाता है। बुरा तो 'जिसे जानकर योगी पाप-पुण्य दोनों का परिहार कर देता है, करता ही नहीं वैसा व्यक्ति, अच्छा भी नहीं करता।
उसे ही निर्विकल्प चारित्र्य कहा है।' यह चरित्र की आखिरी यह जरा गहन बात है। यह जरा ऊंची बात है। पहले तल पर कोटि हुई। इससे ऊपर फिर चरित्र नहीं जा सकता। पाप से तो तो बुराई छूटती है। दूसरे को चोट देना बंद हो जाती है। दूसरे को | छूटे, पुण्य से भी छूटे। पाप ऐसे है, महावीर ने कहा, जैसे लोहे कोई नुकसान नहीं पहुंचाता। किसी तरह का पाप नहीं करता। की जंजीरें, और पुण्य ऐसे है जैसे सोने की जंजीरें! पाप दुख लेकिन धीरे-धीरे जब और भी भीतर रमता है, तो उसे यह समझ लाता है। पुण्य सुख लाता है। लेकिन सुख में ही तो छिपा हुआ में भी आना शुरू होता है कि कोई किसी को सुख नहीं दे सकता। दुख आ जाता है। पाप अपमानित करवा देता है। पुण्य किसने कब किसको सुख दिया! हम सभी एक-दूसरे को सुख सम्मानित करवा देता है। लेकिन सम्मान में ही तो अहंकार आ | देने की कोशिश करते हैं, दे पाते हैं केवल दुख। बाप कहता है, जाता है। इसलिए दोनों से ही छूट जाना है।
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