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THE FREE INDOLOGICAL
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-The TFIC Team.
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जैनागम सूक्ति-सुधा
प्रथम भाग
संग्राहक
जन दिवाकर, वाल ब्रह्मचारी शास्त्रोद्धारक स्वर्गीय जैनाचार्य श्री १००८ श्री अमोलक
ऋषि जी महाराज के सुशिष्य मुनि श्री कल्याण ऋषि जी
टीका, अनुवाद, पारिभाषिक-कोष, व्याख्या आदि के
कर्ता और संपादक. रतनलाल संघवी न्यायतीर्थ-विशारद
मीराब्द २४७७ ।
में सर्वाधिकार सुरक्षित है ममोल स १५
दीपमालिका २००७ ता. ९-११-१९५०
।
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पुस्तक प्राप्ति-स्थान
(१) श्री अमोल जैन ज्ञानालय,
तेली गली, पो० धूलिया ( पश्चिम खानदश )
(२) प० रतनलाल सघवी
पो० छोटी सादड़ी, वाया-नीमच ( सी. आई )
Copy-Right.
प्रथम आवृत्ति १५००
मूल्य २)
मुद्रक कन्हैयालाल पृ शाह, दी ओरिएण्ट प्रिंटिंग हाउस, नईवाड़ी.
दादी मेठ अग्यारी लेन, वम्बई न. २
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समपण
तपो निषि, बाल ब्रह्मचारी, साहित्य सेवी, आचार्य प्रवर, पूज्य गुरु देव श्री १००८ श्री; स्वर्गीय अमोलक ऋषि जी महाराज के
पुनीत चरण कमलो में
परम आराध्य देव !
आप ही की सत् कृपा से मेरी यह आत्मा मोक्ष-पथ की पथिक बन सकी है, सम्यक् दर्शन ज्ञान चारित्र की आराधना करने वाली हो सकी है, दुर्लभ मुनि पद और वीतराग-वाणी को प्राप्त कर सकी है, इस प्रकार आप जैसे महान् सन्त और गुरु देव के अनन्य उपकार और सात्विक प्रेम से आकर्षित होकर श्री सघ तथा जनता की सेवा के लिए आप के पवित्र चरण कमलो में श्रद्धा के साथ यह ग्रंथ समर्पित है।
रायचूर दीपमालिका २००७ ।
लघु-सेवक मुनि कल्याण ऋषि.
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धन्यवाद इन प्रेमी सज्जनो ने उदारता पूर्वक ज्ञान प्रचार के लिये और धार्मिकता के विकास के लिये इस ग्रथ के प्रकाशन के लिये निम्न प्रकार से आर्थिक सहायता प्रदान की है, जिसके लिये धन्यवाद के साथ अपना आभार प्रकट करता हूँ।
६२५ ) श्री बोहरा ब्रदर्स, रायचूर, ३७५ ) श्री माणकचद जी पूसालालजी, रायचूर. ३७५ ) श्री जैन सघ, सिंधनूर (जिला-रायचूर ) २५० ) श्री बस्तीमलजी मूथा की धर्म पत्नी श्री पतासा बाई
की ओर से, रायचूर. २५० ) श्री राजमलजी खेमराजजी भडारी, रायचूर, २५० ) , तेजमलजी उदयराजजी रूणवाल, रायचूर २५० ) , गुलाब चन्दजी, चौथमलजी बोहरा रायचूर २५० ) , जैन सघ, गजेन्द्रगढ ( जिला धारवाड़ ) २५० ) श्री रवीवराजजी चौरडिया की धर्मपत्नी श्री भंवरी
बाई की ओर से, मद्रास. २५० ) श्री सलहराजजी राका की धर्मपत्नी श्री दाखाबाई
की ओर से, मद्रास. २५० ) श्री जयवतमलजी चौरडिया के सुपुत्र श्री मोहन
__ लालजी, मद्रास १२५ ) श्री कालुरामजी चॉदमलजी मूथा, रायचूर. १२५ ) , नेमिचद जी हीरालाल जी, रायचूर ६२॥ ) , लालचद जी वाघमार की धर्मपत्नी श्री सूरजबाई
___ की ओर से, रायचूर ६२॥) श्री सज्जनराजजी किशनलालजी, रायचूर,
निवेदक सपादक.
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पाक ......... प्रतियां--परिचय और सूचनाL. [जिन आगम-प्रतियो से ये सूक्तियाँ संकलित की गई है, उनका परिचय और तत्सम्बन्धा सूचनाएं इस प्रकार है ] १-दशवकालिक सूत्र और २ उत्तराध्ययन सूत्र
पूज्य श्री आत्माराम जी महाराज द्वारा सपादित और लाला ज्वाला प्रसाद जी तथा जैन शास्त्र माला कार्यालय लाहौर द्वारा क्रम से प्रकाशित : ३-सूयगडाङ्ग सूत्र.
स्वर्गीय आचार्य श्री जवाहिरलाल जी महाराज द्वारा संपादित रोग श्री सघ राजकोट द्वारा प्रकाशित। ४-आचाराङ्ग सूत्र.
मिद्ध-चक्र साहित्य प्रचारक समिति बम्बई द्वारा प्रकाशित । ५-उववाद सूत्र, ६ ठाणांग सूत्र और ७ नंदी-सूत्रः
स्वर्गीय आचार्य श्री अमोलख ऋपि जी महाराज द्वारा अनुवादित कौर लाला जैन-शास्त्र भंडार हैदरावाद द्वारा प्रकाशित ।
सूचनाएं १-सूयगडाङ्ग-सूत्र की सूक्तियाँ केवल प्रथम श्रुत स्कध मे से ही और उत्तराध्ययन सूत्र की सूक्तियाँ प्रथम से बतीस अध्ययन में से ही सकलित का गई है।
२-आचाराग सूत्र की सूक्तियाँ, बम्बई की प्रति में जिस क्रम से यह दिया गया है, उसी क्रम से सख्यानुसार उद्धृत की गई है ।
३-उववाई-सूत्र की सूक्तियाँ केवल सिद्ध--वर्णन में से ही ग्रहण की गई है।
४-नदी सूत्र की केवल प्राथमिक मंगलाचरण की याथामो में से ही कुछ एक सूक्तियाँ ली है ।
५-ठाणाङ्ग सूत्र की सूक्तियाँ स्थूल दृष्टि कोण से ही एकत्र की गई है।
६-इन सात सूत्रो में सग्रहित सूक्तियो के अलावा आर भी एक सूक्तियां है, जिन्हे यथा समय सुविधानुसार अन्य सूत्रो की सूक्तियो के साथ द्विताय भाग में सकलित करने की भावना है।
।
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३.
उ.
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र. १ =
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₹ ५
न्च ६ =
संकेत - परिचय
दशवेकालिक
उत्तराध्ययन
सूयगढाङ्ग
आचाराङ्ग
उववाइ
सिद्ध
ठाणाङ्ग नदी
"सूत्र वाचक' "अक्षर" के आगे पहली संख्या " अध्ययन" का नवर बतलाती है और दूसरी सख्या उसी अध्ययन का गायों का नवर समझाता है ।
उद्देशा
उद्देशा पहला उद्देगा दूसरा उद्देगा तीसरा
उद्देशा चौथा
सूत्र
32
उद्देशा पाचवा उद्देगा छठ्ठा
""
"
"
17
39
इसी प्रकार उद्देशा के उस सूत्र का क्रम नवर समझाती है ।
गद्य
सम्या = नदी सूत्र की प्रारंभिक गाथाओ के कम नवर को समझाती है ।
८
उ" के आगे "उहेगा" के नंबर के आगे की सख्या
= उववाइ सूत्र का सिद्ध वर्णन ।
संख्या = उववाह सूत्र के सिद्ध-वर्णन सवधी गाथाओ के क्रमः
नवर समझना ।
छा० संख्या = ठाणांग सूत्र के ठाणो का क्रम नवर समझना । 31० सख्या-सख्या= ठाणाङ्ग सूत्र के ठाणो के सूत्रो का क्रम नवर
f
'
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मेरा निवेदन
सम्माननीय पाठक गरम !
आज आपकी सेवा मे यह जैनागम सूक्ति सुधा प्रथम भाग प्रस्तुत करते
अपूर्व आनद अनुभव हो रहा है ।
पुस्तक का प्रमुख और सर्वोत्तम ध्येय जनता का नैतिक धरातल ऊँचा उठाना और वास्तविक आत्म-शाति का अनुभव कराना है । जिससे कि चारित्र शीलता के साथ जन साधारण की सेवा-प्रवृत्ति का विकास हो ।
और जैन दर्शन की मान्यता है कि विना चारित्र शीलता के जनता की सेवा वास्तविक अर्थ में नही हो सकती है । चारित्र-शीलता, अनुशासन-प्रियता, और सेवा-वृत्ति ही किसी भी राष्ट्र की स्थायी नाव होती है, जिसके आधार पर ही राष्ट्र की सभ्यता, सस्कृति, शाति और समुन्नति का सर्वतोमुखी विकास हो सकता है । नैतिक धरातल के अभाव मे राष्ट्र का पतन ही होता है , उन्नति नहा हो सकती । आज भारतवर्ष का जो नाना"विध आर्थिक, सामाजिक और अन्य कठिनाइयो का गभीर अनुभव हो रहा है, उसके मूल में नैतिकता का और सात्विकता का अभाव ही कारण है।
जैन धर्म निवृत्ति का जो उपदेश देता है, उसका तात्पर्य जीवन में निष्क्रियता -- या अकर्मण्यता से नहा है, बल्कि अनासक्तता और सात्विकता पूर्ण नैतिकता. वाला जीवन व्यतीत करते हुए जनता की सर्व-विधि सेवा करना जैन धर्म के अनुसार सच्ची प्रवृत्ति है, और ऐसी प्रवृत्ति ही आत्म-शाति प्रदान कर -सकती है। ऐसी प्रवृत्ति वाले के लिए कहा गया है कि:
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"जे आसवा ते परिम्सवा" और "ममिय ति मन्नमाणस्ससमिया वा असमिया वा समिआ होई ।" अर्थात् जिन्हे साधारण तौर पर आश्रव कहा जाता है और जिसे मिथ्यात्व माना जाता है, वे ही कार्य और प्रवृत्ति "अनासक्त और नैतिकता" वाले के लिये सवर तथा सम्यक्त्व बन जाया करते है । अतएव जैन धर्म की निवृत्ति का अर्थ अकर्मण्यता एव निष्क्रियता नही माना जाय। ___ महात्मा गाँधी का जीवन अनासक्त मोर निवृत्ति वाला होता हुआ भी महती प्रवृत्ति वाला ही था, इसी तरीके से जीवन का व्यतीत करना, जीवन में उच्च से उच्च गुणो को स्थायी रूप से विकसित करना, नैतिकता तथा सात्विकता को आधार बना कर जीवन को आदर्श बनाना, यही इस पुस्तक का तात्पर्य और उद्देश्य है । आशा है कि पाठकगण इससे समुचित लाम उठादेगे।
पुस्तक-रचना के समय यह दृष्टिकोण रक्खा गया है कि वालक, विद्यार्थी, अध्यापक, श्रावक, श्राविका, साधु, साध्वी, व्याख्याता, उपदेशक, लेखक और जन साधारण सभी के लिये पुस्तक उपयोगी हो । इसीलिए टीका, छाया
और पारिमापिक शब्द कोप ( व्याख्या-कोप )-की रचना की गई है। प्राकृन शब्द कोप सार्थ और मूल मूक्तियो को सस्कृत-छाया भी देने का पूरा विचार था । परन्तु पुस्तक की पृष्ठ-मख्या आशा मे अधिक वढ जाने के कारण यह विचार अभी स्थगित ही रखना पड़ा है । प्राकृत-शब्द कोप तैयार किया जाकर प्रेस में दिया ही जाने वाला था, परन्तु अन्तिम समय में उसे रोक देना पड़ा।
सभी सूक्तिया अकार आदि क्रम से-कोप पद्धति से-परिशिष्ट न. १ मे दी है जिससे कि स्वाध्याय करने वालो के लिये और अनुसंधान करने वालो के लिए सुविधा रहे ।
मूल गाब्दिक स्वरूप समझाने के लिये शब्दानुलक्षी अनुवाद भी दिया। है । टीका को व्यवस्थित समझाने के लिए टीका में आये हुए पारिभापिर्क शब्दो की व्याख्या भी दी है ।
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इस प्रकार जन साधारणके लिये यह पुस्तक उपयोगी प्रतीत हुई, तो दूसरे सस्करणमे – सस्कृत छाया और प्राकृत शब्द कोष भी जोड़ने का विचार है । सूक्तियो की प्रामाणिकता के लिये और मूल स्थान का अनुसंधान करने के लिये प्रत्येक सूक्ति के नीचे आगम-नाम, और अध्ययन का नंबर तथा गाथा का नवर तक दे दिया गया है । जिससे कि व्याख्यान देते समय और निबन्ध-लेख आदि लिखते समय सूक्तियो का समुचित उपयोग किया जा सके ।
पुस्तक में अनेक स्थानो पर विषय का पिष्ट-पेपण सा प्रतीत होता है, इसका कारण अनेक सूक्तियो की सदृग स्थिति है, जिससे कि विवशता है ।
पुस्तक के निर्माण करने मे श्री वीर वर्धमान श्रमणसघ के प्रधान जैनाचार्य पडितवर श्री आनन्द ऋपिजी महाराज के आज्ञानुवर्ती मुनिश्री कल्याण ऋषिजी महाराज और मुनिश्री मुलतान ऋपिजी महाराज और महासतीजी प्रवर्तिनीजी श्री सायर कुवर महाराज का सहयोग और सहानुभूति प्राप्त रही है, अतएव इन सतो का मैं आभारी हूँ ।
यदि इनका कृपा - पूर्ण सहयोग नही होता तो पुस्तक इस रूप में शायद ही उपलब्ध हो सकती थी । मुनि श्री कल्याण ऋपिजी महाराज बाल ब्रह्मचारी है, विनयी है, साहित्यानुरागी है और भद्र प्रकृति के साघु है ।
इसी प्रकार मुनि श्री मुलतान ऋषिजा महाराज याग्य सलाहकार, दीर्घं - - दर्शी, विवेकी और व्यवहार कुशल है ।
जैनाचार्य कविवर श्री नागचन्द्रजा महाराज की भी समय समय पर उत्तम सलाहे प्राप्त होती रही है, अतएव उन्हे भी धन्यवाद है ।
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'पुस्तक की छपाई सम्बन्धी सभी प्रकार की व्यवस्था करने के "जैनप्रकाश वम्बई" के सहसपादक श्रीयुत रत्नकुमारजी 'रत्नेश' ने काफी श्रम उठाया है, इसके लिये उनका भी आभार प्रदर्शित करता हूँ।
'जिन सात आगमोकी प्रतियो से ये सूक्तियां सग्रहित की गई हैं उनके सपादको का और प्रकाशको का भी मै कृतज्ञ हूँ।
कलापूर्ण छपाई और शुद्धि की ओर मेरा खास ध्यान रहा है, और इसके - लिये प्रयत्न तथा अपेक्षाकृत अधिक खर्च भी किया है, फिर भी त्रुटियो का रह जाना स्वाभाविक है, इसके लिये पाठक गण क्षमा करे, और उन्हे सुधार कर पढने की कृपा करे।
पुस्तक की त्रुटियो और अशुद्धियो के सवधमें पाठक गण मुझे लिखने की कृपा करेगे तो मै उनका परम कृतज्ञ रहूँगा, तया सूचनानुसार दूसरी आवृत्ति मे सुधारने का प्रयत्न करूँगा।
अन्तमे यही निवेदन है कि यदि इस पुस्तक से पाठको को कुछ भी लाभ पहुँचा तो मै अपना यह श्रम साध्य सारा प्रयत्न सफल समझगा। ॐ शान्ति !
विनीत
- विजयदशमी, । - सवत् २००७
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विषय--सूची ( सूक्तियाँ-संबंधी)
-0
सूक्ति-सख्या
पृष्ठ संख्या
सख्या १
r-sur 9 views
नाम प्रार्थना-मगल-सूत्र आत्म-वाद दुर्लभाग शिक्षा ज्ञान दर्शन चारित्र तप मोक्ष धर्म अहिंसा सत्य आदि भाषा" शील-ब्रह्मचर्य सूत्र अपरिग्रह वैराग्य कर्तव्य सद्गुण क्षमा सात्विक-प्रवृत्ति"
- . १०३
-
१७ १८
१११
.... २२ .
.
११४
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सख्या
नाम
सूक्ति सख्या
पृष्ठ संख्या
*
१२०
* * * * *
१६२ १७७
*
योग
my
२०४
२१४
* * * * * * * * *
२२८
उपदेश श्रमण-भिक्षु
१४६ महापुरुष प्रशस्त
१८५ अनित्यवाद
१८७ कर्म-वाद
१९६ कषाय-सूत्र कामादि दुर्वासना क्रोध
२२६ हिंसा लोभ
२३१ अधर्म ३२ भोग-दुष्प्रवृत्ति अनिष्ट प्रवृत्ति
२४२ ३४ वाल जन
२५४ ३५ ससार-स्थिति "
२६५ '३६ प्रकीर्णक
२७० नोट -कुल सूक्तियों की संख्या ९२५ है । "परिशिष्ट
१ सूक्तिया-कोप पद्धति से (शब्दानुलक्षी अनुवाद सहित) २८७ २ पारिभापिक शब्द सूची
४०७ ३ पारिभाषिक शब्दो का व्याख्या कोष
४१४
२३६
*
२३७
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शुद्धि-पत्र
सूचना.-१-पुस्तक में ध्यान पूर्वक प्रुफ रशोधन करने पर भी कई एक
त्रुटियां रह गई है, अतएव कृपालु पाठक सुधार कर पढने की कृपा करें। २:-छपते समय चलती मशीन में भूमिका भाग मे और पुस्तक मे “काना, मात्रा अनुस्वार, रेफ, ऋ,” आदि कई एक चिह्न अत्यधिक मात्रा में अनेक स्थानो पर टूट गये है, यदि इन त्रुटित. मात्राओ का शुद्धि पत्र तैयार किया जाता तो बहुत बड़ा शुद्धिपत्र तैयार हो जाता, इसलिये ध्यान पूर्वक माशाओको यथा स्थान पर जोड़ते हुए सुधार कर पढने का प्रार्थना है। ३:-शुद्धि-पत्र में नीचे पृष्ठ की पक्तियो की गणना में " पृष्ठ सस्या, सूत्र सस्या, और सबध निर्देश भी" एक एक पक्ति के रूप मे गिने है, यह बात ध्यान में रहे ।
भूमिका भाग __ पृष्ठ संख्या पक्ति संख्या अशुद्ध
___
-
و به س
वज्ञान मासाधारण वग
विज्ञान असाधारण वर्ग विश्व दान प्रेमी
विश्क
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दाव प्रेमा बखूबा
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बखूवी
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श्रा
पृष्ठ संख्या
पक्ति सव्या
अशुद्ध
* E
रूपान्तर अनतनत
सुद्ध रूपान्तर है अनंतानत विकास अनत मुक्त होती है
6 * *
वकाम मत मक्त
होती
४१
१४
नता
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* * * * * , * * * * * m 2
इम सहचरी अनित्य जता पराक्षण दृश्ययान सा जीवन शली
सहचारी अनित्यत्व जाता परीक्षण दृश्यमान सो
जीवन
शैली
२००९
२००७
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पुस्तक-भाग
पृष्ठ सख्या
पक्ति सख्या
शुद्ध सेठे
ब
अशुद्ध सट्टे वधू णदो मुणा कृति सासार लसएज्जा विई स्थिति सिद्ध विदित्तण रजमण वरज्जइ अणुत्तर लमज्जा एभूहि अणयाण
णदो मुणी माकृति ससार लूसएज्जा विरइ स्थित सिद्ध विदित्ताण रज्जमाण विरज्जइ अणुत्तरे लभेज्जा भूएहिं अणियाण मुस आलावे बोलना द० मन, वचन, काया इत्थीणं
स
आलाव पोलना
काया
इत्थाण
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पृष्ठसंख्या
८४
८५
८६
८९
१०
९३
९४
९४
९५
१०६
१०६
१११
११४
१२२
१२४
१२४
१२७
१२९
१३२
१३४
१३४
१३५
१३५
९३५
१३९
१४१
पक्ति सख्या
१८
२२
१३
३
२२
१२
२३
२४
१८
२५
m
१६
३
९
१९
१९
१७
३
२३
११
१३
२२
१५
३६
Pho
अशुद्ध
मुवयति
तो
आहार
म
निवइय
हुवन्ति
तमं
धम्म
सविज्ज
अवह
सव
धितिम
तुम
अभिपत्थ एज्ज अभिपत्थ एज्जा
कर्मण्य
कर्त्तव्य
वयवी
वेयवी
सवएज्जा
अससत्त
मव
अत्तामण
घण्ण
माइवट्टेज्ज
धौर
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म
शुद्ध
मुवयति
तो भी
अभिसधए
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माहार
मे
निवइय
हवन्ति
धम्म
सेविज्ज
अवराह
सव्व
धितिम
सवएज्जा
अस सत्तं
मेव
अत्ताण
वण्ण
माइ वट्टे ज्जा
और
सेणे
भे
अभिसघए
ठाणं
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पृष्ठ संख्या
पक्ति सख्या
१४२
१४३
m
mr
mr
१४३
१४४
१४४
१४५
१४५
१४५
अशुद्ध धर्म ध्यान धर्म ध्यान और
शुक्ल ध्यान मायर्यादा मर्यादा एगत
एगंत चज्झिज्ज बुज्झिज्ज लायस्स लोयस्स रीती
रोति आर्तध्यान आर्तध्यान आर
रौद्र ध्यान गाच्छिज्जा गच्छिज्जा भावनाओ से भावनाओं से
से दूर रहो अप्पग अप्पमें अणुक्कसई अणुक्कसाई असक्ति
आसक्ति समाहिपत्त समाहि पत्ते सधए
सधए सजमे सजमे अपनी सपने हरिम हिरिम पडिसंलणे पडिसंलीणे श्राद्धावान्
श्रद्धावान् मोहाबी मेहाची
रय कम्महि
कम्मेहि सया
सया
१४७ १४८ १५४ १५४ १६० १६५ १६६
१६६
१६८
रय
१७१
१७३
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गद्ध
पडाग समाणे
अगद पडा समाणे पणाए मायि स्व वचन को
पृष्ठ सख्या पवित मस्या १७५
२४ १८१ १८२ १८७ १८८ १९१ १९१ १९३ ११९३
पणए माहिय
२४
वचन योर काया को
अझलियं समहि इदिए
कालिय ममाहि इदिए
३
मुल कर्त
का पर मध्यम और उत्कृष्ट
मध्य
वेदति
२०४
वदति यमणुन्ना महु कुत्ता उ, २३, वेराणु बधीणि पडिग्याओ दसी आत्तणं समुक्कस दसा
२०७
সমম্ব माहु कुत्ता उ, २३, ५, वेराणु बधीणि पडिग्धामो दसी अत्ताण समुक्कसे दसी भी
२०८ २०८
.
.
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________________
पृष्ठ सस्या
२१०
२१६
२१९
२१९
२२०
२२०
२२२
२२४
२२६
२२८
२२८
२२९
२३१
२३३
२३३
२३७
२३७
२४०
२४१
२४५
२४५
२४५
२४८
२५२
२५२
२५४
२५५
पक्ति सस्या
२६
८
१९
३
२८
१९
१३
१५
८
१७
१८
७
१२
७
१९
१६
१३
३
१०
१७
२५
७
९
१४
v
A
अशुद्ध
अविना भाव
इम
काम भोगणु
इत्थसु
फला
जत
कलुमार
यम्मा
उ, १३४,
पहुचना
चरमणो
मल
चभव
तप्णा
लोभ
समारम
भोगण
परियट्टइ
भोगा
परिभवइ
पावया
यत्ति
दिट्ठो
महारभयाए
कुणिम
मढे
लुष्पन्ति
शुद्ध
अबिना भाव
इमे
काम भोगाणु
इत्थिसु
फला
जति
कलुसाहमा
थम्भा
उ, १, १४,
पहुँचाना
चरमाणो
मूल
वैभव
तृष्णा
लोभ
समारभ
भोगाण
परियई
भोगो
परिभवई
पाविवा
वृत्ति
दिट्ठी
महारभयाए
कुणिमा
मूढे लुप्पन्ति
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पृष्ट संख्या
पवित सस्या
अशुद्ध
गुद्ध
२५५
नाइतुट्टति
२५६
२५६ २५६ २५७ २५८ २५८ २५८
नइतुट्टति मढे तिस्कार वाहरिय सू., २१
तिरस्कार वाहिरिय सू०, २, २१
२५९
२६० २६१
इन्द्रीय
૨૬૩
રદર २६४
२६५
दुक्खे
२६६
मरहिं मरणेहि बद्धामो बुद्धामो उज्जाणसि उज्जाणसि पकुव्वमाणे पकुव्त्रमाण
इन्द्रिय सू, १, ११७, सू०, १, १७, उ०, १०, सू०, १०, सू, १, २२, सू, १, २३, दुक्ख उज्झमाणं डज्झमाण नाएसु नरएसु असविभागी असविभागी उ, २३, ३६, उ; २३, २६ कुग्गाहिए बुग्गाहिए साध्वियो साध्वियो विकट्ठायो विकहाओ
शाणे वन्वे कन्वे लोर
૨૬૭ २७१ २७४ २७९ २८१ २८२ २८२
झाण
૨૮૨
२८५
लोग
Page #23
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भूमिका
मानव संस्कृति में
जैन-दर्शन
का
योग-दान
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भूमिका की विषय सूची
२. विपय-प्रवेश. २ अहिंसा की प्रतिष्ठा. ३. जैन धर्म का मानव-व्यवहार. ४. आत्मतत्त्व और ईश्वरवाद. ५. स्याद्वाद. ६. कमवाद और गुणस्थान .. भौतिक वज्ञान और जैन खगोल आदि. ८. पाहत्य और कला. .. युग कतब्य और उपसहार
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मानव संस्कृति में जैन दर्शन का योगदान
विपय-प्रवेश :
विशाल विश्व के विस्तृत साहित्यिक और सास्कृतिक प्रागण में आज दिन तक अनेक विचार धाराऐ और विविध दार्शनिक कल्पनाएं उत्पन्न होती रही है, और पुन 'काल क्रम से अनन्त के गर्भ में विलीन हो गई है। किन्तु कुछ ऐसी विशिष्ट, गातिप्रद, गभीर तथा तथ्य युक्त विचार धाराएँ भी समय समय पर प्रवाहित हुई है, जिनसे कि मानव-सस्कृति - मे सुख-शाति, आनद-मगल, कल्याण और अभ्युदय का सविकास हुआ है। .
इन दार्शनिकता और तात्विकता प्रधान विचार धाराओ मे जैन दर्शन तथा जैन-धर्म का अपना विशिष्ट और गौरव पूर्ण स्थान है। इस जैन-विचार धारा ने मानव-सस्कृति मे और दार्शनिक जगत् मे महान् कल्याणकारी और काति-युक्त परिवर्तन किये है। जिससे मानवइतिहास और मानव-संस्कृति के विकास की प्रवाह-दिशा ही मुड गई है। जैन-धर्म ने मानव-धर्मों के आचार-क्षेत्र और विचार-क्षेत्र, दोनो में 'हा मौलिक क्राति की है, दोनो ही क्षेत्रो मे अपनी महानता की विशिष्ट और स्थायी छाप छोड़ी है ।
चौवीस तीर्थकरो सवधी जन-परपरा के अनुसार जैन धर्म की प्राचीन मीमासा और समाक्षा नहीं करते हुए आधुनिक इतिहास और विद्वानों द्वारा मान्य दीर्घ तपस्वी भगवान महावीर स्वामी कालीन इतिहास पर विचार पूर्वक दृष्टिपात करे तो प्रामाणिक रूप से पता चलता है कि उस युग में भारत की संस्कृति वैदिक रीति-नीति प्रधान थी। उत्तर भारत
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और दक्षिण भारत के अधिकांश भाग में वैदिक यज्ञ-याग करना, वेद-मंत्री का उच्चारण करके जीवित विभिन्न पशुओ को ही अग्नि मे होम देना, वलिदान किये हुए पशुओ के मास को पका कर खाना और इसी रीति' से पूर्वजो का यज्ञ के मास द्वारा तर्पण करना ही धर्म का रूप समझा जाता था। ईश्वर के अस्तित्व को एक विशिष्ट शक्ति के रूप में कल्पना करके उसे ही सारे विश्व का नियामक, की, हत्ती और स्रष्टा मानना, वर्ण-व्यवस्था का निर्माण करके शूद्रो को पशुओ से भी गया वीता समझना, इस प्रकार की धर्म-विकृति महावीर-युग में हो चली थी।
समाज पर और राज्य पर ब्राह्मण-सस्कृति का प्राधान्य हो चला था, वेदानुयायी पुरोहित वर्ग राजा-वर्ग पर अपना वर्चस्व स्थापित कर चुका था, और इस प्रकार समाज में ब्राह्मण तथा क्षत्रिय ही सर्वस्व थे। धर्म-मार्ग "वैदिकी हिंसा हिसा न भवति" के आधार पर कलुषित तथा उन्मार्ग गामी हो चला था। ऐसी विषम और विपरीत परिस्थितियो मे दीर्घ तपस्वी महावीर स्वामी ने इस तपोपूत ऋपि-भूमि भारत पर आज से २५०६ वर्ष पूर्व जन-धर्म को मूर्त रूप प्रदान किया। चूकि वर्तमान जैन-दर्शन की धारा भगवान महावीर-काल से ही प्रवाहित हुई है, अतएव इस निवन्ध की परिधि भी इसी काल से सबधित समझी जानी. चाहिये, न कि प्राक् ऐतिहासिक काल से। ____ महावीर स्वामी ने इस सारी परिस्थति पर गभीर विचार किया और उन्हे यह तथाकथित धार्मिकता विपरीत, यात्म-घातक, पाप-पंक से पालुपित और मिथ्या-प्रतीत हुई। उन्होने अपने आसाधारण व्यक्तित्व के बल पर मानव जाति के आचार-मार्ग में और विचार क्षेत्र में आमूल चूल. ऐतिहासिक प्राति करने के लिये अपना सारा जीवन देने का और राजकीया तथा गृहस्थ सवधा भोगोपभोग जनित मुखो का बलिदान देने का दृढ निश्चय किया।
इनके मार्ग में भयकर और महती कठिनाइयाँ थी, क्योकि इन द्वारा प्रस्तुत की जाने वाली क्राति का विरोध करने के लिये भारत का तत्कालीन
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सारा का सारा ब्राह्मण वर्ग और ब्राह्मण वग का अनुयायी करोडो की सख्या वाला भारतीय जनता का जनमत था। राज्य-सत्ता और वैदिक अध-विश्वासों पर आश्रित अजेय शक्ति-युक्त जन-मत इनके क्राति मार्ग पर, पग पग पर, काटे बिछाने के लिये तैयार खडे थे।
निर्मम और निर्दय हिंसा प्रधान यज्ञो के स्थान पर आत्मिक, मानसिक तथा शारीरिक तप-प्रधान सहिष्णुता का उन्हे विधान करना था, मासाहार का सर्वथा निपेध करके अहिंसा को ही मानव-इतिहास मे एक विशिष्ट और सर्वोपरि सिद्धान्त के रूप में प्रस्थापित करना था। ईश्वरीय विविध कल्पनाओ के स्थान पर स्वाश्रयी आत्मा की अनत शक्तियो का दर्शन कराकर वैदिक मान्यताओ में एव वैदिक विधि-विधानो में क्रांति लाना था। ईश्वर और आत्मा संबंधी दार्शनिक विचार धारा को आत्मा की ही प्राकृतिक अनतता में प्रवाहित करना था। ___इस प्रकार असाधारण और विपमतम कठिनाइयो के वीच तप, तेज,
और त्याग के वल पर भगवान महावीर स्वामी द्वारा प्रगति दिया हुआ विचार-मार्ग ही जैन-धर्म कहलाया।
इस प्रकार भगवान महावीर स्वामी का महान् तपस्या पूर्ण बलिदान बतलाता है कि उन्होने अपनी तपोपूत निर्मल आत्मा में धर्म का मौलिक स्वरूप प्राप्त किया, जिस के वल पर उनका आध्यात्मिक काया-कल्प
हो गया। ब्रह्मचर्य, सत्य, अहिंसा, आत्म विश्वास और भूतदया के अमूल्य - तत्त्व उनकी आत्मा में परिपूर्णता को प्राप्त हो गये।
उनके महान् ज्ञान ने उन्हें सपूण ब्रह्माड के अनादि, अनन्त और । अपरिमेय एवं शाश्वत् धर्म-सिद्धान्तो के साथ सयाजित कर दिया। जहा
संसार के अन्य अनेक महात्मा इतिहास मे खडे है, वही हम प्रात स्मरणीय 1 महावीर स्वामी को अपने अलौकिक आत्म तेज से असाधारण तेजस्वी - के रूप में देखते है । उनका तपस्या से प्रज्वलित जीवन, सत्य और अहिंसा ' के दर्शन के लिये किया हुआ एक अत्यत और असाधारण शक्तिशाली सफळ
प्रयत्न दिखलाई पडता है। सत्य और अहिंसा की समस्या को उन्होने । अपने आत्म बलिदान द्वारा सुलझाया। आज के इस वैज्ञानिकता प्रधान
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स्वश्व में हम में से प्रत्येक को उसे अपने लिये सुलझाना है । उनका आदर्श, उनकी कष्ट सहिष्णुता, और ध्येय के प्रति उनकी अविचल दृढ निष्ठा हमें वल ओर सकेत प्रदान करती है । हमारे धैर्य को सहारा देती है, और बतलाती है कि यही मार्ग सच्चा है | इसी मार्ग द्वारा हम अवश्य सफल हो सकते है, बशर्ते कि हमारे प्रयत्न भी सच्चे हो । अब हमे यह देखना है कि भगवान् महावीर स्वामी ने जैन धर्म के रूप में विश्व संस्कृति के आचार क्षेत्र तथा विचार - क्षेत्र को क्या २ विशेषताएं प्रदान की है ।
अहिंसा की प्रतिष्ठा
से
मानव --- जाति का आज दिन तक जितना भी प्रामाणिक और विद्वत् मान्य इतिहास का अनुसंधान पूर्ण पता चला है, उससे यह निर्विवाद रूप सिद्ध होता है कि भगवान महावीर स्वामी द्वारा सचालित जैनधर्म के पूर्व इस पृथ्वी पर सपूर्ण मानव-जाति माँसाहारा थी, विविध पशुओ का मास खाने मे न तो पाप माना जाता था और न मासाहार के प्रति परहेज ही था एव न घृणा ही । ऐतिहासिक उल्लेखानुसार सर्व प्रथम "मानव-जाति में से मासाहार को परित्याग कराने की परिपाटी और परपरा" प्रामाणिक रूप से तथा अविचल दृढ श्रद्धा के साथ जैन-धर्म ने ही प्रस्थापित की ।
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ज्ञान-वेल पर और आचार-वल पर मानव जाति को मासाहार से मोडने का सर्व प्रथम श्रेय जैन-धर्म को ही है । इस प्रकार विश्व धर्मों की आधारशिला एवं प्रमुगतम सिद्धान्त अहिंसा ही है तथा अहिंसा ही हो सकती है । ऐसी महान् और अपरिवर्तनीय मान्यता मानव-जाति में पैदा करने वाला सर्व प्रथम धर्म जैन-धर्म ही है, इस ऐतिहासिक तत्त्व को विश्व के गण्य मान्य विद्वानो ने सर्व सम्मत सिद्धान्त मान लिया है। जैनेतर धर्म अहिंमा की इतनी सूक्ष्म, गभीर और व्यवहार योग्य योजना प्रस्तुत नही करते हैं, जैसी कि जैन धर्म करता है ।
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जैन धर्म ने अपने कठिन तप-प्रधान आचार-वल के आधार पर आर
अकाट्य तर्फ गयुक्त ज्ञान-वल के आधार पर सपूर्ण हिन्दूधर्म वनाम वैदिक धर्म पर और ग् हान् व्यक्तित्व शील बौद्ध धर्म पर ऐसी ऐतिहासिक अमिट छाप डाली
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कि संदैव के लिये " अहिसा ही धर्म की जननी है" यह सर्वोत्तम और स्था - सिद्धान्त स्वीकार कर लिया गया । जैन धर्म की इस अमल्य और सर्वोत्कृष्ट देन के कारण हो ईसाई, मुस्लिम, आदि इतर धर्मों मे भी अहिंसा की प्रकाश युक्त किरणें प्रविष्ट हो सकी है
जैन - संस्कृति सदैव अहिंसावादिनी, सूक्ष्म प्राणी की भा रक्षा करने वाली और मानव-जीवन के विविध क्षेत्रो मे भी अहिंसा का सर्वाधिक प्रयोग करने वाली रही है । इम दृष्टिकोण से जैन धर्म ने जीव विज्ञा का अति सूक्ष्म और गंभीर अध्ययन योग्य विवेचन किया है । जो कि विश्व साहित्य का एक सुन्दर, रोचक तथा ज्ञान-वर्धक अध्याय है ।
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इस प्रकार निष्कर्ष यह है कि जैन धर्म की अहिंसा सवधी देन की तुलन विश्व साहित्य में बार विश्व संस्कृति में इतर सभी धर्मो की देनो के साथ नही की जा सकती है । क्योकि अहिंसा सवधी यह देन वेजोड है, असाधारण और मौलिक है । यह उच्च मानवता एव सरस सात्विकता को लाने वाली है । यह देन मानव को पशुता से उठा कर देवत्व की ओर प्रगति कराती है अतः मानव इतिहास में यह अनुपम और सर्वोत्कृष्ट देन है ।
आजके युग के महापुरुष, विश्व-विभूति, राष्ट्रपिता पूज्य गाधी जी के व्यक्तित्व के पीछे भी इसी जैन सस्कृति से उद्भूत अहिंसा की शक्ति है छिपी हुई थी, इसे कौन नही जानता है ?
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जैन धर्म का मानव-व्यवहार
अहिंसा के महान् व्रत और असाधारण सिद्धान्त का मानव जीव के लिये व्यवहारिक तथा क्रियात्मक रूप देने के लिये दैनिक क्रियाओ सबको और जीवन सवधी अनेकानेक नियमो तथा विधि विधानो का भी जैनधर्म ने सस्थापन और समर्थन किया है । जिन्हे बारह व्रत एवं पंच महाव्रत
मनुष्य जाति में
भी कहते है । जिनका तात्पर्य यही है अच्छी वृत्तियो का, अच्छे गुणो का और उच्च इस प्रकार मानव - शांति बनी रहे और सभी को
कि सम्पूर्ण गृहस्थ धर्म का विकास हो !
