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जिन सूत्र भाग: 2
उपद्रव करूंगा तो और कीचड़ मच जाएगी।
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प्रेम की दृष्टि और है। वह कहता है, कि मैंने तुम्हारे हाथों में छोड़ा अपने को। तुम मुझे बना सके तो तुम मुझे सुधार न सकोगे? तुम मुझे जीवन दे सके तो तुम मुझे ज्योति न दे सकोगे ? तुमने बिन मांगे जीवन दिया, तुमने बिन मांगे अहोभाग्य बरसाया, तो मांगता हूं तुमसे, ज्योति न दे सकोगे ? बिन मांगे जीवन देते हो, मांगे ज्योति न दोगे ?
प्रेमी परमात्मा पर छोड़ रहा है। और इसी छोड़ने में क्रांति घटनी शुरू हो जाती है। क्योंकि जैसे ही तुमने उस पर छोड़ा, तुम्हारा अहंकार मिटना शुरू हुआ। और अहंकार मूल है सारे उपद्रव का, सारी भूलों का, सारे पाप का, सारी नासमझियों का। अहंकार द्वार है नर्क का ।
'तुम क्या कर रहे हो ? कुछ किया नहीं ?'
उसने कहा, 'मैं यही तो सोच-विचार में पड़ा हूं। बड़े एक तो जिसने पूछा है— कृष्ण गौतम का प्रश्न है— उससे मैं तरफ कर दूं, छोटे एक तरफ कर दूं, कुछ मझोल हैं; इनको कहां कहता हूं :
करना ? और जब तक सब बात साफ न हो जाए तब तक कोई भी कृत्य करना खतरे से खाली नहीं है । मैं सोच-विचारवाला आदमी हूं।'
गौतम! दार्शनिक होने की कोई जरूरत नहीं। अब ध्यान की चिंता छोड़ो। तुम्हें जिससे संगति बैठ सकती है, वह स्वर बजा है। अब चल पड़ो। अब श्रद्धा से भरपूर, भरोसे से । सोच-विचार एक तरफ रखकर, अब दौड़ो।
आगाज़ जो अच्छा है, अंजाम बुरा क्यों हो ? नादां है जो कहता है, अंजाम खुदा जाने !
जब प्रारंभ अच्छा है, अंत भी अच्छा होगा। तुम फिक्र छोड़ो। | नासमझ है, जो कहता है कि शुरुआत तो बड़ी अच्छी हो रही है, परिणाम परमात्मा जाने! जब शुरुआत अच्छी है तो परिणाम भी अच्छा होगा। जब बीज मिठास के और रस के हैं तो फल भी रस के और मिठास के होंगे।
तुम चल पड़ो। अब तुम बैठे-बैठे विचार मत करो | चिंतन अक्सर आलस्य बन जाता है। बहुत सोच-विचार करनेवाले लोग चलने की बात भूल ही जाते हैं। इसलिए दार्शनिक कुछ भी नहीं कर पाते। सोचते-सोचते जीवन गंवा देते हैं । करने के लिए मौका ही नहीं बचता, समय नहीं बचता, शक्ति नहीं बचती ।
कहा कि तुम किसी काम के नहीं हो। अगर तुम इतना सोच-विचार करोगे तो युद्ध के मैदान पर क्या होगा? इतना सोच-विचार सैनिक के लिए नहीं है। मगर अब तुम भर्ती हो ही गए हो तो कोई तो काम देना ।
तो उसे मेस में भेज दिया — भोजनालय में — कि वहां तुम कुछ काम करो। पहले ही दिन उसको मटर के दाने दिए, कि बड़े-बड़े एक तरफ कर लो, छोटे-छोटे एक तरफ कर दो।
घंटेभर बाद जब उसका शिक्षक आया तो दाने वैसे के वैसे रखे थे और वह माथे से हाथ लगाए – जैसे रोडेन की प्रतिमा है न! विचारक – वैसे बैठा था।
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Jain Education International 2010_03
पांचवां प्रश्नः वहां तक आया हूं, जहां लगता है कि कुछ सकता है। अब कोई भय नहीं मालूम देता । प्रभु, प्रणाम ! प्रणाम !! प्रणाम !!!
शुभ है ऐसी घड़ी, जब ऐसा भाव सघन होने लगे कि अब कुछ हो सकता है। मनुष्य के जीवन में सर्वाधिक महत्व की घड़ी यही घड़ी है, जब भरोसा आता है कि अब कुछ हो सकता है।
मैंने सुना है, पहले महायुद्ध में एक दार्शनिक भर्ती हुआ। युद्ध में जरूरत थी, सभी भर्ती किए जा रहे थे, वह भी भर्ती कर लिया | गया। लेकिन बड़ी कठिनाई हुई। क्योंकि जो इसे शिक्षण दे रहा था वह बड़ी परेशानी में पड़ गया। वह कहे, 'बायें घूम।' सारी दुनिया घूम जाए, वह वहीं खड़ा है। तुम खड़े क्यों हो? वह कहता, जब तक मैं सोच न लूं कि बायें घूमूं क्यों ? आखिर बायें घूमने से फायदा क्या है? और फिर दायें घूमना पड़ेगा, तो यहीं क्यों न खड़े रहो ?
अन्यथा साधारणतः तो भरोसा आता ही नहीं कि कुछ और मुझे हो सकेगा? और उस गैर-भरोसे का भी कारण है। जन्मों-जन्मों से कुछ न हुआ, आज अचानक कैसे हो सकेगा ? अनंत काल में न हुआ, आज कैसे हो सकेगा?
इसलिए इस जगत में सबसे बड़ी महत्वपूर्ण घटना, जहां से
आखिर वह जो शिक्षण देनेवाला था, परेशान हो गया। उसने और महत्वपूर्ण घटनाओं की शुरुआत होती है, वह इस क्षण का
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