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________________ 500 जिन सूत्र भाग: 2 ऐसे गोपी नाचते-नाचते-नाचते पास आती जाएगी। मंडल छोटा होता जाएगा। नाच तीव्र होता जाएगा । गोपी धीरे-धीरे खोती जाएगी, लीन होती जाएगी। मंडल और छोटा होता जाएगा। रास और सघन हो उठेगा। मध्यरात्रि आ जाएगी। चांद सिर पर होगा। नाचते-नाचते-नाचते-नाचते गोपी कृष्ण में लीन हो जाएगी। कृष्ण हो उठेगी। मंडल तब बिलकुल समाप्त गया। पूर्ण हुआ। मिलन हुआ । पुराणों में कथा है। राधा के नाम का कोई उल्लेख नहीं है शास्त्रों में – पुराने शास्त्रों में। सिर्फ इतना ही उल्लेख है कि कृष्ण के पास एक गोपी ऐसी भी थी, जो छाया जैसी थी । उसका कोई नाम नहीं है। वह छाया की तरह उनके पीछे लगी रहती थी। छाया की तरह... यही तो राधा होने का ढंग है। अच्छा किया कि नाम नहीं लिया। नाम तो बाद में दिया, बहुत बाद में- -मध्ययुग में। कवियों ने नाम दिया क्योंकि कवि को बिना नाम दिए न चलेगा। नाम लेकिन बड़ा प्यारा दिया। प्रतीकात्मक है राधा । धारा के विपरीत - राधा । धारा को उल्टा कर लो तो राधा । जैसे गंगा गंगोत्री की तरफ बहने लगे तो राधा हो गई। मूलस्रोत की तरफ बहने लगे तो गोपी भाव का जन्म हुआ। जब अपना नाम भी भूल जाए तो राधा का जन्म हुआ। जब अपना अलग होने का कोई खयाल ही न रह गया, कृष्ण की छाया बन गए। जहां जाने लगे वे... छाया क्या करे? छोड़ भी नहीं सकती पीछा। छुड़ाना भी चाहें कृष्ण, तो भी पीछा नहीं छोड़ती। जब कृष्ण मथुरा से द्वारका चले गए तो और सब तो छूट गए होंगे, सिर्फ राधा साथ गई होगी। छाया साथ गई होगी। छाया को तो छोड़ोगे कैसे? रास गहन होता है तो पहले गोपी का जन्म होता है। फिर गोपी धीरे-धीरे छाया जाती है। गोपी की पार्थिवता खो जाती है। सिर्फ प्रकाशरूप रह जाती है । अस्तित्व मात्र । और तब किसी भी क्षण पतिंगा ले लेगा आखिरी छलांग शमा में डूब जाएगा और एक हो जाएगा। यही मेरा मतलब था, जो हुआ। गोपियों का भाव भर गया, गोपी होने की धारणा बनी - बस, कृष्ण की तरफ पहला कदम उठा । गोपी की आकांक्षा क्या है ? हजारों गोपियां हैं। कृष्ण की Jain Education International 2010_03 कथा मधुर है । परमात्मा एक है, खोजी अनंत हैं। मंजिल एक है, रास्ते बहुत हैं। रास्तों पर चलनेवाले यात्री बहुत हैं। कृष्ण एक हैं। सोलह हजार गोपियां हैं। सोलह हजार तो सिर्फ प्रतीक हैं, हजारों गोपियां हैं। लेकिन हजारों गोपियों को एक कृष्ण ने लुभा लिया। कोई वैमनस्य भी नहीं है । कोई ईर्ष्या भी नहीं है। प्रत्येक गोपी कृष्ण से सीधे जुड़ गई। दूसरी गोपी की कोई चिंता भी नहीं है। प्रत्येक गोपी को ऐसा लगने लगा, कृष्ण उसी के साथ नाच रहे हैं। तुमने ऐसे चित्र देखे होंगे, जिसमें कृष्ण अनेक रूप ले लिये हैं । सब गोपियों के साथ नाच रहे हैं। परमात्मा जब तुम्हें मिलेगा, तो 'तुम्हें' मिलेगा। यह कोई सार्वजनिक चीज नहीं होगी। यह बिलकुल निजी और वैयक्तिक होगी। जब परमात्मा तुम्हें मिलेगा तब यह परमात्मा बिलकुल तुम्हारा होगा । यह तुम्हारी आत्मा होगा। मगर इससे मिलने के लिए गोपी की भावदशा चाहिए। तुझे न देख सकूं मैं तो कुछ मलाल नहीं यही बहुत है कि तू मुझको देख सकता है दार्शनिक तो कहता है, मुझे परमात्मा को देखना है। इसलिए तो हम दर्शनशास्त्र कहते हैं दार्शनिक की खोज को— देखने की चेष्टा । भक्त कहता है, मैं तुझे न देख सकूं तो कुछ मलाल नहीं। तुझे न देख सकूं मैं तो कुछ मलाल नहीं यही बहुत है कि तू मुझको देख सकता है यह क्या कम है कि तेरी आंख मुझ पर पड़ रही है ? हो गई बात । मैं अंधा हूं, मैं नासमझ हूं, मैं भटका हूं, फिक्र छोड़-तो कोई मलाल नहीं। तेरी दृष्टि मुझ पर पड़ रही है, बस बहु जैसे सूरज निकला, अंधा न देख सके सूरज को, इससे क्या फर्क पड़ता है ? सूरज तो अंधे को नहाए जा रहा है। सूरज की तो किरण - किरण अंधे को नहाए जा रही है। दार्शनिक और भक्त का यही भेद है। ज्ञानी कहता है, परमात्मा को देखना है । भक्त कहता है, परमात्मा मुझे देख ले। अब तुम्हें एक रहस्य की बात खयाल में ले लेनी चाहिए। गोपी का अर्थ होता है स्त्रैण चित्त । स्त्री का चित्त चाहता है प्रेमी उसे देख ले। पुरुष का चित्त चाहता है प्रेयसी को देखे । प्रेयसी चाहती है पुरुष देख ले। इसलिए तुम्हें बड़ी हैरानी होगी। मनोवैज्ञानिक बड़े चिंतन में For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001819
Book TitleJina Sutra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages668
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size25 MB
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