अपना अपना विकास करते
का सुन्दर एवं समुचित सयोग प्राप्त हो ।
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- उपरोक्त ध्येय को परिपूर्ण करने के लिए इन्द्रियो पर निग्रह करने का, सत्य का आचरण करने का, स्वाद को जीतने का, ब्रह्मचर्य के प्रति निष्ठावान् वनने का, और पात्रता का ध्यान रख कर उदार वुद्धि के साथ विभिन्न क्षत्रो मे दान आदि देने का जन-धर्म में स्पष्ट विधान है।
श्री महावीर स्वामी के युग मे लगाकर विक्रम की अठारहवा शताब्दि तक पूजीवाद जैसी अर्थमूलक और शोपक व्यवस्था पद्धति की उत्पत्ति नहीं हुई थी, अतएव आज के युग-धर्म रुप समाजवाद जैसी विशेप अर्थ-प्रणालि की व्यवस्था जैन-धर्म में नहीं पाई जाने पर भा समाजवाद का अर्थान्तर रूप से उत्लेख और व्यवहार जैन-धर्म मे अवश्य पाया जाता है, और वह पांचवे व्रत में अपरिग्रह वाद के नाम से स्थापित किया गया है । ___ अपरिग्रह वाद की रूप रेखा और इसके पीछे छिपी हुई भावना का तात्पर्य भी यही है कि मानव समाज में धन वाद का प्राधान्य नही हो जाय । जीवन का केन्द्र-चक्र केवल धन वाद के पीछे ही नही घूमने लग जाय । जीवन का मूल आधार धन ही नहीं हो जाय । धन वाद द्वारा मानव-समाज में नाना विध वुराइयाँ प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से प्रविष्ट नही हो, वल्कि मानव: समाज धन वाद की दृष्टि से एक ऐसे स्तर पर चलता रहे कि जिससे मानवजाति अपनी पारमाथिकता समझ सके और तप्णा के जाल से दूर ही रह सके । अतएव जन-धर्म मानव-जाति की कालिक सुव्यवस्था की ओर सुलक्ष्य देता हुआ महान् मानवता का प्रचार करता है। इस प्रकार प्रकारान्तर से धन वाद की विशेषता को धिक्कारता हुआ समाजवाद वनाम अपरिग्रह वाद पर खास जोर देता है । उपरोक्त कथन से प्रमाणित है कि जैन-धर्म परिपूर्ण अहिंसा की आधार शिलापर, नैतिकता द्वारा जीवन में अपरिग्रह वाद की वनाम समाजवाद की स्थापना करके अपने आपको विश्व-धर्म का अधिष्ठाता घोपित कर देता है । इस प्रकार मानव को आहार में निरामिप भोजी और व्यवहार मे समाज वादी एव विचार मे स्याद्वादी बनाकर यह धर्म ऐतिहासिक क्रानि करता हुआ विश्व धर्मों का केन्द्र स्थान अथवा धुरी-स्थान बन जाता हैं । यह है जैन धर्म की उदात्त और समज्ज्व ल देन, जो,कि अपने व्याप में अमाधारण और यादर्श है।
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__ . जैन धर्म वर्ण व्यवस्था की विकृति को हेय-दृष्टि से देखता है, इसके विधान में मानव मात्र समान है । जन्म की दृष्टि से न तो कोई उच्च है
और न कोई नीच, किन्तु अपने अपने अच्छे अथवा वुरे आचरणो द्वारा ही समाज में कोई नीच अथवा कोई उच्च हो सकता है । छूत-अछूत जैसी घृणित "वर्ण-व्यवस्था का जैन-धर्म कट्टर शत्रु है। मानव-मात्र अपने आप में स्वयं एक ही है । मानवता एक और अखड है । सभी प्रकार के सामाजिक, धार्मिक
और आध्यात्मिक विधि-विधानो का मानव-मात्र समान अधिकारी है। ___जाति, देश, रग, लिंग, भापा, वेश, नस्ल, वश और काल का कृत्रिम भेद होते हुए भी मूल मै मानव-मात्र एक ही है । यह है जैन-धर्म की अप्रतिम और अमर घोषणा, जो कि जैन-धर्म की महानता को सर्वोच्च "शिखर पर पहुंचा देती है। ___जा व्यक्ति जैन-धर्म को केवल निवृत्ति-प्रधान बतलाता है, वह अपरि-मार्जनीय भयकर भूल करता है । जैन-धम सात्विक और नैतिक प्रवृत्ति का विधान करता हुआ, सस्कृति तथा जीवन के विकास के लिये विविध पुण्य के कामो का स्पष्ट उल्लेख और आदेश देता है । कुशल शासक, सफल सेनापति, योग्य व्यौपारी, कर्मण्य सेवक, और आदर्श गृहस्थ बनने के लिये जैन धर्म में कोई रुकावट नही है । इसीलिये विभिन्न काल और विभिन्न क्षेत्रो में समय समय पर जैन-समाज द्वारा संचालित आरोग्यालय, भोजनालय, शिक्ष‘णालय, वाचनालय, अनाथालय, जलाशय और विश्राम-स्थल आदि आदि -सत्कार्यों की प्रवृत्ति का लेखा देखा जा सकता है।
लावण्यता और रमणीयता सयुक्त भारतीय कला के सविकास में जैन -सस्कृति ने अग्र भाग लिया है, जिसे इतिहास के प्रेमा पाठक बखूवा जानते है ।
आत्म तत्व और ईश्वरवाद इस्वा सन् एक हजार वर्ष पूर्व से लगा कर इस्वी सन् बीसवी शताब्दि तक के युग में यानी इन तीन हजार वर्षों में भारतीय साहित्य के ज्ञान-सम्पन्न प्रागण मे आत्म तत्त्व और ईश्वरवाद के सम्बन्ध में हजारो ग्रंथो का निर्माण
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किया गया । कुल मिलाकर लाखो ऋपि-मुनियो ने, तत्त्व चिंतकों और मनीपियो ने, ज्ञानियो एव दार्शनिको ने इस विषय पर गम्भीर अध्ययन, मनन, चिंतन और अनुसंधान किया है । इस विपयको लेकर भिन्न २ समय में सैकड़ो राज्य-सभाओ मे धन-घोर और तुमुल शास्त्रार्थ हुए है। इसी प्रकार इस विपय पर मत-भेद होने पर अनेक प्रगाढ पाडित्य सपन्न दिग्गज विद्वानो को देश निकाला भी दिया गया है । शास्त्रार्थ में तात्कालिक पराजय हो जाने पर अनेक विद्वानो को विविध रीति से मृत्यु-दड भी दिया गया है। इस प्रकार भारतीय दर्शन-शास्त्रो का यह एक प्रमुखतम और सर्वोच्च विचारणीय विषय रहा है।
जैन दर्शन ईश्वरत्व को एक आदर्श और उत्कृष्टतम ध्येय मानता है, न कि ईश्वर को विश्व का स्रष्टा र नियामक । अतएव इस पर अपेक्षाकृत अधिक लिखना अप्रासगिक नहीं होगा।
जैन-दर्शन की मान्यता है कि सपूर्ण ब्रह्माड मे यानी अखिल लोक मे केवल दो तत्त्व ही है । एक तो जड रूप अचेतन पुद्गल और दूसरा चेतना शील आत्म तत्त्व।
इन दो तत्त्वो के आधार से ही सपूर्ण विश्व का निर्माण हुआ है। सारे ही ससार के हर क्षेत्र, हर स्थान, और हर अश में ये दोनो ही तत्त्व भरे पडे है । कोई स्थान ऐसा नहीं है जहाँ कि ये दोनो तत्त्व घुले मिले न हो। इनकी अनेक अवस्थाएं हैं, इनके अनेक रूपान्तर और पर्याये है, विविध . प्रकार की स्थिति है, परन्तु फिर भी मूल मे ये दो ही तत्त्व है । तीसरा और कोई नहीं है।
जड पुद्गल अनेक शक्तियो मे विखरा हुआ है, इसकी सपूर्ण गक्तियो का पता लगाना मानव-शक्ति और वैज्ञानिको के भी वाहिर की वात है। रेडियो, वायरलेस तार, टेली विजन, रेडार, वाष्पशक्ति और विद्युत-. शक्ति, अणुवम, कीटाणुवम, हाईड्रोजन वम, इथर तत्त्व, कास्मिक किरणें आदि विभिन्न शक्तियाँ इस जड तत्व की ही रूपान्तर । “इसे प्रकार की अनतानत शक्तियाँ इस जड तत्त्व में निहित है, जो कि रवाभाविक, प्राकृतिक
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और कालातीत है । इसमें विपरीत चतव तत्त्व है - यह भी सम्पूर्ण संसार के
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हर क्षेत्र, हर स्थान और हर अश में अनेक
रूप से सुन लोहे के परमा-णुओ के समान पड़ी भूत है । जैसे समुद्र के इसे लगाकर सतह तक जल ही जल भरा रहता है और तल सतह के बीच मे कोई भी स्थान जल से खाली नही रहता है, वैसे ही अखिल विश्व मे कोई भी स्थान ऐमा खाली नही है, जहाँ कि चेतना तत्त्व अनतानत मात्रा मे न हो । जैसे जल के प्रत्येक कण मे जो कुछ तत्त्व और जो कुछ शक्ति है, वैसा ही तत्त्व और वैसी ही शक्ति समुद्र के सम्पूर्ण जल मे है । इसी प्रकार समूह रूपेण पिंडी भूत सम्पूर्ण चेतन तत्त्व मे जो जो शक्तियाँ अथवा वृत्तियाँ है, वे ही और उतनी ही शक्तियाँ एव वृत्तियाँ भी एक एक चेतन ऋण मे अथवा प्रत्येक आत्मा मे है । ये वृत्तियाँ अनत. नत है, स्वाभाविक याना प्राकृतिक है, अनादि है,
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अक्षय है, और तादात्म्य रूप है ।
ये शक्तियाँ प्रत्येक आत्मा के साथ सहजात और महचर धर्म वाली है, सासारिक अवस्था में परिभ्रमण करते समय आत्मा की इन शक्तियो के साथ पुद्गलो का अति सूक्ष्मतम से सूक्ष्मतम आवरण अनिष्ट वासनाओ और सस्कारो के कारण समिश्रित रहता है । इस कारण से ये शक्तियाँ मलीन, विकृत, अविकनित, अर्ध विकमित और विपरीत विकसित आदि नाना रूपो में प्रस्फुटित होती हुई देखी जाती है ।
चेतन तत्त्व सामुहिक पिंड में सबद्ध होने पर भी प्रत्येक चेतन कण का अपना अपना अलग अलग अस्तित्व है । समूह से अलग होकर वह अपना पूर्ण और सागोपाग विकास कर सकता है। जैसा कि हम प्रति दिन देखते है कि मनुष्य, तिर्यंच आदि अवस्थाओ के रूप में विभिन्न चेतन कणो ने अपना अपना विकास कर इन अवस्थाओ को प्राप्त किया है, और यदि विकास की गति नही रुके तो निरन्तर विकास करता हुआ प्रत्येक चेतन कण ईश्वरत्व को
प्राप्त कर सकता है, जो कि विकास और ज्ञान, पवित्रता एव सर्वोच्चता का अति श्रेणी है । "यह परम तम सर्व श्रेष्ठ विकास शील अवस्था" प्रत्येक चेतन- -कण में स्वाभाविक है, परन्तु उसका विकास कर सकना अथवा वकास नहीं कर सकना यह प्रत्येक चेतन रुण का अपने अपने प्रयत्न और
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किया गया । कुल मिलाकर लाखो ऋपि-मुनियो ने, तत्त्व चिंतको और मनीपिया ने, जानियों एव दार्शनिको ने इस विषय पर गम्भीर अध्ययन, मनन, चिंतन और अनुसंधान किया है । इस विपयको लेकर भिन्न २ समय में सैकड़ों राज्य सभाओं में धन-घोर और तुमुल शास्त्रार्थ हुए है। इसी प्रकार इस विषय पर मत-भेद होने पर अनेक प्रगाढ पाडित्य सपन्न दिग्गज विद्वानो को देश निकाला भी दिया गया है । शास्त्रार्थ मे तात्कालिक पराजय हो जाने पर अनेक विद्वानो को विविध रीति से मृत्यु-दड भी दिया गया है। इस प्रकार भारतीय दर्शन-शास्त्रो का यह एक प्रमुखतम और सर्वोच्च विचारणीय विपव रहा है।
जैन दर्गन ईश्वरत्व को एक आदर्श और उत्कृष्टतम ध्येय मानता है, न कि ईश्वर को विश्व का स्रष्टा भार नियामक । मतएव इस पर अपेक्षाकृत अविक लिखना अप्रासगिक नहीं होगा।
जैन दर्शन की मान्यता है कि सपूर्ण ब्रह्माड में यानी अखिल लोक में केवल दो तत्त्व ही है । एक तो जड रूप मचेतन पुद्गल और दूसरा चेतना शील भात्म तत्त्व।
न दो तत्त्वो के आधार से ही संपूर्ण विश्व का निर्माण हुआ है । सारे ही गमार के हर क्षेत्र, हर स्थान, और हर अग में ये दोनो ही तत्त्व भरे पड़े हैं। कोई स्थान ऐसा नहीं है जहाँ कि ये दोनो तत्त्व घुले मिले न हो। उनकी अनेक अवग्याऐ है, इनके अनेक रूपान्तर और पर्यायें है, विविध , प्रकार की स्थिति है, परन्तु फिर भी मूल में ये दो ही तत्त्व है । तीसरा । और कोई नहीं है।
जड पुद्गल बनेक शनितयो में विखरा हुआ है, इसकी सपूर्ण शक्तियो का पता लगाना मानव-गवित और वैनानिको के भी वाहिर की बात है। रेडियो, वायरलेस तार, टेली विजन, रेडार, वाप्पशक्ति और विद्युतपक्ति, अणुवम, कीटाणुबम, हाईट्रोजन बम, इथर तत्त्व, कास्मिक किरणें चादि विभिन्न गचित्तयां इस जड़ तत्व की ही रूपान्तर । ईस प्रकार की अनतानन मस्तियो इन जड तत्त्व में निहित है, जो कि स्वाभाविक, प्राकृतिक
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और कालातीत है । इसमें विपरीत चत्त तत्व ई.। मह भी सवर्ण संसार के हर क्षेत्र, हर स्थान और हर अश में अनलामत रूप से समन लोहे के परमा णुओ के समान पिंडीभूत है । जैसे सेमेंद्र के लन्स लगाकर सतह तके जल ही जल भरा रहता है और तल-सतह के बीच में कोई भी स्थान जल से खाली नहीं रहता है, वैसे ही अखिल विश्व मे कोई भी स्थान ऐमा खाली नही है, जहाँ कि चेतना तत्त्व अनतानत मात्रा मे न हो । जैसे जल के प्रत्येक कण में जो कुछ तत्त्व और जो कुछ शक्ति है, वैसा ही तत्त्व और वैसी ही - शक्ति समुद्र के सम्पूर्ण जल मे है । इसी प्रकार समूह रूपेण पिंडी भूत सम्पूर्ण चेतन तत्त्व मे जो जो शक्तियाँ अथवा वृत्तियाँ है, वे ही और उतनी ही शक्तियाँ एव वृत्तियाँ भी एक एक चेतन कण मे अथवा प्रत्येक आत्मा मे है । ये वृत्तियाँ अनत.नत है, स्वाभाविक याना प्राकृतिक है, अनादि है, अक्षय है, और तादात्म्य रूप है। ___ ये शक्तियाँ प्रत्येक आत्मा के साथ सहजात और सहचर धर्म वाली है। सासारिक अवस्था में परिभ्रमण करते समय आत्मा की इन शक्तियो के साय पुद्गलो का अति सूक्ष्मतम से सूक्ष्मतम आवरण अनिष्ट वासनाओ और सस्कारो के कारण समिश्रित रहता है। इस कारण से ये शक्तियाँ मलीन, विकृत, अविकसित, अर्ध विकसित और विपरीत विकसित आदि नाना रूपो मे प्रस्फुटित होती हुई देखी जाती है ।
चेतन तत्त्व सामुहिक पिंड में सबद्ध होने पर भी प्रत्येक चेतन कण का अपना अपना अलग अलग अस्तित्व है । समूह से अलग होकर वह अपना पूर्ण और सागोपाग विकास कर सकता है । जैसा कि हम प्रति दिन देखते है कि मनुष्य, तिर्यच आदि अवस्थाओ के रूप में विभिन्न चेतन कणो ने अपना अपना विकास कर इन अवस्थाओ को प्राप्त किया है, और यदि विकास की गति
नही रुके तो निरन्तर विकास करता हुआ प्रत्येक चेतन कण ईश्वरत्व को . ... प्राप्त कर सकता है, जो कि विकास और ज्ञान, पवित्रता एव सर्वोच्चता का
अतिम श्रेणी है । “यह परम तम सर्व श्रेष्ठ विकास शील अवस्था" प्रत्येक चेतन-कण में स्वाभाविक है, परन्तु उसका विकास कर सकना अथवा वकास नहीं कर सकना यह प्रत्येक चेतन कण का अपने अपने प्रयत्न और
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"परिरिथति पर निर्भर है । प्रत्येक चेतन कण में वनाम प्रत्येक आत्मा मे यह स्वाभाविक शक्ति है कि वह अपने स्वरूप को ईश्वर रूप में परिणित कर सकता है, एवं अपने में विकसित मखड परिपूर्ण और विमल ज्ञान द्वारा विश्व की सम्पूर्ण अवर वाओ का भार उसके हर अंग को देख सकता है।
प्रत्येक आत्मा अनादि है, अक्षय है, नित्य है, शाश्वत् हैं, अचिन्त्य है, गन्दातीत है, अगोचर है, मूलरूप से ज्ञान स्वरूप है, निर्मल है, अन्त सुखमय है, सभी प्रकार की सासारिक मोह माया आदि विकृतियो से पूर्णतया रहित है । प्रत्येक आत्मा अनन्त सस्तिगाली और बनत सात्विक सद्गुगो का पिंड मान है । वास्तविक दृष्टि से ईश्वरत्व मीर आत्मतत्व में कोई अन्तर नही है। यह जो विभिन्न प्रकार का अन्तर दिखलाई पड़ रहा है, उनका कारण वासना और सरकार है, और इन्ही से विकृति मय अन्तर अवस्था की उत्पत्ति होती है । वासना और सम्कारो के हटते ही आत्मा का नूल स्वरूप प्रगट हो जाया करता है, जैसे कि बादलो के हटते ही मूर्य का प्रकाश और धूप निकल जाती है, वैसे ही यहा भा समझ लेना चाहिये । अखिल विश्व में यानी सम्पूर्ण ब्रह्मांड में अनंनानत आत्माएं पाई जाती है, इनकी गणना कर सकना ईश्वरीय ज्ञान के भी वाहिर की बात है । परन्तु गुणो की समानता के कारण जैन-दर्शन का यह दावा है कि प्रत्येक आत्मा सात्विकता और नैतिकता के वल पर ईश्वरत्व प्राप्त कर सकता है। इस प्रकार माज दिन तक अनेकानेक आत्माओ ने ईश्वरत्व की प्राप्ति की है। ईश्वरत्व प्राप्ति के पश्चात् ये आत्माएं-ईश्वर में ही ज्योतिमे ज्योति के समान एकत्व आर एक रूपत्व प्राप्त कर लेती है। इस प्रकार अनतानत काल के लिय, सदैव के लिये इस समार से परिमुक्त हो जाती है । ऐमी मस्त भार ईश्वरत्व प्राप्त आत्माएँ पूर्ण वीतरागी होने से संसार के सजन, विनाशन, रक्षण, परिवधन और नियमन आदि प्रवृत्तियो मे सर्वथा परिमत हात वीतरागता के कारण सासारिक-प्रवृत्तियो में भाग लेने का उनके लिये कोई कारण शेप नही रह: जाता है । यह है जैन-दगन की "आत्मतत्त्व और ईश्वरत्व" विषयक मौलिक दार्शनिक देन, जो कि हर आत्मा में पुरुपायं, स्वामयता, कर्मण्यता, नैतिकता, सेवा, परोपकार, एव सात्विकता की उच्च बार उदात्त लहर पैदा करती है ।
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ससार मे जो विभिन्न विभिन्न आत्मतत्त्व की श्रेणियां दिखाई दे रही है। उनका कारण मूल गुणो में विकृति की न्यूनाधिकता है । जिस जिस आत्मा में जितना जितना सात्विक गुणो का विकास है, वह आत्मा उतनी ही ईश्वरत्व के पास है और जिसमें जितनी जितनी विकृति की अधिकता है, उतनी उतनी ही वह ईश्वरत्व से दूर है। सांसारिक आत्माओ में परस्पर में पाई जान वाली विभिन्नता का कारण सात्विक, तामसिक, और राजसिक वृत्तियाँ है, जो कि हर आत्मा के साथ कर्म रुप से, सस्कार रूप से और वासना रूप से सयुक्त है । वेदान्तदर्शन सम्बन्धी "ब्रह्म और माया' का विवेचन, साख्य दर्शन सम्बन्धी "पुरुष भार प्रकृति" की व्याख्या, और जैन-दर्शन सम्बन्धी "मात्मा. और कर्म" का सिद्धान्त मूल में काफी समानता रखते है । शब्द-भेद, भाषाभेद, और विवेचन-प्रणालि का भेद होने पर भी अर्थ में भेद प्रतीत नही होता है, तात्पर्य में भेद विदित नही होता है।
उपरोक्त वर्णन से ज्ञात होता है कि जैन-दर्शन की मान्यता वैदिक धर्म के अनुसार एक ईश्वर के रूप में नही होकर अपने ही प्रयत्न द्वारा विकास की सर्वोच्च और अन्तिम श्रेणि प्राप्त करने वाली, निर्मलता और ज्ञान की अखड और अक्षयधारा प्राप्त करने वाली और इस प्रकार ईश्वरत्व प्राप्त करने वाली अनेकानेक आत्माओ का ज्ञान, ज्योति के रूप में सम्मिलित होकर प्राप्त होने वाले परमात्मवाद में है।
अतएव इस स्रष्टि का कर्ता हर्ता, धर्ता और नियामक कोई एक ईश्वर नही है, परन्तु इस लष्टि की प्रक्रिया स्वाभाविक है। हर आत्मा' का उत्थान और पतन अपने अपने कृत कर्मों के अनुसार ही हुआ करता है। इस प्रकार की सैद्धान्तिक और मौलिक दार्शनिक क्राति भगवान महावीर स्वामी ने तत्कालीन वैदिक मान्यता के अधिनायक रूप प्रचह और प्रवल प्रवाह के प्रतिकूल निडर होकर केवल अपने आत्म बल के आधार पर प्रस्थापित की, जो कि अजेय और सफल प्रमाणित हुई। वैदिक मान्यता झुकती हुई निर्वलता की ओर बढती गई । तत्कालीन बड़े२ गण राज्य, राजा गण, जनता और मध्यम वर्ग तेजा के साथ वैदिक
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मान्यतायो का परित्याग करते हुए और भगवान महावीर-स्वामी के शासनचक में प्रविष्ट होते हुए देखे गये। - यज्ञ-प्रणालि मे, हिंसा-अहिंसा की मान्यतामे, वर्ण-व्यवस्था मे, और दार्शनिक-सिद्धान्तो मे आमूल-चूल परिवर्तन देखा गया, यह सब महिमा केवल ज्ञातपुत्र, निग्रंथ, श्रमण भगवान महावीर स्वामी की कडक तपस्या, और गभीर दर्शनिक सिद्धान्तो की है।
वैदिक सभ्यता ने मध्य-युग में भी जैन धर्म और जैन दर्शन को खत्म करने के लिये भारी प्रयत्न किये, किन्तु वह असफल रही। इस प्रकार हर आत्मा की अखडता का, व्यापकता का, परिपूर्णता का, स्वतंत्रता का और स्व-आश्रयता का विधान करके जैन दर्शन विश्व-साहित्य मे " आत्मवाद और ईश्वरवाद" सवधी अपनी मौलिक विचार-धारा प्रस्तुत करता है, जो कि मानव-सस्कृति को महानता की ओर बढाने वाली है। मतएव यह शुभ, प्रशस्त और हितावह है। . ... ..
' स्याद्वाद
- दार्शनिक सिद्धान्तो के इतिहास मे स्याद्वाद का स्थान सर्वोपरि है। यादाद का उल्लेख सापेक्षवाद, अनेकान्तवाद अथवा सप्तभगीवाद के नाम से भी किया जता है। विविध और परस्पर मे विरोधी प्रतीत होने वाली मान्यताओ का और विपरीत तथा विघातक विचार-श्रेणियो का समन्वय करके सत्य की शोध करना, दार्शनिक सक्लेश को मिटाना, और सभी घर्मो एव दार्शनिक मिद्धान्तो को मोतियो की माला के समान एक ही सूत्र में अनुस्यूत कर देना अर्थात् पिरो देना ही स्याद्वाद की उत्पत्ति का रहस्य है। निस्सदेह जैन-धर्म ने स्याद्वाद सिद्धान्त की व्यवस्थित रीति से स्थापना करके और युवित सगत विवेचना करके विश्व-साहित्य में विरोध और विनाग रुप विविधता को सर्वथा मिटा देने का स्तुत्य प्रयत्न किया है ।
. विश्व के मानव-समूह ने सभी देगो मे, सभी कालो में और सभी __परिस्थितियो मे-ननिकता तथा सुख-गाति के विकास के लिये समयानुसार
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आचार-शास्त्र एव नीति-शास्त्र के भिन्न भिन्न नियम और परपराएँ स्थापित की है, वे ही धर्म के रूप में विख्यात हुई और तत्कालिक परिस्थिति के अनुसार उनसे मानव-समूह ने विकास, सभ्यता एव शाति भी प्राप्त की, किन्तु कालन्तर मे वे ही परपराएं अनुयायियो के हठाग्रह से साप्रदायिकता के रूप में परिणित होती गई, जिससे धार्मिक-क्लेश, मतावती, अदूरदगिता, हठाग्रह आदि दुर्गुण उत्पन्न होते गये और अखड मानवता एक ही रूप में विकसित नही होकर खंड खड रूप में होती गई, और इसीलिये नये नये धर्मों का, नये नये आचार-शास्त्रो की और नये नये नैतिक नियमो की आवश्यकता होती गई एव तदनुसार इनकी उत्पत्ति भी होती गई। इस प्रकार सैकड़ो पथ और मत मतान्तर उत्पन्न होगये, और इनका परस्पर में द्वद्व युद्ध भी होने लगा। खंडन-मन्डन, के हजारो ग्रथ बनाये-गये। सैकडो वार शास्त्रार्थ हुए और मानवता वर्म के नाम पर कदाग्रह के कीचड में फंसकर सक्लेश मय हो गई। ऐसी गभीर स्थिति मे कोई भी धर्म अथवा मत-मतान्तर पूर्ण सत्य रूप नही हो सकता है, सापेक्ष सत्य, मय हो सकता है, इस सापेक्ष सत्य को प्रकट करने वाली एक मात्र वचन-प्रणालि स्याद्वाद हो सकती है. अतएव स्याद्वाददार्शनिक जगत् में आर, मानवता के विकास में असाधारण महत्त्व रखता है, और इसी का आश्रय लेकर पूर्ण सत्यं प्राप्त करते हुए सभ्यता और संस्कृति का समुचित सविकास किया जा सकता है। . विश्व का प्रत्येक पदार्थ सत् रूप है । जो सत् रूप होता है, वह पर्याय शील होता हुआ नित्य होता है। पर्याय शीलता और नित्यता के कारण से हर पदार्थ अनन्त धर्मों वाला और अनन्त गुणो वाला है,, और अनन्त धर्म गुण शीलता के कारण एक ही समय मे और एक ही साथ उन सभी घर्म-गुणो का शब्दो द्वारा कथन नही किया जा सकता है। इसलिये स्याद्वाद मय भाषा की और भी अधिक आवश्यकता प्रमाणित हो जाती है। "स्यात्" शब्द इसीलिये लगाया जाता है, जिससे पूरा पदार्थ उसी एक अवस्था रूप नहीं समझ लिया जाय, अन्य धर्मों- का भी और, अन्य
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मान्यताओ का परित्याग करते हुए और भगवान महावीर स्वामी के शासनचल में प्रविष्ट होते हुए देखे गये ।
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, यज्ञ-प्रणालि में हिंसा-अहिंसा की मान्यता में वर्ण व्यवस्था में, और दार्शनिक सिद्धान्त में आमूल-चूल परिवर्तन देखा गया, यह सब महिमा केवल ज्ञातपुत्र, निग्रंथ, श्रमण भगवान महावीर स्वामी की कडक तपस्या, और गंभीर दर्शनिक सिद्धान्ती की है ।
जैन धर्म और जैन दर्शन को किन्तु वह अगफल रही। इस परिपूर्णता का, स्वतंत्रता
वैदिक सभ्यता ने मध्य युग में भी सत्म करने के लिये भारी प्रयत्न किये, प्रकार हर आत्मा की अखंडता का व्यापकता का, का और स्व-आश्रयता का विधान करके जैन दर्शन विश्व - साहित्य में "अत्मवाद और ईश्वरवाद 'सबधी अपनी मौलिक विचार-वारा प्रस्तुत करता है, जो कि मानव - सस्कृति को महानता की ओर बढाने वाली है । अनएव यह शुभ, प्रशस्त और हितावह है ।
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स्याद्वाद
दार्शनिक सिद्धान्तो के इतिहास में स्याद्वाद का स्थान सर्वोपरि है । स्याद्वाद का उल्लेरा सापेक्षवाद, अनेकान्तवाद अथवा सप्तभगीवाद के नाम से भी किया जता है । विविध और परस्पर में विरोधी प्रतीत होने वाली मान्यताओ का ओर विपरीत तथा विधानक विचार श्रेणियों का समन्वय करके सत्य की गोत्र करना, दार्शनिक साकेश को मिटाना, और सभी
ग़ एवं दार्शनिक सिद्धान्तो को मोतियो की माला के समान एक ही सूत्र में अनुस्यूत कर देना अर्थात् पिरो देना ही स्याद्वाद की उत्पत्ति का रहस्य है। विरमदेह जैन-धर्म ने स्याद्वाद सिद्धान्त की व्यवस्थित रीति से स्थापना करके और युक्ति रागत विवेचना करके विश्व साहित्य म विरोध और विनाश रूप विविधता को सर्वथा मिटा देने का स्तुत्य प्रयत्न किया है ।
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: विश्व के मानव-समूह ने सभी देशों में, 'सभी काली मे और सभी परिस्थितियों में नंनिता तथा सुख-शांति के विकास के लिये समयानुसार
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आचार-शास्त्र एव नीति-शास्त्र के भिन्न भिन्न नियम और परपराएँ स्थापित की है, वे ही धर्म के रूप में विख्यात हुई और तत्कालिक परिस्थिति के अनुसार उनसे मानव-समूह ने विकास, सभ्यता एव शाति भी प्राप्त की, किन्तु कालन्तर में वे ही परपराएं अनुयायियो के हठाग्रह से साप्रदा: यिकता के रूप में परिणित होती गई, जिससे धार्मिक-क्लेश, मताधता, अदूरदर्शिता, हठाग्रह आदि, दुर्गुण उत्पन्न होते गये और अखड मानवता एक ही रूप में विकसित नही होकर खड खड रूप मे होती गई, और इसीलिये नये नये धर्मों का, नये नये आचार-शास्त्रो की और नये नये नैतिक नियमो की आवश्यकता होती गई एव तदनुसार इनकी उत्पत्ति भी होती गई । इस प्रकार सैकडो पथ और मत मतान्त र उत्पन्न होगये, और इनका परस्पर मे द्वद्व युद्ध भी होने लगा। खंडन-मन्डन के हजारो ग्रथ बनाये गये। सैकडो बार शास्त्रार्थ हुए और मानवता वर्म के नाम पर कदाग्रह के कीचड में फसकर सक्लेश मय हो गई। ऐसी गभीर स्थिति में कोई भी-धर्म अथवा मत-मतान्तर पूर्ण सत्य रूप नही हो सकता है, सापेक्ष सत्य मय हो सकता है, इस सापेक्ष सत्य को प्रकट करने वाली एक मात्र वचन-प्रणालि स्याद्वाद हो सकती है अतएव स्याद्वाददार्शनिक जगत् मे आर मानवता के विकास में असाधारण महत्त्व रखता है, और इसी का आश्रय लेकर पूर्ण सत्य प्राप्त करते हुए सभ्यता और संस्कृति का समुचित सविकास किया जा सकता है। । __ विश्व का प्रत्येक पदार्थ सत् रूप है । जो सत् रूप होता है, वह पर्याय शील होता हुआ नित्य होता है। पर्याय शीलता और नित्यता के कारण से हर पदार्थ अनन्त धर्मों वाला और अनन्त गुणो वाला है, और अनन्त धर्म गुण शीलता के कारण एक ही समय मे और एक ही साथ उन सभी धर्म-गुणो का शब्दो द्वारा कथन नही किया जा सकता है। इसलिये स्याद्वाद मय भाषा की और भी अधिक आवश्यकता प्रमाणित हो जाती है। " स्यात्" शब्द इसीलिये लगाया जाता है, जिससे पूरा पदार्थ उसी एक अवस्था रूप नही समझ लिया जाय, अन्य धर्मों का भी और अन्य
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अवस्थाओं का भी अस्तित्व उस पदार्थ मे है, यह तात्पर्य " स्यात् " शब्द से जाना जाता है। __ "स्यात्' शब्द का अर्थ, "शायद है, सभवत. है, कदाचित् है", ऐसा नहीं है, क्योकि ये सव सशयात्मक है, अतएव "स्यात्" शब्द का अर्थ "अमुक निश्चित् अपेक्षा से" ऐसा सशय रहित रूप है। यह " स्यात् " शब्द सुव्यवस्थित दृष्टिकोण को बतलाने वाला है। मताधता के कारण दार्शनिको ने इस सिद्धान्त के प्रति अन्याय किया है और आज भा अनेक विद्वान् इसको विना समझे ही कुछ का कुछ लिख दिया करते है।
" स्यात् रूपवान् पट" अर्थात् अमुक अपेक्षा से कपड़ा रूपवाला है। इस कथन में रूप से तात्पर्य है, और कपड़े में रहे हुए गध, रस, स्पर्श आदि धर्मों से अभी कोई तात्पर्य नहीं है। इसका यह अर्थ नहीं है कि "कपडा रूप वाला ही है और अन्य धर्मों का निषेध है।" अतएव इम कथन में यह रहस्य है कि रूप की प्रधानता है मार अन्य शेष की गौणता है न कि निषेधता है। इस प्रकार अनेकविध वस्तु को क्रम से एव मुख्यता-गौणता की शैली से बतलाने' वाला वाक्य ही स्याद्वाद सिद्धान्त का अश है । 'स्यात्' शब्द नियामक है, जो कि कथित धर्म को वर्तमान मे मुख्यता प्रदान करता हुआ शेषधर्मों के अस्तित्व की भी रक्षा करता है । इस प्रकार 'स्यात्' शब्द कथित धर्म की मर्यादा, की रक्षा करता हुआ शेप धर्मो का भी प्रतिनिधित्व करता है । जिस शब्द द्वारा पदार्थ को वर्तमान में प्रमुखता मिली है, वही शब्द अकेला ही सारे पदार्थत्व को घेर कर नही वैठ जाय, वल्कि अन्य सहचरी धर्मों की भी रक्षा हो, यह कार्य 'स्यात्' शब्द करता है।
'स्यात् कपडा नित्य है' यहाँ पर कपडा रूप पुद्गल द्रव्य की सत्ता के. लिहाज से नित्यत्व का कथन है और पर्यायो के लिहाज से अनित्य की गौणता है। इस प्रकार त्रिकाल सत्य को शब्दो द्वारा प्रकट करने की एकमात्र शैली स्याद्वाद ही हो सकती है।
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प्रतिदिन के दार्शनिक झगड़ो मे फंसा हुआ सामान्य व्यक्ति न धर्म रहस्य को समझ सकता है और न आत्मा एव ईश्वर सवधी गहन तत्त्व का ही अनुभव कर सकता है । उल्टा विभ्रम में फसकर कपाय का शिकार बन जता है । इस दृष्टिकोण से अनेकान्तवाद मानव-साहित्य में बेजोड विचार-धारा है। इस विचार-धारा के बल पर जैन-धर्म विश्व-धर्मों में सर्वाधिक शाति-प्रस्थायक और सत्य के प्रदर्शक का पद प्राप्त कर लेता है।
यह अनेकान्तवाद ही सत्य को स्पष्ट कर सकता है। क्योकि सत्य एक सापेज वस्तु है। । सापेक्षिक सत्य द्वारा ही असत्य का अश निकाला जा सकता है और इस प्रकार पूर्ण सत्य तक पहुँचा जा सकता है । इसी रीति से मानव-ज्ञान कोष की श्रीवृद्धि हो सकती है, जो कि सभी विज्ञानो की अभिवृद्धि करती है । अद्वैतवाद के महान् आचार्य शंकराचार्य और अन्य विद्वानो द्वारा समय समय पर किये जाने वाले प्रचड प्रचार और प्रवल शास्त्रार्थ के कारण बौद्ध दर्शद सरीखा महान् दर्शन तो भारत से निर्वासित हो गया और लंका, ब्रह्मा, (वसी) चीन, जापान एव तिव्वत आदि देशो में ही जाकर विशेष रूप से पल्लवित हुमा, जव कि जैन-दर्शन प्रबलतम साहित्यिक और प्रचड तार्किक आक्रमणों के सामने भी टिका रहा, इसका कारण केवल "स्याद्वाद" सिद्धान्त हो है। जिसका आश्रय लेकर जैन विद्वानो ने प्रत्येक सैद्धान्तिक-विवेचना में इसको मूल आधार बनाया । ___स्याद्वाद जैन-सिद्धान्त रूपी आत्मा का प्रखर प्रतिभा सपन्न मस्तिष्क है, जिसकी प्रगति पर यह जैन-धर्म जीवित है और जिसके अभाव में यह जैन धर्म समाप्त हो सकता है।
मध्य युग में भारतीय क्षितिज पर होने वाले राजनैतिक तूफानो मे और विभिन्न धर्मो द्वारा प्रेरित साहित्यिक-आधियो मे भी जैन-दर्शन का हिमवलय के समान अडोल और अचल बने रहना केवल स्याद्वाद निद्धान्त का ही प्रताप है । जिन जैनेनर दार्शनिको ने इसे सशयवाद अथवा अनिश्चयवाद कहा है, निश्चय ही उन्होने इसका गभीर अध्ययन किये बिना ही ऐमा लिख
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दिया है। आश्चर्य तो इस बात का है कि प्रसिद्ध सभा दार्शनिको ने एव महामति मौमायकाचार्य कुमारिल भट्ट आदि भारताय घुरधर विद्वानो ने इस सिद्धान्त का शब्द रूप से खडन करते हुए भा प्रकारान्तर से और भावान्तर से अपने अपने दार्शनिक सिद्धान्तो में विरोधो के उत्पन्न होने पर उनकी विविधताओ का समन्वय करने के लिये इसी सिद्धान्त का आश्रय लिया है ।
दीर्घ तपस्वी भगवान महावीर स्वामी ने इस सिद्धान्त को 'मिया अस्थि' जिया नत्थि, सिया अयत्तव्व' के रूप में फरमाया है, जिसका यह तात्पर्य है प्रत्येक वस्तु तत्व किसी अपेक्षा से वर्त्तमान रूप होता है, और किसी उत्तरी अपेक्षा से बही नाश रूप भी हो जाता है । इसी प्रकार किसी तीसरी पेक्षा विशेष से वही तत्त्व त्रिकाल सत्ता रूप होता हुआ भी शब्दों द्वारा अवाच्य अथवा अकथनीय रूपवाला भी हो सकता है ।
जैन तीर्थंकरो ने और पूज्य भगवान अरिहतो ने इसी सिद्धान्त को
उवा, विगएवा, घुवे वा
"
इन तीन शब्दो द्वारा "त्रिपदी" के रूप सुति कर दिया है । इस त्रिपदी का जैन आगमो में इतना अधिक महत्व और सर्वोच्चशीलता बतलाई है कि इनके श्रवण - मात्र से ही रोको चौदह पूर्वो का सपूर्ण ज्ञान प्राप्त हो जाया करता है । द्वादशागी रूप चीतराग-वाणी का यह हृदय-स्थान कहा जाता है ।
"
भारतीय साहित्य के मूत्र-युग में निर्मित महान् ग्रथ तत्त्वार्थ सूत्र मे इसी सिद्धान्त का 'उत्पाद व्यय धीव्य युक्त सत्' इस सूत्र रूप से उल्लेख किया हूँ, जिसका तात्पर्य यह है कि जो सत् यानी द्रव्य रूप अथवा भाव रूप है, समें प्रत्येक क्षण नवीन नवीन पर्यायों को उत्पति होती रहती है, एव पूर्व
का नाश होता रहता है, परन्तु फिर भी मूल द्रव्य की द्रव्यता, मूल सन् की सत्ता पर्यायों के परिवर्तन होते रहने पर भी धोत्र्य रूप से वरावर रुपम रहती है । विश्व का कोई भी पदार्थ इस स्थिति से वचित नहीं है।
भारतीय साहित्य के मध्य युग में तर्क-जाल - सगुफित घनघोर शास्त्रार्थ समय समय में जैन साहित्यकारो ने इसी सिद्धान्त को "स्यात्
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अस्ति, स्यान्नास्ति और स्यादवक्तव्य" इन तीन शब्द-समूहो के आधार पर सप्तमगी के रूप में संस्थापित किया है ।
इस प्रकार. --
"
( १ ) " उपने वा, विगए वा, धुवे वा, ” नामक अरित प्रवचन,
( २ ) “सिया अत्यि, सिया नत्थि, सिया अवत्तव्व' नामक आगम
वाक्य,
( ३ ) " उत्पाद व्ययधीव्य युक्त सत्" नामक सूत्र,
( ४ ) " स्यादस्ति, स्यान्नास्ति, स्यादवक्तव्य" नामक संस्कृत वाक्य, ये सब स्याद्वाद सिद्धन्त के मूत्तं वाचक रूप है, शब्द रूप कथानक है और भाषा रूप शरीर है । स्याद्वाद का यही वाह्य रूप है । स्याद्वाद के सवध मे विस्तृत लिखने का यहां पर अवसर नही है, अतएव विस्तृत जानने के इच्छुक अन्य ग्रंथो से इस विपयक ज्ञान प्राप्त करे । इस प्रकार विश्व - साहित्य में जैन दर्शन द्वारा प्रस्तुत अनेकान्तवाद अथवा स्याद्वाद एक अमूल्य और विशिष्ट योगदान है, जो कि सदैव उज्ज्वल नक्षत्र के समान विश्व साहित्याकाश मे अतिज्वलत ज्योति के रूप में प्रकाशमान होता रहेगा, और विश्व धर्मों के संघर्ष में चीफ जस्टिस यानी सौम्य प्रधान न्याय मूर्ति के रूप में अपना गौरव शील स्थायी स्थान बनाये - रक्खेगा ।
कर्मवाद और गुणस्थान
जैन - दर्शन ईश्वरीय शक्ति को विश्व के कर्ता, हर्त्ता, और धत्ती के रूप में नही मानता है, जिसका तात्पर्य ईश्वरीय सत्ता का विरोध करना नही है |" अपितु आत्मा ही कर्ता है और आत्मा ही भोक्ता है, इसमें नियामक का कार्यं स्वकृत कर्म ही करते है । कर्म का उल्लेख वासना शव्द से, सस्कार शब्द से और प्रारब्ध शब्द से एव ऐसे ही अन्य शब्दो द्वारा भी किया जा -सकता है । ये कर्म अचेतन हैं, रुपी है, पुद्गलो के अति सूक्ष्मतम से सूक्ष्मतम अंश से निर्मित होते हैं । वे विश्व व्यापी होते है । कर्म-समूह अचेतन
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और जर होने पर भी प्रत्येक आत्मा में रहे हुए विकारो और कपायो के वलपर "औपधि के गुण दोपानुसार" अपना फल यथा समय मे और यथा स्प म दिया करते है।
इस फर्म-सिद्धान्त का विशेष स्वरूप कर्म-वाद के ग्रंथो से जानना - चाहिए । यहाँ तो इतना ही पर्याप्त होगा कि कम-वाद के बलपर जैन-धर्म
ने पाप-पुण्य की व्यवस्था का प्रामाणिक और वास्तविक सिद्धान्त कायम किया है । पुनर्जन्म, मृत्यु, मोक्ष आदि स्वाभाविक घटनाओ की सगति-कर्म-सिद्धान्त के आधार पर प्रतिपादित की है । सासारिक अवस्था में आत्मा सवधी सभी दशाओ और सभी परिस्थितियो मे कर्म-गक्ति को ही सब कुछ बतलाया है। फिर भी आत्मा यदि सचेत हो जाय तो कर्म-शक्ति को परास्त करके अपना विकास करन मे स्वय समर्थ हो सकती है। ___कर्म-सिद्धान्त जनता को ईश्वर-कर्तृत्व और ईश्वर-प्रेरणा जैसे अधविश्वास से मुक्त करता है और इसके स्थान पर मात्मा की स्वतत्रता का, स्व-पुरुपार्थ का, सर्व-शक्ति सपन्नता का, और आत्मा की परिपूर्णता का ध्यान दिलाता हुआ इस रहस्य का उल्लेख करता है कि प्रत्येक आत्मा का अन्तिम ध्येय और अतिमतम विकास इश्वरत्व प्राप्ति ही है ।।
जैन-धर्म ने प्रत्येक मासारिक आत्मा की दोप-गुण सबधी और ह्रासविकास सबधी आध्यात्मिक-स्थिति को जानने के लिये, निरीक्षण के लिए
और पराक्षण के लिए "गुणस्यान" के रूप में एक आध्यात्मिक जांच प्रणालि अथवा माप प्रणालि भी स्थापित की है, जिसका सहायता से समीक्षा करने पर और मीमासा करने पर यह पता चल सकता है कि कौनसी सांसारिक आत्मा कपाय आदि की दृष्टि से कितनी अविकास-नील है और, कौनसी आत्मा चारित्र आदि की दृष्टि से कितनी विकास शील है ?
