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________________ जिन सूत्र भाग : 2 रहनेवाले लोग कविताएं लिखते हैं गांवों की प्रशंसा की। गांव में | फेर रहे हैं, मूर्ख बन गये हैं! यह शक उठता है। रहनेवाले लोग सिर ठोंकते हैं कि कब सौभाग्य होगा कि शहर मुझसे बड़े-बड़े बुजुर्ग साधुओं ने यह कहा है, कि शक होता है पहुंच जाएं। विपरीत। जिसको हम भोग रहे हैं, उससे तो हम कि पता नहीं हमने कुछ गलती तो नहीं कर ली! थक जाते हैं। ऊब जाते हैं। हालांकि इस सबके कारण दूसरे दिन प्रवचन में वह और जोर रात हंस-हंस के ये कहती है कि मयखाने में चल से लोगों को समझाते हैं कि संसार व्यर्थ है! कि छोड़ो, कहां फिर किसी शहनाजे-लाला-रुख के काशाने में चल उलझे हो कीचड़ में! ये नहीं मुमकिन तो फिर ऐ दोस्त, वीराने में चल खयाल रखना, जो साधु जितने जोर से तुम्हें छोड़ने को समझा ऐ गमे दिल क्या करूं, ऐ वहशते दिल क्या करूं रहा हो, उतनी ही खबर दे रहा है कि वह बेचैन है। वह बेचैन है रात हंस-हंस के कहती है मयखाने में चल इस बात से, जब तक वह दूसरों को भी राजी न कर ले तब तक फिर किसी शहनाजे-लाला-रुख के काशाने में चल उसे चैन नहीं है। वह सोचता है, दूसरे शायद मजा लूट रहे हों। फिर किसी लाल फूल-ऐसे मुखड़ेवाली के घर चल। और एक अर्थ में बात ठीक भी लगती है, क्योंकि दूसरों की ये नहीं मुमकिन... संख्या बहुत है। संख्या का बल मालम होता है। अगर धर्म सच तो मन कहता है अगर यह न हो सके... ही होता, तो सभी लोग कभी के धार्मिक हो गये होते। तो अगर तो फिर ऐ दोस्त वीराने में चल मंदिर में बैठे पुजारी को मधुशाला में बैठे पियक्कड़ से ईर्ष्या पैदा तो फिर वह ठीक दूसरा विपरीत रास्ता बताता है, फिर जंगल | हो जाती हो, कुछ आश्चर्य नहीं। क्योंकि मंदिर तो लोगों को भाग चलो। लाख समझाओ और लोग नहीं आते। और मधुशाला जाने से जो-जो लोग मयखानों से ऊब गये हैं, लाल मुखड़ेवाली लाख रोको, तो भी जाते हैं। कुछ होना ही चाहिए! कुछ प्रबल स्त्रियों से ऊब गये हैं, वे जंगल भागते हैं। लेकिन जंगल भागने | आकर्षण होना ही चाहिए! लाख समझाओ कि राख है, मिट्टी है से कुछ हल नहीं है। जंगल में जो बैठे हैं, उनसे तो पूछो! उनका सोना, फिर भी सोने को पकड़ते हैं। इतने समझानेवाले हुए हैं, दिल कहता है फिर भी कोई संसार से भागता नहीं है! आसानी से भागता नहीं। रात हंस-हंस के कहती है मयखाने में चल और अकसर जो संसार से भागते हैं, बहुत बुद्धिमान नहीं मालूम फिर किसी शहनाजे-लाला-रुख के काशाने में चल होते हैं। इससे और शक पैदा होता है। तुम जरा साधुओं के भीतर तो उतरो। तुम पाओगे वे उन्हीं सब तुम अकसर साधु-संन्यासियों को निर्बुद्धि पाओगे। सौ में चीजों के लिए तड़फ रहे हैं, जिनके कारण तुम तड़फ रहे हो। तुम | अगर एक भी तुम्हें बुद्धिमान मिल जाए, तो अपवाद है। तुम मरे जा रहे हो जिन चीजों के कारण, घबड़ाये जा रहे हो, सोचते उन्हें निर्बुद्धि पाओगे। ये जिंदगी से हारे-थके लोग हैं। ये जिंदगी हो कब साधु हो जाएं; कब सौभाग्य का क्षण आयेगा सब में जीत न सके। ये पराजित लोग हैं। जिंदगी में प्रतियोगिता न छोड़कर चले जाएं, जो छोड़कर चले गये हैं, जरा उनसे तो पूछो! कर सके। इनके पास न इतनी बुद्धि थी, न सोच-समझ था, न वे तड़फ रहे हैं ईर्ष्या से। वे तुम्हें देख रहे हैं, वे सोच रहे हैं कि इतना साहस था, इसलिए भगोड़े हैं। लेकिन भगोड़े होने से कुछ पता नहीं तुम मजा तो नहीं लूट रहे हो! हम कहीं चूक तो नहीं मन की नींद तो नहीं टूटती! मूर्छा तो नहीं जाती! गये—जिंदगी हाथ से गुजरी जाती है, आत्मा का कुछ पता नहीं महावीर कहते हैं, भागने से कुछ न होगा, जागो। भागो नहीं, चल रहा है, भगवान के कोई दर्शन नहीं हो रहे हैं, माला | जागो। सारा जोर जागने पर है। फेरते-फेरते थक गये हैं, कहीं कोई साक्षात्कार नहीं हो रहा है, 'जीव मरे या जीए, आ-यतन-आचारी को हिंसा का दोष कहीं ऐसा तो नहीं है कि बस यही जिंदगी सब कुछ है! यह अवश्य लगता है। किंतु जो समितियों में प्रयत्नशील है, उससे मयखाने और लाल मुखड़ेवाली स्त्रियोंवाली जिंदगी ही सब कुछ | बाह्य हिंसा हो जाने पर भी उसे कर्मबंध नहीं होता।' है! कहीं ऐसा तो नहीं कि हम नाहक बैठे हैं! खाली कोरी-माला | महावीर कहते हैं, जो जागकर नहीं जी रहा है, यतन से नहीं जी 172 Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001819
Book TitleJina Sutra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages668
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size25 MB
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