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प्रेम का आखिरी विस्तार : अहिंसा
एक भिखमंगा एक गांव की एक सड़क पर नियमित रूप से आते हैं। वृक्ष समझता है, कलम की गयी। तुम काटते हो, वृक्ष भीख मांगता था। तगड़ा भिखमंगा था। कोई दूसरा भिखमंगा बढ़ता है। वृक्ष घना होता है, जैसे-जैसे तुम काटते हो। जड़ को वहां घुस भी नहीं सकता था। भिखमंगों की भी अपनी-अपनी काटना पड़े। जड़ के कटते ही वृक्ष निष्प्राण हो जाता है। उसका सीमा होती है। उसकी सीमा-रेखा में कोई दूसरा भिखमंगा नहीं संबंध टूट गया भूमि से। मूर्छा तोड़नी है। एक ही चीज तोड़नी आ सकता था। उनका भी साम्राज्य होता है-भिखमंगों का है—मूर्छा तोड़नी है। एक ही धर्म है-मूर्छा के बाहर आना। भी! लेकिन एक दिन किसी ने देखा कि वह भिखमंगा किसी और एक ही अधर्म है-मूर्छा में जीना। मूर्छा में तो मन सपने दूसरी सड़क पर भीख मांग रहा है। तो उसने पूछा, अरे! वह | ही सपने देखता रहता है। कभी-कभी विपरीत सपने देखता पुरानी जगह छोड़ दी? क्योंकि वह पुराना मोहल्ला तो धनपतियों | है-एक से ऊब जाता है। बाजार में रहते-रहते ऊब गये, पहाड़ का मोहल्ला था और वहां ज्यादा भीख मिलने की संभावना थी। भाग गये। उसने कहा, छोड़ नहीं दी, मेरी लड़की का विवाह हो गया, तुमने खयाल किया, पहाड़ में जो रहते हैं, वे बंबई आने को उसको दहेज में दे दी, उसके पति को।
उत्सुक! बंबई जो रहते हैं, वे पहाड़ जाने को उत्सुक ! मन के बड़े तम्हें पता नहीं है कि तम्हारा मोहल्ला भिखमंगे ने किसी को अजब खेल हैं। मन एक सपने से ऊब जाता है, तो सोचता है दहेज में दे दिया है। भिखमंगे का भी साम्राज्य है! नंगा भी | शायद विपरीत में कुछ मजा होगा। गरीब अमीर होने को उत्सुक आदमी खड़ा हो, लंगोटी भी उसके पास न हो, तो भी जहां से है। अमीर सोचता है, गरीब बड़े मजे में है, रात चैन की नींद सपने आते थे वह जगह तो अभी नहीं तोड़ी। तो वह जहां खड़ा सोता है। भूख लगती है गरीब को, मुझे भूख भी नहीं लगती। है, जितनी छोटी-सी जमीन को घेर रहा है, उस पर ही 'मेरे' का नींद भी नहीं लगती। क्या सार हुआ इस धन को पा लेने से। कब्जा हो जाएगा। मूल को तोड़ना पड़ेगा। शाखाएं-प्रशाखाएं। ऐसा आदमी अमीर ही नहीं है, जिसे गरीब के जीवन में सुख काटने से कुछ भी न होगा।
दिखायी न पड़ने लगा हो। इसे मैं अमीर की परिभाषा मानता हूं, महावीर कहते हैं, वह मूल है मूर्छा। बाकी सब सपना है। जिस दिन कोई आदमी सच में अमीर होता है, उसी दिन गरीब की 'मेरा-तेरा' 'अपना-पराया', बाकी सब सपना है। मूल है | आकांक्षा शुरू हो जाती है। वह सोचता है, इससे तो गरीब मूर्छा। मूल है कि मुझे होश नहीं। मूल है कि विवेक जागा | बेहतर। भिखमंगे को देखता है, भरी दुपहरी में, भरे बाजार में, नहीं। मूल है कि ध्यान जला नहीं, मशाल बोध की मेरे पास वृक्ष के नीचे घुर्रा रहा है, सो रहा है। न तकिया है, न बिस्तर है, नहीं। इस अंधेरे में सब उठता है; सब सांप-बिच्छू, सब न घर-द्वार है, लेकिन ऐसी गहरी नींद! ईर्ष्या से भर जाता है। कीड़े-पतंगे, मकड़ी के जाले। इस अंधेरे में भूत-प्रेत सब पलते वह रात अपने बहुमूल्य बिस्तर पर करवटें बदलता है। कोई नींद हैं। रोशनी आते ही सब विदा होने लगते हैं।
का पता नहीं। रूखी-सूखी मांगी रोटी को खाते भिखमंगे को महावीर कहते हैं : 'न सो परिग्गहो वुत्तो-परिग्रह में परिग्रह देखता है, लेकिन जिस स्वाद से भिखमंगा खा रहा है, जिस भाव नहीं—नायपुत्तेण ताइणा। मुच्छा परिग्गहो वुत्तो-मूर्छा में है से; और भूख भर जाने पर जिस तृप्ति से उठता है, ऐसी तृप्ति परिग्रह।' हिंसा में हिंसा नहीं, मूर्छा में है हिंसा। क्रोध में क्रोध अमीर भूल गया है। सब है उसके पास! नहीं, मूर्छा में है क्रोध। राग में राग नहीं, मूर्छा में है राग। तो यह बड़े आश्चर्य की बात है, जब तक भोजन नहीं होता, तब महावीर ने मूल स्रोत को पकड़ा।
तक भूख होती है; जिस दिन भोजन के सब साधन हो जाते हैं, सभी पापों की जड़ मूर्छा है। अलग-अलग पापों से लड़ने में उस दिन भूख नहीं रहती। दुनिया बड़ी बेढंगी है। यहां हिसाब समय मत गंवाना। उससे कछ सार न होगा। ऐसे ही तो तमने बड़ा उलटा है। जब तक सोने का इंतजाम नहीं रहता, तब तक जनम-जनम गंवाये। छोटी-छोटी चीजों से लड़ रहे हो–पत्तों नींद आती है। जब सोने का सब इंतजाम कर चुके होते हैं, तब को काटते हो। वृक्ष को कोई चोट नहीं पहुंचती पत्ते काटने से। तक नींद खो जाती है। गरीब सोचता है, महलों में सुख होगा; वस्तुतः हालत उलटी होती है। एक पत्ता काटते हो, तीन निकल महलों में जो बैठे हैं, सोचते हैं गरीब बड़े मजे में हैं। शहरों में
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