यह भी जाना जा सकता है कि प्रत्यक सामारिक आत्मा म मोह की, गाया फी,ममता की, तृष्णा की, क्रोध की, माT को और लोम आदि वनियो की गया स्थिति है ? ये दुर्वृत्तियां कम मात्रा में है अथवा अधिक मात्रा में ? ये उदय अवस्था में है ? अथवा उपशम अवस्था में है ? इन वृत्तियों का क्षय,
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हो रहा है ? अथवा क्षयोपशम हो रहा है ? इन वृत्तियो का परम्पर में उदीरणा और सक्रमण भी हो रहा है अथवा नही ? सत्ता रूप से इन वृत्तियो का खजाना कितना और कैसा है ? कौन आत्मा सात्विक है ? और कौन - तामसिक है ? इसी प्रकार कौनसी आत्मा राजम् प्रकृति की है ? अथवा अमुक आत्मा में इन तीनो प्रकृतियों की समिश्रित स्थिति कैसी क्या है - कौनसी आत्मा देवत्व और मानवता के उच्च गुणो के न दीक है ? ओर - कौन आत्मा इन से दूर है ?
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इस अति गंभार आध्यात्मिक समस्या के अध्ययन के लिये जैन-दशन ने 'गुणस्थान' बनाम आध्यात्मिक क्रमिक विकास गील श्रेणियाँ भी निर्धारित -की है, जिनकी कुल मल्या चौदह है । यह अध्ययन योग्य, चितन-योन्य आर मनन योग्य सुन्दर एव सात्विक एक विशिष्ट विचार धारा है जो कि मनोवैज्ञानिक पद्धति के आधार पर मानस वृनियो का उपादेय और हितावह चित्रण है ।
इस विचार धारा का वैदिक दर्शन में भूमिकाओ के नाम से और बोद्ध-दर्शन में अवस्थाओं के नाम मे उल्लेख और वर्णन पाया जाता है, किन्तु जैनधर्म में इसका जैसा सूक्ष्म और विस्तृत वर्णन सुसयत और मुव्यवस्थित पद्धति से पाया जाता है, उसका अपना एक विशेष स्थान है, जो कि विद्वानो के लिये - और विश्व - साहित्य के लिये अध्ययन और अनुसंधान का विषय है ।
भौतिक विज्ञान और जैन खगोल आदि
जैन साहित्य में खगोल विषय के संबध में भी इस ढग का वर्णन पाया जाता है कि जो आज के वैज्ञानिक खगोल ज्ञान के साथ वर्णन का भेद, भाषा का भेद, और, रूपक का भंद होने पर भी अर्थान्तर मे तथा प्रकारान्तर से - बहुत कुछ सदृश ही प्रतीत होता है ।
आज के विज्ञान ने सिद्ध करके वतलाया है कि प्रकाश की चाल प्रत्येक - सेकिंड में एक लाख छोयामी हजार ( १८६०००) माईल का है, इस हिसाब - से (३६५ दिन x २४ घटा ४६० मिनट x ६० सेकिंड x१८६००० माईल ) इतनी महती और विस्तृत दूरी को माप के लिहाज से 'एक नालोक वर्ष '
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ऐगा मजा वैज्ञानिकों ने दी है । इतका कहना है कि इस आकाश मे ऐसे-ऐसे तार है, जिनका प्रकाग यदि यहा तक आसके तो उस प्रकाश को यहाँ तक आने में न कडी 'आलोक-वर्ष' तक का समय लग सकता है । ऐसे ताराओ की. सस्या लौकिक भाषा में अरबो खरबो तक की खगोल-विज्ञान वतलाता है । आकाश-गगा बनाम निहारिका नाम से ताराओ की जो अति सूक्ष्म झाकी एक लाइन स्प से आकाग मे रात्रि के नौ बजे के बाद से दिखाई देती है, उन ताराओ की दूरी यहा से मैकडो 'मालोक-वर्प' जितनी वैज्ञानिक लोग का करते हैं।
जैन-दर्शन का कथन है कि (३८११२९७० मनx१०००) इतने मन वजन का एक गोला पूरी शक्ति से फेंका जाने पर छ महीने, छ दिन, छ: पहन, छ घडी और छ. पल मे जितनी दूरी बह गोला पार करे, उतनी दूरा का माप "एक राजू' कहलाता है। इस प्रकार यह मपूर्ण ब्रह्माड यानी असिल लोक केवल चौदह राजू जितनी लम्बाई का है । और चाडाई मे केवल सात गजू जितना है।
अब विचार कीजिएगा कि वैज्ञानिक सैकडो और हजारो मालाक वर्ष, नामक दूरी परिमाण में और जैन-दर्शन सम्मत राजू का दूरी परिमाण में कितनी सादृश्यता है ?
इसी प्रकार नंकडो और हजारो आठोक वर्ष जितनी दूरी पर स्थित जो तारे है, वे परम्र में एक दूसरे की दूरी के लिहाज ने-करोडो और अरवो माइल जितने अन्तर वाले है और इनका क्षेत्रफल भी करोटो और अरवो गा:7 जितना है, मग वेनानिक कयन की तुलना जैन-दशन सम्मत वैमानिक देवनागो के विमानी जी पारम्परिक दूरी आर उनके क्षेत्रफल के साथ कीजियेगा, ना पता चलता है कि क्षेत्रफल के लिहाज से, परम्पर में कितना चपन माम्य है।
मानिस देवताओं के विमान रूप क्षेत्र परस्पर की स्थिति की दृष्टि गे एर मरे ने धरबी माल दूर होने पर भी मूर यानी मुख्य इन्द्र के विमान में जाना गमय "घंटा" की नुमुन घोषणा होने पर रोष
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. सर्वाधित लाखो विमानो में उमी समय विना किसा भी दृश्ययान आवा के और किसी भी पदार्थ द्वारा सबध रहित होने पर भी तुमुल घोषणा, एव घंटा निनाद शुरु हो जाता है, यह कथन " रेडियो और टेलीविजन तथा सपर्क साधक विद्यत-शक्ति का ही समर्थन करता है । ऐसा कह
""
" रेडियो सबन्धी
शक्ति-सिद्धान्त जैन-दर्शन ह जारो वर्ष पहिले,
कह चुका है ।
ܙܪ
शब्द रूपी है, पौद्गलिक है, और क्षण मात्र में सारे लोक़ में फैल जाने की शक्ति रखते है, ऐसा विज्ञान जैन दर्शन ने हजारो वर्ष पहले ही चिन्तन और मनन द्वारा वतला दिया था, और इस सिद्धान्त को जनदर्शन के सिवाय आज दिन तक विश्व का कोई भी दर्शन मानने को तैयार न हुआ था, वही जैन दर्शन द्वारा प्रदर्शित सिद्धान्त अब " रेडियो युग" मे एक स्वयं सिद्ध और निर्विवाद विपय बन सका है ।
पुद्गल के हर परमाणु मे और अणु अणु मे महान् सजनात्मक और स्थिति तथा सयोग अनुसार अति भयकर विनाशक शक्ति स्वभावत र हुई है, ऐसा सिद्धान्त भा जैन दर्शन हजारो वर्ष पहले ही समझा चुका ह वही सिद्धान्त अव " एटम वम, कीटाण वम और हाइड्रोजन एलेक्ट्रीक वम" वनने पर विश्वसनीय समझा जाने लगा है ।
आज का विज्ञान प्रत्यक्ष प्रमाणो के आधार पर अनन्त ताराओं क कल्पनातात विस्तीर्ण वलयाकारता का, अनुमानातीत विपुल क्षत्रफल, का और अनन्त दूरी का जैसा वर्णन करता है और ब्रह्माड की अनन्दता का जैसा वयान करता है, उस सब की तुलना जैन दर्शन में वर्णित चौदह राजू प्रमाण लोक स्थिति से और लाक के क्षेत्र फल से भाषा-भेद, रूप कभेद और वर्णन-भेद होने पर भी ठाक ठीक गति से की जा सकती है 4
आज के भूगर्भ वेत्ताओ आर खगोल वेत्ताओ का कथन है कि पृथ्वी किसी समय यानी अरवो आर खरवो वर्ष पहले सूर्य का ही सम्मिलित भाग घो। “नीलो और पद्मो" वर्षो पहले इस ब्रह्माड में किसी अज्ञात शक्ति से अथवा, कारणो से खगोल वस्तुओं में आकर्षण और प्रत्याकर्पण हुआ, इस कारण डे
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भयकर से भय कर अकल्पनीय प्रचड विस्फोट हुमा, जिससे सूर्य के कई एक बडे रटे भीमकाय टुकडे छिटक पडे । वे ही टुकडे अरबो और खरवो वर्षों तक सूर्य के चारो ओर अनतानत पर्यायो में परिवत्तित होते हुए चक्कर लगाते रहे, और वे ही टुकडे आज बुध, मगल, गुरु, शुक्र, शनि, चन्द्र और पृथ्वी के रूप मे हमारे सामने है । पृथ्वी भा सूर्य का ही टुकडा है और यह भी किसी समय आग का ही गोला थी, जो कि अमस्य वर्षों में नाना पर्यायो तथा प्रक्रियाओ में परिवत्तित होती हुई आज इस रूप मे उपस्थित है । उपरोक्त बयान जन-माहित्य मे वणित "आरा परिवर्तन" के समय की भयकर अग्नि वर्पा, पत्थर वर्पा, अघड वर्षा, असहनीय और कल्पनातीत सतत् जलधारा वर्मा, एव अन्य कर्कश पदार्थो की कठोर तथा शब्दातीत रूप मे अति भयकर बा के वर्णन के साथ विवेचना की दृष्टि से कमी समानता रखता है ? यह विचारणीय है।
ऐतिहासिक विद्वानो द्वारा वणित प्राकऐतिहासिक युग के, तथा प्रकृति के माप प्राकृतिक वस्तुओ द्वारा ही जीवन-व्यवहार चलाने वाले, मानवजीवन का चित्रण भीर जैन साहित्य में वर्णित प्रथम तीन आराओ मे सम्बन्धित युगल-जोडी के जीवन का चित्रण गन्दान्तर , और रूपान्तर के साथ स्तिना और किस रूप मे मिलता जुलता है ? यह एक वीज का विपय है ।
जैन दर्शन हजारो वर्षों मे वनस्पति आदि में भी चेतनता और आत्म तत्व मानता जा रहा है, माधारण जनना नीर अन्य दर्शन इस बात को नहीं मानने से. परन्तु श्री जगदीग चन्द्र मोम ने अपने वैज्ञानिक तरीको से प्रमाणित कर दिया है कि वनम्पति में भी नेतनता और आत्म तत्त्व है। अब विश्वका मारा विद्वान वर्ग इस बात को मानने लगा है।
साहित्य और कला
भगवान महावीर स्वामी के युग मे लेकर आज दिन तक इन पच्चीम कायों में 7-4 ममय तन-माज में उच्च कोटि केय लेबको का विपुल
ओर मिलोना गा रहा है, जिनका सारा जीवन वित म, मनन
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२५
मे, अध्ययन में, अध्यापन में, और विविध विषयो में उच्च से उच्च कटि
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के ग्रथो का निर्माण करने मे ही व्यतीत हुआ है। खास तौर पर जैनसाओ का वहुत बडा भाग प्रत्येक समय इस कार्य मे सलग्न रहा है । इसलिये अध्यात्म, दर्शन, वैद्यक, ज्योतिष, मंत्र-तंत्र, सगीत, सामद्रिक, लाक्ष
णिक शास्त्र भाषा-शास्त्र, छद, काव्य, नाटक, चपू, पुराण, अलकार, कथा,
कला, स्थापत्य कला, गणित, नीति, जीवन चारित्र, तर्क - शास्त्र, "तात्विक शस्त्र, आचार-शास्न, एव सर्वदर्शन सम्बन्धी विविध और रोचक ग्रंथो का हजारो की सख्या मे निर्माण हुआ है ।
प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रश, तामिल, तेलगु, कसड़, गुजराती, हिन्दी, -महाराष्ट्रीय एव इतर भारतीय और विदेशी भाषाओ मे भी जैन ग्रंथो का निर्माण हुआ है ।
,
जैन - साहित्य का निर्माण अविछिन्न धारा के साथ मौलिकता पूर्वक विपुल मात्रा मे प्रत्येक समय होता रहा है और इसी लिये जैन-वाड्मय मे "विविध भाषाओ का इतिहास,” “लिपियो का इतिहास," भारतीय साहित्य का इति - हास” “भारतीय संस्कृति का इतिहास” “भारतीय राजनीतिक इतिहास, ' एव “व्यक्तिगत जीवन चरित्र" आदि विभिन्न इतिहासों की प्रामाणिक सामग्री भरी पडी है । जिसका अनुसधान करने पर भारतीय संस्कृति पर उज्ज्वल एव प्रमाण, पूर्ण प्रकाश पड सकता है ।
जैन साहित्य के हजारो ग्रंथो के विनष्ट हो जाने के बावजूद भी आज भी अप्रकाशित ग्रथों की संख्या हजारो तक पहुँच जाती है। जोकि विविध महारों मे संग्रहीत है ।
जैन दर्शन कर्म - कर्त्तावादी और पुनर्जन्मवादी होने से इसका कथा साहि त्य विलक्षण-मनोवैज्ञानिक गली वाला है, और आत्माकी वृत्तियो का विविध शैली से विश्लेषण करने वाला है । अतएव इसका कथा-कोश विश्व साहित्य का अमूल्य धन है । जो कि प्रकाश मे आने पर ही ज्ञात हो मकता है ।
जैन - कला का ध्येय "सत्य, शिव, और सुन्दर" की साधना करना ही रहा है और इस दृष्टि से "कला केवल कला के लिए ही है" इस आदर्श का जैन-क्लाकारो ने पूरी तरह से पालन किया है ।
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युग- कर्तव्य और उपसंहार
आज जैन समाज में सैकड़ों करोड़पति और हजारो लखपति हैं, उनका नैतिक कर्तव्य है कि ये सज्जन भाजके युग में जैनधर्म, जैन दर्शन जैन - साहित्य
और जैन संस्कृति के प्रचार के लिये, बिकास के लिये और कल्याण के लिये
जैन साहित्य के प्रकाशन की व्यवस्था विपुल मात्रा में करे । यही युग कर्तव्य है ।
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आनेवाला युग साहित्य का प्रचार और साहित्य प्रकाशन ही चाहेगा, और इसी कार्य द्वारा ही जैन-दर्शन टिक सकेगा ।
गुणों के प्रतीक, भगलमय वीतराग देव से माज मक्षय तृतीया के शुभ दिवस पर यही पुनीत प्रार्थना है कि अहिंसा प्रधान आचार द्वारा और स्याद्वाद प्रधान विचारो द्वारा विश्व में शांति की परिपूर्ण स्थापना हो. एव अखंड मानवता "सत्य, शिवं, सुन्दर" की ओर प्रशस्त प्रगति करे ।
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, सघवी कुटीर, . छोटी सादडी; अक्षय तृतीया,
विक्रम. स. २००९
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विनीत रतनलाल संघवी
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सूक्ति-सुधा प्रार्थना-मंगल-सूत्र
णमो तित्थरगण।
आवश्यक . ____टीका-श्री साधु, साध्वी, श्रावक-श्राविका रूप तीर्थ की स्थापना करने वाले एव धर्म-चक्र के प्रवर्तक महापुरुप तीर्थंकरो.को हमारा नमस्कार हो।
(२.) णमो सिद्धाणं ।
__महामन्त्र • टीका--जिन्होने आठ कर्मों का क्षय कर, अनन्त ज्ञान-दर्शन, चारित्र-बल वीर्य को प्राप्त किया है, और जिन्होने नित्य, शाश्वत । अक्षय मोक्ष-स्थान प्राप्त किया है, ऐसे अनन्त-सिद्ध-मुक्त अत्माओं.. को हमारा नमस्कार हो।
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२]
[प्रार्थना-मङ्गल-सूत्र
सन्ती सन्तिकरो लोए ।
उ०, १८, ३८ टीका-भगवान शान्तिनाथजी इस ससार में महान् शान्ति के __ करने वाले है । द्रव्य-शाति और भाव-शाति, दोनो प्रकार की शाति को फैलाने वाले है । आप मे यथा नाम तथा गुण है ।
(४) नमो ते संसयातीत।
उ०, २३, ८५ टीका-हे सशयातीत हे निर्मल ज्ञान वाले ! हे पूर्ण यथाख्यात चारित्र वाले । हे अप्रतिपाती दर्शन वाले ! हे अनन्त गुणशील महात्मन् | तुम्हे नमस्कार है । अनन्तशः प्रणाम है ।
लोगुत्तमे समणे नायपुत्त।
सू०, ६, २३ टीका-लोक में सर्वोत्तम महापुरुष केवल महावीर स्वामी ही है । क्योकि इनका ज्ञान, दर्शन, शील, शक्ति, तपस्या, अनासक्ति, चारित्र, निष्परिग्रहीत्व, अकपायत्व और आत्मबल असाधारण एवं आदर्श था।
अभयं करे वीरे अणंतचक्खू।
सू०, ६, २५ · टीका- भगवान महावीर स्वामी प्राणियो को अभयदान देनेवाले, कल्याण का मार्ग बताने वाले, अनन्त ज्ञानी और निर्भय थे। वे महापुरुप थे । उनका आत्मवल, तपोवल, चारित्र बल और कर्मण्यता चल भादर्श तथा महान् था।
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सूक्ति-सुधा]
(७), निव्वाणवादी णिह णायपुत्ते ।
सू०, ६, २१ टीका--निर्वाण वादियो में यानी विश्व के धर्म-प्रवर्तकों में ज्ञातपुत्र भगवान महावीर स्वामी ही सर्व श्रेष्ठ है। '.
(८) इसीण सेठे तह वद्धमाणे। '
__.. सू०, ६, २२ टीका-ऋपियों मे, विश्व के सभी सतो में श्री वर्धमान महावीर स्वामी ही सर्वोत्तम है, प्रधान है। .
जयइ गुरू-लोगाणं, जयइ महप्पा महावीरो।
न०,२ ___टीका-जो सम्पूर्ण लोक के गुरु है, जो सारे संसार को ज्ञान का दान देने वाले है, जो सम्यक् दर्शन, ज्ञान और चारित्र में सर्वो-' त्तम होने से महात्मा है, ऐसे श्री वीर-प्रभु महावीर स्वामी को जय हो।
(१०)' जयइ सुआणं पभवो, तित्थयराणं अपच्छिमो जयह।
- न०, २ टीका-जिन देवाधिदेव पूज्य भगवान के मुख-कमल से श्रुत ज्ञान की धारा बही है; जो सभी तीर्थंकरो-में अंतिम तीर्थकर है, ऐसे ज्ञातपुत्र निर्ग्रन्थ प्रभु वर्धमान-महावीर स्वामी की जय हो-विजय हो।
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४]
[प्रार्थना-मङ्गल-सूत्र (११) भई सुरासुर नमंसियस, भई धुयरयस्स।
न०,३ टीका--जिन देवाधिदेव चरम तीर्थंकर की सुर और असुर सभी . देवी देवताओ ने, इन्द्रों और महेन्द्रों ने वन्दना की है, भक्ति की है, और जिन्होने सभी कर्मो को क्षय कर दिया है, जिनके कर्म रूपी रज शेष नही रह गई है, ऐसे चौबीसवे तीर्थकर भगवान महावीर स्वामी कल्याण रूप हो, आपका सदैव जय जय कार हो।
जगणाहो जग वधू, जयइ जगप्पियाम्हो भयवं ।
न०,१ - .. टीका--भगवान महावीर स्वामी संसार मे अनाथ रूप से घूमने वाले जीवो को मोक्ष मार्ग के दर्शक होने से नाथ समान है। ससार के दु खो से पीड़ित भब्य जीवो' को मोक्ष-सुख देने वाले होने से ये जगत-बन्धु है । ससार में अहिंसा, सत्य, ब्रह्मचर्य, निष्परिग्रह व्रत और अनासक्ति आदि रूप धर्म-मार्ग प्रचारित कर सर्व-शक्तिमान् दीर्घ तपस्वी महावीर स्वामी ने ससारी जीवो की ससार समुद्र से रक्षा की. है, अतएव ये ससार के लिए माता पिता के समान है, ऐसे जगतपति महावीर स्वामी की जय हो ।... ......
जयइ जंग-जीव-जोणी-विगणओ,
जग गुरू, जगाणदो।
. टीका-जिन शासन के चरम-तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी की जय हो । प्रभु महावीर संसार के सभी जीवो को मोक्ष-मार्ग बताने
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सूक्ति-सुधा
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में नेता रूप है, विश्व की सभी जीव योनियो के ये ज्ञाता है, ये जगत के गुरु है, अज्ञान रूप अन्धकार का नाश कर ज्ञान-रूप प्रकाश के करने वाले है, तथा संसार मे शाति, सुख और आनन्द की पवित्र त्रिवेणी बहाने वाले है।
( १४) खेयन्नए से कुसलासुपन्ने, अणंतनाणी य अणंतदंसी!
सू०, ६, ३ टीका--भगवान महावीर स्वामी संसार के प्राणियो का दुःख जानने वाले थे, आठ प्रकार के कर्मो का छेदन करने वाले थे, सदा सर्वत्र उपयोग रखने वाले थे, एव अनन्त ज्ञानी और अनन्त दर्शी थे।
(१५) अणुत्तरे सव्व जर्गसि विज्ज, गथा अतीते अभए अणाऊ ।
सू०, ६, ५ टीका-वे दीर्घ तपस्वी भगवान् महावीर स्वामी सबसे उत्तम विद्वान् महापुरुष थे। वाह्य और आभ्यतर दोनो प्रकार की ग्रथियो से रहित थे। निर्भय थे, और चरम शरीरी थे।
(१६) अणुत्तरं धम्म मिणं जिणाणं, णेया मुणी कासव आसुपन्ने ।
सू०, ६, ७ टीका- राग और द्वेष को आत्यंतिक रूप से जीतने वाले महापुरुषो का-जिनेन्द्रो का यह धर्म है, जो कि श्रेष्ठ है । इसके नेता प्रभु महावीर स्वामी है, जो कि निर्ग्रन्थ है, अनासक्त है, इन्द्रियविजयी है और सतत अनन्त ज्ञानशाली है।
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[प्रार्थना मङ्गल-सूत्र
(१७) - भई सय जगुज्जोयगस्त, भई जिणस्स धीरस्स।
न०,३ टीका-जिन्होने तीनो लोक में अशाति मिटाकर शाति की, अज्ञान का नाग कर ज्ञान का प्रकाश किया, मिथ्यात्व के स्थान पर सम्यक्त्व धर्म की स्थापना की, हिंसा, झूठ, भोग, तृप्णा आदि दुर्गुणों के स्थान पर अहिंसा, सत्य, ब्रह्मचर्य, अनासक्ति आदि रूप सयम मार्ग को प्रदर्शित किया, ऐसे श्री जिनेन्द्र देव भगवान महावीर स्वामी की जय हो, आपका महान् कल्याणकारी शासन सदैव अजेय हो ।
(१८) संघ नगर भई, ते॥ अखंड चारित्त पागारा।
नं०, ४ टीका-हे चतुर्विध संघ रूप रमणीय नगर | आप कल्याण रूप है । आपकी महती महिमा है । आप अवर्णनीय यशवाले है । आपके चारों ओर चारित्ररूप-सयम रूप अखण्ड प्रकोट है। यही अचल यीर अभेद्य गढ़ है।
(१९) संजम-तव-तुंवारयस्स, नमो सम्मत्त पारियल्लस्स।
नं०, ५ , टीका-विषय और कपाय को काटने मे जिसके पास सयम और तप रूपी पवित्र चक्रायुध है, सम्यक्त्व रूपी सुन्दर धारा है, ऐसे अनन्त शक्ति सम्पन्न थी सघ को नमस्कार हो ।
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सूक्ति-सुधा
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( २० ) श्रपडि चक्कस्स जओ, होउ, सया संघ चक्केस्स |
न०, ५
टीका - जिनके चक्र को शासन व्यवस्था को और पवित्र सिद्धान्तो को कोई काट नही सकता है, कोई चल-विचल नही कर सकता है । ऐसे चक्र शील और निरन्तर प्रगति शील - श्री सघ की सदा जय हो, नित्य विजय हो ।
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( २१ )
भदं सील पडागुसियस्स, तव नियम तुरय जुत्तस्स ॥ न०, ६
टीका - चतुर्विध श्री सघ एक अनुपम रथ के समान है, जिसके ऊपर शील रत्न रूप सुन्दर पताका ध्वजा फहरा रही है । जिसमें तप, नियम, सयम रूप सुन्दर घोडे जुते हुए है । ऐसा श्री सघ - रूप यह सर्वोत्तम रथ हमारे लिये आध्यात्मिक कल्याण करने वाला हो
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आत्मवाद सूत्र
(१) एगे आया।
ठाणा०, १ ला ठा० १ टीका-सम्पूर्ण लोकाकाश मे रहे हुए सभी जीव या सभी व्यात्माएँ गुणो की अपेक्षा से-अपने मूल स्वभाव और स्वरूप की अपेक्षासे, मूलभूत लक्षणोकी अपेक्षासे समान है । विशुद्ध दृष्टि से सभी खात्माओ मे परस्पर मे कोई भिन्नता नही है । इसलिए इस अपेक्षासे, इस नय की दृष्टि से सारे विश्व मे-सारे ब्रह्माड मे एक ही . आत्मा है। चेतन द्रव्य एक ही है। अनन्तानन्त, अपरिमित, सख्यातीत
आत्माओ के होने पर भी मूल गुण, धर्म, लक्षण, स्वभाव, स्वरूप, प्रकृति आदि समान है, एक जैसे ही है । अतएव यह कहने में कोई शास्त्रीय वाधा नही है कि अपेक्षा विशेप से आत्मा एक ही है, जो कि विश्व-व्यापी है और अनन्तगक्तियो का पुञ्ज है।
(२) नो इन्दियग्गेज्झ अमुत्त भावा, अमुत्त भावा वि य होइ निच्चो।
उ०, १४, १९ टीका-आत्मा अमूर्त है, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श से रहित है, इसलिए आत्मा इन्द्रियो द्वारा अग्राह्य है, यानी जानने योग्य नही है। तथा अमूर्त यानी अरूपी होने से ही यह नित्य है, अक्षय है, . शाश्वत् है। पर्याये पलटने पर भी-विभिन्न गतियो मे विभिन्न शरीर धारण करने पर भी इसका एकान्त नाश नहीं होता है ।
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सूक्ति-सुधा ].
__ . (३) जर्ण वियाणा से प्राया।
आ०, ५, १६६, उ, ५ टीका-जिसके द्वारा ज्ञान प्राप्त किया जाता है, जो ज्ञानप्राप्ति मे असाधारण रूप से साधक-तम कारण है, उसे ही आत्मा कहते है। ज्ञान का मूल स्थान, जानका मूल कारण, ज्ञान का मूल आधार आत्मा ही है । जहाँ २ आत्मा है, वहाँ २ ज्ञान है। और जहाँ २ ज्ञान है, वहाँ २ आत्मा है । ज्ञान और आत्मा का अग्नि एव उष्णता के समान आधार-आधेय सम्बन्ध है । अग-अगी सम्बन्ध है ।
(४) ___ अरूवी सत्ता अपयस्स पयं नस्थि ।
. आ०, ५, १७१-१७२, उ, ६ टीका--मोक्ष मे आत्मा का मूल स्वरूप अरूपी है। आत्मा वर्ण से, गन्ध से, रस से, और स्पर्श धर्म, से रहित है । अगब्द रूप है। उसके लिए कोई भी शब्द नही जोडा जा सकता है । व्यवहारदृष्टि से भले ही कोई शव्द जोडकर उसका ज्ञान कराया जाय, परंतु उसका वास्तविक स्वरूप पूर्ण निर्मलता प्राप्त होनेपर ही अनुभव किया जा सकता है । अमुक्ति-अवस्था में, ससार अवस्थामें, रागद्वेप से युक्त अवस्था मे, कषाय-अवस्था मे, उसका वास्तविक अनभव नही किया जा सकता है।
जे आषा से विनाया, जे विनाया से आया।
आ०, ५, १६६, उ, ५, टीका-जो आत्मा है, वही जाता है, जो ज्ञाता है, वही आत्मा है। ज्ञान और आत्मा का अभिन्न सम्बन्ध है, गुण-गुणी सम्बन्ध है,
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१०]
। आत्मकाद-सूत्र
धर्म-धर्मी सम्बन्ध है। यह त्रिकाल, सर्वत्र और सर्वदा साथ २ रहने वाला तादात्म्य सम्बन्ध है। कभी भी इनमे जुदाई नहीं होती है । यदि गुण-गणी सम्बन्ध वाले पदार्थों में से गुणो के पृथक् होने का सिद्धान्त मान लिया जायगा तो अस्ति रूप द्रव्यो को नास्ति रूप होने का प्रसग आ जायगा।
"जे अज्झत्थं जाणइ. से बहिया जाणइ । जे वहिया जाणइ, से अज्झत्थं जाणइ ।
आ०, १, ५७, उ, ७ टाका--जो आत्मा अपना मल स्वरूप जानता है, अपने आपका अनन्त ज्ञान और अनन्त आनन्द का स्थायी अधिकारी मानता है। वह ससार के सभी पुद्गलो का स्वरूप भी जानता है और जापान पुदगलो को जानता है, वही अपने आतरिक आध्यात्मिक स्वरूप
मय यह है कि जो आत्मा को जानता है, वह वाह्य ससार को भी जानता है, और जो बाह्य ससार को जानता वह आत्मा को भी जानता है ।
एग जिणेज्ज अप्पाणं। एस से परमो जो॥
___ उ०, ९, ३४, टीका--जो अपनी आत्मा को विषय से, विकार से, १. कपाय से, जीत लेता है, यही विजय सर्वश्रेष्ठ विजय ह एसी यात्मा ही सभी वीरो मे सर्व श्रेष्ठ वीर है ।
वकार से, वासना से,
विजय है। और
अप्पाणमेव जुज्झाहि, किं ते जुज्झेण वज्झओ।
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सूक्ति-सुधा]
[१.१ टीका-अपनी आत्मा में स्थित कषाय-विपय, विकार, वासना से ही युद्ध करो, वाह्य-युद्ध में क्या रखा है ? बाह्य युद्ध तो और भी अधिक कपाय, वैर-विरोध और हिंसा एवं प्रतिहिंसा को ही बढ़ाने वाला होता है।
(९) श्रप्पाणं जइत्ता सुह मेहए ।
०, ९, ३५ टीका-अपनी आत्मा को सासारिक भोगो से हटाकर, राजस् और तामसिक दुर्गुणो पर विजय प्राप्त कर, सात्विकता प्राप्त करने पर ही सुखी बन सकते है ।
(०१) सब्बं अप्पे जिए जियं ।
उ०, ९, ३६ टीका-केवल एक आत्मा को जीत लेने पर ही यानी कपायो पर विजय प्राप्त कर लेने से ही सब कुछ जीत लिया जाता है, इसके बाद कुछ भी जीतना शेष नही रहता है ।
(११) अप्पा मित्त ममित्तं च, दुप्पट्ठिय सुपहियो।
उ०, २०, ३७ टीका-अपने आपको दु.खमय स्थान में पहुचाने वाला अथवा सुखमय स्थान में पहुंचानेवाला यह स्वय आत्मा ही है। यह आत्मा ही स्व का शत्रु भी है और मित्र भी है। सन्मार्ग गामी हो तो मित्र है और उन्मार्ग गामी हो तो शत्रु है ।
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१२]
[आत्मवाद-सूत्र
(१२) अप्पा,कत्ता विकत्ता य, दहाण य सुहाण य ।
उ०, २०, ३७ टीका-यह आत्मा ही अपने लिये स्वयं सुख का और दुख का कर्ता है-कर्मों का बाधने वाला है और कर्मों को काटने वाला भी यही है।
अप्पा कामदुहा धेरा. अप्पा मे नन्दणं वणं ।।
उ०, २०, ३६ टीका-सन्मार्ग मे प्रवृत्ति करने की दशा मे यह आत्मा स्वयखुद के लिये कामदुग्ध धेनु-यानी इच्छा पूर्ति करने वाली आदर्श देव-गाय के समान है । नैतिक और आध्यात्मिक मार्ग पर चलने की दशा मे यह आत्मा स्वय नदन वन के समान है। पवित्र और सेवा मय' कार्य करने से यह आत्मा स्वय मनोवाछित फल देनं वाली हो जाती है। स्वर्ग और मोक्ष के सुखो को प्राप्त कराने वाली स्वय यही है।
(१४ )
'अप्पा नई वेयरणी, अप्पा मे कूड सामली।
उ०,२०, ३६ टीका~यह आत्मा ही स्वय-खुद के लिये अनीति पूर्ण मार्ग पर चलने से वेतरणी नदी के समान है, और पाप पूर्ण कार्यो मे फसे रहने की दशा मे कूट शाल्मली वृक्ष के समान है। उन्मार्ग गामी होने की दशा मे आत्मा स्वयं अपने लिये वेतरणी और कूट शाल्मली वृक्ष के जैसे नानाविध दु.खो को पैदा कर लेती है।
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सूक्ति-सुधा]
[१३
(१५) न तं अरी कंठ छित्ता करेइ, जं से करे अप्पणिया दुरप्पा ।
उ०, २०,४८ टीका-दुराचार मे प्रवृत्त हुआ यह आत्मा स्वय का जैसा और जितना अनर्थ करता है, वैसा अनर्थ तो कठ को छेदने वाला या काटने वाला शत्रु भी नहीं करता है। अनर्थमय प्रवृत्ति शत्रु की प्रतिक्रिया से भी भयकर होती है और अनेक जन्मो में दु.ख देने. वाली होती है।
(१६) कप्पिो फालियो छिन्नो, उक्कित्तो अ अणेगसो ।
उ०, १९, ६३ टीका--यह पापी आत्मा अनेक वार काटा गया, कतरा गया, फाड़ा गया, चीरा गया, छेदन किया गया, टुकड़े २ किया गया, और उत्कर्तन किया गया यानी चमडी उतार दी गई।
(१७) दो पक्को श्र अवसो, पाव कम्महिं पावित्रो।
उ०, १९, ५८ टीका-यह पापी आत्मा पाप कर्मो के कारण से अनेक वार __ आग से जलाया गया, पकाया गया और दु.ख झेलने के लिये ' विवश किया गया है।
(१८) पाडिओ फालियो छिन्नो, विष्फुरन्तो अणेगसो।
उ०, १९, ५५
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१२]
[आत्मवाद-सूत्र
(१२) अप्पा कत्ता विकत्ता य, दहाण य सुहाण य ।
उ०, २०, ३७ टीका-यह आत्मा ही अपने लिये स्वय सुख का और दुख का : -कर्ता है-कर्मों का वाधने वाला है और कर्मों को काटने वाला भी यही है।
(१३) अप्पा कामदहा घेणु. अप्पा मे नन्दणं वणं ॥
उ०, २०, ३६ टीका-सन्मार्ग मे प्रवृत्ति करने की दशा में यह आत्मा स्वयखुद के लिये कामदुग्ध धेनु-यानी इच्छा पूर्ति करने वाली आदग देव-गाय के समान है। नैतिक और आध्यात्मिक मार्ग पर चलने की दशा मे यह आत्मा स्वय नदन वन के समान है। पवित्र और सेवा मय कार्य करने से यह आत्मा स्वय मनोवाछित फल देन वाली हो जाती है। स्वर्ग और मोक्ष के सुखो को प्राप्त कराने वाली स्वय यही है।
(१४) अप्पा नई वेयरणी, अप्पा मे फूड सामली।
उ०, २०, ३६ टीका-यह आत्मा ही स्वय-खुद के लिये अनीति पूर्ण मार्ग पर चलने से वेतरणी नदी के समान है, और पाप पूर्ण कार्यो मे फंसे रहने की दशा में कूट शाल्मली वृक्ष के समान है। उन्मार्ग गामी होने की दशा में आत्मा स्वयं अपने लिये वेतरणी और कुट शाल्मली वृक्ष के जैसे नानाविध दुखो को पैदा कर लेती है।
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- सूक्ति-सुधा ]
( १५ )
न तं अरी कंठ छित्ता करेइ, जं से करे श्रपणिया दुरप्पा |
उ०, २०, ४८
टीका - दुराचार मे प्रवृत्त हुआ यह आत्मा स्वय का जैसा और जितना अनर्थ करता है, वैसा अनर्थ तो कठ को छेदने वाला या काटने वाला शत्रु भी नही करता है । अनर्थमय प्रवृत्ति शत्रु की प्रतिक्रिया से भी भयकर होती है और अनेक जन्मो मे दु.ख देने. वाली होती है ।
( १६ ) कपिओ फालिओ छिन्नो, उक्कित्तो अणगलो ।
[ १३०
उ०, १९, ६३
टीका -- यह पापी आत्मा अनेक बार काटा गया, कतरा गया, फाड़ा गया, चीरा गया, छेदन किया गया, टुकडे २ किया गया, और उत्कर्त्तन किया गया यानी चमडी उतार दी गई ।
( १७ ) दो पक्को श्रवसो, पात्र कम्मेहिं पाविश्र ।
उ०, १९, ५८
टीका- यह पापी आत्मा पाप कर्मों के कारण से अनेक वार आग से जलाया गया, पकाया गया और दुख झेलने के लिये विवश किया गया है ।
( १८ )
पाडिओ फालिश्रो छिन्नो, विष्फुरन्तो अगसो ।
उ०, १९, ५५
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“१२]
[ आत्मवाद-सूत्र
(१२) नप्पा कत्ता विकत्ता य, दहाण य सुहाण य। --
उ०, २०, ३७ टीका-यह आत्मा ही अपने लिये स्वय सुख का और दुख का कर्ता है-कर्मों का बाधने वाला है और कर्मों को काटने वाला भी यही है।
अप्पा कामदुहा घेण. अप्पा मे नन्दणं वणं ।।
उ०, २०, ३६ टीका-सन्मार्ग में प्रवृत्ति करने की दशा में यह आत्मा स्वयखुद के लिये कामदुग्ध धेन-यानी इच्छा पूर्ति करने वाली आदश : देव-गाय के समान है । नैतिक और आध्यात्मिक मार्ग पर चलन की दशा में यह आत्मा स्वय नदन वन के समान है। पवित्र आर सेवा मय कार्य करने से यह आत्मा स्वय मनोवाछित फल दन वाली हो जाती है। स्वर्ग और मोक्ष के सुखो को प्राप्त करान वाली स्वय यही है ।
(१४ ) अप्पा नई वेयरणी, अप्पा मे कूड सामली।
उ०,२०, ३६ टीका-यह आत्मा ही स्वय-खुदं के लिये अनीति पूर्ण माग पर चलने से वेतरणी नदी के समान है, और पाप पूर्ण कार्यो म फसे रहने की दशा में कूट शाल्मली वृक्ष के समान है। उन्माग गामी होने की दशा में आत्मा स्वय अपने लिये वेतरणी और कूट भादमली वृक्ष के जैसे नानाविध दुखो को पैदा कर लेती है।
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सूक्ति-सुधी ]
( १५ )
नतं अरी कंठ छिन्ता करेइ, जं से करे अप्पणिया दुरप्पा |
उ०, २०, ४८
टीका - दुराचार मे प्रवृत्त हुआ यह आत्मा स्वय का जैसा और जितना अनर्थ करता है, वैसा अनर्थ तो कठ को छेदने वाला या काटने वाला शत्रु भी नही करता है । अनर्थमय प्रवृत्ति शत्रु की प्रतिक्रिया से भी भयंकर होती है और अनेक जन्मो मे दु.ख देने वाली होती है ।
( १६ ) कपिओ फालिओ छिन्नो, उक्कित्तो श्रणगसो ।
उ०, १९, ६३
टीका - यह पापी आत्मा अनेक वार काटा गया, कतरा गया, फाड़ा गया, चीरा गया, छेदन किया गया, टुकडे २ किया गया, और उत्कर्त्तन किया गया यानी चमड़ी उतार दी गई ।
( १७ ) दो पक्को वसो, पाव कम्मेहिं पाविओो ।
उ०, १९, ५८
[ १३
टीका - यह पापी आत्मा पाप कर्मों के कारण से अनेक बार आग से जलाया गया, पकाया गया और दुःख झेलने के लिये विवश किया गया है ।
( १८ )
पाडिओ फालियो छिन्नो, विष्फुरन्तो
अणेगसो
!
उ०, १९, ५५
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१४]
[आत्मवाद-सूत्र
टीका-यह आत्मा अनत वार इस ससार में विभिन्न स्थानो 'पर विभिन्न जन्मो मे पटका गया,गिराया गया, फाडा गया, चीरा गया, काटा गया, टुकडे २.किया गया और शरण के लिये भागते हुए को नाना प्रकार के कष्टो से दुखी किया गया है।
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दुर्लभांग-शिक्षा सूत्र
(१) उत्तम धम्म सुई हु दुल्लहा ।
उ०, १०, १८ टीका-उत्तम, श्रेष्ठ धर्म को-दान, शील, तप और भावनामय चारित्र को सुनने का प्रसंग मिलना अत्यत दुर्लभ है । अतएव सुयोग से प्राप्त संयोग का लाभ उठाने मे जरा भी भूल नहीं करना चाहिये।
(२) सुई धम्मस्स दुल्लहा।
उ०, ३, ८ टीका-धर्म की, मोक्ष मार्ग के कारणो की, आत्मोन्नति के गुणों की, ज्ञान-दर्शन-चारित्र के स्वरूप की बाते सुनने का, उपदेश न्सुनने का अवसर प्राप्त होना अत्यंत कठिन है। पुण्य का उदय होने पर ही धर्म के सुनने का प्रसंग मिला करता है।
( ३) सद्दहणा पुणरावि दुल्लहा ॥
उ०, १०, १९ टीका श्रेष्ठ धर्म को सुनने का प्रसंग मिल जाने पर भी उसके प्रति श्रद्धा होना, उसपर विश्वास आना अत्यन्त कठिन है। इसलिये अहिंसा प्रधान धर्म से कभी भी विचलित नहीं होना चाहिए !
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[ दुर्लभाग-शिक्षा-सूत्र
(४) सद्धा परम दुल्लहा।
उ०, ३, टीका- यदि सौभाग्य से जान-दर्शन-चारित्र रूप मोक्ष मार्ग की वाते सुनने का मौका मिल जाय, तो भी उनपर श्रद्धा आना-आत्म विश्वास का पैदा होना अत्यन्त कठिन है । दुर्लभ है !
णो सुलभ वोहिं च आहियं । . .. . . सू०, २, १९, उ, ३ टीका-सम्यक् ज्ञान और सम्यक् दर्शन मिलना अत्यन्त कठिन है। अनेक जन्मो मे सचित पुण्य के उदय से ही ज्ञान' और दर्शन की प्राप्ति होती है। इसलिए जीवन को प्रमादमय नही बनाकर पर-सेवामय ही बनाना चाहिए। - -
. संवोही,खलु दुल्लहा। . . , . सू०, २,१, उ, १ -
टीका-सम्यक् ज्ञान, सम्यक दर्शन की प्राप्ति होना अत्यन्त कठिन है । आत्मा मे कषायो की गाति होने पर और पुण्य के उदय होने पर ही सम्यक् ज्ञान और सम्यक् दर्शन की प्राप्ति होती है। इसलिये जीवन मे प्रमाद को स्थान नही देना चाहिये ।
दुलहया कारण फासया। । उ०,१०, २० ..
.. - टीका-श्रेष्ठ धर्म का, अहिंसा प्रधान धर्म का और स्याद्वाद प्रवान सिद्धान्त का काया द्वारा आचरण किया जाना तो अत्यन्त
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सूक्ति-सुधा ]
[ १७
दुर्लभ है । अतएव प्रमाद से सदैव सावधान रहना चाहिये और मन, वचन तथा काया को धर्म - मार्ग मे प्रवृत्त करना चाहिये ।
( ८ ) दुलहाओ तहच्चाओ ।
सू०, १५, १८
टीका — सम्यग् दर्शन की प्राप्ति के अनुरूप हृदय के शुद्ध परिणाम होना, निर्दोष अन्त. करण का होना अत्यन्त कठिन है । शुभ कर्मों का उदय होने पर ही सम्यग् दर्शन के अनुसार हृदय में सरलता, प्रशस्यता, शुभ ध्यान और शुभ- लेश्या पैदा हो सकती है ।
( ९ ) श्रयरिअत्तं पुरावि दुल्लहं ।
उ०, १०, १६
टीका - यदि दैवयोग से मनुष्य शरीर मिल जाय, तो भी आर्यधर्म की व अहिसा प्रधान धर्म की प्राप्ति होना तो बहुत ही दुर्लभ हैं, इसलिए क्षण - मात्र का भी प्रमाद नहीं करना चाहिये ।
-
-
( १० ) लभेयं समुस्सए । सू०, १५, १७
टीका -- मनुष्यभव प्राप्त करना बहुत ही कठिन है, इसलिये इससे जितना भी फायदा उठाया जा सके, उतना उठा लेना चाहिये t अन्यथा पछताना होगा |
( ११ ) ..
अहीरा पंचेंदियया हु दुल्लहा ।
उ०, १०, १७
टीका- पाचो इद्रियां सर्वाङ्ग सुन्दर और स्वस्थ मिलना अत्यन्त दुर्लभ है, इसलिये क्षणमात्र का भी प्रमाद नही करना चाहिये ।
२
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१६ ]
( ४ )
सद्धा परम दुल्लहा उ०, ३, ९
टीका - यदि सौभाग्य से ज्ञान - दर्शन - चारित्र रूप मोक्ष मार्ग की वाते सुनने का मौका मिल जाय, तो भी उनपर श्रद्धा आना आत्म विश्वास का पैदा होना अत्यन्त कठिन है | दुर्लभ है !
1
(५)
णो सुलभ वोहिं च माहियं । सू०, २,१९,उ, ३
! I
[ दुर्लभाग- शिक्षा-सूत्र
टीका – सम्यक् ज्ञान और सम्यक दर्शन मिलना अत्यन्त कठिन है । अनेक जन्मो में सचित पुण्य के उदय से ही ज्ञान' और ' दर्शन की प्राप्ति होती है । इसलिए जीवन को प्रमादमय नही बनाकर पर-सेवामय ही बनाना चाहिए ।
(६०). "
संवोही, खलु दुलहा
सू०, २, - १, उ, 8
2
टीका - सम्यक ज्ञान, सम्यक् दर्शन की प्राप्ति होना अत्यन्त कठिन है । आत्मा मे कषायो की शाति होने पर और पुण्य के उदय - होने पर ही सम्यक् ज्ञान और सम्यक् दर्शन की प्राप्ति होती है । इसलिये जीवन मे प्रमाद को स्थान नही देना चाहिये ।
ܚܐ
दुलहया कारण फांसया ।
उ०, १०, २०
15
I
- टीका श्रेष्ठ धर्म का अहिंसा प्रधान धर्म का और स्याद्वाद प्रधान सिद्धान्त का काया द्वारी आचरण किया जाना तो अत्यन्त
C
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सूक्ति-सुधा ] ..
[१७
दुर्लभ है । अतएव प्रमाद से सदैव सावधान रहना चाहिये और मन, वचन तथा काया को धर्म-मार्ग मे प्रवृत्त करना चाहिये।
. . (८) दुल्लहाओ तहच्चाओ।
सू०, १५, १८ टीका-सम्यग्-दर्शन की प्राप्ति के अनुरूप हृदय के शुद्ध परिणाम होना, निर्दोष अन्तःकरण का होना अत्यन्त कठिन है। शुभ कर्मो का उदय होने पर ही सम्यग्-दर्शन के अनुसार हृदय में सरलता, प्रशस्यता, शुभ ध्यान और शुभ-लेश्या पैदा हो सकती है। . .
आयरिअत्तं पुणरावि दुल्लहं ।।
उ०, १०, १६ टीका-यदि दैवयोग से मनुष्य-शरीर मिल जाय, तो भी आर्यधर्म की व अहिंसा प्रधान धर्म की प्राप्ति होना तो वहुत ही दुर्लभ है, इसलिए क्षण-मात्र का भी प्रमाद नहीं करना चाहिये ।
(१०) दुल्लमेऽयं समुस्लए। . . .. .. सू०, १५, १७ । टीका-मनुष्यभव प्राप्त करना बहुत ही कठिन है, इसलिये इससे जितना भी फायदा उठाया जा सके, उतना उठा लेना चाहिये। अन्यथा पछताना होगा ।
(११) . . अहीण पंचेंदियया हु दुल्लहा ।
. उ०, १०, १७ टीका- पाचो इद्रिया सर्वाङ्ग सुन्दर और स्वस्थ मिलना अत्यन्त दुर्लभ है, इसलिये क्षणमात्र का भी प्रमाद नही करना चाहिये !
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८]
[ दुर्लभांग-शिक्षा-सूत्र
(१२) नो सुलभं पुणरावि जीवियं ।
सू०, २, १, उ, १ टीका-सयम जीवन वार-बार सुलभ नही है, इसलिये प्रमाद __ मत करो । अशुभ-मार्गमे प्रवृत्ति मत करो!
(१३ ) जुद्धारिहं खलु दुल्लहं ।
आ०, ५, १५५, उ, ३ टीका-सयम मार्ग पर चलते हुए-कर्त्तव्य-मार्ग पर चलते हुए नेवाले परिषहो को-उपसर्गों को, जो कि आर्य-शत्रु है, ऐसे आर्य शत्रुओ पर विजय प्राप्त करके इनको जीतना ही आदर्श काम है। इसीलिये कहा गया है कि आर्य-युद्ध बहुत कठिनाई से प्राप्त होता है। इस आर्य-युद्ध में ही वीरता बतलाओ। ,
(१४) इओ विद्धंसमाणस्स, पुणो संबोहि दुल्लभा।
___ सू० १५, १८ टीका-जो जीव इस मनुष्य शरीर से भ्रष्ट हो जाता है, उसको फिर बोध-प्राप्त होना दुर्लभ है। मनुष्य जन्म प्राप्त करके नो केवल सारा समय विषय-भोगो मे ही पूरा कर देता है, एवं दान, शील, तप, और भावना से खाली हाथ जाता है, उसे सम्यगदर्शन पुन. प्राप्त होना अत्यन्त कठिन है, इसलिये समय को सुदुपयोग धर्माराधन मे ही रहा हुआ है।
वहु कम्म लेव लित्ताणं, __ वोही होइ सुदल्लहा।
उ. ८, १५
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सूक्ति-सुधा ]
[ १९
टीका - भारी कर्मों मे लिप्त जीवों को, भोगों में फंसे हुए जीवो को, सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन, सम्यक् चारित्र और नीति मार्ग की प्राप्ति बहुत ही कठिनाई से होती
1
( १६ )
सुदुल्लाहं लहिउं बोहि लाभं विहरेज्ज । उ०, १७, १
टीका - सुदुर्लभ सम्यक् ज्ञान और सम्यक् दर्शन की प्राप्ति · करके, आत्म-कल्याण के मार्ग पर आरूढ होकर आनन्द पूर्वक निर्लेपता के साथ और निश्चितता के साथ विचरो | इसी रीति से जीवन-काल व्यतीत करो ।
( १७ ) माणुस्सं खु सुदुल्लाहूँ ।
उ०, २०, ११
टीका - मनुष्य जीवन मिलना अत्यन्त दुर्लभ है । अनेक जन्मों में महान् पुण्य कर्मो का संचय होने पर ही मनुष्य जन्म की प्राप्ति होती है । इसलिए वहुमूल्य समय को व्यर्थ, और अनुपयोगी कामों में खर्च मत करो ।
C
( १८ ) मायाहिं पियाहिं लुइ
नो सुलहा सुगई य पेच्चओ ।
1
सू०, २, ३, उ, १
टीका--जो पुरुष अपना कर्त्तव्य भूलकर माता - पिता के मोह में फस जाता है - मोह-ग्रस्त हो जाता है, उसकी मरने पर सुगति नही हो सकती है ।
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ज्ञान-सूत्र
एगे नाणे।
ठाणाग, १ ला, ठा, ४२ . - टीका-आत्मा का लक्षण ज्ञान वताया गया है । आत्मा एक अखंड द्रव्य है, स्वतत्र सत्ता वाला अरूपी द्रव्य है, । तदनुसार उसका लक्षण यानी धर्म भी अखड और स्वतन्त्र ही है। ज्ञान-गक्ति प्रत्येक आत्मा मे अखड रूप से और अपने आपमें परिपूर्ण रूप से. व्याप्त है। ___ससार में विभिन्न जीवो मे,जो ज्ञान के भेद या परस्पर मे जो ज्ञान की विभिन्नता पाई जाती है, उसका मूल कारण आत्मा मे संलग्न कर्म परमाणु है, जैसे सूर्य के प्रकाश में वादलो के कारणः से छाया और प्रकाश की तारतम्यता देखी जाती है, उसी तरह से कर्मो के भेद से या कर्मों की विषमता से ससारी आत्माओ के ज्ञान में भी भेद पाया जाता है। परन्तु मूल में सभी आत्माओ में समान, परिपूर्ण, अखड और एक ही ज्ञान अवस्थित है, किसी मे भी कम या अधिक नही है, अतएव यह कहना कि. "ज्ञान एक ही है" सत्य है।
(३) “पढमं नाणं तो दना।
द०, ४, १० टीका-प्रथम सम्यक् ज्ञान प्राप्त करना चाहिये। इसके बाद की जाने वाली निया सम्यक् है, ठीक है। यही मोक्ष-मार्ग
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सूक्ति-सुधा ]
[38
देने वाली हो सकेगी । अतएव ज्ञान होना सर्व प्रथम आवश्यक है । आदि मे ज्ञान और तत्पश्चात् दया को स्थान दिया गया है ।
( ३ ) दुविधा वोही,
गाण बोही चेव दंसण वोही चेव ।
ठाणा०, २ रा, ठा०, ३, ४, ११
टीका - समझ दो प्रकार की है- १ ज्ञान समझ और २ दर्शन
समझ ।
वस्तुओ को जानना - पहिचानना ज्ञान समझ है और उन पर उसी रीति से विश्वास करना दर्शन समझ है ।
( ४ ) नाणे जाई भावे ।
उ०, २८, ३५
टीका -- सम्यक् ज्ञान होने पर ही, सभी द्रव्यो का और उनकी पर्यायो का, उनके गुणो का और उनके धर्मो का भली भांति ज्ञान हो सकता है ।
}
( ५ )
नाणेण वितान हुन्ति चरणगुणा ।
उ०, २८, ३०
टीका - जिस आत्मा में सम्यक् ज्ञान नही है, उस आत्मा का चारित्र भी ऐसी अवस्था में सम्यक् चारित्र नही कहा जा सकता है ।
( ६ )
दुविहे नाणे पच्चक्खे चेव परोक्खे चैव ।
ठाणा०, २रा, ठा, १ला, उ०, २४,
2
1
टीका--प्रमुख रूप से ज्ञान दो प्रकार का होता है - प्रत्यक्ष और
A
ๆ
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२२
ज्ञान-सूत्र
परोक्ष। इन्ही दो ज्ञान-भेदो में ज्ञान के अवशिष्ट सभी भेदों का समावेग किया जा सकता है।
आत्म-शक्ति के आधार से उत्पन्न होने वाले अवधिज्ञान, मन:पर्याय ज्ञान और केवल ज्ञान का समावेश तो प्रत्यक्ष ज्ञानमें किया जा सकता है, और मतिज्ञान, श्रुतिज्ञान, तर्क, अनुमान, आगम, स्मृति, प्रत्यभि ज्ञान, बुद्धि ज्ञान, कल्पना ज्ञान, और विभिन्न साहित्यिक ज्ञान का समावेश परोक्ष में किया जा सकता है। परोक्ष इन्द्रिय और मन जनित होता है।
नाण संपन्नपाए जीवे, सन्च भावाहि गम जणयइ ।
उ०, २९, ५९वाँ, ग० टीका-ज्ञान सपन्नतासे, ज्ञान की वृद्धि करने से, आत्मा विश्वव्यापी छ ही द्रव्यो का और उनकी पर्यायो का तथा उनके गुण-धर्मों का ज्ञान प्राप्त कर सकता है । इससे चारित्र में वृद्धि करनेका मौका मिलता है।
(८) चट्विहा बुद्धी, उपपइया, वेणइया, कम्मिया, पारिणामिया ।
__ ठाणा०, ठा, ४उ; ४,३१ टीका-वृद्धि चार प्रकार की कही गई है -१ औत्पातिकी. २ वैनयिकी, ३ कार्मिको ४ पारिणामिकी।
(1) किसी भी प्रसंग पर सहज भावसे उत्पन्न होनेवाली और उपस्थित प्रश्नको तत्काल हल कर देने वाली वद्धि और
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सूक्ति-सुधा]
[२३ (२) गुरु आदि पूजनीय पुरुषो की सेवा-भक्ति करने से पैदा होने वाली बुद्धि वैनयिकी है।
(३) अभ्यास करते करते और कार्य करते करते प्राप्त होनेवाली बुद्धि कार्मिकी है।
(४) ज्यों ज्यो आयु के वढने पर संसार के अनुभव से प्राप्त होने वाली बुद्धि पारिणामिकी वृद्धि है।
जिणोजाणा केवली।
द०, ४, २२ टीका-राग और द्वेष पर, आत्यन्तिक विजय प्राप्त करने वाले जिन-प्रभु, केवल ज्ञानी ही सम्पूर्ण लोक और अलोक को देख सकते है । ऐसे जिन देव ही हमारे आदर्श है ।
(१०) ना दंसणिस्त नाणं।
उ०, २८, ३० टीका-जिस आत्मा को सम्यक् दर्शन यानी सम्यक्त्व प्राप्त नहीं हआ है, उसका ज्ञान भी सम्यक् ज्ञान नहीं कहा जा सकता है, वह ज्ञान तो मिथ्या ज्ञान ही है ।
(११) नाणेण य मुणी होइ, तवेण होइ तावलो।
- उ., २५, ३२ . टीका-जो सम्यक् ज्ञान से युक्त होता है, वही मुनि है। और जो तप-सयम से युक्त है, वही तपस्वी है । गुणों के अनुसार ही पद की शोभा है । गुणो के अभाव में पद धारण करना विडम्बना मात्र हैं।
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૨૪ ]
( १२ ) बुद्धा हु ते अंतकडा भवंति ।
सू०, १२, १६
टीका -- ज्ञानी पुरुष अपने ससार का अत करने वाले होते है । ज्ञानी ज्ञान वल से वस्तु स्थिति समझ कर भोगो और तृष्णा के जाल में नही फँसते है, इससे शीघ्र कर्मो का नाश कर उन्हे मोक्ष तक पहुँचने मे कोई खास कठिनाई नही आती है । वे शीघ्र ही अपने आत्म वल, चारित्र वल, कर्मण्यता बल, सेवा वल, और ज्ञान वल से संसार के सामने आदर्श महापुरुप वन जाते है |
( १३ )
जे एवं जाग से सव्वं जाण, जे सव्वं जागर से एग जाइ ।
आ०, ३, १२३, उ, ४
[ ज्ञान-सूत्र
टीका -- जिसने एक यानी अपनी आत्मा का स्वरूप भलीभाति समझ लिया है, उसने सारे संसार का स्वरूप समझ लिया है और जिसने सारे ससार का स्वरूप समझ लिया है, उसने अपनी आत्मा का भी स्वरूप समझ लिया है । जो एक को जानता है, वह सवको जानता है, जो सबको जानता है, वह एक को भी जानता है ।
( १४ )
,
सीहे मियाण पवरे, एवं वह वहुस्सुए । उ०, ११, २०
टीका — जैसे केशरी सिंह सभी वन-चर- जीवो मे श्रेष्ठ और प्रमुख होता है, वैसे ही बहुश्रुत ज्ञानी भी विनीत होने पर ही शोभा थाता है । ज्ञानकी शोभा विनय पूर्वक सम्यक् आचरण पर हो आश्रित है ।
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सूक्ति-सुधा]
[ २५ - . ( १५ ),-- सक्के देवाहि वई, एवं हवई बहुस्सुए।
उ०, ११, २३ टीका-जैसे देवताओ का स्वामी इन्द्र देवताओ में शोभा पाता है, वैसे ही बहुश्रुत-ज्ञानी, विनीत होने पर ही जन-समाज मे शोभा को प्राप्त होता है।
' (१६) .. उदही नाणारयण पंडिपुण्णे, एवं हवा . बहुस्सुए।
उ०, ११, ३० । टीका-जैसे समुद्र नानाविध रत्नो से परिपूर्ण होता है, वैसे ही बहुश्रुत-ज्ञानी विनय शील होता हुआ स्वाभाविक रूप से ही नाना गुणो से परिपूर्ण हो जाता है।
- (१७) . . सुय महिहिज्जा उत्तमट्ठ गवेसए ।
उ०, ११, ३२ टीका-उत्तम अर्थ की खोज करने के लिये, आत्मा और परमात्मा के रहस्य को समझने के लिए, आत्मा की अनुभूति के लिये, सूत्र का अध्ययन करना चाहिये। भगवान की वाणी का मनन और चिन्तन करना चाहिये।
(१८) सज्झायंमि रओ सया
द०, ८, ४२
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२६]
जान-सूत्र टीका-सदैव स्वाध्याय मे ही लगे रहना चाहिये, ज्ञान बढाने वाली पुस्तके पढने मे ही सलग्न रहना चाहिए। क्योकि ज्ञान ही उन्नति का मार्ग-दर्शक है।
_ (१९ ) - सुयस्स पुण्णा विउलस्स ताइणो, खवित्त कम्म गइ मुत्तमं गया।
उ०, ११, ३१ टीका-विपुल अर्थ वाले श्रुत ज्ञान के धारक और षट् काय जीवों की रक्षा करने वाले, ऐसे बहुश्रुत ज्ञानी और दयाशील आत्मार्थी महापुरुप कर्मों का क्षय करके उत्तम गति को यानी मोक्ष को प्राप्त हुए है । यही आदर्श हमारे सामने भी होना चाहिये।
(२०) वसे गुरुकुले निरचं।
उ०, ११, १४ ____टीका-शिक्षार्थी, ज्ञानार्थी, नियम पूर्वक ज्ञान-प्राप्ति के लिये और आचरण शुद्धि के लिये गुरुकुल में अथवा ऋषि महात्माओ की सगति में वास करे। इसी प्रकार अपना जीवन-भाग वितावे।
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दर्शन-सूत्र
संमत्त दंसी न करेइ पार्य।
आ०, ३, ४, उ, २ टीका-जो सम्यक् दृष्टि है, जिसका एकान्त ध्येय ज्ञान, दर्शन और चारित्र में ही रमण करना है, जो चलते-फिरते, उठते-बैठते, सोतेजागते, खाते-पीते और दूसरी क्रियाएं करते हुए भी विवेक और यतना का ख्याल रखते है, अहिसा और सेवा को ही मूल आधार मानकर जीवन-व्यवहार चलाते है, तो ऐसी स्थिति में शरीर सम्बन्धी और अन्य व्यवहार सम्बन्धी सभी क्रियाएँ करने की दशा मे भी उनको पाप कर्म नही छू सकता है । इस प्रकार सम्यक् दृष्टि पाप नही करता है । योग-प्रवृत्ति होनेपर भी वह पाप से मुक्त है।
(२) नत्थि चरितं सम्मत्त विह्वर्ण ।
. उ०, २८, २९ टीका-सम्यक्त्व के बिना, श्रद्धा के विना-वास्तविक विश्वास के विना, सम्यक् चारित्र की प्राप्ति नही हो सकती है। विश्वास के. अभाव मे चारित्र केवल बाह्य साधारण आचरण मात्र है, वह मोक्ष की तरफ बढ़ाने वाला वैराग्यमय सुन्दर चारित्र नही कहा जा सकता है।
(३) दसणेण य सइहे। . उ०, २८, ३५
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२८]
दर्शन-सूत्र
टीका-सम्यक् दर्शन होने पर ही सभी द्रव्यो की, इनके पर्यायों · की और इनके गुणों की श्रद्धा जम सकती है, इनपर विश्वास हो . सकता है।
नाणमट्ठा दसण लूसिणो।
आ०, ६, १८७, उ, ४ टीका-जो सम्यक् दर्शन से भ्रष्ट हो जाते है, जिनका विश्वास आत्मा, ईश्वर, पाप, पुण्य आदि सिद्धान्तो पर से उठ जाता है, उनका सम्यक् जान भी नष्ट हो जाता है। वे जान से भ्रष्ट होकर मिथ्यात्वी हो जाते है । मिथ्यात्वी हो जाने पर उनका लक्ष्य केवल ‘भोग भोगना, सांसार सुख प्राप्त करना, ससारिक वैभव एकत्र करना
ही रह जाता है। इस कारण उनका ज्ञान मिथ्या ज्ञान है और वे -मिथ्यात्वी है। इस प्रकार दर्शन से पतित आत्माएँ, ज्ञान भ्रप्ट हो जाया करती है।
समियंति मन्नमाणस्स समिया, वा असमिया वा समिया होइ ।
०, ५ १६४, उ,५ टीका-जो आत्मा ज्ञान, दर्शन और चारित्र मे पूरी परी श्रद्धा करता है और डिगाने पर भी नहीं डिगता है, तो ऐसे सम्यक्त्वशील
आत्मा के लिये सच्चा और मिथ्या दोमो ही प्रकारका ज्ञान सा 11-रूप से परिणमित हो जाता है । असत्य भी सम्यक्त्वी के लिये स ___-रूप से ही काम देता है, यह सव महिमा सम्यक्त्व की ही है।
वीरा सम्मत्त दंसिणो, सुद्धं तेसिं परतं ।
सू०,५८, २३
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सूक्ति-सुधा ]
[२९
टीका-जो सम्यक् दर्शनी है अर्थात् ससार के सुख मे रहते हुए भी जिनका दृष्टिकोण अनासक्त रूप है, ऐसे वीर पुरुषो का प्रयत्न चाहे वह कैसा भी हो तो भी शुद्ध ही है, ससार को घटाने वाला ही है, बशर्ते कि वे वास्तव मे अनासक्त और विरक्त हो ।
दंसण संपन्नयाए, भव मिच्छत्त छेयणं करेइ ।
उ०, २९, ६०वा, ग० टीका--दर्शन संपन्नता से, सम्यक्त्व से, धर्म में विश्वास करने से मिथ्यात्व का नाश होता है, भोगो की तरफ अरुचि बढ़ती है, ससारपरिभ्रमण की मात्रा घटती है, एव सूत्र-सिद्धान्तो का ज्ञान बढता है।
(८) " सम्म हिट्ठी सया अमूढे। -
- द०, १०, ७ - - - - • टीका--सम्यक् दृष्टि आत्मा ही, आत्मा और परमात्मा पर एक-. मात्र दृष्टि रखने वाला पुरुप ही, जान-दर्शन-चारित्र मे लीन व्यक्ति ही सदैव अमूढ़ होता है । वह चतुर, सत्दर्शी और सम्यक् मार्गी होता है।
दिदिठम, दिदिठ ण लसएज्जा।
___ सू०, १४, २५ टीका-सम्यग् दृष्टि पुरुष अपनी श्रद्धा को और अपने सम्यग -दर्शन को एव शुद्ध-भावना को दूषित नही करे।
सम्यक्-दर्शन में चल-विचलता, सशय, भावोकी समिश्रणता, विपरीत धारणा आदि दुर्गुण नहीं आने दे। . .
चउव्वीसत्थएण दसणविलोहिं जणयइ ।
उ०, २९, ९ वा, ग.
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३० ]
[ दर्शन -सूत्र
टीका -- चौवीस तीर्थंकरों की स्तुति करने से, ईश्वर-भजन करने से दर्शनमे, श्रद्धामे, सम्यक्त्वमे विशुद्धि आती है । दर्शन मोह-नीय कर्म का क्षय होता है और भावना में निर्मलता तथा दृढता पैदा होती है ।
( ११ ) वितिगच्छ समावन्नेणं, अप्पाणणं नो लहइ समाहिं ।
आ., ५, १६२, उ, ५
टीका --- जिस आत्मा को ज्ञान, दर्शन और चारित्रकी आराधना करते हुए नानाप्रकार की शकाएँ पैदा हो जाती है, नवतत्वो और " षड्-द्रव्यों के प्रति तथा अन्य दार्शनिक सिद्धान्तो के प्रति भ्रमणाएँ पैदा हो जाती है, भ्रम हो जाता है, ऐसी आत्मा समाधि रूप शाति को नही प्राप्त कर सकती है । सयम-आराधना के लिये और कर्त्तव्यपालन के लिए पूर्ण श्रद्धा तथा समाधिमय शाति की अनिवार्य आव=श्यकता है । सदेह शील आत्मा चिर शांति नही प्राप्त कर सकती है । ( १२ ) दुविहे दंसणे, सम्म दंसणे चेव, मिच्छा दंसणे चेव ।
ठाणा, २ रा, ठा, १ ला, उ, २३
टीका - संसार की वस्तुओ को, विश्व के द्रव्यो को देखने के दो दृष्टिकोण है :- १ सम्यक् दर्शन और २ मिथ्या दर्शन ।
सम्यक्-दर्शन मे आत्मा की पवित्रता प्रथम ध्येय होता है और जीवन का व्यवहार गौण होता है ।
मिथ्या दर्शन में ससार का सुख वैभव प्राप्त करना मुख्य ध्येय होता है, और आत्मा ईश्वर आदि आध्यात्मिक बातो के प्रति उपेक्षा होती है ।
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हाल
, Traca .
।
है... २ई अन:- राण्डी
पादपोला, जयपूरचारित्र-सूत्र
- एगे चरित्ते । ।
ठाणा०, १ ला, ठा, ४४ ____टीका-विशुद्ध आत्मा का विशुद्ध चारित्र ही एक अखड और वास्तविक चारित्र है । वही परिपूर्ण चारित्र है। ___संसार में विभिन्न आत्माओ का जो विभिन्न आचरण रूप चारित्र पाया जाता है, उसका मूल कारण कषाय, विषय, वासना, विकार और शुद्धि की अल्पाधिकता समझनी चाहिये।
सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाय तो मल मे जो आदर्श चारित्र है, वही एक और अखड है । उसी मे कर्म-भेद से नाना भेद हुआ करते है।
चरित्तण निगिण्हाह।
उ०, २८, ३५ टीका–सम्यक् चारित्र के द्वारा ही सब प्रकार के आश्रव का विरोध किया जा सकता है।
चारित्र के अभाव में आश्रव नही रोका जा सकता है।
विज्जा-चरणं पमोक्खं ।
- सू०, १२, ११ - टीका-विज्जा यानी ज्ञान और चरणं यानी क्रिया, इन दोनों से ही मोक्ष मिलता है । सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र से ही मोक्ष की प्राप्ति होती है । दोनो में से एक के भी अभाव में मोक्ष नहीं मिल सकता है। दोनों का साथ-साथ होना आवश्यक है। ज्ञान
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३२]
[ चारित्र-सूत्र शव्द से ज्ञान और दर्शन दोनों ही समझना चाहिये । “सम्यग् ज्ञानदर्शन चारित्राणि मोक्ष मार्ग" अथवा - "ज्ञान-क्रियाभ्याम् मोक्ष." वाक्य भी इसी सूक्ति के पर्याय वाची वाक्य है।
खंते अभिनिब्बुड़े दंते, वीत गिद्धी सदा जए।
सू०, ८, २५, टीका-आत्म-कल्याण की भावना वाला पुरुष क्षमा-शील हो, लोभादि कषाय से रहित हो, जितेन्द्रिय हो, विषय-भोग मे आसक्ति रखने वाला नही हो, तथा सदा यत्न पूर्वक, विवेक-पूर्वक जीवन व्यतीत करने वाला हो। .
जवा लोह मया चेव, जयवा सुदुक्कर ।
उ०,१९, ३९ टीका-सयम यानी इन्द्रिय-दमन का मार्ग और मन के विकारों पर विजय करने का मार्ग लोहे के जौ चवाने के समान अत्यन्त कठिनतम कार्य है । यह सुदुष्कर व्रत है। .
सामाइथ मा तस्स जं, जो अप्पाणं भए ण दसए ।
सू०, २, १७, उ, २ . टीका-जो अपनी आत्मा मे जरा भी भय अनुभव नही करता है, जो सदैव निर्भय, निद्वंद्व रहता है, जो प्रिय, सत्य और सन्दर बात को विना लाग-लपेट के निर्भयता पूर्वक कहता है, उसके लिएसदैव सामयिक ही है । भय के साथ सामायिक भाव नहीं रह सक
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तप-सूत्र
. तवं चरे।
उ०, १८, १५ टीका-तपस्या का, त्याग का, निर्लेपता का और अकिंचनता का आचरण करो । बारह प्रकार की निर्जरा को जीवन में स्थान दो।
तवसा धुणइ पुराण पावगं। .
द., ९, ४, च० उ० टीका-पूर्व काल मे,-पूर्व जन्मो में किये हुए पापों की निर्जरा तप द्वारा होती है । अन-शन, उणोदरी आदि तप के भेद है. इसके सिवाय पर-सेवा, ज्ञान ध्यान की आराधना, कषाय त्याग आदि सत क्रियाएँ भी तप है।
तवेण परिसुज्झई।
उ०, २८, ३५ टीका बारह प्रकार के तप से ही; इन्द्रिय-दमन आदि तपस्या द्वारा ही पूर्व काल मे उपाजित कर्मो का क्षय किया जा सकता है।
(४) तवी गुण पहाणस्स, उज्जुमइ। - :
द०, ४, २७ टीका-जिसने अपने जीवन मे, तप को-वाह्य और आभ्यंतर दोनो प्रकार की तपस्या को, मुख्य रूप से स्थान दिया है, वह ऋजमति है, वह सरल बुद्धि वाला है, वह - निष्कपट हृदय वाला है। .
२७
-
-
-
-
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[ तप-सूत्र
३४]
(५) तवं कुम्वइ मेहावी।
द०, ५,४४, उ, द्वि, टीका-मेधावी का, बुद्धि-शाली का और विवेक शाली का प्रत्येक कार्य विवेक पूर्वक होने से वह तपमय ही होता है, वह निर्जरा का ही कारण बनता है । विवेक मे ही धर्म है।
तवेणं वोदाण जणयइ।
उ०, २९, २७वा, ग, टीका-तपसे, बारह प्रकार के तप की परिपालना करने से-तप की आराधना से पूर्व कृत कर्मों का क्षय होता है। इस प्रकार आत्मा निर्मल और वलवान् बनती है ।
परक्कमिज्जा तवं संजमंमि ।
द०, ८, ४१ _____टीका--तप और संयम मे सदैव पराक्रम बतलाना चाहिए, ज्योकि विकारो को जीतने के लिये सयम अद्वितीय साधन है।
(८) सव्वओ संवुडे दंते, प्रायाण सुसमाहरे।
सू०, ८, २० टीकाबाहिर और भीतर दोनो ओर से गुप्त रहे, संयम-शील रहे । हृदय में माया आदि कपाय और अशुभ ध्यानो का निवास नही होने दे, तथा बाहिर वचन और काया को अशुभ प्रवृत्तियो से रोके । इन्द्रियों का दमन और मयम की आराधना करता रहे । दर्शन, ज्ञान, मौर चारित्र का पालन तत्परता के साथ विशुद्ध रीति से करता रहे।
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सूक्ति-सुधा ]
( ९ ) ) कोहणे सच्चरते तवस्सी ।
सू०, १०, १२
टीका–जो कठिन से कठिन और प्रतिकूल परिस्थिति में भी क्रोध नहीं करता है, और विकट से विकट संकट मे भी सत्य को नहीं छोड़ता है, वही पुरुष सच्चा तपस्वी है, वह श्रेष्ठ तपस्वी हैं । वही आदर्श पर सेवक है ।
. ( १ ) अप्पा दन्तो सही होइ ।
उ० १,१५
[34
टीका — जो अपनी आत्मा को विषय- कषाय से, विकार - वासना से, आसक्ति-मूर्च्छा से और तृष्णा-आशा से अलग करता रहता आत्मा का इस प्रकार दमन करता रहता है वही अंत में सुखी होता है ।
La
( ११ )
णो पूयणं तवसा आवहेज्जा । .
2 सू०, ७, २७.
टीका - तपस्या के द्वारा पूजा की इच्छा नही करे, तपस्या का ध्येय आत्म-कल्याण का रखे, तपस्या के द्वारा पूजा - मान-सन्मान की - आकांक्षा नही करे । पूजा सन्मान की भावना नियाणा है, और नियाणा से मोक्ष प्राप्ति के स्थान पर ससार की ही वृद्धि होती है ।
( १२ ) वेज्ज निज्ञ्जरा पेही ।
उ० २,३७
टीका - निर्जरा प्रेक्षी, पूर्व कर्मो को क्षय करने की इच्छा रखने चाला, दुखको, परिपह को, उपसर्ग को और कठिनाइयो को शांतिपूर्वक सहन करे । अधीर और अशांत नही बन जाय !
I
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३६ ]
( १३ ) समाहि कामे समणे तवस्सी ।
उ०, ३२,,४,
टीका --- साधु को - आत्मार्थी को यदि समाधि की इच्छा है, राग-द्वेष को क्षय करने की इच्छा है, तो तपशील बने इन्द्रियो के ऊपर सयम रक्खे, और अनासक्त जीवन व्यतीत करे । निरन्तर परसेवा में ही काल व्यतीत करता रहे ।
( १४ )
असिधारा गमणं चेव, दुक्करं चरिउँ तयो ।' उ०, १९, ३८
( १५ ) दुविहे सामाइए,
[ तप-सूत्र
+
G
टीका -- कष्ट साध्य परन्तु सुन्दर परिणाम वाले तंप का तथा सेवा और सयम का आचरण करना तलवार की धार पर चलने के समान दुष्कर है ।
( १६ )
सामाइएणं सावज्ज जोग बिरहूं जणयइ ।
श्रगार सामाइए, अणगार सामाइए । ठाणा०, २ राठा, उ, ३, ६
टीका -- सामायिक दो प्रकार की कहीं गई है - १ आगारिक सामायिक और २ अणागारिक सामायिक । मर्यादित समय की, गृहस्थो द्वारा की जाने वाली सामायिक आगारिक है और जीवन-पर्यंत के लिये ग्रहण की जाने वाली - साधुओ की सामायिक अणागारिक है
उ०, '२९, ८, बी, ग०
• टीका - सामायिक व्रत से सावद्य-योग की निवृत्ति से मन, वचन और काया को पापकारी प्रवृत्ति का निरोध होता है । सावद्य योग से विरति पैदा होकर निरवद्य योग मे प्रवृत्ति होती है ।
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सूक्ति-सुधा]
[.३७ (१७) पडिक्कमणेणं वय छिद्दाणि पिहेह।
उ० २९, ११ वा , ग०, - टीका-प्रतिक्रमण करने से-कृत अपरावो की , आलोचना करने से-ग्रहित व्रतो में उत्पन्न दोपो का प्रायश्चित्त करने से व्रतों के दोष
और ग्रहित नियमों के दोष ढक जाते है, और इस प्रकार व्रत-नियम निर्दोष हो जाते हैं।
काउस्लमोणं तीय पहुप्यन्नं, पायच्छित्तं विसोहेइ।
उ०,२९, १२वां, ग. टीका-कायोत्सर्ग करने से, ध्यान करने से, प्रवृत्तियो को रोक कर-मानसिक-स्थिति को एकाग्र कर चिन्तन-मनन करने से, भूतकाल और वर्तमान काल के अतिचारो की विशुद्धि होती है तथा भविष्य में दोष लगने की संभावना से आत्मा वच जाती है ।
पच्चक्खाणेणं श्रासव दाराई निरुम्भइ ।
उ० २९, १३ वाँ, ग०, . टीका-प्रत्याख्यान करने से, त्याग करने से, वस्तुओ के भोगउपभोग की मर्यादा करने से, आश्रव के द्वारो का निरोध होता है। इस प्रकार नये कर्म आते हुए रुकते है । इस रीति से संसार-समुद्र के किनारे की ओर बढते है और मोक्ष के नजदीक जाते है।
(२०) पायच्छित्त करणेणं पावकम्म,
विसोहिं जणयह । उ०, २९, १६ वा, ग०
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३८]
तप-सूत्र
टीका--प्रायश्चित्त करने से.-अपने द्वारा कृत अपराधों के लिए और ग्रहित व्रतों मे आये हुए दोपो के लिये निन्दापूर्वक आलोचना करने से, एव पश्चात्ताप करने से पाप कर्मो का क्षय होता है और आत्मा की विशुद्धि होती है।
(२१) चेया वच्चेणं तित्थयरनाम गोत्तं कम्मं निवन्धः ।
उ०, २९, ४३ वाँ, ग० टीका-वैयावृत्य करने से, साधु, साध्वी, थावक और श्राविकाओ की, चतुर्विध श्री सघ की सेवाशुश्रुपा करने से, इन्हे साता पहुँचाने से, तीर्थंकर नाम कर्म का और उच्च गोत्र कर्म का बन्ध पडता है । इस रीति से मोक्ष-स्थान अति निकट आ जाता है।
(२२) आलोयणाप उज्जु भावं जगया।
उ०, २९, पा० ग० ___टीका-आलोचना से और पाप का प्रायश्चित्त करने से सरलता आती है, निष्कपटता पैदा होती है । इससे आत्मवल बढता है एव चारित्र में प्रगति होती है।
(२३) साखं खुदीसइ तवो विलेलो, ‘न दीलइ. जाइ विसेस कोई ।
उ०, १२, ३७ टीका-तप की और सयम प्रधान सदगुणो की ही विशेपता और आदर-दृष्टि प्रत्यक्ष रूप से देखी जाती है । जाति-कुल-कुटुम्ब यादि की विशेषता अथवा उच्चता गुणो के अभाव में जरा भी आद
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सूक्ति-सुधा ]
रणीय नही है । बाह्य-उच्चता कृत्रिम उच्चता है । गुण- उच्चता हृ
वास्तविक उच्चता है |
'me
(२४) मज्झत्थो निज्जरापेही, समाहि मणुपालए ।
आ०, ८, २१, उ, ८
टीका—विपरीत परिस्थिति मे भी मध्यस्थ होता हुआ, निर्जख की आराधना करता हुआ, विभिन्न प्रकार के तपो का पालन करता हुआ, ज्ञानी पुरुष समाधि की और स्थिति प्रज्ञ भावना की सम्यकू प्रकार से परिपालना करे । वह धर्म पर दृढ रहे । मति को चंचळ और चपल नही होने दे । वह कर्त्तव्य से पतित न हो ।
(२५)
मई
चविहे पायच्छित्ते, पाणपायच्छित्ते, दंसण पाय च्छित्ते,
चरि पायच्छिते, वियत्त किच्चे पायच्छित्ते ।
ठाणा०, ४था, ठा, उ, १, ३३
टीका -- चार प्रकार के प्रायश्चित्त कहे गये है- १ ज्ञान प्रायश्चित्त २ दर्शन प्रायश्चित्त, ३ चारित्र प्रायश्चित्त और ४ व्यक्त कृत्य प्रायश्चित्त । १ ज्ञान की आराधना करके पापो की शुद्धि करना ज्ञान प्रायश्चित्त है । २ दर्शन की या श्रद्धा की विशुद्धि करके पापो का प्रायश्चित्त करना दर्शन प्रायश्चित्त है । ३ निर्मल चारित्र की आराघना करके पापो का पश्चाताप करना चारित्र प्रायश्चित्त है । ४ अनासक्त और पूर्ण गीतार्थ होकर, एव असाधारण विद्वान् वनकर पा का प्रायश्चित्त करना व्यक्त कृत्य प्रायश्चित्त है ।
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[तप-सूत्र
(२६) किलप देह मणासणाइहिं ।
मू०, २, १४, उ, १ ____टीका-इन्द्रियो पर विजय प्राप्त करने के लिये, मनको नियंत्रित करने के लिये अनगन, उपवास आदि वाह्य और आभ्यतर तपस्या के द्वारा गरीर को कृश करे । तप से शरीर की धातुओ को सुन्तावे।
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मोक्ष-सूत्र
(१) खमं च सिवं अणुत्तरं ॥
उ०, १०, ३५ __टीका-मोक्ष निरावाध सुख वाला है, शाश्वत् है, कल्याणकारी है, सर्वोत्कृष्ट है । मोक्ष क्षेम मय है, शिव मय है और सर्व श्रेष्ठ है।
.(२) सव्वे सरा नियति, तक्का जत्थ नविज्जइ,
मई तत्थ न गाहिया, उवमा न विज्जए । . आ०, ५, १ १-१७२-उ, ६
टीका--आत्मा की मुक्त-अवस्था शब्दातीत है, शब्दो से उसका वर्णन नही किया जा सकता है, सब शब्द उसके स्वरूप का वर्णन . करने मे हार खा जाते है । तर्क-शास्त्र भी अपनी असमर्थता बतला देता है । मनुष्यो की बुद्धि, कल्पना और अनुमान भी उसके मूल स्वरूप को नही खोज सकते है। किसी. उपमा द्वारा भी उस मुक्त. अवस्था की तुलना नही की जा सकती है। इस प्रकार मुक्ति-अवस्था अनिर्वचनीय है, अतर्कनीय है, अनुमानातीत है, अनुपमेय है । वह तो केवल अनुभव-गम्य मात्र है । अपौद्गलिक है, एकान्त रूप से आत्मा की सर्वोच्च और अन्तिम मौलिक अवस्था है। केवल स्थायी निराबाध आध्यात्मिक आनंद अवस्था है । वेद भी 'नेति नेति"-"ऐसा नही है ऐसा नही है," यह कहकर उसके स्वरूप वर्णन मे अपनी असमर्थता जाहिर करते है ।
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४२]
[ मोक्ष-सूत्र
(३) मुद्धण उवेति मोक्खं ।
सू०, १४, १७ ___टीका---गुद्धता से ही, निर्कपाय अवस्था से ही, मोक्ष प्राप्त होता । है । कपाय का सर्वथा अभाव होगा तो अपने आप ययाख्यात चारित्र की प्राप्ति हो जायगी, और इससे स्वभावत मुक्ति की प्राप्ति हो। जायगी।
(८) अध्यावाई सुक्ख, अणुहोंती सासय सिद्धा।
. उव०, सिद्ध, २१ टीका-सिद्ध प्रभु सदैव अव्यावाव यानी निरावाघ, गाश्वत्, स्थायी, नित्य, अक्षय, अविछिन्न वारा वाले सुख का अनुभव करते रहते है। उनके सुखानुभव मे किसी भी प्रकार की और कभी भी कोई वाया उपस्थित नही होती है। वावा उपस्थिति का कारण कर्म होता है, जो कि वहां नहीं है।
सव्य संग विनिम्मुक्को, सिद्ध भवह नीरए ।
उ०, १८,५४ टीका-मोक्ष स्थान में, मुक्त अवस्था में प्रत्येक मुक्त यात्मा सिद्ध होकर-सपूर्ण रीति से कृतकृत्य होकर, आठो कर्मों से रहित होकर, सभी कपाय-विषय, विकार, बासना, मूी, परिग्रह-आसक्ति भादि गे सर्वथा मुक्त होकर, निराकार निरंजन स्प से सर्व शक्ति सम्पन्न होकर अनन्त काल के लिए स्थित हो जाती है।
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सूक्ति-सुधा
__
· · सिद्धो हवइ सासओ।
- द०,४, २५ टीका-आत्मा मोक्ष मे जाने के बाद वहाँ से लौट कर नहीं आती है, क्योकि कर्मों का आत्यतिक क्षय हो जाता है, इसीलिये कहा गया है कि सिद्ध-अवस्था, मुक्त-अवस्था, शाश्वत होती है, नित्य और अक्षय होती है।
(७) सव्व मणागय मद्धं, चिट्ठति सुहं पत्ता ।
उव०, सिद्ध, २२ टीका-मुक्त-आत्माएँ जिस क्षण से मुक्त होती है उस क्षण से लगाकर भविष्य में सदैव के लिये, अनन्तानन्त काल तक के लिये, अनन्त सुखों में ही स्थित रहती है। उनके सुख मे कभी भी कोई वाधा उपस्थित नही होती है।
(८) णिच्छिण्ण सब दुक्खा, जाइ जरा मरण बंधण-विमुक्का।
-उव०, सिद्ध, २१ टीका-मुक्त-अवस्था मे किसी भी प्रकार का कोई दुख नही है, सिद्ध-प्रभु सभी प्रकार के दु खो से मुक्त है । जन्म, वृद्धत्व, मृत्यु और कर्म बन्धन जैसी सासारिक सभी उपाधियो से वे सर्वथा मुक्त है। उनके लिये कोई भी उपाधि शेष नही है।
-
अजरा अमरा असंगा। ___ उद०, सिद्ध, २०
- , . .
- .
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"४४]
[ मोक्ष-सूत्र टीका-मुक्त आत्माओं मे कभी भी वृद्धत्व नहीं आता है, यानी वाल, युवा और वृद्धत्व आदि अवस्थाओ से वे रहित है, क्योकि ये अवस्थायें पोद्गलिक धर्म वाली है, जव कि मोक्ष मे पौद्गलित्व ही नहीं है, तो फिर उनका गुण-धर्म वहाँ कैसे हो सकता है ?
सिद्ध आत्माऐ अमर है, नित्य है; सदा एक अवस्था रूप है, कर्म रहित है। जन्म-मरण तो कर्म-जनित है । जहाँ कारण नहीं है, वहाँ कार्य भी कैसे हो सकता है ? कर्म-कारण के अभाव में जन्ममरण कार्यो की सम्भावना नही रहती है।
सिद्ध आत्माऐ असग है, निरजन, निराकार है, मोह रहित है, अतएव उनमें छोटा-बडा, ऊँच-नीच, स्वामी-सेवक, पिता-पुत्र, मातापुत्री, पति-पत्नी, राजा-प्रजा, धनी-गरीव आदि सम्वन्ध और संयोगवियोग गुण-धर्म भी वहाँ सर्वथा नही है । अतएव शास्त्रकारो ने उनके लिये “असग" विशेषण जोड़ा है, जो कि उपरोक्त स्थिति को बतलाता है।
(१०) अलोगे पडिहया सिद्धा, लोयम्गे य पडिट्ठिया।
उव, सिद्ध, २ टीका-सिद्ध भगवान अलोक के नीचे है, अलोक और लोक के सधि भाग पर स्थित है । अलोक से नीचे और लोक-भाग के सर्वो'परि स्थित है । मुक्त आत्मा की उर्ध्वगति होना स्वाभाविक वस्तु है । तदनुसार आठो कर्मों के क्षय होते ही मुक्त आत्मा ऊपर की ओर गति करने लग जाती है। जहाँ तक धर्मास्तिकाय द्रव्य है, वहाँ तक वरावर ऊँचा गमन करती रहती है, धर्मास्तिकाय के समाप्त होते ही मुक्त आत्मा भी वही स्थित हो जाती है । अतएव मुक्त
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सूक्ति-सुधा]
[४५ आत्मा अलोक मे क्यो नही जाती है और लोक के अंतिम अग्र भाग पर ही क्यों ठहर जाती है ? इसका उपरोक्त उत्तर है।
(११) अतुल सुह सागर गया, अव्वाषाहं प्रणोवर्म पत्ता।
उव०, सिद्ध, २२ टीका-मुक्त जीवों के सुख की उपमा किसी से भी नहीं दी जा सकती है, क्योकि उपमाएँ तो मात्र पौद्गलिक वस्तु सवन्धी और मानवीय कल्पनात्मक एव अनुमानात्मक होती है, जबकि मोक्ष-सुख अपौद्गलिक, शब्दातीत, अनुमानातीत और अननु-मेय होता है । अतएव मुक्त आत्माएँ अतुल सुख-सागर मे निमग्न रहती है । मोक्ष-सुख अवर्णनीय और अनिर्वचनीय होता है । मनुष्य-बुद्धि उसका वर्णन नही कर सकती है।
(१२) सिद्धाण सोक्खं अन्यायाहं ।
उवः, सिद्ध, १३ टीका-मुक्त आत्माएँ शरीर-रहित है, कर्म-रहित है, अतएव मोक्ष में भौतिक सुख नही है, ऐन्द्रिक और मानसिक सुख नही है। पौद्गलिक और नाश हो जाने वाला सुख वहाँ कैसे हो सकता है ? मोक्षमें तो वाधारहित, अनन्त, स्थायी अपरिमेय और अनुपम आत्मिक सुख है।
(१३) सासयामबाबाई चिटुंति,
सुही सुहं पत्ता। - ( उव., सिद्ध, १९
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४६]
.[ मोक्ष-सूत्र
— टीका-मोक्ष प्राप्त करने के बाद मुक्त आत्माओको फिर जन्ममरण नही करना पडता है, क्योकि जन्म-मरण के कारण जो कर्म है, उनका तो आत्यतिक क्षय हो चुका है, अतएव मोक्ष अवस्था शाश्वत है, नित्य है, अक्षय है, अव्यावाध है । मुक्त. जीव सुखी है और अनन्त सुखको अनुभव करते हुए स्थित है । अनन्तकाल तक उनकी एक सी ही स्थिति रहती है।
(१४ ) - जत्थ य एगो सिद्धो, तत्थ अणंता।
उव०, सिद्ध, ९ टीका-सिद्ध आत्माएँ, मुक्त आत्माएँ अरूपी होती है, केवल अनन्त शक्तियो का पुञ्ज और अरूपी सत्ता मात्र अवस्था होती है। जहाँ एक सिद्ध आत्मा है, वहाँ अनन्त सिद्ध आत्माएं भी है । अनतानत सिद्ध आत्माएँ परस्पर में स्वतन्त्र अस्तित्वशील होती हुई भीज्योतिके समान-प्रकाशके समान परस्परमे निराबाध रूप से मिली हुई होकर सिद्ध स्थानमें स्थित है । जहाँ एक सिद्ध है, वहाँ अनेक सिद्ध है, और जहाँ अनेक सिद्ध है, वहाँ एक सिद्ध है, किन्तु प्रत्येक का स्वतत्र अस्तित्व है।
(१५) अन्नाण मोहस्स विवज्जणाए, एगन्त सोक्खं समुवेइ मोक्खं ।
उ०, ३२, २ टीका अज्ञान और मोहको छोड़नेसे, सम्यक् ज्ञान और वीतरागता प्रकट करने से एकान्त सुख रूप मोक्षकी प्राप्ति होती है। शाश्वत्, अक्षय, नित्य, निरावाध और अनन्त सुखकी प्राप्ति होती है।
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'सूक्ति-सुधा ]
(१६) मोक्ख सम्भूय साहणा, नाणं च दंसणं चेव, चरित चेव ।
उ०, २३, ३३
टीका -- मोक्ष प्राप्तिके सद्भूत साधन - वास्तविक कारण सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन और सम्यक् चारित्र ' है । तीनो की सम्मिलित प्राप्ति से ही मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है ।
1
( १७ ) अगुणिस्स नत्यि मोक्खो ।
उ०, २८, ३०
टीका——जिस आत्मामें सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र नही है, जिस आत्माका दृष्टिकोण ससार सुखको ही प्रधान मानकर अपने विश्वास, ज्ञान और आचरण की प्रवृत्ति करना मात्र है, और जिसकी मोक्ष सुख के प्रति उपेक्षा है, उस आत्माको मोश्च की प्राप्ति नही हो सकती है । कर्मों से उसको छुटकारा नही मिल सकता है ।
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[ ४७
( १८ ) नत्थि श्रमोक्खस्स निव्वाणं ।
उ०, २८, ३०
टीका - जिस आत्मा के कर्मो के वन्धन नही कटे है, उस आत्मा को निर्वाण की, अनन्त ईश्वरत्व की प्राप्ति नही हो सकती है ।
( १९ )
तं ठाणं सासयं वासं, जं संपत्ता न सोयन्ति ।
उ०, २३, ८४
टीका -- वह स्थान यानी मोक्ष शाश्वत् है, नित्य है, अक्षय है, अप्रतिपाती है, और निराबाध सुख वाला है, इसको प्राप्त करके भव्य आत्माऐं शोक रहित हो जाती है । जन्म-मरण की व्याधियों से मुक्त हो जाती है ।
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धर्म-सूत्र
(१) धम्मो मंगल मुक्किट्ठ।
द०, १,१ टीका-धर्म सवसे उत्कृष्ट मगल है। वह शारीरिक, मानसिक और आत्मिक शाति का देने वाला है। ससार-सुख और मोक्ष सुख का दाता है।
धम्मो दीवो।
उ०, २३, ६८ • टीका-संसार रूप समुद्र मे ड्वते हुए भव्य जीवो के लिये धर्म ___ ही एक मात्र द्वीप समान है। धर्म ही आधार-भूत है।
दीवे. ध धम्म ।
टीका-जैसे दीपक अधकार को नष्ट करता है, वैसे ही धर्म - भी यानी मनुष्यका पुनीत चारित्र और निर्दोप आचरण भी ससार रूपी अंधकार का नाश करने वाला है। .
धम्मे हरए बम्भे सन्ति तित्थे।
. उ०, १२,४६ . ' टीका-धर्म रूपी निर्मल तालाव है और उसमें ब्रह्मचर्य रूपीशान्तिमय सुन्दर घाट है। ऐसे घाट द्वारा ऐसे तालाब में स्नान करने,
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[४९
सूक्ति सुवा] से ही कर्म रूपी मल दूर हो सकता है । बाह्य शुद्धि व्यावहारिक है, वास्तविक नही है।
धम्मस्स विणो मूल
द, ९, २, द्वि, उ, टीका-विनय ही धर्म का मूल है। विनय के अभाव में ज्ञान को, दर्शन को और चारित्र की कीमत बहुत थोडी रह जाती है ।
इह माणुस्सए ठाणे, - धम्म माराहिउं णरा।
सू०, १५, १५, - टीका-इस मनुष्य-लोक मे धर्मका आराधन करके बनेक आत्माएँ ससार-सागर से पार हो जाती है । ससार-समुद्र में धर्म ही एक उज्ज्व ल जहाज है।
घणण किं धम्म धुराहि गारे।
उ०, १४, १७ ।। टीका--धर्मरूपी धुरा के उठा लेने पर यानी धर्मको अंगीकार कर लेने पर-सेवा, ब्रह्मचर्य, दान आदि को स्वीकार कर लेने पर घर का मूल्य ही क्या रह जाता है ? धन तो धर्म के आगे धूल के समान है।
(८) धम्मं च कुणमाणस्स, सफला जन्ति राइओ।
उ०, १४, २५
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[धर्म-सूत्र
टीका-~~धर्म करने वाले के लिए, स्व और पर का कल्याण करने वाले के लिए सभी रात्रिया-रात और दिन सफल ही जा रहे है।
(९) धम्मं पि काऊणं जो गच्छई, परं भवं, सो सुही होई।
उ०, १९, २२ टीका-जो आत्मा धर्म करके-नैतिक और आध्यात्मिक नियमों का आचरण करके परलोकमे जाता है, वह सुखी होता है उसको सभी अनुकूल पदार्थो का सयोग प्राप्त होता है । प्रति कल पदार्थो से वह सदैव दूर रहता है।
(१०) धम्मं चर सुदुच्चर।
उ०, १८, ३३ टीका-आचरण करने के समय तो कठिन दिखाई देने वाले और फल के समय सुन्दर दिखाई देने वाले धर्म का, जो कि अहिंसा, सत्य, ब्रह्मचर्य, शुद्ध भावना आदि आध्यात्मिक और नैतिक क्रियाओं का स्प है, पालन करो-आचरण करो।
(११) - एस धम्मे धुवे निच्चे, सासए जिण देसिए।
उ०, १६, १७ टीका-~~यह ब्रह्मचर्य-धर्म ध्रुव है, नित्य है, शाश्वत् हे और वीतराग जिन देव द्वारा तथा अरिहतो द्वारा प्ररूपित है। त्रिकाल सत्य है । सपूण ज्ञान का सार रूप है और सभी धर्मों का मक्खन रूप अग है । यह सर्वोपरि और सर्वोत्तम धर्म ह ।
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अटीका-संसार-समुद्र से रक्षा करने वाला केवल एक धर्म ही
सूक्ति-सुधा]
[५१ (१२), एक्को हु धम्मो ताणं, न विज्जई अन्न मिहेह किंचि।
उ०, १४, ४० टीका-संसार-समुद्र से रक्षा करने वाला केवल एक धर्म ही है जो कि सयम और पर सेवा रूप है। दूसरा और कोई पदार्थ आत्मा की संसार के दुखों से रक्षा नही कर सकता है।
(१३) धम्मविऊ उज्जू । .
( आ०, ३, १०८, उ, १ टीका-जो आत्मा चेतन और अचेतन द्रव्यो के स्वभावको तथा श्रुत-चारित्र रूप धर्म को जानता है, वही “धर्म विद् है । वह सरल भावना वाला है और उसमें ज्ञान, दर्शन, चारित्र का अस्तित्व है।
(१४) . आयरिय विदित्ताणं, सव्व दुक्खा विमुच्चई।
' उ०, ६, ९ टीका--आर्य धर्म-दया, दान और दमन रूप धर्म को जानकर उसके अनुसार आचरण करने से सभी दुःखो का नाश हो जाता है।
(१५) . धम्म सद्धाए णं साया सोक्खसु, रज्जमाणे विरज्जा।
उ०, २९, तृ० ग० - टीका--धर्म पर श्रद्धा करने से साता वेदनीय कर्म के उदय से प्राप्त होने वाले सुखो पर तथा पौद्गलिक आनद पर अरुचि पैदा होती है, विरक्ति पैदा होती है।
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[धर्म-सूत्र
(१६) हाई भोयण विरो, जीवो भवइ अणासवो।
__3०, ३०,२ टीका--रात्रि में भोजन करने का परित्याग करने से, जल आदि पेय पदार्थ का परित्याग करने से, आत्मा नये पाप कर्मों के बधन से मुक्त हो जाता है । इससे आश्रव भाव का निरोध होता है।
(१७) दिवं च गई गच्छन्ति,
चरित्ता धम्म मारियं ।
__ . उ०, १८, २५ । टीका--जो आर्य धर्म का-अहिंसा, सत्य, अनासक्ति और ब्रह्म चर्य आदिका आचरण करते है, वे दिव्य गति--देव गति और मनुष्य गति को प्राप्त होते है।
. (१८) धम्म अकाऊणं जो गच्छा परं भवं, सो दुही होइ ।
उ०, १९, २० · टीका-जो आत्मा बिना धर्म किये ही-दान, शील, तप और भावना का आराधना किये बिना ही परलोक मे जाता है, वह महान दुःखी होता है। उसे नाना विधि अप्रिय सयोगो का और प्रिय वस्तुओ के वियोगो का सामना करना पडता है।
से सोयई मच्चु मुहोवणीए, ' धम्म अकाऊण परमि लाए ।
उ०, १३, २१
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1
[ ५३
सूक्ति-सुधा ]
टीका - जो मनुष्य धर्म की दान, शील, तप और भावना की आराधना किये बिना ही मृत्यु के मुख मे चला जाता है, वह परलोक में चिन्ता करता है, दुखी होता है ।
( २० )
जहा से दीवे असंहीणे एवं से धम्मे आरियपदे खिए ।
आ०, ६, १८४, उ, ३
-
टीका——जैसे समुद्र के अन्दर मनुष्यो के लिए आधारभूत केवल दीप ही होता है, अथवा जैसे घोर अन्धकार में केवल दीपक ही प्रकाश देने वाला और मार्ग प्रदर्शक होता है, वैसे ही अगाध और अपरिमेय संसार-समुद्र में भी भव्य जीवों के लिये-आत्म-कल्याण के इच्छुक जीवो के लिये केवल वीतरागी महापुरुषो द्वारा उपदिष्ट धर्म ही आधार भूत है । इस वीतराग धर्म का आसरा लेकर ही भव्य जीव संसार-समुद्र से पार हो सकते है और अनत सुखमय, निराबाध शातिमय मोक्ष की प्राप्ति कर सकते है ।
( २१ )
आणाए मामगं धर्म |
आ०, ६, १८१, उ, २
टीका - आत्मार्थी यही समझे कि "भगवान की आज्ञा के अनूसार चलना ही मेरा धर्में है" । तदनुसार चारित्र धर्म में दृढ़ रहे और ज्ञान एव दर्शन का विकास करता रहे ।
( २२ )
श्रयरियं उसपज्जे । सू०, ८, १३
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५४ ]
[ धर्म-सूत्र
टीका-आयं धर्म को अहिंसा प्रधान आचार धर्म को एवं स्याद्वाद प्रवान सिद्धान्तो को ( समभाव पूर्वक तुलनात्मक विचारों को ) ग्रहण करो, इन पर श्रद्धा करो, इनको अमल में लाओ ।
( २३ )
धारिये मरगं परम च समाहिए ।
नू० ३, ६, उ, ४
टीका - आर्य-मार्ग यानी दया, दान, दमन, सत्य और शील रूप यह मार्ग श्रेष्ठ समावि वाला है। तीर्थंकर द्वारा प्रतिपादित मार्ग पर चलने से परम-समाधि रूप कल्याण की प्राप्ति होती है ।
( २४ ) जीवियं नावकखिज्जा, सोच्चा धम्म मरणुत्तरं । मू०, ३,१३, उ, २
टीका - अहिंसा प्रधान श्रेष्ठ धर्म को सुनकर एवं उस पर विश्वास कर कर्त्तव्य मार्ग पर चलने वाले पुरुष को चाहिये कि कर्त्तव्य मार्ग पर चलते हुए प्रतिकूल उपसर्ग आदि कठिनाइयां आवें तो • भी सासारिक जीवन की ओर इन्द्रिय सुखके जीवन की आकाक्षा नही करे, कर्त्तव्य मार्ग से पतित न हो ।
( २५ )
णच्चा धम्मं अणुत्तरं, कय किरिए व यावि मामए ।
मृ०, २, २८, उ, २
टीका— श्रेष्ठ धर्म को सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन और सम्यक् चारित्र को जानकर सयम रूप क्रियाका अनुष्ठान करें । तप, त्याग, सेवा और समता की आराधना करे । एवं किसी भी वस्तु पर ममताभाव और परिग्रह भाव नहीं रखे ।
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सूक्ति-सुधा]
जे धम्मे अणुत्तरे, तं गिराह हियति उत्तम।
सू०, २, २४ उ, २ टीका-जो धर्म श्रेष्ठ है, जो एकान्त रूप से आत्मा का कल्याण करने वाला है, जो हितकारी है, जो कषाय से मुक्ति दिलाने वाला है, जो उत्तम है, हित-अहित का भान कराने वाला है, ऐसे धर्म को और अहिंसा व्रत को ग्रहण करो-इसे जोवनमे स्थान दो।
(२७) सुहावह धम्म धुरं अणुत्तर, धारेह निव्वाण गुणावह मह ।
उ., १९, ९९ - टीका-सुखो को लाने वाली और सुखोको वढानेवाली, मोक्षगुणो को देनेवाली, ऐसी सर्वश्रेष्ठ, धर्म रूप धुराको धारण करना चाहिए । धर्म का आचरण करना चाहिये।
(२८) चरिज धम्मं जिण देसियं पिऊ ।
उ०, २१, १२ टीका--विद्वान पुरुष, पाप-भीरु आत्मार्थी, जिन भगवान, द्वारा उपदिष्ट धर्म का ही आचरण करे। इन्द्रिय दमन करे। पक्षी के समानु अनासक्त और निर्लेप जीवन में ही सार्थकता समझे ।
(२९) . . व्वो खेचनो चेव कालओ, भावमओतहा, जयणा चउन्विहा वुत्ता।
उ०, २४, ६
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[धर्म-सूत्र
विमा..२८, तीर्थकर धर्म पर
टीका-यतना पूर्वक, विवेक पूर्वक कार्य करने की प्रणाली चार 'कार की कही गई है । १ द्रव्य से २ क्षेत्र से ३ काल से और ४ बाम से।
(३०) धम्माणं कासवो मुहं।
उ०, २५, १६ टीका-~-धर्मों का मुख-धर्मो का आदि स्रोत भगवान ऋपभदेव . यानी भरत-क्षेत्र मे धर्म और नीति, विवेक और दर्शन-शास्त्र के मादि प्रणेता तथा सर्व प्रथम धर्म का उपदेश देने वाले भगवान ऋषभदेव स्वामी ही है।
(३१) सद्दहइ जिपमिहियं सो धम्मरुइ ।
उ०.२८, २७ टीका-जिन द्वारा, अरिहत द्वारा, तीर्थंकर द्वारा, अथवा गणघर या स्थविर आचार्य द्वारा प्रणीत और प्ररूपित धर्म पर जो श्रद्धा करता है, इसीका नाम धर्म रुचि है।
(३२) थव थुइ मंगलेणं नाण दसणंचरित्त वोहि लाभ जणयइ ।
__उ०, २९, १४वाँ, ग० टीका-अरिहत, सिद्ध और जिनेन्द्र देवो की स्तवः और स्तुतिx करने से, इनका भगल गान करने से, आत्मा मे ज्ञान, दर्शन, चारित्र और सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है, रत्नत्रयकी वृद्धि होती है, नकी विशुद्धि होती है। * स्तव-इन्द्र, गणघर, पूर्वधर, स्थविर कृत ईश्वर- प्रार्थना ।
स्तुति-प्रत्येक भव्य जीव द्वारा कृत प्रार्थना, स्तवन, भजन आदि हार्दिक पवित्र भावना वाले विचार ।
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सूक्ति-सुधा]
[५७ ( ३३ ) . दोहिं ठाणेहिं आया केवलि पमत्तं घम्म लमज्जा, सवणयाए, खरण चेव, उसमेण चेव ।
ठाणा, २रा, ठा, उ, ४,४ टीका--आत्मा केवली के कहे हुए धर्म को सुनकर दो प्रकार से प्राप्त करता है-१उपशम रूप से और २ क्षय रूप से ।
जिस आत्मा की श्रद्धा कर्मो के नाश नहीं होने पर बल्कि कर्मों के उपशम होने पर उत्पन्न होती है, वह उपशम धर्म है, तथा जिस आत्मा की श्रद्धा कर्मों के क्षय होने पर उत्पन्न होती है, वह क्षय-धर्म कहलाता है।
( ३४ ) दुविहे धम्मे पन्नते. . . सुश्रधम्मे चेव चरित्त धम्मे चेव ।
ठाणा०, २रा ठा०, १ला उ, २५ । ' टीका-धर्म दो प्रकार का कहा गया है । १ श्रुत धर्म और २ चारित्र धर्म । जिन देव, तीर्थकर, गणधर, स्थविर, पूर्वघर आदि द्वारा प्ररूपित ज्ञान साहित्य या आगम साहित्य श्रुत धर्म है, और श्रावक एव साधुओ द्वारा आचरण किया जाने वाला बारह व्रत तथा पाँच महाव्रत रूप धर्म चारित्र धर्म है।
(३५)
तिविहे भगवया धम्मे, सुअहिज्जिए, सुज्झाइए सुतवस्सिए ।
ठाणा०, ३रा, ठा०, उ०, ४, २७ टीका-भगवान ने तीन प्रकारका धर्म फरमाया है, १ गुरु । आदि विद्वान पुरुषो का विनय करके सूत्रो का अध्ययन करना सूत्र
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धर्म-सूत्र
अध्ययन धर्म है, २ शका आदि दोषो से रहित होकर पूर्ण दत्तचित्त हो अध्ययन करना सुध्यान-धर्म है । और ३ किसी भी प्रकार की फल की इच्छा किये विना ही अनासक्त विशुद्ध निर्जरा के भाव से तपस्या करना और सहिष्णुता रखना तप-धर्म है।
चत्तारि धम्म दारा,
खंति, मोती, अज्जवे, महवे ।
ठाणा०, ४था, ठा, उ, ४, ३८ टीका--धर्म के चार द्वार कहे गये है- १ क्षमा, २ विनय, ३ सरलता, और ४ मृदुता ।
( ३७ ) पंच ठाणाई समणाण जाव यमणुन्नायाई भवंति, सच्च, संजमे, तव, चियाए वंभचेर वासे ।
ठाणा०, ठा० ५, उ०, १, ११ टीका-भगवान ने साधुओ के जीवन को विकसित करने के लिए ५ स्थान वतलाए है-१ सत्य, २ सयम, ३ तप, ४ त्याग (अनासक्ति और अमूर्छा) और ५ ब्रह्मचर्य ।
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अहिंसा-सूत्र
- (१) दाणाण सेट्ठ अभयप्पयाण ।
सू०, ६, २३ टीका--सभी प्रकार के दानो मे अभय दान ही सर्वोत्तम दान है। जीवो को जीवन-दान देना, उन्हे भय से मुक्त करना, गरण मे आने पर उनकी रक्षा करना, शरणागत की परिपालना करना यही सर्वोत्तम धर्म है।
(२) एयं तु नाणिनो सारं,
जन्न हिंसइ किंचण।
। सू०, १, १०, उ, ४ - टीका-किसी भी प्राणी की हिंसा नही करना, आघात नही पहुँचाना, कष्ट नही देना, यही ज्ञानी के लिए सार भूत वस्तु है । जीवो को सुख पहुंचाने मे ही ज्ञानी के ज्ञान की सार्थकता रही हुई है।
अहिंसा निउणा दिट्ठा ।
द०, ६, ९ टीका-अहिंसा अनेक प्रकार के सुखो की देने वाली देखी जाती है । अहिंसा से स्व और पर सभी को शाति प्राप्त होती है।
(४) . न हणे णो विधायए।
द०, ६, १०
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६०]
[अहिंसा-सूत्र
____टीका न तो हिंसा खुद करे और न दूसरो से करावे । हिंसा इस लोक मे और पर-लोक में सर्वत्र दुःख देने वाली है।
तसे पाणे न हिसिज्जा ।
द०, ८, १२ टीका-~त्रस-प्राणियो की, निरपराध जीवो की दो इन्द्रिय से लगा कर पच इन्द्रिय तक के जीवो की हिंसा नहीं करना चाहिये । हिसा के बराबर मोटा और कोई पाप नही है। दया से वढकर और कोई धर्म नहीं है । अहिसा, दया, करुणा, अनुकंपा ही सभी धर्मों का सार है, मक्खन है । अहिंसा हमारे जीवन का प्रमुख अग होना चाहिये।
सव्वे पाणा पियाउया।
आ०, २, ८१, उ, ३ टीका-सभी प्राणियो को अपनी आयुष्य प्रिय है। कोई भी प्राणी दुख अथवा मृत्यु नही चाहता है। अतएव दया ही सर्वोत्तम धर्म है। यही सभी धर्मों का निष्कर्ष है।
सम्वेसिं जीवियं पियं
आ०, २, ८१, ३,३ टीका--सभी प्राणी जीवित रहना चाहते है। सभी को अपना जीवन प्यारा है, चाहे वे किसी भी स्थिति में क्यो न हो । अतएव ' पर-पीड़ा पहुंचाने के समान कोई पाप नही है, और पर-सेवा के समान अथवा दूसरे को गाति पहुंचाने के समान कोई पुण्य नही है ।
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सूक्ति-सुधा
[६४
(८) पाणे य नारवाएज्जा, निज्जाइ उग व थलाओ।
- उ०, ८, ९ टीका--जो मुमुक्षु आत्मा, आत्म-कल्याण के ख्याल से प्राणियों का वध नहीं करता है, उसके कर्म इस प्रकार छूटकर बह जाते है, जैसे कि ढालू जमीन से पानी बह जाता है।
न हिंसए किंचण सव्व लोए।
सू०, ५, २४ उ, २ टीका-ज्ञानी पुरुष कही पर भी किसः प्राणी की हिंसा न करे। मन, वचन और काया से हिंसा की प्रवृत्ति नहीं करे। पर-सुख का अपहरण नही करे । आर्थिक शोषण भी हिंसा है, इसे भी ध्यान मे रखना चाहिये।
(१०) नय वित्तासए परं।
उ०, २, २०, - टीका-कभी किसी को भी त्रास नहीं देना चाहिये । परपीडन के बरावर कोई पाप नहीं है । पर-अधिकार का भी कभी अप. हरण नही करना चाहिये ।
(११) . दया धम्मस्स खंतिए विपसीएज्ज मेहावी।
उ०, ५, ३० - टीका--मेधावी यानी ज्ञान-शील पुरुष, विवेकी पुरुष क्षमा को धारण करता हुआ दुःखी जीवो पर दया करे, अनुकपा करे, करुणा...
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६२]
[ अहिंसा-सूत्र
करे । और इस प्रकार अपनी आत्माको सतुष्ट करे, अपनी आत्माको प्रसन्न करे।
(१२) न हणे पाणिणो पाण।
उ०, ६, ७ टीका-किसी भी प्राणी के प्राणो का, इन्द्रिय आदि का नाश नहीं करना चाहिए । क्योकि हिंसा, पर-पीडन, सदैव दु.ख को ही बढाने वाला है।
(१३) विरए पहायो।
आ०, ३, ७, उ, २ टीका-जीव-हिंसा से दूर रहो, पर-पीड़ा के पाप से बचते रहो, यही इस ससार में सबसे बडा पाप है।
नाइ वाइज कंचण।
मा०, २, ८६, उ, ४ टीका-सत्यार्थी कभी भी किसी की हिंसा नही करे,-कभी भी 'किसी को चोट नहीं पहुंचावे । स्व-पर-कल्याण-भावना के साथ जीवन व्यवहार चलावे ।
मुणी । महन्भयं नाइवाइज कंचणं ।
आ०, ६, १७५, उ, १ टीका-हे मुनि | हिंसा का परिणाम महा भयङ्कर होता है, “इसलिये किसी की भी हिंसा मत करो। किसी को भी पीड़ा मत पहुँ
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सूक्ति-सुधा ]
[ ६३
चाओ। सभी प्राणियो को अपनी ही आत्मा के समान समझो । यही भारतीय-दर्शन-शास्त्र के आचार - विभाग का निष्कर्ष है ।
( १६ )
अणुपुव्वं पाणेहिं संजए ।
सू०, २, १३, उ, ३
टीका —— शाति की इच्छा करने वाला मनुष्य क्रमश प्राणी मात्र की रक्षा करे । प्राणी मात्रके हित की कामना करे। किसी के भी सुख का अपहरण नही करे ।
:
( १७ ) सन्वेहिं मूर्हि दयाणु कंपी, खंतिक्ख में संजय बंभयारी ।
उ०, २१, १३
टीका -- प्राणी मात्र पर दया वाले बनो, अनुकंपा वाले बनो । क्षमा-शील, संयमी और ब्रह्मचारी बनो ।
( १८ )
अभय दाया भवाहि ।
उ०, १८, ११
टीका - अभयदान के देने वाले होओ । शरणार्थी की रक्षा करने वाले वनो । भय-ग्रस्त और मृत्यु-ग्रस्त जीवो को बचाओ । न्दया, अनुकम्पा, करुणा, और सहानुभूति इन गुणों को जीवन में स्थान दो ।
( १९ )
धम्मेठियो सव्व पयाणु क्रस्पी । उ, १३, ३२
टीका—धर्म मे, अपनी मर्यादा में, सात्विक प्रवृत्तियों में, रहते हुए सभी प्रजा की या सभी जीवों की अनुकम्पा करने वाले वनों ।
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.
६४
रक्षा करने वाले बनो । शाति देने वाले बनो ।
( २० ) ताइणो परिजवुडे |
[ अहिंसा-सुत्र
- ३, १५,
टीका -- जो सम्पूर्ण विश्व के चराचर प्राणियो की, त्रस - स्थावर जीवो की रक्षा करने वाले है, वे ही वास्तव मे मोक्ष के अधिकारी है । ( २१ ) पाणातिवाता विरते ठिमप्पा
सू०, १०, ६
टीका - विचार शील पुरुष, शुद्धचित्त वाला पुरुष, भाव-समाधि मे और विवेक मे रत होकर ज्ञान में तल्लीन होकर प्राणातिपात से ( जीव हिसा से ) निवृत्त रहे । हिंसा के बरावर पाप नही है और अहिसा के बरावर धर्म नही ।
२२
अणियाण भूते सुपरिव्वज्जा ।
सू०, १०, १
टीका - प्राणियो का आरम्भ नही करता हुआ और किसी भी प्राणी को कष्ट नही पहुँचाता हुआ सज्जन पुरुष अपनी जीवन यात्रा को चलाता रहे । पर सेवा में ही और पर की सहानुभूति में ही आत्म कल्याण समझे ।
२३ तस काय समारंभ, जावजीवाई वज्जए ।'
द०, ६, ४६
टीका — निरपराध जीवो की, त्रस जीवो की मन, वचन, और काया से हिंसा करना और उन्हे कष्ट पहुँचाना, उनपर आघात करना, उनका प्राणान्त करना, इन वातों को जीवन पर्यत के लिए त्याग देना ही मानवता है । यही वास्तविक मनुष्यता है ।
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सत्यादि भाषा-सूत्र ..' (१) . . अप्पणा सच्च मेसेज्जा।
उ०, ६, २ टीका-सदैव आत्म-चिन्तन द्वारा, आत्म-मनन द्वारा, सत्य की ही खोज करता रहे। सन्मार्ग का ही अनुसधान करता रहे । स्व-परकल्याण के मार्ग मे ही रमण करता रहे ।
सच्चमि घिई कुव्वहा ।
आ०, ३, ११३, उ, २ ' टीका-जो सत्य रूप है और जो सत्य की नाना अवस्थाओं में स्थित है, उसीमे वुद्धिमान् पुरुष को अपना चित्त स्थिर करना चाहिए। ऐसे ही कार्यों में धैर्य-शील होना चाहिये। इन्ही में प्रवृत्ति-शील होना चाहिये। :
:-( ३ ) . ..."; पुरिसा ! सच्चमेव सममि जाणाहि । . :
: आ०, ३,,११९, उ, ३. .. टीकाहे पुरुषो | सत्य को ही सर्वोपरि जानो। सत्य का ही सम्यक् रीति से अनुसधान करो । सत्य का ही विचार करो। सत्य का ही आचरण करो । अहिसा भी जीवन मे इससे स्वयमेव उतर आयगी । क्योकि सत्य और अहिंसा एक ही तत्त्व की दो बाजूऐं है।
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[सत्यादि भाषा-सूत्र.
इनका परस्पर मे तादात्म्य सम्बन्ध है, दोनो अभिन्न सम्बन्ध वाली है।
(४) सच्चस्स आणाए से, उट्ठिए मेहावी मारं तरइ ।
आ०, ३, ११९, उ, ३ टीका-जो सत्य की आराधना के लिये निष्कपट भाव से शार होता है, वही तत्वदर्शी है, और ऐसा ज्ञानी महापुरुष ही आम्मु-वासना को खत्म कर सकता है । वही पूर्ण और आदर्श ब्रह्मचारी बन सकता है ।
असावज्ज मियं काले, भासं भासिज्ज पन्न।
उ०, २४, १० । - टीका-बुद्धिमान पुरुष, विवेकी पुरुष, समयानुसार और आवश्यबता अनुसार निर्दोप, प्रिय, हितकारी और परिमित भाषा ही बोले। सम्माषण-प्रणालि पर ही बुद्धिमत्ता का आधार है।
भासियध्वं हियं सच्च।
उ०, १९, २७ टीका-सदैव हितकारी वाणी, प्रिय वाणी और सच्ची वाणी मोरनी चाहिये ! ऐसी वाणी ही स्व. का और पर का कल्याण कर सकती है।
न भासिज्जा भास अहिअगामिणि । ३०, ८,
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सूक्ति-सुधा ]
૬૭
टीका — अहित करने वाली, पर मर्म पर आघात करने वाली, हिंसा तथा द्वेष बढ़ाने वाली भाषा नही बोलनी चाहिये ।
( ८ )
न श्रसन्भमाहु |
उ०, २१, १४
क्लेश सवर्धक, ग्रामीण तुच्छ शब्द
i.
टीका—असभ्य, अप्रिय, नही बोलना चाहिये |
( ९ )
सच्चे तत्थ करेज्जु वक्कमं ।
सू०, २, १४, उ, ३
टीका - सत्य और सत्य से सम्बन्धित सभी कामो मे और क्रियाओं मे सदैव यत्नशील ही रहना चाहिये । सत्य का दृढ़ता पूर्वक आग्रह और अवलवन रखना मनुष्य का कर्त्तव्य है । ( १० )
सच्चेसु वा अणवज्जं वयंति ।
सू०, ६, २३
टीका--सत्यवचनो में भी जो वचन सत्ययुक्त होता हुआ मर्म घाती सत्य न हो, वही वाक्य
निर्दोष हो, अप्रिय सत्य न
सर्वोत्तम सत्य रूप है |
हो,
ܘ
6.
(११) अप्पं भासेज्ज, सुइत्रए । सू०, ८, २५
टीका-सुव्रती, ज्ञानी, अल्प बोले । परिमित बोले । 'आवश्यकतानुसार बोले । सत्य और प्रिय वोले |
( १२ )न लदे पुट्ठो सावज्जै ।
उ०, १, २५
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६८]
[ सत्यादि भाषा-सूत्र
,' : टीका-पूछा हुआ यानी किसी के द्वारा कोई प्रश्न या बात पूछने पर सावद्य न बोले, पापकारी, अनिष्ठकारी, अप्रिय और कटु वाणी नही वोले।
नापुटो चागरे किंचि।
, उ०, १, १४ . ____टीका--विना पूछे विना वोलाये कुछ भी नहीं बोले । यही बुद्धिमानी का सर्व प्रथम लक्षण है। ।
.' (१४) जं छन्नं तं न बत्तव्वं।
सू०, ९, २६ टीकाजिस बात को सब लोग छिपाते हैं, जो अकथनीय हो, अश्लील हो, ग्रामीण हो, असभ्य हो, उसे कदापि नही बोलना चाहिये।
व्यवहार का ध्यान रख कर ही बोलना ठीक है, अव्यवहारिक भाषा निंदनीय है, वह त्याज्य और हानिकारक होती है।
स०.
7
. .: अणचिंतिय वियागरे।
सू०, ९, २५ टीका-सोच विचार कर बोलना चाहिये। विना सोचे विचारे वोलने से स्व की और 'पर की हानि हो सकती है। अविचार पूर्ण भाषा से अनेक प्रकार का नुकसान हो सकता है जबकि विचार पूर्वक वोलने से लाभ ही लाभ है।
(१६) तुम तुमं ति अमणुन्नं, सव्वसो तं ण वत्तए।
सू०, ९,२७
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सूक्ति-सुधा
.
___टीका-"तूं, तू" ऐसे तुच्छ और अनादर वाचक शब्द भी नहीं बोलना चाहिये । इसी प्रकार अप्रिय या अशोभनीय शब्दोंका उच्चारण भी नहीं करे। बोली मे गम्भीरता, उच्चती, सार्थकता एवं सम्मान सूचकता होनी चाहिये।
(१७) वाया दुरुत्ताणि दुरुद्धराणि वेराणु बंधीणि महन्भयारण। .
द०, ९, ७, तृ, उ, टीका-विना सोचे विचारे कहे हुए दुष्ट और अनिष्ट वचन बड़ी कठिनता से हृदय से भूले जाते है । वे वैर-भाव को बढ़ाने वाले होते हैं और महाभय पैदा करने वाले होते है ।
(१८) - अविअत्तं चेव नो वए ।
__ द०, ७,४३ टीका-जिन वचनो से वैर-विरोध बढता हो, जो अप्रिय हो, ऐसे वचन कदापि नही वोलना चाहिये । क्योकि ये अवक्तव्य होते हुए स्व-पर हानिकारक होते है ।
- (१९) भूओ व घाइणि भासं, नेवं भासिज पन्नवं।
द०, ७, २९ टीका-बुद्धिमान् पुरुष प्राणियो के मर्म पर चोट करने वाली या मृत्यु पैदा करने वाली वाणी कदापि नही बोले । वाणी में विवेक और सयम की नितान्त आवश्यकती है।
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___७०]
[ सत्यादि भाषा-सूत्र .: (२०). . . . सचा वि सा न वत्तव्वा, -जओ पावस्ल आगमो।
द०, ७, ११ । . . . . . . .: टीका-सत्य होती हुई भी उस वात को नहीं कहना चाहिये, जिससे कि पाप की, पतन की और हानि की सम्भावना हो, जिससे अन्य को आघात पहुचने की सम्भावना हो। ऐसी वाणी-शब्द रूप से सत्य मालूम पड़ती हुई भी झूठ का ही अङ्ग है।
जमट्ठ तु न जाणिजा,
एव मेति नो वए।
, द०, ७, ८ , . टीका-जिस बात को अच्छी तरह से नही जानते है, उसके सम्बन्ध में "यह ऐसा ही है" इस प्रकार निश्चय-पूर्वक नही बोलना चाहिये । क्योकि यह झूठ है । यह असत्य भाषण है। इससे हानि होने की सम्भावना हो सकती है। .
( २२ ) मुसं परिहरे भिक्खू । ...
उ०, १, २४ टीका--साधु या आत्मार्थी झूठ को छोड़ दे। झूठ प्रतिष्ठा का और विश्वास का नाश करने वाला है। .
(२३) सया सच्चेण संम्पन्ने.
मिति भूएहिं कप्पए। __ . सू., १५, ३, टीका-सदैव सत्य को ही जीवन का आराध्य बना कर जीव
.
.
8., १५, ३,
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सूक्ति-सुधा] मात्र के साथ मैत्री भावना रखनी चाहिये, जीव-मात्र' के साथ दया का व्यवहार रखना चाहिये। . . . .
(२४)
सादियं ण मुसं वूया, एस धम्म वुसीमओ।
' सू०, ८, १९ । टीका-माया करके झूठ नहीं बोले । जितेन्द्रिय महापुरुष कह यही धर्म है । भगवान का यही फरमान है । माया के साथ बोला जाने वाला झूठ शल्य है, जो कि सम्यक्त्व को और सचाई के मार्ग को नष्ट करता है, मिथ्यात्व को पैदा करता है और अनन्त संसार को बढ़ाता है।
। । " ( २५ ) .
मात्तिट्ठाणं विवजेजा। . . सू०, ९, २५ '' टीका-कपट भरी भाषा का परित्याग कर देना चाहिये, क्योंकिकपट भरी भापा माया-मृषावाद ही है, जो कि सम्यक्त्व का नामकरने वाली है।
(२६) णेव वंफेज मम्मयं।
. सू०, ९, २५ .. . ... . - टीका-मर्म-घाती वचन हिंसाजनक होता है। यह महान् कष्टजनक होता है । वह सत्य होता हुआ भी झूठ ही है। अतएव मर्मघाती वाक्य अथवा वचन नही बोलना चाहिये।
( २७ )..
भासमाणो न भासेज्जा। . . . सू०, ९, २५
- - :
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[ सत्यादि भाषा-सूत्र
. टीका-जो परमार्थी पुरुष यत्ता पूर्वक-विवेक पूर्वक और बुद्धिगानी-पूर्वक बोलता है, वह बोलता हआ भी मौन-गण से युक्त हैगौनी ही है। और मौनी जितना ही पुण्य उपार्जन करता है।
- (. २८ ) - मुसावार्य च धज्जिज्जा, अदिनादाणं च वोसिरे ।
- सू० ३, १९, उ, ४ टीका-झूठ का परित्याग कर दो और चोरी-से सदैव दूर रहो क्योकि ये पाप इस लोक और परलोक मे सर्वत्र दुख के देने वाले है, प्रतिष्ठा और विश्वास का नाश करने वाले है।
(२९) मोसस्स पच्छा य पुरत्थओ य, पयोग काले य दुही दुरन्ते ।
उ०, ३२, ३१ टीका-झूठ बोलने के पहले, झूठ बोलने के पीछे और झूठ दोलने के समय में तीनो काल मे झूठा आदमी दुखी होता है और उसका दुःख वहुत ही कठिनाई से छूटता है।
(३०) मायामुसं वड्ढ लोभ दोसा।
उ०, ३०, ३० टीका-माया-मृषावाद, यानी कपट पूर्वक झूठ लोभ के दोषों को बढाता है, तृष्णा को प्रज्वलित करता है ।
(३१) मुसा भासा निरत्थिया।
उ०, १८, २६ टीका-मिथ्या भाषा, अप्रिय भापा, तुच्छ शब्दीवाली भाषा, मर्मभेदी थापा निरर्थक होती है, वह क्लेश-वर्द्धक होती है । वह पापमय होती है।
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सूक्ति-सुधा ] . .
[७३
(३२.) पियं करे पियं वाई से सिक्खं लधु मरिहई ।
उ०, ११, १४ टीका-जो प्रिय करने वाला है, गुरु के मनोनुकूल सेवा और कार्य करने वाला है, प्रिय तथा सत्य बोलने वाला है, वही सम्यक् ज्ञान को प्राप्त करने के लिये योग्यता रखने वाला है। ज्ञान के पहले ये गुण आवश्यक है । अनुकूल गुण रूपी भूमि मे ही ज्ञान रूप बीज का वृक्ष रूप विकास हो सकता है।
सावजं न लवे मुणी। . . . .द., ७, ४. टीका-इन्द्रियो और मन पर संयम तथा विवेक रखने वाला मुनि झूठ नही बोले, क्योकि झठ से अविश्वास और पतन की तरफ जीवन बढता है।
अपुच्छिो न भासिज्जा।
द०, ८, ४७ टीका-विना पूछे और विना बुलाये, कभी नही बोले । बिना बुलाया बोलने पर मूर्खता ही मालूम होती है-इससे अपमान ही होता है।
। ( ३५ )
पिट्टि मंसं न खाईज्जा।
द०, ८, ४७ -: टीका-कभी किसी की निंदा नही करनी चाहिये। निंदक धिक्कारा जाता है। वह अविश्वास का पात्र वनता है । इस लोक और परलोक में दुखी होता है।
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[ सत्यादि भाषा-सूत्री
(१३६), माया मोसं'विवज्जए। .
। द०, ८, ४७ । टिका--कपट पूर्वक झूठ बोलना भयकर पाप माना गया है । कपट-पूर्वक-झूठ आत्मा के गुणो का नाश करने वाला होता है। , . . . . ( ३७ ) . . .
ओए तहीयं फरुसं वियाणे ।
सू०, १४, २१ . टीका--जो वचन सत्य होते हुए भी दूसरे के चित्तको दुःखी करने वाले है, तो बुद्धिमान का कर्तव्य है कि वह ऐसे वचन नही वोले । अप्रिय और कठोर वचनो का त्याग ही हितावह है ।
( ३८ ) . . . . . प्राणाइ सुद्धं वयणं भिउंजे।
सू०, १४, २४ टिका-जैसी भगवान ने आज्ञा दी है, उसीके अनुसार शुद्ध भापा का उच्चारण करना चाहिये । - भाषा में ग्रामीणता, अश्लीलता, तुच्छता, तिरस्कार वृत्ति आदि दुर्गुण नही होने चाहिये।
(३९) णातिवेलं वदेज्जा।
सू०, १४, २५ - • टीका--मर्यादा का उल्लंघन करके अत्यधिक नही बोलना चाहिये । भापा परिमित, सार्थक और शिष्ट--पुरुष के अनुरूप होनी चाहिये।
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सूक्ति-सुधा ]
( ४० ) सं न वूया मुणि अत्तगामी 1
सू०, १०, २२
2
टीका वीतराग देव के मार्ग पर चलने की इच्छा रखने वाला मुनि - कल्याण का अभिलाषी साघु कभी भी झूठ नही वोले । झूठ के साथ आत्म-विकास का होना आकाश-कुसुम के समान सर्वथा असंभव वस्तु है।
( ४१ ) जं वदित्ता अणुतप्पती ।
सू०, ९, २६
टीका - जिस भाषा को बोल कर अथवा जिन शब्दो को बोल कर पश्चाताप करना पडे, खेद उठाना पड़, ऐसे शब्द और ऐसी भाषा कदापि नही बोलनी चाहिये । -
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अविचार -पूर्वक वोलने वाला मूर्ख कहा जाता है, और वह . पाप का एवं अनादर का भागी बनता है |
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.( ४२ )
श्रविस्सा तो श्रभू श्राणं, तम्हा मोसं विवज्जए ।
} 7 7
द०, ६, १३
टीका- झूठ से कोई भी विश्वास नही करता है, इसलिये - सदैव झूठ से दूर ही रहना चाहिये ।
1
- ( ४३ )
हिंसगं न मुसं चूआ । -दे०, ६, १२
टीका - हिंसा पैदा करने वाला और स्व-पर को कष्ट देने वाला झूठ नही वोले । झठ आत्मा के पतन का मूल कारण है 1.
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७६
[ सत्यादि भाषा-मूत्र (१४४ ). तिरं च दुटुं परिवज्जए सया, सयाण मज्झे लहह पसंसणं ।
- द०, ७, ५५ . टीका-वचन शुद्धि और वचन महत्ता को जानने वाला हमेशा - के लिये दुप्ट-वाणी को-हलकी, तुच्छ, घातक, मर्म-भेदक और अपमानजनक वाणी को त्याग देता है। इससे वह सज्जनो के बीच में प्रगसा एव यग. कीति को प्राप्त करता है । वह दोनो लोक मे सुखी होता है। पुण्य का उपार्जन करता है , इसलिये सदैव संयम-मय, विवेक युक्त भाषा बोलनी चाहिये।
(४५) जहा रिह मभिगिज्झ, बालविज्ज लविज्ज वा।
द०, ७, २० __ टीका-किसी से भी वातचित करते समय यथा-योग्य-शब्दो से, जैसा चाहिये उसी रीति से व्यवहार करना चाहिये। शब्दो में हलकापन, तुच्छता, घातकता, मर्म-भेदकता, अथवा अपमानजनकत्व नही होना चाहिये। क्योकि यह हीन लक्षण है। हीन-लक्षण अकुलीनता का द्योतक है । वह नीचता का सूचक है। .
(४६) चत्तारि भाराओ भासित्तए, जायणी, पुच्छणी, अणुन्नवणी, पुट्ठस्स वागरणी।
ठाणा, ४, था, ठा, उ, १, ४ । टीका-चार प्रकार की भाषा कही गई है :-१ याचनिका २ पृच्छनिका ३.अवग्राहिका और ४ पृष्ट व्याकरणिका ।
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सूक्ति-सुधा ]
( ४७ )
सत्तविहे वण विकप्पे, श्रालावे, श्रालावे, उल्लावे, श्रणुल्लावे, संलावे, पलावे, विपलावे ।
ठाणा०, ७ वा ठा, ७८
1
{ ७७
---
टीका- - सात प्रकार का वचन विकल्प कहा गया है थोड़ा वोलना आलाप है ।
( १ )
(२) कुत्सित बोलना अनालाप है ।
(३) मर्यादा उल्लघन करके बोलना उल्लाप है । (४) मर्यादा रहित खराब पोलना अनुल्लाप है । (५) परस्पर बोलना सलाप है । (६) निरर्थक बोलना प्रलाप है । (७) विरुद्ध बोलना विप्रलाप है ।.
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शील-ब्रह्मचय-सूत्र
- (१) तवेसु वा उत्तम धभचेरं,
मू०, ६, २३ टीका-तप तो नाना प्रकार के है। परन्तु सभी तपो मे ब्रह्मचर्य ही सर्वोत्तम तप है । ब्रह्मचर्य की महान् महिमा है । मन वचन और काया से-विशुद्ध ब्रह्मचर्य पालने से मुक्ति के द्वार सहज मे ही खुल जाते है। .
(२) इथिओ जे ण सेवंति, प्राइमोक्खा हु ते जणा।
सू०, १५, ९ टीका-जो स्त्री-सेवन नही करते है, स्त्री के साथ किसी भी प्रकार का संवध नही रखते हैं, वे पुरुष सवसे प्रथम मोक्ष-गामी होते है । वे शीघ्र ही मुक्त हो जाते है। ब्रह्मचर्य की महिमा अपूर्व है; •असाधारण है।
देव दाणब गन्धव्वा वम्भयारिं नमसंति ।
उ०,१६, १६ टीका-ब्रह्मचर्य की महिमा महान् है। वास्तविक ब्रह्मचारी 'ग्रिलोकपूज्य होता है, त्रिलोक रत्न होता है। देव, दानव, गन्धर्व सभी, क्या नरेन्द्र और क्या देवेन्द्र प्रत्येक प्राणी ब्रह्मचारी को नमस्कार करते है।
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-
सूक्ति-सुधा]
७९ . : " . (४). ..... . न त सुहं काम- गुणेसु राय, . जंभिक्खुणं सील गुणे रयाणं। ..
उ०, १३, १७ टीका-शील गुण मे अनुरक्त आत्मार्थी मुनियों को जो उच्च आनन्द, जो आत्म शांति प्राप्त होती है; वैसी सुख-शांति, वैसा आत्म-आनंद, काम भोगों में फंसे हुए मनुष्य को कदापि प्राप्त नही हो सकता है ।
(५)
जे विन्नवणा हिजोसिया, संतिन्नेहि सम वियाहिया।
सू०२, २, उ, ३ टीका-जो पुरुष स्त्रियोंसे सेवित नहीं है; यानी मन, वचन और काया से ब्रह्मचारी है; वे वास्तव मे मुक्त पुरुषों के समान ही है । अचल ब्रह्मचर्य अवस्था मुक्ति अवस्था ही है।
सुबमचेरै वसेजा। .
.
. .
टीका-ब्रह्मचर्य का भली भांति फालन करो । एक ब्रह्मचर्य के परिपालन से ही सभी दोष और पाप इस प्रकार नष्ट हो जाते है। जैसे कि सूर्य के प्रकाश से संपूर्ण विश्व मे व्याप्त अंधकार नष्ट हो जाता है।
- (७) । . उग्ग. महव्वयं- बंभ,
धारेयव्यं सुदुक्करं । । . . उ०, १९, २२ ।
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८०
[शील-ब्रह्मचर्य-सूत्र
टीका-उग्र-महान्कठिन-सुदुष्कर-आचरण मे महान् कष्ट साध्य परन्तु परिणाम मे अत्यत सुन्दर फल वाला, ऐसा महाव्रत, __ तप श्रेष्ठ, तप-शिरोमणि, ब्रह्मचर्य व्रत धारण करना चाहिए।
. (८) कुसील वड्ढणं ठाणं । ' दूरओ परिवज्जए ।
ज०, ६, ५९. . टीका-जिस स्थान पर रहने से विषय, विकार, वढते हो; ऐसे स्थान को और ऐसी सगति को सदैव दूर ही रखना चाहिए। दूर से ही छोड देना चाहिए।
(९) न चरेज्ज वेस? : .. .''- .
द०, ५, ९, उप्र,
...
:
टीका-ब्रह्मचारी वेश्याओ अथवा दुराचारिणी स्त्रियो के निवास-स्थानो के आस-पास न तो घूमे और न जावे ।
(१०) । - अरए पयासु। . . . . . .,
आ०, ३, ११५, उ, २ . टीका---प्रजाओ से-यानी स्त्रियों से तत्त्वदर्शी पुरुपों को सदैव दूर ही रहना चाहिये । क्यो कि स्त्री-भोग किंपाक फल के समान वाह्य रूप से सुन्दर, मधुर, आकर्पक और सरस प्रतीत होते हुए भी अन्तमें परिणाम मे घोर विप के समान है। शरीर में नाना व्याधियाँ पैदा करने वाले है। आत्म बल और चारित्र वल घटाने वाले है । एवं अनन्त जन्म मरण पैदा करने वाले है।
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1
सूक्ति-सुधा |
अवि वास संयं नारी बम्भयारी विवज्जए ।
( ११ )
टीका--स्त्रिी-सगति इतनी बुरी है कि वृद्धा और कुरूपा एवं
अंतएव सौ वर्ष
अपाग स्त्री से भी ब्रह्मचर्य की हानि हो सकती है। जितनी आयु वाली स्त्री से भी ब्रह्मचारी दूर ही रहें । ( १२ ) थी कहं तु विवज्जए । उ०, १६, २
,,
"J
३०, ८, ५६,
टीका —— स्त्री - कथा,, स्त्री के अगोंपाग की चर्चा, स्त्री के शृगार की वार्ता आदि स्त्री-जीवन वर्णन की वांते 'ब्रह्मचारी छोड़ दे ब्रह्मचर्य के लिये घातक और वर्ज़नीय वाते वह्मचारी न तो कहे और न सुन तयो न उनका चिन्तवन करे ।
' ( १३ )
णो निग्गंथ इत्थीणं पुत्र रथं, पुन्वकीलिये अणुसरेज्ज ॥
{ ८६
"
उ०, १६, ग,),छट्ट्टा
टीका - जो निर्ग्रन्थ है, जो ब्रह्मचारी है, जो जीवन - मुक्ति को कामना वाला है, उसको स्त्रियो के साथ पूर्व काल मे भोगे हुए काम-भोगो को, और क्रीडाओ को याद नहीं करना चाहिये ।
f
( १४ ),
11
- मिस्स भावं पयहे पयासु ।
६,
''
सू०, १०, १५
टीका -- सपूर्ण शातिमय जीवन का इच्छुक पुरुष, स्त्रियो के साथ मेल-मिलाप रखना सुया, त्याग दे । क्योकि स्त्री - ससर्ग और पूर्व शाति दोनो पुरस्पर विरोधी बाते है ।
દ
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________________
८२
( १५ ) विसएस मणुन्नेसु पेमं नाभिं निवेसए ।
द०, ८, ५९
टीका - इन्द्रियों के विपयो की ओर अथवा भोगोपभोग पदार्थों की ओर एव विषय-वासना के पोषण की ओर मनको नही जाने देना चाहिये । विकारो की ओर मानसिक आकर्षण भी नही होने देना । चाहिये । आसक्ति या अनुराग-भाव को मनोज्ञ - विषयो मे पैदा नही हाने देना चाहिये |
( १६ )
नारीसु नोवगिज्झज्जा, धम्मं च पेललं गच्चा ।
उ०, ८, १९ :
[ शील- ब्रह्मचर्यं सूत्र
टीका — धर्म को — दान, शील, तप, भावना को ही सुन्दर जान
-
कर, कल्याणकारी जान कर, स्त्रियोमे कभी भी गृद्ध न बनो, मूच्छित वनो । ब्रह्मचर्यं को ही सर्वस्त्र समझो । इसको ही कल्याण का मूल आधार समझो ।
↓
( १७ )
न य रुसु मणं करे ।
द०, ८, १९
टीका -- रूपवती सुन्दर स्त्रियो को देख कर मन को चल नही करना चाहिये । विषय विकार की ओर से मन रूपी घोड़े को ज्ञान रूपी लगाम से रोककर ध्यान रूपी क्षेत्र में, चिंतन-मनन रूपी मैदान मे और सेवामय आगण मे लगाना चाहिये ।
( १८ ) निव्विष्ण चारी श्ररए पयासु ।
आ०, ५, १५५, उ, ३
:
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सूक्ति-सुधा ] . .
[८३.
टीका-ससार के भोग सबन्धी सुखो से जिनको उदासीनता हो गई है, संसार के वैभव से जिनको वैराग्य हो गया है, ऐसे महापुरुष स्त्रियो से विरति ही, रक्खें। स्त्रियो से दूर ही रहें। ब्रह्मचर्य-व्रत को ही आध्यात्मिक उच्चता की आधार भूमि समझें ।
विरते सिणाणाइसु इथियासु ।
सू, ७, २२ टीका-साधु की साधुता इसी में है कि वह शृगार-भावनासे, स्नान आदि क्रियाओं से दूर रहे । और स्त्रियो के संसर्ग से सदा बचता रहे, । काया से शुद्ध ब्रह्मचर्य का पालन करता रहे ।
इत्थी निलयस्स मज्झे, , ,
— न यम्भयारिस्स खमो निवासो। .. -
उ०, ३२, १३ । टीकास्त्री के रहने के स्थान में यानी स्त्री के आवागमन के स्थान में अथवा स्त्रियो के पडोस म ब्रह्मचारी का निवास आपत्ति-जनक होता है। व्रत-नाशक और चित्त को चचलता को प्पैदा करने वाला होता है । . ..
I (२१)
गुनिदिए गुत्त वम्भयारी . . : : “सया अप्पमत्त विहरज्ज] .. - - - - उ०, १६, ग, प्र, ..
" टीका-गप्त, इन्द्रिय वाला होकर, इन्द्रयो.. पर गुप्त रूप से सयम शोल होकर, गुप्त ब्रह्मचारी होकर, कर्मठ होकर अप्रमादी होकर सदा विचरे और इसी तरह से अपना जीवन-काल व्यतीत करता रहे।
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४.]
[शील-ब्रह्मचर्य-सूत्र ... (.२२ ) . सबिदियाभिनिव्वुडे पयासु
सू०, १०,४ । टीका-आत्म कल्याण की इच्छा वाले पुरुष के लिये यह आवश्यक और अचल कर्त्तव्य है कि वह स्त्रियो की तरफ से सभी इन्द्रियो को रोक कर जितेन्द्रिय रहे । स्त्रियों का मन, वचन और काया से भी ध्यान नही करे। स्त्रियों की आकाक्षा नही करे।
णो निरगंथे इत्थाणं इन्दियाई मणोहराई, मणोरमाइं पालोपज्जा, निझाएज्जा।
उ०, १६, ग, च० . टीका-जो निग्रंथ है, ब्रह्मचारी है, ईश्वर-प्राप्ति की आकाक्षा वाला है, उसे स्त्रियो की मनोहर और मनोरम इन्द्रियो को न तो देखना चाहिये और न उनका ध्यान अथवा चिन्तन ही करना चाहिये।,, । . . । } , , , , , . ( २४ । ।
इत्थियाहिं अणगारा,. संवासेण णास मुवयंति।
___. सू:, ४, २७, उ, १ टीका-जैसे अग्नि से स्पर्श किया. हुआ लाख का घड़ा शीघ्र तप कर नाश को प्राप्त हो जाता है, उसी प्रकार स्त्रियो के ससर्ग से योगी पुरुष' -भी-सयमी पुरुष भी भ्रष्ट हो सकता है। अतएव मन वचन दौर -काया से स्त्री-सगति से दूर रहना चाहिये । आत्मकल्याण- की भावना की पूर्ति के लिये ब्रह्मचर्य सर्व प्रथम, आवश्यक गुण है।
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सूक्ति-सुधा. ]
( २५ -) जा जा दिच्छसि नारीओ, अपि भविस्ससि ।
.
( २६ ) नो रख सीसु गिज्झेज्जा, गंडवच्छासु अणेग चित्तासु ।
द०, २, ९
टीका - मानसिक - नियत्रणता के अभाव में जिन २ स्त्रियो को देखोगे, उससे प्रत्येक बार तुम्हारा मन और आत्मा अस्थिर, निर्बल और वायु विकम्पित वृक्ष के समान चचल बनेगी । अतएव विषयो से चित्त को हटाओ ।
[
- ( २७ ) लद्धे कामे ण पत्थेज्जा ।
[ ५
उ०, ८, १८
टीका — जिनके वक्ष स्थल पर कुच है - स्तन है, और जो अस्थिर चित्तवाली है, यानी विभिन्न विषयो पर चित्त को जो परिभ्रमण कराती रहती है, तथा जो धर्म, धन, शरोर और शक्ति आदि सभी सत्गुणो का नाश करने वाली है, ऐसी राक्षसी समान स्त्रियो में कभी भी मूच्छित् न वनो ।
( २८ ) गंभयारिस्स इत्थी - विग्गहओ
भयं ।
द०, ८, ५४
-1
2
सू०,९, ३२
टीका - काम-भोगो को भोगने का अवसर मिल जाय तो ब्रह्मचारी पुरुष उनको । मन, वचन और कायासे नहीं भोगे । उनको भोगने की इच्छा भी नही करे । और उस विघ्नकारी स्थान को छोड़ कर अन्यत्र वीतरागता पूर्वक चला जाए ।
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[शील-ब्रह्मचर्य-सत्र
टीका-ब्रह्मचारी को स्त्री के गरीर से भय बनाये रखना चाहिये । मन, वचन और कायासे स्त्रीकी संगतिसे दूर रहना चाहिये। स्त्री-सगति तत्काल विकार को पैदा करने वाली होती है, अतः इससे दूर ही रहे। . . - .., ...5
( २९ ) . . . . . . .:: 5 .. नाइमत्तं तु भुजिज्जा चम्भचेर रमो। .. .
उ०, १६, ८
., टीका-ब्रह्मचर्य में अनुरक्त पुरुष, ब्रह्मचर्य की साधना वाला परिमित, सात्विक आहार करे । प्रमाण से अधिक और वर्जनीय आहार नही करे।
(३०)
. . , . णो निग्गंथे पणीय आहारं आहारे जा।
उ०, १६, ग, सा० ।। . . ' ' टीका-जो निर्ग्रन्थ है, जो ब्रह्मचारी है, जो मुमुक्षु है, उसको अत्यत सरस और कामोद्दीपक आहार नही करना चाहिये । यथा आहार तथा वृति के अनुसार सरस आहार ब्रह्मचर्य के लिए घातक है।
( ३१ ) "
रूवे विरत्तो मणुषो विसोगो, : - . , . 11. , , न लिप्पए भवमोवि सन्तो।
' उ०, ३२, ३४ )....... .. टीका-रूप से विरक्त यांनी स्त्री सौंदर्य के देखने से विरक्त, ऐसा पुरुष शोक रहित होता है। समाधिमय और स्थितप्रज्ञ होता है, तथा इस ससार में रहता हुआ भी पाप-कर्मों से लिप्त नहीं होता है।
رو می در
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सूक्ति सुधा]
[८७ (३२) न संत संति मरणं ते सील वन्ता बहुस्सुया।
उ०, ५, २९ टीका-शील वाले, सत्चरित्र वाले और ज्ञान वाले पुरुष इस लोक में और परलोक मे कही पर भी कष्ट नहीं पाते है, क्योकि वे जितेन्द्रिय होते है। वे तृष्णा रहित होते है और वे स्व-पर की कल्याणकारी भावना वाले होते है ।
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Ty
अपरिग्रह -सूत्र
( ? ) सव्वारम्भ परिच्चागो निम्ममन्त ।
उ०, १९, ३०
टीका - सभी आरंभ - परिग्रहका त्याग करना और निर्ममता तथा अनासक्त भाव से रहना ही "निष्परिग्रह व्रत" है ।
( २ ) मुच्छा परिगहो बुत्तो । द०, ६, २१
टीका -- मूर्च्छा या आसक्ति ही परिग्रह का नामान्तर है। आसक्ति ही भय, मोह, चिन्ता, लोभ आदि पापो की जननी है, विकारो को पैदा करने वाली खान है । मूर्च्छा वाला और आसक्ति वाला चाहे दरिद्री हो या धनवान, दोनो ही मूर्ख है और दोनो ही पतित है; अनएव आसक्ति भाव से दूर रहना ज्ञानी के ज्ञान का एक आवश्यक है ।
★
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वैराग्य-सूत्र
( १ )
एगे अहमंसिं, न म अस्थि कोइ, न या हमवि कस्स वि । आ०, ८, २१६, उ, ६
}
टीका - हे आत्मा । तू विचार कर कि मैं अकेला ही हूँ, जन्म लेते समय भी कोई साथ में नही था, और मरते समय भी कोई साथ में आने वाला नही है । सासारिक कामो को करते समय और सासा
1
रिक सुख वैभव में हिस्सा बटाते समय तो सभी सम्मिलित हो जाते
1
"
है, परन्तु पाप का उदय होने पर - कर्मो का फलोदय होने पर कोई भी हिस्सा नही वटाता है, अकेले को ही भोगना पड़ता है । इसलिए विचार कर कि “मैं अकेला ही हूँ, मेरा कोई नही है, और मै भी किसी दूसरे का नही हूँ ।" इस प्रकार की एकत्व-भावना से ही आत्मिक शांति की सम्भावना है। 1
- ( २.) परिज़रइ ते सरीर यं,
समयं गोयम ! मा पमायएँ ।
་
०, १०, २१
टीका -- तुम्हारा शरीर क्षण प्रतिक्षण जीर्ण और अशक्त होता जा रहा है, इसलिये हे गौतम । क्षण भर का भी प्रमाद मत कर 1 1
(3) विess विद्ध सरी यं समय गोयममा पमाय
०, १०, २७
f
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--: अपरिग्रह-सूत्र
सञ्चारम्भ परिच्चागो निम्ममत्त ।
उ०, १९, ३० टीका-सभी आरभ-परिग्रहका त्याग करना और निर्ममता नथा. अनासक्त भाव से रहना ही "निष्परिग्रह व्रत" है ।'
मुच्छ। परिगहो वुत्तो।
द०, ६, २१ टीका--मूर्छा या आसक्ति ही परिग्रह का नामान्तर है । आसक्ति ही भय, मोह, चिन्ता, लोभ आदि पापो की जननी है, विकारो को पैदा करने वाली खान है । मर्जी वाला और आसक्ति वाला चाहे दरिद्री हो या धनवान, दोनो ही मूर्ख है और दोनो ही पतित है; अतएव आसक्ति भाव से दूर रहना नानी के ज्ञान का एक आवश्यक का है।
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सूक्ति-सुधा]
[ ९१ संसारी और भोगी आत्मा का जोवन भी अचानक टूट जाता है । अनन्त काल चक्र के सामने प्रत्येक ससारी आत्मा का एक गति विशेष में कितना लम्बा आयुष्य होता है ? छोटा सा होता है, अतएव समय और शक्ति का सदुपयोग ही करते रहना चाहिये । यही बुद्धिमानी का लक्षण है।
.. . (७) - ... ण य संखय माहु जीवितं, तह वि च वाल जणो पगभई ।
सू०, २, १०, उ, ३ , टीका-टूटी हुई आयु पुनः जोडी नहीं जा सकती है । व्यतीत हुआ जीवन पुन. प्राप्त नही किया जा सकता है । फिर भी मूर्स मनुष्य, विवेक हीन पुरुष, कामान्ध प्राणी पाप करने की धृष्टता करते ही रहते है। वे स्वार्थ-साधना और इन्द्रिय-पोषण मे ही मग्न - रहते है।
(८) . - - तरुण ए वाससयस्स तुट्टती . . . इत्तरवासे य, वुज्झह । . . . . . सू०, २, ८, उ, ३
टीका-सौ वर्ष की आयुवाले पुरुष का भी जीवन युवावस्था मे ही नष्ट होता हुआ देखा जाता है । इस लिये इस जीवन को थोड़े दिन के निवास के समान समझो और क्षण भर का भी प्रमाद मत करो, तथा सदैव सत्कार्यो मे ही लगे रहो।..
(९) । . ताले जह वंधण-चुए
एवं आउक्खयमि तुहती। ... सू., २, ६, उ, १ :
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९०
[वैराग्य-सूत्र
टीका--तुम्हारा यह शरीर गिर रहा है, प्रति क्षण निर्बल हो रहा है, क्रमश प्रत्येक क्षण नाश को प्राप्त हो रहा है, अचानक रूप से मृत्यु आ जाने वाली है, इसलिये हे गौतम क्षण भर का भी प्रमाद मत कर!
(४) दुमपत्तए पंडुयए जहा, एवं मणुयाण जीवियं ।
उ०, १०,१ टीका--जैसे वृक्ष का पीला और पका हुआ पत्ता न मालूम किस क्षण मे गिर जाता है अथवा गिरने वाला होता है, वैसे ही यह __ मनुष्य शरीर न मालूम किस क्षण मे नष्ट हो जाने वाला है ।
(५) कुसग्गे जह ओस बिंदुए, . एवं मणुयाण जीवियं ।'
उ०, १०, २ . टीका-जैसे कुशा-घास पर अवस्थित ओस-विन्दु थोड़े समय तक की स्थिति वाला होता है, और हवा का झोका लगते ही गिर पड़ता है वैसे ही मनुष्य-जीवन का भी कोई निश्चित पता नही है। न मालूम कब यह खत्म हो जाने वाला है ।
कुसग्गे पणुन्नं निवइय वाएरियं. . ., ‘एवं बालस्स जीवियं ।
, आ०, ५, १४३ उ, १ . टीका-जैसे कुशा- घास पर अवस्थित - जल विन्दु हवा का झोका लगते ही गिर पडता है, और समाप्त हो जाता है, ऐसे ही
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सूक्ति-सुधा ]
[ ९१
संसारी और भोगी आत्मा का जीवन भी अचानक टूट जाता है । अनन्त काल चक्र के सामने प्रत्येक ससारी आत्मा का एक गति विशेष में कितना लम्बा आयुष्य होता है ? छोटा सा होता है, अतएव समय और " शक्ति का सदुपयोग ही करते रहना चाहिये । यही बुद्धिमानी का लक्षण है ।
(७) - :
णय संखय मोहु जीवितं, तह विथ बाल जणो पगभई ।
सू०, २, १०, उ, ३
टीका - टूटी हुई आयु पुन जोड़ी नही जा सकती है | व्यतीत हुआ जीवन पुन. प्राप्त नही किया जा सकता है । फिर भी मूर्ख मनुष्य, विवेक हीन पुरुष, कामान्ध प्राणी पाप करने की धृष्टता करते ही रहते है । वे स्वार्थ साधना और इन्द्रिय-पोषण में ही मग्न रहते है ।
( ८ )
तरुण ए वाससयस्स तुट्टती इन्तरवासे, वुज्झह !
य
सू०, २, ८, उ, ३
टीका -- सौ वर्ष की आयुवाले पुरुष का भी जीवन युवावस्था में ही नष्ट होता हुआ देखा जाता है । इस लिये इस जीवन को थोड़े दिन के निवास के समान समझो और क्षण भर का भी प्रमाद मत " करो, तथा सदैव सत्कार्यों में ही लगे रहो ।....
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=-=(९)
८
-
जह
वंधण - चुए
ताले एवं श्राखयमि तुट्टती ।
२, ६, उ, १
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__९२]
[वैराग्य-सूत्र
टीका--जैसे बन्धन से छूटा हुआ ताड-फल गिर पडता है, वैसे ही अचानक आयु के समाप्त होते ही प्राणी भी मर जाते है, इसलिये दान, शील, तप और भावना के प्रति उपेक्षित नही रहना चाहिए। यथा-शक्ति कुछ न कुछ धर्म-क्रियाऐ करते ही रहना चाहिये। ,
विणि अहिज्ज भोगेसुः ग्राउ परिमि अप्पणो ।
द०, ८, ३४ टीका-शरीर क्षण भगुर है और आय परिमित है, ऐसा विचा कर काम-भोगो से, इन्द्रिय विपयो मे अपने मन और आत्मा के ___अलग ही रखना चाहिये।
उवणिजई जीविय सप्पमाय; मा कासि कम्माई महालयाई ।
उ०, १३, २६ टीका---यह शरीर विना किसी बाधा के निरन्तर मृत्यु वे समीप चला जा रहा है, प्रति क्षण आयु घटती जा रही है, अचानक मृत्यु आ जाने वाली है, इसलिये महा हिंसक और महान् दुर्गति के देने वाले कर्मों को पाप-पूर्ण कामो को तू मत कर । हे जीव | सत् और असत् का विचार करके कार्य कर।
' .
एगो सय पच्चणुहोइ दुस्खें ।
सू०, ५, २२, उ, २ टीका--जीव अज्ञानवश सारे कुटुम्ब के लिए पाप करता है। झूठ-हिंसा आदिका आश्रय लेकर कुटुम्ब को सुखी करने का प्रयत्न करता है । परन्तु कर्मों का फल भोगने के समय वह अकेला ही भोगता
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सूक्ति-सुवा ]
[3.3
है । उसके दुखो को बॉटने के लिये कोई भी समर्थ नही होती है । ' अकेला ही घोर दुःखका अनुभव करता है ।
१३
मच्चरणान्माहओ लोगो, जराए परिवारिओ ।
उ०, १४, २३
टीका- यह संसार मृत्युसे पीडित है और बुढापे से सवृत्त आच्छादित है । प्रत्येक क्षण नाग और दुखु की धारा इस विश्व में प्रवाहित हो रही है ।
1
१४
जाया य पुत्ता न हुवन्ति ताणं ।
उ०, १४, १२
टीका-कर्म-जनित महान् वेदना प्राप्त होने पर अथवा अघो-गति प्राप्त होने पर पुत्र भी आत्मा की रक्षा नही कर सकते है । ऐसा सोचकर आत्म-विकास करना चाहिये । सत् प्रवृत्तियो की ओर बढना चाहिये ।
7
4
~
2
१५
मच्चू नरं नेह हु अन्त काले,
न. तस्स माया चंपिया व भाया अंसहरा भवन्ति 1);
उ., १३, २२
टीका — जव मृत्यु मनुष्य को अत समय मे घर दवाती है, तब अथवा भाई आदि कोई भी उसको
उस समय उसके माता पिता बचाने में समर्थ नही हो सकते
है ।
१६
माया
नियो राहुसा भाया,
नाल ते मम नागाए ।
}
', उ०, '६, ३
;
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__-९४]
वैराग्य-सूत्र
टीका-अपने कर्मों के अनुसार दुख भोगने के समय माता, पिता-पुत्र-वधु, भार्या अयवा पुत्र आदि कोई भी उन दुःखो से छुटकारा दिलाने मे, आपत्ति से रक्षा करने में समर्थ नही हो सकते है । इसके लिये तो सयम और स्व-पर की सेवा ही सर्वोत्तम औषधि है।
(१७) पालं ते तव ताणाए वा सरणाए वा, तम रितेसिं णाल ताणाए वा सरणाए वा।
आ०, २, ६५, उ, १ टीका-कर्मोदय से जनित घोर दु ख के समय हे आत्मन् । न तो "माता, पिता, वन्धु वर्ग ही तुम्हारी रक्षा कर सकते है अथवा शरण भूत हो सकते है, और न तू ही उनके घोर दुःखमै उनकी रक्षा कर सकता है। जिसका कर्म जो ही भोगेगा, अतएव ससार के सुख वैभव में और मोह में आसक्ति मत रख । कर्त्तव्य-मार्ग में अनासक्ति के साथ वढता चला जा।
(१८) एक्को सय पच्चणु होर दुक्खं ।
उ०, १३, २३ .. टीका-पाप कर्मो का उदय होने पर प्राप्त दुख को जीव अकेला ही भोगता है। उस दुःख को विभाजित करने में कोई भी समर्थ नहीं हो सकता है ।
(१९) एगत्त मयं अभिपत्थरज्जः ।
सू०, १०, १२ टीका-पडित पुरुष एकत्व-भावना की प्रार्थना करे। क्यो कि जन्म, जरा, मरण, रोग, भय, और शोक से परिपूर्ण इस जगत्
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सूक्ति-सुधा]
[ ९५ में अपने किये हुए कर्म से दु खः भोगते हुए प्राणी की रक्षा करने में कोई भी समर्थ नही है।
(२०) एगस्स जंतो गति रागती य ।
मू० १३, १८ टीका-प्राणी अकेला हो परलोक को जाता है और अकेला ही आता है। इस ससार में प्राणो के लिये धर्म को छोड़कर दूसरा कोई भी उसका सच्चा सहायक नही है । न धनादि वैभव के पदार्थ ही सहायक है, और न माता-पिता आदि वन्धु वर्ग ही सहायक हैं। अतएव सेवा, सद्वर्तन, सात्विकता, ईश्वर-भजन आदि पवित्र कार्यों को ही जीवन में प्रमुख स्थान देना चाहिये।
( २१ ) . . जीवियं नाभिकंखेजा, मरणं नो वि पत्थए ।
आ०, ८, २०, उ, ८ टीका--जीवन मे अनासक्त रहे । 'आसक्ति होने पर भोगों में पुन. फसने की आशका है। कर्त्तव्य से गिर जाने का डर है। अतएव धर्म-मार्ग पर चलते हुए न तो जीवन के प्रति मोह-ममता रक्खे, और न मृत्यु से भय खावे । यश-कीर्ति, सुख-वैभव प्राप्त होने पर जीवन को बहुत काल तक जीवित रखने की आकांक्षा नहीं करे, एव दु.ख, व्याधि, उपसर्ग, परिपह, कठिनाइयाँ आदि को देख कर मरने की भावना भी नही भावे । सात्विक वृत्ति वाला, कर्मण्य पुरुष केवल कर्मण्य का ही ध्यान रखे, जीवन से या मृत्यु से अनासक्त रहे।
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९६].
[ वैगम्य-सूत्र
( २२ ) संवेगेगां अणुत्तरं धम्म सद्धं जणयइ । "
उ०,२९, प्र, ग० टीका-~-सवेग और वैराग्ये से ही श्रेष्ठ वर्म के प्रति, जैन धर्म के प्रति और सात्विक क्रिया मय आचरण के प्रति श्रद्धा उत्पन्न होती है, इन पर विश्वास जमता है ।
( ३) निऐण दिव्य माणुस तेरिच्छिपमु काम भोगेसु निव्वयं हव्व मागच्छद। उ०, २१, द्वि०, ग०
, , , टीका-ससार-मुख के प्रति तटस्थ वृत्ति एवं उदासीन भावना होने पर ही देवता सवधी, मनुष्य सर्वधी और तिर्यच. सबघी कामभोगो के प्रति और इन्द्रिय-मुखो के प्रति वैराग्य भाव पैदा हुआ करते है, इसलिये त्याग-भाव और अरुचि-भाव के लिये तटस्थ भावना की अति आवश्यकता है। . ..
____ 1. ( २४ ..
विरत्ता,उ न लग्गन्ति, . . . . जहा से सुक्क गोलए। .", ..~
उ, २५, ४३ . टीका--जैसे सूखा हुया गीला भीत पर नहीं चिपकत ही विरक्त आत्माओ के-विपय-मुक्त आत्माओं के तथा अनासक्त आत्मानों के भी कर्मों का वचन नही होता है।
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कर्तव्य-सूत्र
- ( १ -) किरिथं परिवजए
उ०, १८, ३३
टीका - अक्रिया का, नास्तिकता का, अनास्या का परित्याग } करना चाहिये। जीवन से ज्ञानके साथ क्रिया को भी यानी चारित्र को भी स्थान देना चाहिने । क्रिया शून्य ज्ञान मोक्ष तक नही पहुचा सकता है |
( २ )
सव्वं सुचिराणं सफेलं नराणं ।
আ
ISR
उ., १३, १०
-7
टीका—सात्विक उद्देश्यों से किये जाने वाले सभी कार्य मनुष्यों के लिये अच्छे फल देने वाले होते हैं । भाव॒नानुसार फल की प्राप्ि हुआ ही करती है
।
27
ހ
(३)
जाइ सद्धाइ निक्खत्तो, तमेव अणु पालिज्जा ।
17' द६१
टीका — जिस श्रद्धा के साथ, जिस दृढ आत्म-विश्वास के साथ, स्व और पर क्के कल्याण के लिये निकला हो, उसी दृढ भावना के साथ एक अचले श्रद्धा के साथ - स्व, और 1, पर के किल्याण में उगेरहना चाहिये ।
t
13 डि
७
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१८]
( ४ )
णो जीवितं णो मरणाहि कंखी । "सूट, १२, २२
こ
टीका --- ईश्वर पर श्रद्धा रखने वाला पुरुष और धार्मिक नियमों पर चलने वाला पुरुष न तो जीवन पर आसक्ति रखे और न मृत्यु से घबरावे । कठिनाइयाँ आने पर भी मृत्यु की अकाक्षा नही रखे । तथा सुख-सुविधा होने पर भी जीवन के प्रति अनासक्त रहे ।
[] कर्तव्य-सूत्र
( ६ ) अण्डा जे य सव्वत्था परिवज्जेज्ज |
( 4 )
मावतं पुणो विविए । ॐ०, १०, २९
टोका -- त्यागे हुए विषय को, और छोड़ी हुई कषाय- वासनाको पुनः ग्रहण मत करो । भोगो की तरफ मत ललचाओ ।
-
L
उ०, १८, ३०
टीका--जो अनर्थ कारी क्रियाऐं है, जिन क्रियाओ से न तो स्व का और न पर का हित होने वाला है, अथवा जो स्व को या प्पर को हानि पहुंचाने वाली है, जो आध्यात्मिक और नैतिक दृष्टि से वर्जनीय है, जो त्याज्य है, ऐसी क्रियाओं को सर्वत्र और सर्वदा के लिये छोड़ देना चाहिये ।
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सुक्ति-सुधा ] • - - - - - - - - -(८) . . .
- - -- - - लांजा दया संजम बंमचेरं, . " -~ • कल्लाण भागिस्स विसोहि ठाणं । - - :-८०, ९, १३ प्रं, उ, . . . ..
टीका-कल्याण के लिये अर्थात् अनत आत्मिक सुख की भावना वाले के लिये, (१) लज्जा यानी व्यवहार-कुशलता के साथ मर्यादा पालन, (२) दया यानी सभी . प्राणियो पर आत्मवत् दृष्टि, (३) सयम यानी विषय-कषाय विकार पर नियंत्रण और (४) ब्रह्मचर्य यानी मन, वचन तथा, काया पूर्वक स्त्री-सगति से दूर रहना और वीर्य-रक्षा करना; ये चार आवश्यक और प्रधान आचरणीय क्रियाऐ है ।।... :. . . . . . . . . . . :
सुस्सए आयरि अप्पमत्तो।
द०, ९, १७, प्र, उ, टीका-प्रमाद रहित होकर, सदैव सत् क्रिया शील होकर, अपने आचार्य को अथवा अपने गुरु की निष्कामना के साथ विशुद्ध, हृदय होकर सेवा करता रहे । उनकी भक्ति करता रहे। .
समय तत्यु वेहार प्राप्पावं विप्पसायए।
आ०, ३, ११७, उ, ३.. टीका-ज्ञानी का या मुमुक्षु का यह कर्तव्य है कि वह समता धर्भ में ओर शांति धर्म में अपनी आत्माको स्थिर कर आत्मिक शक्तियो का सात्विक रीति से विकास करता रहे।
(११) जाप सदाए निक्खंतो, तमेव अणु पालिज्जा। आ०, ३, २०, उ, ३
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१००]
कर्तव्य-सूत्रः ____टीका-जिस श्रद्धा से, जिस उत्कृष्ट त्याग-भावना से और जिस कर्तव्य-प्रेरणा से सासारिक सुख वैभव, का परित्याग करके दीक्षा ग्रहण की है। यावी महापुरुपो के मार्ग का अवलम्बन किया है, उसी भावना के साथ, और उसी आदर्श श्रद्धा के साथ उस दीक्षाकी तथा उस कर्त्तव्य की. परिपालना करे। , . .
अलं वालस्स संगण। ।। । । । । । आ०, २, ९६, उ, ५
. , :, टीका-~मूों की. सगति कभी भी नहीं करनी चाहिये, क्योंकि सगति अनुसार ही फल मिला करता है। सगति अनुसार ही -गुणों का और दुर्गुणो का ह्रास अथवा विकास हुआ करता है।
(१३) ___चरेज्जे अत्तगवेसप।- .
उ,२,१७” . ' ' ' टीका--आत्मा की अनंतता' को और आत्मा की महत्ता की खोज करने वाला 'सयम-मार्ग पर ही-इन्द्रिय-दमन के मार्ग पर ही सलग्न रहे । ' आत्मा की अनुभूति विकार वासना, 'कपाय, तृष्णा और इन्द्रिय भोगो पर विजय प्राप्त करने पर ही हो सकती है। ......
" .. इमण चेव जुझ हिं, 5 ... क जुका
टीका -बाह्य शत्रुओ के साथ लडने मे कोई गौरव नहीं है, जब तक कि आतरिक शत्रुओ को-"काम, क्रोध, मोह, मद, मात्सर्य, लोभ आदि शत्रुओ को नहीं हरा दिया जाय, तब तक वाह्य-युद्ध से क्या लाभ होने वाला है. आंतरिक युद्ध ही ज्ञानियो द्वारा
जयगा झियो
... ...
.
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Thd
सूक्ति-सुधा ]
[१०१ प्रशंसनीय कहा गया है। बाह्य युद्ध तो निकम्मा और निंदनीय है। यही तत्वदर्शियो का फरमान है।
(१५) धुय मायरेज्ज।
सू०, ५, २५, उ, २ टीका---गुणज्ञ पुरुष स्वीकृत और आराधित नियम-सयम का भली-भांति आचरण करे। ।
. अतत्ताए परिव्वए। . -
सू०, ११, ३२ . टीका-आत्मा के विकास के लिये और आत्मा के स्थायी सुख के लिये, समझदार पुरुष इन्द्रियो को वशमें रखे। ससार के पौद्गलिक सुखो की प्राप्ति के ध्येय से सयम का पालन नहीं किया जाय, बल्कि चारित्र के पालन का एकान्त दृष्टिकोण यही हो 'कि आत्मा अनन्त आनन्द प्राप्त करे। जीवन का यही एक मात्र ध्येय हो।
,
। (१७)
सव्वत्थ विणीय मच्छरे।
- सू०, २, १४, उ,३ टीका-सब जगह और. सदैव सभी प्राणियो के प्रति और 'सभी कार्यों के प्रति ईर्षा-भाव का परित्याग करना ही मानवता की सर्व प्रथम सीढ़ी है।
निविदेज्ज सिलोग पूयणं ।
सू०, २, १३, उ, ३
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१०२]
E.कर्तव्य-सूत्र
. . . टीका-~आत्म कल्याण की इच्छा वाले मुमुक्षु को अपनी प्रशसा, याः कीति, पूजा, सन्मान आदि से दूर रहना चाहिये ।, ये पतन की ओर ले जाने वाले है और, अभिमान पैदा करने वाले है। इन बातो से मुमुक्षु सदैव दूर ही रहे। पूजा-सन्मान की आकाक्षा भी मोह का रूप ही है।
- (१९) सुपरिच्चाई दमं चरे। ... ..:.
उ०, १८, ४३ टीका-सुपरि त्यागी होकर, अनासक्त और निर्ग्रन्थ होकर, दमन-मागं पर, इन्द्रियं-सयम के मार्ग पर और कषाय-जय के मार्ग पर अपनी आत्माको जोडे । आत्मा को सयोजित करे।।
(२०) संस्थारभत्ती अणुवीइ वायं। .
सू०, १४, २६ : टीका-शिक्षा देने वाले गुरु की भक्ति का ध्यान रखता हुआ शिक्षार्थी सोच विचार कर कोई वातं कहे । गरु के कथन के विपरीत नही बोले, एव सस्कृति के प्रतिकूल विवेचना भी नही करे।
(२१) पण समत्त संया जए,
समती धम्म मुदाहरे। ::. , ... सू०, २, ६, उ, २ . . - टीका-पूर्ण बुद्धिमान् पुरुष सदा कषायों को-क्रोध, मान, माया
और लोभ को जीतता रहे। इन पर विजय प्राप्त करता रहे तथा समता-धर्म का-वीतराग-धर्म का उपदेश करता रहे।
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सद्गुण-सूत्र
___ - (१)
.
निमम्मे निरहंकारे।
उ०, ३६, २१ टीका-जीवन ममता रहित,और अहकार रहित हो। ऐसा जीवन ही वोषप्रद है। ऐसा जीवन ही कृतः कृत्य है। ऐसा जीवन ही सफल है।
- -.., अप्पियसावि मित्चस्स, - - , - - :- रहे. कल्लाण भासई ।।
। उ०, ११, १२ . . . टीका-अप्रिय मित्र का भी एकान्त मे जो गुणानुवाद करता है, अप्रिय मित्र के प्रति भी, जो निन्दा भाव नही रखता है तथा सदर उसका हितचिन्तन ही करता रहता है, ऐसा पुरुष ही विनीत है। वह
आज्ञा का आराधक है। - .: - ___- . , . : . ३) . ..- it , २ . अकोहणे, सञ्चरए सिवा सीले। - 15 : 1 - - , - उ, ११, ५..
. : - टीका-जो अक्रोधी है, नम्र है , और सत्यानुरागी, है वही पुरुष सम्यक् ज्ञान प्राप्त कर सकता है।
3 माण महवया जिणे ।
दः, ८, ३९
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१०४
[सद्गुण-सूत्र टीका-मानको, अहकार को मृदुता से और नम्रता से जीतना चाहिये । नम्रता से विरोधी भी नरम और अनुकूल हो जाता है।
(५) माय अज्जव भावेण ।
द०, ८, ३९ टीका-माया को, कपट को सरलता से जीतना चाहिये । सरल हृदय मे ही ईश्वर का वास हैं।
लोस संतोप्लयो जिण।
द०, ८, ३९ ___टीका-लोभ को, लालचको सतोष से जीतना चाहिए । सतोष बराबर धन नहीं है । सतोपो ही सुखी है । और असन्तोषी सदैव दुखी है, चाहे वह धनी हो या निर्धन । असतोष की लहरे, तृष्णा की तरगे अनन्त है, उनका कभी अत ही नहीं आ सकता है।
दुक्ख हयं जस्स न होइ मोहो, . मोहो हो जस्स न होडतहा।
उ०, ३२,८ टीका-जिसकी आत्मा मे मोह नही है, उसे दुख नही हो सकता है । यानी मोह के अभाव मे दु ख का अभाव हो जाता है। इसी प्रकार मोह के नाग मे ही तृष्णा का नाश रहा हुआ है। जिसका मोह नष्ट हो गया है उसकी तृष्णा भी नष्ट हो गयी है। .
(८) तण्डा हया जस्स न होई लोहो, लोहो हो जस्स न किंचणाई
उ०, ३२,८
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सूक्ति-सुधा]
[१०५ . टीका--जिसकी तृष्णा नष्ट हो गयी है उसको लोभ नही सताता है, और जिसके हृदयसे लोभ चला गया है उसको किसी भी बात पर, पदार्थ पर एवं भोग पर, आसक्ति या ममता नही रहती है । आनन्द की प्राप्ति के लिये तृष्णा का नाश सर्व प्रथम आवश्यक है ।
श्रोमासणाणं दमिइन्दियाणं, न'राग सत्तू धरिसेइ चित्तं ।
उ०, ३२, १२ . टीका-परिमित और अल्प आहार करने वाले कोतथा इन्द्रियो का दमन करने वाले के चित्त को राग-रूप शत्रु-आसक्ति रूप दुश्मन और ममता रूप वैरी दुख नही देता है।
(१०). - संगाम सीसे व परं दमेज्जा।
टीका. -कर्मण्य पुरुष अपनी मानसिक दुर्वत्तियो का इस प्रकार दमन करे जैसा कि वीर-पुरुष युद्ध क्षेत्रमें प्रति पक्षी शत्रु का दमन करता है, और उसपर विजय प्राप्त करता है । मानसिक दुर्वृत्तियो 'पर विजय प्राप्त करने में ही पुरुषत्व की शोभा रही हुई है ।
. (११) : __ अप्पमत्तो.परिवए। - अप्पमत्ता.पा
.. . .-'. . उ०, ६, ३. _',टीका--जीवन के विकास के लिये अप्रमत्त होता हुआ, निश्चित होता हुआ, आशा रहित होता हुआ, और निद्वंद्व होता हुआ अपना वन व्यतीत करे।
(२२) अलोलुए रसे सुनाणुगिज्झेज्जा।
.: उs,२,३९
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१०६]
सद्गुण-सूत्र
टीका - आत्मा की शांति चाहने वाला अलोलुप होता हुआ इन्द्रियो के रसो मे, इन्द्रियो के भोगो के स्वादो में आसक्त न बने - विषयो मे मूच्छित न हो । वासनाओ मे गृद्ध न हो जाय ।
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( १३ )
जे आसवा ते परिस्सवा..
जे परिस्वा ते आसवा ।
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आ०, ४, १३१ उ, २
टीका- जो आश्रव के स्थान है, वे ही भावो की उच्चता के कारण सवर- निर्जरा के स्थान भी हो सकते है । इसी प्रकार जो सवर - निर्जरा के स्थान है, वे ही भावो की, नीचता और दुष्टता के कारण आश्रव के स्थान भी हो जाया करते है । इन सब में मूल कारण भावो की या भावना की विशेषता है । जैसी भावना वैसा फल । बाह्य स्थिति कैसी भी हो, आतरिक स्थिति पर ही सब कुछ निर्भर है । अतएव सदैव शुद्ध भावना ही रखनी चाहिये ।
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7 - :, (१४.) श्रवट्टे तु पेहाए इत्य विरभिज्ज वैयंषी ।" आ०, ५, १७०, उ, ६
टीका - राग द्वेष, कषाय, विषय और विकार के चक्र का ख्याल कर, संसार - परिभ्रमण का विचार कर, तत्वदर्शी ज्ञानी इन कषायों से, इन विषयों से, इन वासनाओ से, अपनी आत्मा को वचावे । जीवन 'को निर्मल, निष्कषायीं और अनासक्त बनावे !
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( १५ )
मेहावी जाणिज्ज धम्म ।
आ.० ६, १८८, उ, ४
,
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अज
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सूक्ति-सुधा ]
[8092
टीका - जो बुद्धिमान् होता है, जो ज्ञान-शील होता है, वही
: धर्म के मर्म को धर्म के रहस्य को जान सकता है । तत्वो के और
2
सिद्धान्तो के तह में उच्च ज्ञानी ही प्रवेश कर सकते है - अज्ञानी और भोगी नही ।
( १६ ) सिक्खं सिक्खेज्ज पंडिए ।
सू०, ८, १५
टीका - पडित पुरुष - ज्ञानी पुरुष - सलेखना रूप शिक्षा को ग्रहण करे । आलोचना के साथ पश्चात्ताप और प्रायश्चित द्वारा जीवन की शुद्धि करे । और पुनः वैसी भूल नही करने की प्रतिज्ञा के साथ जीवन-काल व्यतीत करे।
सू०, ३, २०, उ, ४
टीका – सब स्थानों पर, सब काल में विरति करना चाहिये,.
·
-
आदि से विरक्त रहना
( १७ ) सव्वत्थ विरति कुज्जा ।
14
यानी पाप, अशुभ योग, कषाय, वासना
चाहिये ।
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(१८ ) ... न कंखे व संथवं 1
5
उ', ६, ४.
टीका- आत्मार्थी अपने जीवन के पूर्व भाग मे भोगे हुए भोगों का न तो परिचय करे, न उनकी स्मृति करे और न आकाक्षा ही. करे । उनको सर्वथा ही भूल जाये ।
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( १९ ) समुप्पेहमाणेस्स इक्काययणरयस्स,
इह विप्पमुक्कस नत्थिं मग्गेविरयस्स । - :
आ०, ५, १४९, उ, २
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-१०८']
सद्गुण सूत्र
टीका -- जिस आत्मा ने ससार को अनित्य समझ लिया है, तथा जो आत्मा एकान्त रूप से ईश्वर पर श्रद्धा कर के अपने निर्मल चारित्र द्वारा कर्त्तव्य मार्ग पर आरूढ है, ऐसी आत्मा के नवीन कर्म आते हुए रुक जाते है । इसी प्रकार जो इन्द्रियो के भोगो से और मानसिक कषाय - वृत्तियो से निवृत्त है, वे अब पुनर्जन्म नही करेगे । क्यो कि ससार में चक्कर लगाने का कोई कारण अब ऐसी पवित्र आत्माओं “के लिये शेष नही रहता है ।
( २० ) वन्दणणं नीयागोयं कम्मं खवेर, उच्चा गोयं कम्मं निबन्ध |
उ०, २९, १०, वा, ग०
टीका — गुरुजी को तथा पच महाव्रतधारी साधुजी को -वदना करने से, भाव पूर्वक इन्हे आदर्श मानने से, नीच - गोत्र कर्म के वध का नाश होता है और उच्च गोत्र कर्म का बध पड़ता है |
( २१ )
वायणाए निज्जर जणयइ ।
उ०, २९, १९व, ग०
टीका - वाचना से, शास्त्रो के पढ़ने से, साहित्यिक और दार्शनिक ग्रथो का अध्ययन करने से, इनका मनन तथा चिन्तन करने = से, कर्मो की निर्जरा होती है । पूर्व कृत कर्मों का क्षय होता है ।
( २२ ),
भुंजिज्जा, दोषं वज्जियं ।
(
1
द., ५, ९९, उ, प्र,
1
टीका-दोप-वर्जित आहार करना चाहिये । यानी जिस - -आहार में हिंसा, झूठ, चोरी, आसक्ति, गरीबो का शोषण, अत्याचार,
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सूक्ति-सुधा
[१०९: अन्याय आदि पाप रहा हुआ हो, वह आहार त्याज्य है, क्योकि वह सदोष होता है।
(२३), पंचविहे आयारे, णाणायारे । दसणायारे, चरित्तायारे,
तवायारे, वीरियायारे। - -ठाणा, ५चा ठा, उ, २, १४ ।। टीका-पांच प्रकार का आचार कहा गया है.-१ ज्ञानाचार २.दर्शनाचार, ३ चारित्राचार, ४ तपाचार और ५ वीर्याचार। ,
१ द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव को देख कर अविनय · आदि आठ दोषो को टालना ज्ञानाचार है।
२ सम्यक्त्व के दोषों को टालना दर्शनाचार है।
३ पाच प्रकार की समितियाँ और तीन गुप्तियाँ पालना चारित्राचार है।
४ बारह प्रकार के तप का आचरण करना तपाचार है। ५-धर्म-मार्ग मे पराक्रम वतलाना वीयर्यांचार है।
(२४) चरहिं ठाणेहिं जीवा देवाउयत्ताए, कम्मं पगरेंति, सरागसजमेणं, संजमासंजमेणं, बालतवो कम्मणं,
काम निज्जराए।
__ठाणा०, ४था, ठा, उ, ४, ३९ टीका-चार प्रकार के कामो से जीव देव-गति का बंध करते है .-१ सराग सयम से, २ सयमासयम से, ३ बालतप करने से और ४ अकाम निर्जरा से ।
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११०.]
[सद्गुण-सूत्र
( २५ ) .. चरहिं ठाणेहिं जीवा मणुस्सत्ताएं - कम्मं पगरेति, पगइ भद्दयाए, विणीयाए,, साणुक्कोसयाए, अमच्छरियाए, 1..
. __ठा०, ४ था, ठा, उ, ४, ३९ टीका-चार प्रकार के कामो से जीव मनूष्य गति का बघ करते है :-(१) सरल प्रकृति रखने से, (२) विनीत प्रकृति रखने से, (३) दयाल प्रकृति रखने से और (४) प्रेम-भाव रखने से~-यानी मात्सर्य भाव नही रखने से
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क्षमा-सूत्र
('? )
'खति सविज्ज पंडिए ।
,
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उ०, १, ९
- टीका - पंडित की - बुद्धिमान की सार्थकता इसी में है कि वह क्षमा धारण करे । कैसी भी विषम और जटिल परिस्थिति हो तो भी क्षमा ही रक्खे |
{
( २ ) खन्तीपूर्ण परिसहे जिणइ ।
उ०, '२९, ४६व, ग
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टीका -क्षमा धारण करने से परिषहो को और उपसर्गों को तथा आपत्ति - विपत्ति को सहन करने की शक्ति पैदा होती है । शत्रुता मिटकर मित्रता की भावना पैदा होती है ।
( ३ )
खमावणार पल्हा यण भावं जणय ।
उ., २९, १७ वा,
टीका - अपने अपराधों के लिये क्षमा मांगने से तथा नम्रता और विनय वारण करने से चित में प्रसता होती है । आत्मा पापों से हल्की होती है ।
( ४ )
पिय मध्वियं सव्वं तितिक्लपज्जा ।
०, २१, १५
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११२]
[क्षमा-सूत्र
टीका--प्रिय और अप्रिय, सभी वचनो को शातिपूर्वक सहन करना चाहिये । सहन शीलता ही गभीरता है, और गभीरता ही मानवता का एक अश है।
अणिदे से पुढे अहियासए।
सू०, २, १३, उ, १ - टीका-मुमुक्षु आत्मा, आत्मार्थी-पुरुप, कष्ट आने पर भी निस्पृह-होकर, समभाव-शील होकर उन कष्टो को सहन करता रहे, पर अपने कर्त्तव्य-मार्ग से विचलित न हो।
अप्पाहारे,तितिक्वए)
आ०, ८:१९, उ, ८.. टीका बुद्धिमान् पुरुष अल्प-आहार करने वाला होवे । जिससे मालस्य आदि दुर्गुण, नहीं सतात्ने । तथा स्वाध्याय, में एंव अन्य। सात्विक प्रवृत्तियो में हानि न हो, इसी प्रकार , जीवन व्यवहार, में, : विरोधी परिस्थितियो के उपस्थित होने पर या प्रतिकूल सयोगो के कारण क्रोध का प्रसग उपस्थित होने पर भी क्षमा ही करता रहे। क्षमा-शील और धर्म शील ही रहें। अल्प-आहार का व्रत लेने पर क्षमा आदि गणो की वृद्धि होती है।
fi , , मास सुव्वते ।।
सू०, २, १३, उ, ३ टिका--सुव्रती यानी इन्द्रियो को और मन को वश मे करने वाला पुरुप प्रत्येक क्षण और प्रत्येक स्थान पर समता रक्खे।। हर्प-शोक से दूर रहे।
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सूक्ति-मुधा ]
(ट) समय सया चरे ।
( 113
सू०, २, ३, उ, २
टीका – सदा समभाव से ' व्यवहार करना चाहिये 1 सस्ता
धैर्य, सतोप, कर्मण्यता आदि सद्गुण ही विकास करने वाले है ।
जीवन के व्यक्तित्व का
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सात्विक-प्रवृत्ति-सूत्र
मिति भूपसु कप्पर ।।
उ०, ६, २ । टीका-प्राणी मात्र पर, ससार के सभी जीवो पर, मैत्री भावना रक्खो । अविरोध-भावना का ही पोपण करो । कल्याण मय भावना की ही कल्पना करो। किसी को भी शत्रु न समझो ।
(२) इंगियागार संपन्ने से विणीए ।
उ०, १,२ वेका-इगित यानी इशारे और आकार-प्रकार से ही बात को समझ जाने वाला, और उसके अनुसार काम करने वाला भविनीत" कहलाता है।
खमेह अवगाहं मे, वइज्ज न पुणु त्ति श्र।
द०, ९, १८, द्वि, उ, टीका--" मेरा अपराध क्षमा करे, अब दुबारा ऐसा अपराध नहीं करुंगा, ऐसा बोले," यह लक्षण विनय शील और आत्म कल्याण की भावना वाले का है।
सुविणी अप्पा दीसति सुह मेहता।
८०, ९, ६, द्वि, उ,
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सूक्ति-सुधा]
[ ११५ 1 टीका-सुविनीत आत्माएं यानी ज्ञान, ध्यान, विनय, भक्ति, सेवा, ईश्वर-आराधना आदि सत्कार्यो में सलग्न आत्माएं सुखऐश्वर्य, यश-कीति, ऋद्धि-सिद्धि, आदि नाना प्रकार की सम्पत्ति प्राप्त करती हुई देखी जाती है।
नमइ महावी। . . . उ०, १.४५ - . टीका-मेघावी-बुद्धिमान् और मुमुक्षु (मोक्ष का इच्छुक ) 'ही नम्र होता है । वही विनय-शील होता है। क्योकि वह जानता है कि विनय ही मोक्ष की सर्व प्रथम सीढी है।
निरट्राणि उवज्जए। .. . ... : उ०, १,८ . , . . . . ६. टीका-निरर्थक वातो से, विकथा-निन्दा और वैर-विरोध वाली बातो से दूर रहना चाहिये। इनका परित्याग कर देना चाहिये। .
अकग्गा कम्म खति धीरा ।
सू० १२.१५ दीका-धीरं पुरुष और ज्ञानी आत्माएँ अनासक्त तथा सत् कर्मण्य शील होने से अपने पूर्व कर्मों का क्षय कर डालती है; तथा . नवीन आश्रव को भी रोक,कर मोक्षका मार्ग प्रशस्त कर देती है।
(८)
• • • उववाय कारी ये हरीमणे, य एगत दिट्ठी य अमाइ रुवे ।
-सू, १३,६ : टीका-जो पुरुष अपने गुरु जनों की आज्ञा पालन करने वाला है, पाप करने से जो लज्जा रखता है, डरता है, एवं जीव, आत्मा,
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[ सात्विक-प्रवृत्ति-सूत्र
ईश्वर, पाप, पुण्य आदि आधार-भूत तत्वों पर पूरी पूरी श्रद्धा रखता है, वह पुरुष सात्विक विचारो वाला है। वह अमायावी है और वही मोक्ष-मार्ग का पथिक है ।
ण यावि पन्ने परिहास कुज्जा।
. सू०, १४, १९ टीका----बुद्धिमान् पुरुप; किसी की भी हसी नहीं करे, क्योकि हसी लडाई का घर है। लडाई अनर्थो का मूल है। अतएव हंसी से दूर रहना ही वुद्धिमानी है। "
, ' . ( १०) . भवे अकामे अझंझे।
मा, ५, १५४, उ, ३ टीका-जीवन में यही आदर्श हो कि काम-भाव, इच्छा-भाव, तृष्णा-भाव नष्ट हो जाय । कपाय-भाव, और राग-द्वेष भाव के नष्ट होने पर ही स्व का और पर का कल्याण हो सकता है।
17 एमिज्जई महावीरे
सू१, १५, ८ - टीका--जो पुरुष आत्महित की वृत्तियों में ही लगा रहता है,
आत्म-कल्याण की भावना मे ही रमण करता रहता है, वह जन्म-मरण नही करता है, यानी ऐसा पुरुष महावीर है, और वह शीघ्र ही मोक्ष प्राप्त कर लेता है।
___ , (१२) :
1 अकुचयो ण णत्थि। .
: टीका--जो पुरुप अनासक्त भावसे, वीतराग-भावसे कार्य करता है, वह अकर्ता के समान है । उसको नये कर्मों का वधन नही होता
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सूक्ति-सुधा
[ ११७ है। इसलिये जीवन-व्यवहार मे अनासक्त भाव से यानी वीतराग भावसे चलना चाहिये।
आयरिश्र उवचिट्ठ इज्जा, अणंत नाणो वगो विसंतो।।
द०, ९, ११, प्र०,उ० ...टीका-शिष्य भले ही महान् ज्ञानी हो, गंभीर विचारक हो, असाधारण अनुभवी हो, एव तल-स्पर्शी चिन्तक हो, तो भी उस शिष्य का कर्तव्य है कि वह अपने गुरू की, अपने आचार्य की महान् सेवाभक्ति करता रहे, वह विनयी होवे और आज्ञा-पालन करता रहे।
(१४) अरई आउटे से महावी, खणांसि मुक्के ।
आ०, २, ७३, उ, २ • टीका-जिस मेधावी पुरुष ने, जिस प्रज्ञा-शील पुरुष ने अरति का त्याग कर दिया है, द्वेष का निवारण कर दिया है, वह काल की परिधि से मुक्त है। ऐसा पुरुष शीघ्र ही काल के दायरे से मुक्त हो जायगा, वह अजर-अमर हो जायगा।
सुत्ता अमुणी, संयो मुगिणो जागरंति ।
मा०, ३, १०६, उ, १ टीका-सोना और जागना, द्रव्य एवं भाव रूप से दो तरह का है। हम प्रतिदिन रात में सोते है और दिन में जागते है, यह तो द्रव्य रूप से सोना और जागना है । परन्तु पाप में ही प्रवृत्ति करते रहना भाव सोना है और धार्मिक प्रवृत्ति करते रहना भाव-जागना है। इस प्रकार जो अमुनि है-पापिष्ठ और दुष्ट वृत्ति वाले है, वे तो सदैव सोये हुए ही है और जो मुनि है, सात्विक वृत्ति वाले है, वे सदैव जागते रहते है। यही मुनि और अमुनि में भाव अन्तर है, विशेषता है।
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११८ ],
[ सात्विक प्रवृत्ति-सूत्र
(१६) प्रायंक दंसी न करेइ पावं,
आ०, ३, ७, ३, २ टीका-जो नरक, तिर्यंच, मनुप्य और देव गति के जन्म, मरण, पीडा, वेदना, दुःख और भय आदि को, और इनके आतक को देखता है, सम्यक् रूप से इन पर विचार करता है, इन पर श्रद्धा करता है, तो ऐसी आत्मा भी पाप कर्म से दूर हो रहती है । पाप कर्म से वह मलीन नही होती है।
(१७) जे एगं नामे से वहुं नामे, .. . जे वहुँ नामे, से एगं नामे ।
आ०, ३, १२४, उ, ४ . टीका-जिस आत्मा ने एक कर्म का, मोहनीय कर्म का-क्षय कर दिया है, उसने सभी कर्मो का क्षय कर दिया है। इसी प्रकार जिसने धन घातिया कर्मों का क्षय कर दिया है, उसने मोहनीय - कर्म का भी क्षय कर दिया है, ऐसा समझो । मोहनीय कर्म के क्षय होनो पर ही शेप कर्मों का क्षय होना अवलवित है।
. भय'वेराओ उवरए। . ..
उ०, ६, ७ - टीका-दूसरे को भय-भीत करने से अथवा दूसरे के साथ वरविरोध करने से सदैव दूर ही - रहना चाहिये । भय, निर्वलता और पाप को बढाने वाला होता है, तथा वैर कषाय-अग्नि' को प्रज्वलित करने वाला होता है।
( १९ ) . पञ्चमाणस्स कम्महिं, नालं दुवखाओ मोमणे ।
उ०, ६, ६ ,
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सूक्ति-सुधा]
[ १११ ___टीका-कर्मो से पीड़ित जीवको, दु.ख से छुड़ाने मे कोई मो समर्थ नहीं है, ऐसा सोचकर सयम मे ही-इन्द्रिय-विजय करने में ही, मन पर नियन्त्रण करने में ही, और पर-हित करने मे ही अपना सारा समय व्यतीत करते रहना चाहिये।
... . ( २० ) कसाय पच्चक्खाणेगां, वीयराग भावंजणय।
उ०, २९, ३६ वा०,ग० • टीका-कषाय-भावको दूर करने से, क्रोध, मान, माया और लोभ आदि का त्याग करने से, वीतराग भाव पदा होते है। समता, क्षमा, विनय, सरलता और सतोष आदि सात्विक और उच्च भावों की प्राप्ति होती है।
(२१) . नायएज्ज तणा मवि।
उ०, ६, ८ टीका--तृण मात्र को भी बिना मालिक की आज्ञा के नहीं लेना चाहिये । क्योकि स्वल्प चोरी की वृत्ति भी धीरे-धीरे दढ़कर महान् चोरी करने की वृत्ति के रूप में परिणित हो जाती है।'
(२२) इह संति गया दविया, __णावखंति जीविडं।
आ०, १,५८, उ, ७ . . टीका--जो आत्माऐ प्रशम, सवेग, निवेद, अनुकंपा, आस्तिकता, आदि गुणो द्वारा शात प्रकृति वाली हो गई है, जो राग-द्वेष से मुक्त हो गई है, ऐसी आत्माएँ अव आगे ससार में परिभ्रमण नहीं करेंगी। अथवा वे परिभ्रमण नही करती है क्योकि ससार मे विशेष रहने का उनके लिये कोई कारण शेष नहीं रह जाता है । .
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उपदेश-सूत्र
तमेव सच्चं नीसंकं, जं जिणेहिं पवेदयं।
आ०, ५, १६३, उ, ५ टीका-सम्यक् जानी के लिये तो यही हितकर है कि जिनेन्द्र भगवान ने जो कुछ फरमाया है, उसे ही सच्चा श्रद्धे। उसे ही निशांक माने । किसी भी प्रकार की भ्रमणा अपनी मान्यता में और जिन-वचनो में नही लावे ।
(२) समय गोयम ! मा पमायए ।
का-हे गौतम! समय भर का भी, क्षण मात्र का भी प्रसाद मत कर, क्योकि व्यर्थ में खोया हुआ समय पुन: लौट कर अाने वाला नही है।
धीरे मुहुत्त मवि यो पमायए।
मा०, २, ६६, उ०,१ टीका-बुद्धिमान् पुरुष-ज्ञानी पुरुप संसार की अनित्यता का विचार कर और आकस्मिक रूप से आने वाली मृत्यु का विचार अन एक क्षण भर का भी प्रमाद नहीं करे, एक सेकिंड भी व्यर्थ नहीं न्द्रोवे । ईश्वर-श्रद्धा से और कर्तव्य-मार्ग से, तथा सेवा आदि सत्कार्यों से एक क्षण के लिये भी दूर नहीं रहे ।
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सूक्ति-सुधा]
[१२१
(४) तिण्णो हु सि भरणवं मह, कि पुश चिट्ठसि तीर मागओ।
उ०, १०, ३४ टीका--महान् ससार समुद्र तो तर गये, यानी अनन्त जन्ममरण करके चौरासी लाख जीव-योनी में से पार होकर इस उत्तम मनुष्य-भव को तो प्राप्त कर लिया, अब ससार-समुद्र के किनारे पर आकर प्रमाद में क्यो बैठे हुए हो ? साराश यह है कि प्रमाद में जीवन को मत व्यतीत करो।
जं सेयं तं समायरे।
द०, ४, ११ टीका-जो श्रेष्ठ हो उसी का आचरण करना चाहिये । पाप अनिष्ट है, और पुण्य इष्ट है। इसलिये पुण्य, अहिंसा, दया, दान आदि का आचरण करे।
कंखे गुणे जाव सरीर मेउ।
उ०,४,१३ टीका-जब तक शरीर रहे, यानी मृत्यु नही आवे, तब तक जीवन के अंतिम क्षण तक ज्ञान, क्षमा, दया, सतोष, सरलता, विनय आदि गुणो की आराधना और आकांक्षा करता रहे।
जय चिहे मिश्र भाले।
द०,८,१९ टीका-जीवन व्यवहार यत्ना पूर्वक और विवेक वाला बनावे । आवश्यक, परिमित और प्रिय वाणी वोले, आचार और वाणी का व्यवहार आदर्श हो।
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१२२)
[उपदेश-सूक (४) सव्वं जगं तू समयाणु ,पेही।
सू०, १०,७ . टीका-सम्पूर्ण संसार को सम-भाव से देखो। पूजा अथवा निदा के प्रति और सन्मान अयत्रा तिरस्कार के प्रति भी समभावी वने रहो । सयोग-वियोग में हर्प-शोक से दूर रहो। इष्ट और अनिष्ट वस्तु के प्रति रति-अरति भाव से विलग रहना ही मानवता है।'
हम्ममाणो ण कुप्पेज्ज, वुच्चमाणो न संजले ।
सू०, ९, ३१ टीका-कर्त्तव्य निष्ठ पुरुष को यदि कोई लाठी आदि से मारने भी लग जाय, तो भी वह परमार्थी पुरुष क्रोध नहीं करे, और न उस मारने वाले पर प्रतिकार रूप अनिष्ट विचार ही पैदा करे। इसी प्रकार किसी के गाली आदि देने पर भी परमार्थी, पुरुप,न जले । उस पर द्वेप भाव नही लावे । सागश यह है कि जीवन मे वीतरागभाव की वृद्धि करता रहे । ..
आदिनमन्नेसु य गो गहेज्जा।
सू० १०, २ , टीका--विना दी हुई किसी की भी कोई वस्तु नही लेना चाहिये यानी चोरी से-चाहे वस्तु छोटी हो या बडो, कैसी भी हो तो भी उसे नही लेना चाहिये।
(११) चरियाए अप्पमत्तो, पुठो तत्थ अहिवासए!
मू०, ९, ३०
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सूक्ति-सुधा]
[.१२३
टीका-महत्वाकाक्षी पुरुष का, कर्तव्य है कि वह जीवनव्यवहार मे आलस्य नही करे । प्रमाद की सेवना नही करे । प्रतिज्ञापालन करते समय और लक्ष्य की पूतिके समय आने वाले उपसर्गों
और परिषहों को तथा कठिनाइयो को धैर्यता पूर्वक सहन करे और कृत-सकल्प से विचलित न हो।
पिय मप्पियं कस्सइ हो करेजा।
- सू०, १०,७ टीका---किसी का भी रागवशात् प्रिय न करे और द्वेष वशात् अप्रिय भी न करे । प्रेम-भाव और वन्धुत्व भावना तो अवश्य रक्खे, परन्तु रागद्वेष जनित प्रियता और अप्रियता से दूर रहे।
(१३) . लेसं समाहटु परिवएज्जा ।।
. .. सू०, १०, १५ टीका-योग और कषाय की मिश्रित भावना को लेश्या कहते है। ऐसी लेश्या से आत्मा को दूर कर सयम की परिपालना करे । मन और इन्द्रियो को समाधि युक्त बनावे।
' (१४).. ' महावि समिक्ख धम्म, दूरेण पावं परिवज्जएज्जा।
सू०, १०,२० टीका-बुद्धिमान् पुरुष और हितार्थी पुरुष, धर्म की मीमासा कर-समीक्षा कर, हित-अहित की पहिचान कर, विवेक-अविवेक का ध्यान कर पाप-कार्य को छोड़ दे। हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन, आसक्ति,.. परिग्रह, आदिको दूर कर दे । इनका परित्याग कर दे।
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१२४]
[ उपदेश-सूत्र
(१५) पावाउ अप्पाण निवट्टएज्जा । -
सू०,१०,२१ . टीका-पाप से, कषाय-विकार से,भोगों से, दुष्वृत्तियो की वासना से, कल्याण-इच्छुक पुरुष अपने आप को दूर ही रक्ख । अनिष्ट वृत्तियो से परहेज़ ही करता रहे।
( १६ ) धितिम विमुक्केण य पूयणट्ठी, न सिलोयगामी य परिन्वएज्जा।
सू०, १०, २३ टीका-जो आत्महितैषी है, जो सयमी है, वह धैर्य शील रहे। आपत्तियो मे स्व-कर्त्तव्य और सयम से पतित न हो। वह आरभ-परि-ग्रह से विमुक्त रहे । मूर्छा और मूढ-भाव से दूर रहे । मान-सन्मान
और पूजा-प्रतिष्ठा की भावना नही रखे। यश-कीर्ति की कामना नही करे । शुद्ध कर्त्तव्य मार्ग पर निरन्तर चलता रहे। इधर उधर 'विचलित न हो।
(१७) असाहु धम्माणि ण सवएज्जा।
सू०, १४,२० टीका--जो बाते अनुपयोगी है, जो पीडा कारक है, जो अनिष्टकर है, या जो मर्मघातक है ऐसी असत् बाते कभी भी नही कहना चाहिये । न उनका प्रचार ही करना चाहिये । वाणी पर समतोलता सयम आवश्यक है।
(१८) पयाई मयाई विगिं च धोरा ।
सू०, १३,१६
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सूक्ति सुधा ]
[-१२५
टीका - धीर पुरुष, स्व-पर- सेवा व्रती पुरुष, उन कारणो को और उन स्थानो को त्याग दे जो कि अभिमान को पैदा करने वाले हों अथवा अभिमान को उत्तेजना देने वाले हो । अभिमान त्यागने पर ही विनय की प्राप्ति होती है और विनय ही धर्म का मूल है । ( १९ ) विप्पमायं न कुज्जा । सू०, १४, १
टीका– प्रमाद रूप पाप का कभी भी सेवन नहीं करना चाहिये, क्योकि प्रमाद एक आतरिक भयंकर शत्रु है, जो कि जीवन शक्ति को नष्ट करता रहता है और आत्मा को पाप में डूबाता रहता है । - ( २० ) जं मयं सव्व साहूणं, तं मयं सल्लगत्तणं । सू०, १५, २४
3
टीका -- जो सभी संत-महापुरुषों को मान्य है, जो सभी ऋषियों को आचरणीय है, उन्ही वातो को पाप को काटने वाली माननी चाहिये । महापुरुषो ने दया, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अनासक्ति और निष्परिग्रह को ही धर्म माना है, और इन्ही का पालन करना ही मोक्ष का मार्ग कहा है इसलिये हमे भी इन्ही को पाप को काटने वाले समझना चाहिये, तथा जीवन मे भी इन्ही को स्थान देना चाहिये ।
2
-
.
( २१ ) जं किच्चा निव्वुड़ा एगे,
नि
पंडिया |
पावंत
सू०, १५, २१
टीका — सम्यक् - दर्शन, सम्यक् ज्ञॉन और सम्यक् चारित्र का पालन करके अनेक महापुरुष निर्वाण को प्राप्त करते है, ससार का अन्त करते है, हमें भी उन्ही का अनुकरण करना चाहिये ।
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-१२६ ]
1
( २२ )
काले काले समायरे ।
द०, ५, ४, उ, द्वि
कि
टीका - काल के अनुसार समय को देखकर यथासमय था कार्य करे । प्रत्येक को अपना कार्यक्रम व्यवस्थित विभाजित करते -हुए समय पर उसे करना चाहिये । प्रमाद मे समय नही खोना चाहिये |
( २३ )
जरा जाव न पीडेड़, ताव धम्मं समायरे ।
101
८०, ८, २३
( २४ ),
जाव इंदिआ न हायंति ताव- धम्मं समायरे ।
[ उपदेश- सूत्र
* f
टीका — जब तक वृद्धावस्था दुःख नही दे, वृद्धावस्था की प्राप्ति नही हो, उसके पहले ही धर्म का आचरण कर ले, नही तो पीछे 'पछताना पड़ेगा ।
2
( २५ )
प्रसंखय जीविय मा पमायए ।
उ०, ४, १
·
LIV
द०, ८, ३६
टीका - जब तक इन्द्रियाँ शक्ति हीन न हों, वहाँ तक यानी इसके पहले ही धर्म का आचारण कर ले । ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और सेवा का आचरण कर ले | अन्यथा पूर्व पुण्यो को यहाँ पर क्षय कर और नये पापो का वोझा सग्रह कर जाना पड़ेगा ।
S
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________________
सूक्ति-सुधा
[१,२७ टीका-यह जीवन सस्कार-रहित है, यानी दुर्गुणों और विकारों की खान है । अनन्त कालीन वासनाऐ इसं आत्मा मे सन्निहित है; इसलिये प्रमाद मत करो सदंव सत्कार्यों और सयम मे लगे रहो । : -,
(२६ ): . . : - पिहिया सवस्स दंतस्स, . .
पाव कम्मं न, बंधा।
__ - द०, ४,९ टीका-जिसने आस्रव कर्म के आने के द्वार वध कर दिये है, और जो इन्द्रियो और मन को वश में रखने वाला है, वह - पाप कर्म का बन्धन नही करता ह .-..- - - - ... --... (२७ ) , ---
------ संकट्ठाणं विवज्जए।
द.०, ५, १५ उ, प्र - टीका-जहां किसी प्रकार की आपत्ति अथवा पाप की आशंका
हो, तो ऐंसे शका-ग्रस्त स्थान से दूर ही रहना चाहिए । वहाँ से हट जाना चाहिये। . . .: संसत पलोइज्जा।
द०, ५, २३, उ, प्र, टीका- अनासक्त होकर देखना चाहिये, यानी जीवन मे भोग'परिभोग वाले पदार्थों के प्रति मोह, आसक्ति और लोलपता नहीं रखनी चाहिये। 1
-
~~* - मिहो कहाहि न रमे। - - - - - : द.८, ४२ . . . . . ... - - टीका-एकान्त में; व्यर्थ वातो में समय नष्ट नही करना चाहिए, क्योकि व्यर्थ की बातें निन्दा रूप और पाप जनक ही होती है। :
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१२८]
[उपदेश-सूत्र
निहं च न बहु मन्निजा।।
द०, ८, ४२ - टीका-बहुत निद्रा नही लेना चाहिये, क्योकि यह प्रमाद है। प्रमाद का सेवन करने से वह रोग वढता ही हैं, घटता नही है। -
(३१) दुल्लहे खलु माणुसे भवे । , ,
उ०, १०,४ टीका-यह मानव-गरीर अति दुर्लभ है । महान् पुण्यो के । संयोग से इसकी प्राप्ति हुई है। इसलिये इसे भोगों में न व्यतीत कर सत्कार्यो में ही लगा रखो। .
. (३२) . जीवो पमायं बहुलो।
. . उ०, १०, १५ .. टीका-प्रकृति से ही जीव अत्यन्त प्रमादी होता है। आलस्य का सम्बन्ध जीव के साथ अनादि काल से है । इसलिये सावधान होकर सदैव सत्-प्रवृत्तियो में ही लगे रहना.चाहिये। आलस्य से बचना चाहिये। - ... ,
-. (३३ ) - -- --- भग्गं कुसीलाण जहाय सव्व । महा नियठाण पए पहेण ।
उ०, २०, ५१ टीका-कुशीलियो के, मिथ्यात्वियों के, और विषय विकारों के मार्ग को सर्वथा छोडकर महानिग्रंथों द्वारा और भगवान् महावीर स्वामी द्वारा प्रदर्शित मार्ग पर जो अनासक्त अविकार मय और यमूर्मिय है, उस मार्ग पर चलो। यही एक कल्याण कारी मार्ग है।
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सूक्ति-सुधा]
[१२९ (३४) विद्धंसण धम्म मव तं इति, विज कोजगार मावसे ।
सू०, २, १०, उ, २ टीका–ससार का सुख और ससार के पदार्थ नाशवान् है, ये अस्थायो है, ये अनित्य है ये छोड़कर चले जाने वाले है। तो फिर कौन ऐसा विद्वान् पुरुष होगा जो कि इन सासारिक-सुखो और सासारिक पुद्गलो में फसेगा ? यानी बुद्धिमान् तो इनमें आसक्त और मूच्छित नही होगा।
( २५ ) , जं हंतव्यं तं नाभिपत्थए ।
आ०, ५, १६५, उ, ५ . टीका---जो पाप रूप-है, जो घात-रूप है, जो त्याज्य रूप है, उस विषय की ज्ञानी इच्छा नही करे । उसको तो दूर से ही छोड़ दे।
पाव कस्म नेव कुजा,न कारवेजा। ... मा०, २, ९७, उ, ६ . 1. टीका-पाप-कर्म, अनिष्ट कर्म, निदनीय कर्म न तो खुद को करना चाहिये और न दूसरो से करवाना चाहिये । क्योकि खराब काम इस-लोक मे और पर लोक में सर्वत्र और सर्वदा हानि पहुंचाने वाले ही होते हैं।
( ३७ )जरोवणीयस्स हुनस्थि ताणं ।
उ०,४, १ टीका-जवतक शरीर स्वस्थ है, तबतक धर्म का, पर-सेवा का, सयम का तथा इन्द्रिय-दमन का, आराधन कर लो। अन्यथा बुढ़ापे
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१३०]
1 उपदेश-मूत्र
F
के समीप आने पर एवं कर्मों का उंदन होने पर कोई भी रक्षक नहीं बनेगा।
(३८) । नाणी नो पाए कोई वि ।
आ०, ३, ११७,'उ, ३ - टीका--ज्ञानी अपनी आत्मा को कभी भी और किसी भी दशा में प्रमाद-ग्रस्त नही करे । प्रमाद एक महान शत्रु है । अतएव सदैव इसका ध्यान रखे।
न सिया तोत्त गवेसए ।
उ०, १, ४० . . टीका--परम छिद्रान्वेषी-पर दोष दर्शक न बनो। पर दोषदर्शन से आत्म-पतन और वैर-विरोध बढता है।
(४०) नो निहणिज वीरिय ।
{ आ०, ५, १५२, उ, ३ टीका-तपस्या आदि निर्जरा के कामों में कपट का सेवन नही करना चाहिये । जीवन का प्रत्येक कार्य स्पष्ट और जल-कमलवत् निर्मल और निर्लेप होना चाहिये। जिससे अन्य संसारी जीव भी तत्त्वदर्शी पुरुष के जीवन से शिक्षा और आदर्श ग्रहण कर सके । ।
भूपनि विरुज्झेजा।
- सू०, १५, ४ . . . टीका-प्राणियो के साथ वर-भाव नही रखना चाहिये । वैरभाव'जीवन में कटुता, अमैत्री, क्लेश और पापो की परम्परा लाने नाला है । वर-भाव से जीवन में कभी भी शांति मिलने वाली नहीं है।
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सूक्ति-सुधा
Ĉ
( ४२ ) मिय काले भक्खए ।
उ०, १, ३२
टीका——भोजन करने का समय होने पर, परिमित, पथ्य, अवि
कारी और आवश्यक भोजन करो ।
7
( ४३ ) रक्खजं कोई विएज माणं ।
उ०, ४, १२
-
टीका — क्रोध से दूर रहो और मान को हटाओ । क्रोध विवेक को नष्ट करता है और मान आत्मा के गुणो का नाश करता है । ~2 (४४)
मायं न सेवेज पहेज्ज लोहं ।
उ०, ४, १२
टीका -- माया की, कपट की सेवना न करो और लोभ को छोड़ो | माया दुर्गुणों की खान है और लोभ पाप का बाप है ।
(४५)
खणं जाणाहि पंडिए ।
[ १३१
c
आ०, २, ७१, उ, १
टीका है पडित ! हे आत्मज्ञ । क्षण-क्षण का विचार करो 1
'
"
द्रव्य, क्षेत्र, काल, और भाव से प्रत्येक पंदार्थ को समझो, उस पर मननचिंतन करो । उस तत्व का अनुसधान करो, जिसके बल पर यह ससार चक्र चल रहा है ।
1
( ४६ )
प्रास च छंद चं विधिं च धीरे ।
आ०२, ८५, उ, ४
1
टीका - हे धीर । हे बुद्धिमान् । भोगो की आकांक्षा को और भोगोकी प्रवृत्ति को छोड़ दी । भोगो से आज दिन तक न तो किसी को
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,
१३२]
। उपदेश-सूत्र तृप्ति हुईहै और न होने की है। भोग तो अग्नि के समान अनन्त तुष्णा मय है और कभी भी शांत होने वाले नही है।
(४७) पुरिसा! तुममेव तुम मित्तं, किं बहिया मित्त मिच्छसि ।
___आ०, ३, ११८, उ, ३ - टीका-हे पुरुषो । तुम ही तुम्हारे मित्र हो, बाह्य- मित्र की वाछा क्यो करते हो ! यह तुम्हारी आत्मा ही खुद की मित्रे भी है और शत्रु भी है । जव यह आत्मा अच्छे कार्य करती है, तो उससे शुभ कर्मो का बधन पड़ता है, जो कि सुखावह है। और जब बुरे कार्य करती है तो अशंभ कर्मों का बंध पड़ता है जो कि दु.खावह है । अतएव अपनी आत्मा के बराबर दूसरा कोई भी मित्र अथवा शत्रु नही है। तदनुसार बाह्य सहायक का अनुसधान क्यो करते हो ? अपनी आत्मा का ही विचार करो।
(४८) पुरिसा! अत्तामण मेवं अभिणि गिज्झ,
एवं दुक्खा पमुच्चसि।.
___ा , ३, ११९, उ, ३ .. टीका--हे पुरुषो । अपनी आत्मा को ही विषय-कषाय से हटा कर, धर्म-ध्यान और शुक्ल ध्यान मे स्थित कर जीवन-व्यवहार चलाओ। इसी से तुम्हारे दुःखो का नाश होगा। बिना आत्मा पर नियत्रण किये दुःखो का कदापि नाश नही होगा।
___(४९) वंतं इच्छसि आवेडं, सेयं ते मरणं भवे।
उ०, २२, ४३
I
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सूक्ति-सुधा]
[ १३३ टीका-हे आत्मा! यदि तू जीवित रह कर त्यागे हुए भोगों की पुन. इच्छा करता है, इसकी अपेक्षा तो तुम्हारा मरना ही अधिक हितकर है-अधिक श्रेयस्कर है ।
(५०) एगप्पा अजिए सत्तू, कसाया इन्दियाणिय।
उ०, २३, ३८ ।" टीका-वशमें नही किया हुआ स्वछद आत्मा शत्रु रूप ही है। इसी प्रकार कषाय और नो कषाय तथा स्वच्छद इन्द्रियाँ भी अथवा अनियत्रित इन्द्रियाँ और विकार ग्रस्त मन भी शत्रु ही है ।
. (५१) सव्वे आभरणा भारा, सव्वे कामा दुहावहा।
उ०, १३, १६ टीका-सव प्रकार के आभूपण भार रूप है, और सब प्रकार के काम-भोग दुख के देने वाले है। इन से सच्ची शाति या आत्मिक आनन्द मिलना अत्यन्त कठिन है। "
(५२) खण मित्त सुक्खा वहु काल दुरखा - पगाम दुक्खा अणिगाम सुक्खा।
उ०, १४, १३ टीका-सांसारिक भोग, ऐन्द्रिक भोग क्षण मात्र तक ही सुख के देने वाले है, जब कि इनके परिणाम अनन्त काल तक दुःख के देने वाले है। इनका सुख तो अल्प है, और दुख अनन्त एवं विस्तृत है।
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१३४
। उपदेश-सूत्र ( ५३.). वरण जरा हरइ नरस्स।
उ०, १३, २६ टीका-बुढापा मनुष्य के रूप-सौन्दर्य को हरता रहता है, इसलिये प्रमाद को छोड कर धर्म कार्यो मे और स्व-पर कल्याण कारी कामो मे चित्त को लगाना चाहिये। स्वार्थ के स्थान पर परार्थ ही प्रमुख ध्येय होना चाहिये ।
(५४) अणुसासियो न कुप्पिज्जा ।
उ०, १, ९ ___टीका--सुशिक्षा यानी हितकारी और शिक्षाप्रद वातो का उपदेश दिये जाने पर क्रोध नही करना चाहिये।
( ५५ ). वीरे आगमण सया परक्रमेज्जा ।
बा०, ५, १६९, उ, ६ i, टीका--जो ज्ञान, दर्शन और चारित्र के परिपालन मे वीर है, उसकी वीरता इसी मे रही हुई है कि वह आगम-धर्म के अनुसार जीवन मे सदैव पराक्रम करता रहे। जीवन के नैतिक-धरातल को अजोड वनावे । . सेवा और “सयम. के कोमो . में आसाधारण, पुरुप वने।
___ (५६) - निसं नाइवढेशा मेहावी।
आ०, ५, १६९, उ, ६ टीका-जो बुद्धिमान है, जो तत्त्व दर्शी है, उसका कर्तव्य हैं कि वह भगवान महावीर स्वामी द्वारा एव वीतराग भगवान द्वारा
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सूक्ति-सुवा
[१३६ कथित उपदेश का अति-क्रमण नहीं करे। भगवान् की आज्ञा का बरावर पालन करे।
{ (५७) पर किरिअंच वज्जए नीणी।
— सू०, ४, २१, उ, २ . . . टीका-विशुद्ध चित्त वाला, तथा मर्यादा मे स्थित ज्ञानी पुरुष पर-क्रियाओं को यानी दूरारो के लिये भोग-उपभोग की क्रियाओ को जुटाने का कार्य नही करे, स्वय भी विषयासक्त एव भोगी नही बने तथा दूसरो के लिये भी विषय एव भोग की सामग्री न तो इकटके करे धौर न स्वय इनके लिये कारण भूत बने ।
~1 (५८). .
सणे जह वयं हरे, i . . एव आउखयंनि तुई। . . . . सू०, २, २, उ, १ . ___टीका-जैसे श्येन-पक्षी, बाज-पक्षी वर्तक पक्षी को-तीतर आदि पक्षी को झपट कर, पकड कर, मार डालता है, वैसे ही मृत्यु भी आयुष्यपूर्ण होते ही प्राणी को पकड लेती है और जीवन को समाप्त कर देती है, इसलिये धर्म. क्रियाओ के लिये सावधान हो जाना चाहिये।
(५९) . . इमं च म अस्थि इमं च नथि, हराहरंति त्ति कई पमानो।
टीका--यह मेरा है और यह मेरा नहीं है, इस प्रकार मूर्छाभावना मे पड़े हुए मनुष्य को एक दिन अचानक रूप से मृत्यु रूपी
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१३६ ]
[ उपदेश-सूत्र
चोर उठाकर चले जाते है । तो ऐसे सयोगो में प्रमाद को जीवन में कैसे स्थान देना चाहिये ?
( ६० ) परिव्त्रयन्ते अणियत्तकामे, श्रहो य राओ परितप्यमाणे । उ०, १४, १४,
टीका - जो काम - भोगो को नही छोड़ता है, वह रात और दिन विभिन्न अवस्थाओं में परिताप दुख पाता हुआ परिभ्रमण करता रहता है ।
( ६१ )
अज्जाई कम्माई करेहि । उ०, १३, ३२
टीका - आर्य कर्मों शील, तप, भावना, क्षमा, ही आचरण करो ।
का, सात्विक कामो का यानी दया, दान, सतोप, पर-सेवा आदि अच्छे कामो का
( ६२ )
रस गिद्धे न सिया । उ०, ८, ११
टीका - रसो में गृद्ध न स्वाद मे मूच्छित न वनो । बनो ।
वनो । इन्द्रियों के भोग-उपभोग के पुद्गलो के क्षणिक सुख में मूढ न
( ६३ )
जीवियए बहुपच्चवायए, विगाहि रयं पुरे कडे ।
उ, १०, ३
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सूक्ति-सुधा ]
[ १३७
टीका - यह जीवन अनेक विघ्न वाघाओ से भरा हुआ है, इसलिये पहले किये हुए पापो को, और कर्म रूपी रज को दूर कर दो । पूर्वं कृत पापो की शुद्धि कर डालो ।
( ६४ )
बुद्धे परिनिबुडे चरे, सन्ती मगं च वूहए ।
उ०, १०, ३६
टीका -- ज्ञान- शाली होकर, गीतार्थ होकर, वासनाओ से और पूर्वक विचरो । आत्मा के कल्याण
मूर्च्छा से रहित होकर आनन्द मार्ग की वृद्धि करो |
( ६५ )
,
जे न वंदे न से कुप्पे, बंदियो न संमुक्कसे । द०, ५, ३२, उ, द्वि
1
टीका - कोई वदना नही करे, आदर-सत्कार नही दे, तो भी उस पर क्रोध नही करे, तथा कोई वदना, आदर सत्कार करे, तो मन में अभिमान - घमंड नही लावें । खुद की निंदा-स्तुति से समभाव रहे । क्रोध और अभिमान से दूर रहे |
( ६६ )
कुम्मुव्व अल्लीण पलीय गुत्तो । द०, ८, ४१
टीका--जैसे कछुआ बड़ी सावधानी के साथ अपनी इन्द्रियो की रक्षा करता है, वैसे ही आत्मा के हित को चाहने वाले को अपनी इन्द्रियो पर और मन पर पूरा संयम और नियंत्रण रखना चाहिये ।
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१३८]
हा उपदेश-सूत्र
( ६७ ). . हसंतो नाभिगच्छेजा।
द०, ५, १४, उ, प्र टीका-हसते हुए भी । नहीं. चलना चाहिये, क्योकि यह असभ्यता का चिह्न माना जाता है। , . ,
, . (६८ ) . . दव दवस्ल न गच्छेज्जा।
___ द०, ५, १४, उ, प्र टीका-जल्दी जल्दी अविवेक-पूर्वक नही चलना चाहिये। क्योकि इससे हिंसा अथवा ठोकर लगने का भय रहता है। .
अकप्पियं न गिहिज्जा ।
द्र०, ५, २७, उ, प्र._____टीका--अकल्पनीय और मर्यादा के प्रतिकूल वस्तुओ की न्ही ग्रहण करना चाहिये । 'मर्यादा-भग ही पाप है ! इससे आसक्ति, आदि नाना विकारो के उत्पन्न हो जाने की सभावना रहती है।
कुज्जा साहूहिं सथवं! . .. . .
द०, ८,५३ टीका-साधुओ, के साथ, सज्जन और पर-उपकारी महा पुरुषो के साथ, सेवा-भावी नर-रत्नो के साथ परिचय करना चाहिये, उनकी संगति करना चाहिये। ''
(७१) अणावाह सुहाभिकेखी
गुरूप्पसायाभिमुहो रमिज्जा।
द०, ९, १० प्र, उ,
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सूक्ति-सुधा]
[१३९ • टीका-यदि अव्यावाध यानी नित्य, शाश्वत् और बाधा रहित सुख की आकांक्षा है, अथवा मोक्ष की इच्छा है तो गुरु को प्रसन्न रक्खो, उनकी आज्ञा का पालन करो। गुरु की भावना के विपरीत मत जाओ। ..
. (७२) दुल्लहं लहित्तु लामण्णं, कम्मुणा न विराहिज्जासि ।
द०, ४, २९ टीका-जो मुनी-धर्म महान पुण्य के उदय से प्राप्त हुआ है, और जो ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र मय है, ऐसे उत्कृष्ट मुनि-धर्म को प्राप्त करके मन, वचन और काया के प्रमाद से वुद्धिमान् इसकी विराधना नही करे।
(७३) .. . अभिसंधर पावविवेग भिक्खू । -
- सू०, १४, २४, . . . . . टीका--सयमी पुरुष पाप का , विवेक रखता हुआ, दुर्गुण और दुष्टता से वचता हुआ, निर्दोष वचन बोले । वाणी सुन्दर, सत्य, प्रिय, हितकारी, मधुर और शातिमय वोले।
. . . (७४ ) - . सव्वत्थ विरतिं कुज्जा।
___ सू०, ११, ११, ___टीका-प्रत्येक स्थान पर, प्रत्येक अवस्था मे, प्रत्येक मौके पर, सभी जीवो की रक्षा करनी चाहिये। अनिष्ट कार्यों से विरति रखना चाहिये । अशुभ प्रवृत्तियो से विरक्त रहना चाहिये ।
(७५) निवाण-संधए मुणि।
सू०, ९, ३६
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__ १४०]
[उपदेश-सूत्र
टीका-आत्मार्थी पुरुष काम-भोगों को छोड कर केवल निर्वाण ‘की तरफ-पूर्ण अनासक्त जीवन की तरफ ही अपनी शक्ति लगावे, 'अपना ध्यान लगावे ।
( ७६ ) समया लव भूएसु, सनु मित्तसु वा जगे।
उ०, १९, २६ टीका-ससार मे शत्रु पर और मित्र पर, सभी प्राणियो पर समता बुद्धि रखनी चाहिये । राग द्वेष रहित भावना रखनी चाहिये, मित्र-भावना और हितैषी-भावना रखनी चाहिये।
अहिपासए आय तुले पाहिं
___ सू०, २, १२, उ, ३ टीका-विवेकी पुरुष, प्राणी मात्र को अपनी आत्मा के समान ही समझे। किसी को भी कष्ट न दे। प्राणी मात्र की सेवा करे।
(७८) अणुसासण मेव पक्कमे।
सू०, २, ११, उ, १ टीका-शास्त्र में कही हुई रीति के अनुसार ही जीवन-व्यवहार चलाना चाहिये । जीवन मे सेवा, सात्विकता, त्याग और सरलता आदि सद्गुणो की ही प्रधानता होनी चाहिये।
छिन्न सोए अममे अकिंचणे ।
उ०, २१, २१, ___टीका-आत्मार्थी को छिन्न शोक, विगत शोक, ममता-मर्ची रहित, अकिंचन यानी अनासक्त और निष्परिग्रही होना चाहिये ।
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सूक्ति-सुधा
[ १४१
(८.) सुयस्त आराहणयाए अन्ना खवेइ, न य संकिलिस्सह ।
उ० २९, २४, वा ग टीका--सूत्र-सिद्धान्त की आराधना से, भगवान जिनेन्द्र देव की वाणी की परिपालना करने से अज्ञान दूर होता है, और उससे आत्मा किसी भी स्थान पर सक्लेश यानी दुख नहीं पाता है। हर स्थान पर आनद ही आनद की प्राप्ति होती है । ,
(८१) -- रयाई खेवेज पुराकडाई।
उ०, २१, १८ । टीका-पूर्व कृत पापो को निरन्तर क्षय करते रहना चाहिये। हमारी प्रवृत्तियाँ निरन्तर सात्विक और सेवामय ही होना चाहिये।
.... -( ८२ ) अप्पाण रक्खी चरे अप्पमत्तो।
उ,१, १० - टीका--आत्मा की जन्म-मरण से, ससार से रक्षा करने वाला मोक्षाभिलाषी तथा आत्मार्थी, अप्रमादी होकर इन्द्रियो और मन को अशुभ-योग से एव कपाय से हटाकर, अपनी वृत्तियो को शुभयोग और श्रेष्ठ-ध्यान में लगाता हुआ अपना काल-क्षेप करे-समय इस प्रकार बितावे।
(८३) निरासवे संख वियाण कम्म, उवेह ठाण विउलुत्तमं धुवं ।
उ०, २०, ५२
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२४२]
[ उपदेश-सूत्र टीका-सब प्रकार के आश्रव-कार्यों को दूर कर, कर्मों का पूर्ण रीति से क्षय कर, विस्तीर्ण तथा सर्वोत्तम, और ध्रुव स्थान "मोक्ष" को प्राप्त किया जा सकता है। ।
(८४). . वित्तण ताणं न लभे पमत्ते।
- उ०, ४, ५ टीकाप्रमादी पुरुप को इस लोक और परलोक मे पाप कर्म जनित दुष्फल से धन भी नही वचा सकता है, धन भी उसकी रक्षा नही कर सकता है, इसलिये प्रमाद छोड़कर धर्म-ध्यान मे अपना समय बिताना चाहिये।
सोय परिणाय चरिज्ज देते।
आ० ३, ८, उ, २ टीका-विषयो में आसक्ति ही संसार का झरना है। ऐसे झरने के स्वरूप को समझ कर और उसे त्याग कर इन्द्रियो और मन का दमन करने वाला सयमी एव वीर पुरुष सयम-मार्ग पर और कर्त्तव्य मार्ग, पर ही चलता रहे। कठिनाइयो, उपसर्गों, परिषहो, विकारो और वासनाओ से घबरावे नही, चल-विचल होवे नही, बल्कि इन पर विजय प्राप्त करता हुवा इष्ट ध्येय की प्राप्ति के लिये दृढता पूर्वक आगे बढ़ता रहे। .
(८६) पासे समिय दंसणे, छिन्दे गेहिं सिणेह च।
उ०, ६, ४ टीका-सम्यक् दर्शनी, आत्मार्थी, ससार की विषमताओं और विचित्रताओ को देखे, इन पर विचार करे, और मूच्छी तथा मोह को हटावे, आसक्ति को दूर करे । - , -
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सूक्ति-सुधा]
३
. (८७) नो अत्ता-आसाइज्जा,
नो परं आसाइज्जा ।
__ आ०, ६, १९२, उ, ४ टीका-विचार-शील पुरुष न तो अपनी आत्मा को चिन्ता, शोक, व्याधि, उपाधि, अव्यवस्था, चचलता और चपलता आदि दुर्गुणो में डाले और न दूसरो की आत्मा को ही इन उपाधियों में डाले। सारांश यह है कि विद्वान् पुरुष न तो स्व को दु.खी करे और न पर को ही दुःखी करे । सभी को शाति पहुचावे ।
(८८) . . . सातागार वपिाहुए, : , उवसंते मिहे चरे।
. सू०, ८, १८ - टीका-ज्ञानी आत्मा, मुमुक्षु आत्मा, सुख-भोग की तृष्णा नहीं करता हुआ, एवं क्रोध आदि को छोड़ कर शान्त होता हुआ माया रहित होकर विचरे।
7
पावाई मेधावी अज्झप्पेण समाहरे।
। सू०, ८, १६ टीका-बुद्धिमान् पुरुष अपने पापो को धर्म ध्यान की भावना द्वारा और शुभ कार्यों द्वारा अलग हटावे । मार्यादा में रहने वाला, भले और बुरे का विचार करने वाला पुरुष पाप रूप अनुष्ठानों को धर्म-ध्यान की भावना द्वारा दूर कर दे।
___ एगन दिटठा अपरिग्गहे उ,
खुझिज लोयरस वसं न गच्छे । । सू०, ५, २४, उ, २ . ,
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[ उपदेश-सू
१४४ ]
टीका - ज्ञानी पुरुष जीवादि तत्त्वो में सम्यक् श्रद्धा रखता हुआ परिग्रह रहित होकर कषायों का स्वरूप जाने और कभी कषायों के वश मे न होवे |
17.
ज्ञान के साथ अनासक्ति आवश्यक है और अनासक्ति का आधार अकषायत्व है ।
1
1
( ९१ )
अन्तो वहिं विऊरिसज्ज अज्झत्थं सुद्ध मेसए । आ० ८, ९, उ, ८
टीका -- आंतरिक रूप से शुद्ध होकर यानी क्रोध, मान, माया, लोभ, मद, मोह, मत्सरता आदि आतरिक दुर्गुणो से दूर होकर, इनसे शुद्धि प्राप्त कर, इसी प्रकार बाह्य रूप से परिग्रह आदि भोगउपभोग के पदार्थो से रहित होकर, सर्वथा अकिंचन और निष्परिग्रह शील बन कर आतरिक और बाह्य रीती से पवित्र होकर आत्मा की शुद्धि की कामना करे । आत्मा को परमात्मा के रूप में विकसित करे । आत्मा के गुणो का अनुसंधान करे। आत्मशक्तियो के व्यक्तित्व का पूर्ण विकास करे ।
( १२ )
छिंदिज्ज सोयं लहु भूय गामी ।
ܐ
3
आ., ३, ७, उ, २
टीका–संसार में जीवन - प्रवाह को चालू करने वाले शोकसंताप को तथा राग-द्वेष भाव को वह आत्मा छोड़ दे, जो कि मोक्ष में शीघ्र जाने की इच्छा रखता हो । शोक-सतात, आर्त्त ध्यान, छोडने में हो आत्मा का वास्तविक कल्याण, रहा हुआ है ।
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सूक्ति-सुधा]
[१४५ ( ९३ ) दिठेहिं निवेयं गाच्छिज्जा ।
, आ०, ४, १२८, उ, १ टीका-राग-द्वेष की दृष्टि से, रति-अरति की दृष्टि से, आसक्ति और तृष्णा की दृष्टि से विरक्त हो जाओ। आत्मा को पतन की ओर ले जाने वाली भावनाओ से निवेद-अवस्था ही सम्यक्त्व की भूमिका है, यही त्याग-भावना का मूल आधार है।
अच्चेही अणु सास अ-पी।
. मू०, २, ७, उ, ३ . . . टीका--विपय-सेवन से अपनो आत्मा को पृथक् करो और उसे शिक्षा दो। धर्म-मार्ग की ओर प्रेरित करो। सयम में ही शादि है, और असयम में दुख ही दुख है, इस पर अपना दृढ विश्वास जमाओ।
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श्रमण-भिक्षु-सूत्र
(१) महुगार समा बुद्धा ।
द०, १, ५ टीका-आत्मार्थी और ज्ञानी महात्मा इस प्रकार जीवन-वृत्ति रखते है, जैसे कि मधुकर-भवरा रखता है। मध कर अनेकानेक पुष्पो पर जाकर मधु-सचय करता है, परन्तु एक भी पुष्प को पीड़ित नही करता है। यही वृत्ति ज्ञानी-साधुओं की भी समझनी चाहिये।
(२) सम सुह दुक्ख सहे अजे स भिक्खू ।
द०, १०, ११ टीका-सुख-दुख दोनो यवस्थाओ में जो समभाव रखता है, राग द्वेप से और हर्प-शोक से परे रहता है, वही सच्चा साधु है, वहीं स्व -पर-तारक महापुरुप है।
(३) रोइन नाय पुत्त वयणे, पंचासव संवरे जे स भिक्खू ।
द., १०, ५ टीका-ज्ञातपुत्र भगवान महावीर स्वामी के वचनो पर विश्वास लाकर, रुचि लाकर, पांच आश्रवोंको-१ मिथ्यात्व, २ अव्रत, ३ प्रमाद, ४ कपाय और ५ अशुभ योगो को जो रोकता है और निरन्तर सुमार्ग में ही लगा रहता है, वही भिक्षु है-वही महापुरुष है।
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सूक्ति-सुधा
[ १४१ (४) वतं नो पड़िआयइ जे स भिक्व ।
द०,१०,१ टीका-त्याग किये हुए विषयो को, कषायो को, इन्द्रियों के भोगो को जो पुरुष पुनः नही ग्रहण करता है, वही दृढ़चित्त वाला है। वही वास्तव मे भिक्खू या भिक्षु है । वही सच्चा साधु है । वही महापुरुष है।
अ कम्हि वि न मुच्चिए स भिक्खू।।
- . उ०, १५, २ * टीका-जो पुरुष किसी भी प्रकार की वस्तु में अथवा भोग मे, यश-कामना में या पद लोलुपता मे मूच्छित नही होता है, आसक्त नहीं होता है, वही भिक्षु है, वही आत्मार्थी है और संसार में रहता हुधा भी वही जीवन-मुक्त पुरुष है ।
मण वय कायसु संवुडे स मिक्खू ।
उ., १५, १२ ६ टीका-जिसने अपने मन, वचन और काया पर भली प्रकार से संयम रूप अंकुश लगा दिया है, जिसने इन्द्रियो और मन पर काबू कर लिया है, वही सच्चा भिक्षु है, वही विदेह महापुरुष है। .
. . (७) जिइन्दिओ सधश्रो विप्प नुक्के, ___ अणुक्कसाई स भिक्ख।
उ०, १५, १६ टीका-जो जितेन्द्रिय है, जो सव प्रकार के परिग्रह से, मोह से यौर ममता से रहित है, जो अल्प कपायी है, वही वास्तविक साधु है, वही उन्मुक्त महापुरुप है। .
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___१४८]
[श्रमण-भिक्षु-सूत्र (८) धम्मपझाणरए जे स भिक्खू ।
.... द०, १०, १९ टीका-भिक्षु को चाहिये कि वह अपने समय को धर्म-ध्यान, पठन-पाठन, आत्म-चिन्तन, .ईश्वर-आराधन ऑदि सत्कार्यो में ही लगाये रक्खे । यानी जो पुरुष धर्म-ध्यान मे ही स्त रहता है, वही वास्तव मे भिक्षु है।
अझप्परए सुसमाहि अप्पा जे स भिवख्नु ।
'. द०, १०, १५ . - - टीका-जो रात और दिन आध्यात्मिक विचारों में ही, दार्शनिक विचारो में ही, आत्मा और परमात्मा के अनुसधान मे ही लगा रहता है तथा अपनी आत्मा को समाधि-युक्त, स्थितप्रज्ञ या निष्काम भावना वाली बनाये रखता है वही भिक्षु है । वही ससार समुद्र के लिये धर्म-जहाज है। ..."
(१०) सब्व संगावगए जे स भिवखू
द०, १०, १६ टीका--जो संव प्रकार के सग से परिग्रह से दूर है, जो निर्ग्रन्थ है, जो असक्ति से दूर है, जिसमें कोई भी कामना शेष नही है, वही भिक्षु है, वही साधु है । वही पुरुष-पुगव है।
(११). प्रणाइले या अफसाद भिक्खू ।'
। सू०, १४, २१ टीका-- साधु सदैव निर्मल रहे, चित्त को सयमी रक्खे, चित्त की चचलता पर काबू रक्खे और लोभ आदि सभी कषायो से दूर रहे ।
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सूक्ति-सुधा -
१४९ - (१२) सम्वे अण्डे परिवज्जयंते, अणाउल या अकसाइ भिक्ख ।
. .सू०, १३, २२, ____टीका-सब प्रकार के अनर्थों से बचता हुआ, सव प्रकार के व्यर्थ के कामो को छोड़ता हुआ; आकुलता रहित होकर और कषाय से रहित होकर भिक्षु-आत्मार्थो पुरुष अपना जीवन शाति-पूर्वक व्यतीत करे । सत्कार्य में ही-सलग्न रहे। --
निगंथा धम्म जीविणो।
द०, ६, ५० टीका-बाह्य और आभ्यतर रूप से परिग्रह से रहित, वाह्य परिग्रह-सम्पत्ति-वैभव और आंतरिक परिग्रह कपाय-वासना आदि विकार, इन दोनो से रहित, ऐसे अनासक्त जीवी निग्रंथो का जीवन
और इनका प्रत्येक क्षण, प्रत्येक श्वासोश्वास एव जीवन-क्रियाएँ संवरमय ही है, धर्म युक्त ही है। ---
___--- . निग्गथा उज्जु दंसिणो। ..
द०, ३, ११ - . . . . . ___टीका-जो बाह्य और आभ्यतर परिग्रह से रहित है, ऐसे निर्ग्रन्थ ऋज़ दर्शी होते है । यानी उनके सामने केवल मोक्ष और सयम-मार्ग ही रहता है । निर्ग्रन्थो की वृत्तियाँ इधर उधर भोगो में भटकने वाली और तृष्णामय नही होती है।
लद्धे विपिट्ठी कुबइ से हु चाई।
. द०, २, ३
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१५०]
। श्रमण-भिक्षु-सूत्र टीका-भोग-उपभोग की वस्तुएं प्राप्त होने पर भी जो वैराग्य पूर्वक उन्हे छोड़ देता है, वही वास्तविक त्यागी कहलाता है ।
(१६) गुणेहिं साहू अगुणेहिं असाहू ।
द०, ९, ११ तृ, उ, टीका-गुणो से ही-सेवा, त्याग, कर्मण्यता और इन्द्रिय विजया से ही साधारण पुरुप भी साधु पुरुप या सत्पुरुष वन जाता है। इसी प्रकार दुर्गुणो से ही--स्वार्थ, आलस्य, इन्द्रिय-भोगो मे आसक्ति, दुष्ट विचिंतन और विकथा आदि से पुरुष असावु, नीच या राक्षस वन जाता है।
(१७) अहो जिहिं असावज्जा, : . वित्ती साहूणं देसिया।
द., ५, ९२, उ, प्र टीका-रागद्वेप को पूर्ण रीति से जीतने वाले अरिहतो ने साधुओ के लिये जीवन-व्यवहार की वृत्ति निर्दोप यानी अन्य किसी को भी किसी भी प्रकार से कप्ट नही पहुँचाने वाली वतलाई है । तथा जो सर्व हितकारी हो ऐसी उपादेय और परम प्रसन्नता कारक वृत्ति का ही उन्होने उपदेश दिया है।
(१८) असंभत्तो अमुच्छिनो, भत्त पाण गवेसिए ।
द०, ५, १, उ, प्र टीका-चित्त की व्याकुलता, अव्यवस्थितता, पदार्थो के प्रति यासक्ति आदि मानसिक विकारो का सर्वयां परित्याग कर साधू निर्दोप आहार-पानी की गोचरी करे, मधुकरी करे।
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सूक्ति सुधा]
[१५१
( १९) धम्माराम चरे भिक्ख।
उ०, १६, १५ टीका-भिक्षु सदैव धर्म रूपी बगीचे मे ही, स्व-पर कल्याण कारी मार्ग में ही विचरता रहे । दान, शील, तप और भावना के सुन्दर उद्यान मे ही स्वय विचरे और दूसरो को भी इसी ओर आकपित करता रहे।
(२०) दाण भत्ते सणा रया।
द०, १, ३ टीका -जो वास्तविक साधु है, वे निर्दोष आहार-पानी की हो गवेषणा करते है। गाय-वृत्ति के समान अथवा भ्रमर की वृत्ति के समार आहार-पानी की वृत्ति को जीवन मे स्थान देते है ।
(.२१ ) वालुया कवल चेव, निरस्साए उ संजमे।
उ०, १९, ३८ टीका-सयम पालना, नैतिक और आध्यात्मिक नियमो को पालना रेत के कणो के समान कठोर है, निस्वाद और नीरस है । किन्तु भविष्य मे इनका परिणाम हितावह है, और कल्याण कारी है,
(२२) णो निग्गंथेविभूसाणुवादी हविज्जा।
उ०, १६, ग०,९ टीका-जो निर्ग्रन्थ है, जो ब्रह्मचारी है, जो आत्मार्थी है, उसको शरीर की विभूपा, शरीर का श्रृंगार नहीं करना चाहिये ।
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३५२J
[श्रमण-भिक्षु-सूत्र
( २३ ) अणुव कसे अप्पलीणे; मज्झेण मुणि जावए।
सू०, १, २, उ, ४ टीका---साधु पुरुप, मुमक्ष पुरुष, किसी भी प्रकार की मद नही करता हुआ, विपय-वासना और विकार मे नही फसता हुआ, मध्यस्थ
वृत्ति से यानी तटस्थ-वृत्ति से रहे । अनासक्त-वृत्ति से अपना जीवन ___ व्यतीत करता रहे।
3 . ( २४ ) - समयाए समणो होइ, वरभचेरेण वम्भणो।
___ उ०, २५, ३२ . ” टीका--समभाव रखने वाला हो, राग द्वेप से दूर रहने वाला ही, हर्ष-शोक तथा निंदा-स्तुति से दूर रहने वाला ही श्रमण है-साधु है। और जो ब्रह्मचर्य से युक्त है, वही वास्तव मे ब्राह्मण है । आन्तरिक गुणो के अभाव में वाह्य वेश और जाति-कुल कोई अर्थ नही उखते है।
( २५ ) पुढवि समे मुणी हविज्जा।
द०, १०, १३ टीका-मुनि की वृत्ति पृथ्वी के समान सहन-शील होनी चाहिये। पृथ्वी पर जैसे सब प्रकार की मान-अपमान वाली क्रियाऐ की जाती है, मल-मूत्र आदि फेका जाता है, तो भी वह समानरूप से सभी को आश्रय देती है उसी प्रकार विविध दुख, पीड़ा,अपमान,निदा,तिरस्कार करन वालो के प्रति भी मुनि मित्र भाव का ही व्यवहार करे ।
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• सूक्ति-सुधा ]
( २६ ) - भिक्खू सुसाहुवादी |
. -सू०, १३, १३
टीका - सयमी पुरुष का -- यांनी मोक्ष मार्ग के पथिक का यह कर्त्तव्य है कि वह मधुर भाषी हो, स्व-पर के लिये.. कल्याण-कारी भाषा का वोलने वाला हो, अप्रिय, कठोर, मर्म-घाती आदि दुर्गुणो चाली भाषा का वह परित्याग कर दे ।
( २७ ) विवित्त वासो मुणिणं पसत्थो । उ०, ३२, १६
1
[ १५३
टीका-विविक्तं-वासं, अर्थात् एकान्त - निर्जन-वास ही मुनियो के लिये और आत्मार्थियो के लिये प्रशसनीय है, हितकर है, समाधिकर है और स्वास्थ्यकर है - 1
R
चरे मुणी
( २८ ) -अन्नस्स - पाणस्स अणाणुगिद्ध | सू० १३, १७
टीका - स्वादिष्ट आहार- पानी में आसक्त नहीं होना चाहिये । योग्य पदार्थों के प्रति मूर्च्छा भाव नही रखना चाहिये । आसक्ति भाव ही अथवा मूर्च्छा भाव ही पतन का सीधा मार्ग है । एक बार पतन का प्रारम्भ होते ही पतन की परम्परा चालू हो जाती है । कहा भी है कि - "विवेक भ्रष्टानाम् भवति विनिपात. शतमुख. ।"
( ३९ ) सव्वउ विमुक्के | सू०, १०, ९ -
टीका—सव प्रकार के मानसिक, वाचिक, शारीरिक और पौद्गलिक परिग्रहो से रहित होकर तथा अनासक्त होकर, इसी प्रकार अनर्थो से रहित होकर, मुनि या आत्मार्थी पुरुष पूर्ण शाति के साथ अपना जीवन काल व्यतीत करे ।
}
2
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१५४
[ श्रमण- भिक्षु-सूत्र
( ३० ) उच्चावपसु विसपलु ताई, निस्संसयं भिक्खु समाहिपत्ते ।
सू०, १०, १३
टीका - नाना प्रकार के विषयो मे राग-द्वेप रहित होकर यानी विपयो से सर्वथा मुह मोडकर, जो अहिंसा का पूरी तरह से पालन करता है, निस्सदेह ऐसा पुरुप - साधु है, वह महात्मा है, और वह स्थायी समाधि को प्राप्त करता है ।
( ३१ )
चरे मुणी सव्वतो विष्पमुक्के ।
1
सू०, १०, ४
टीका - वाहिर और भीतर सभी वधनो से मुक्त होकर, कषाय से परिमुक्त होकर, योगो से जितेन्द्रिय होकर, पक्षी के समान अनासक्त होकर, मुमुक्षु आत्मा स्वतन्त्र रूप से विचरता रहे । मुक्त-भाव से विहार करता रहे ।
( ३२ )
सदा जप देते. निव्वाणं सधए मुणी । मू०, ११, २२
टीका -- ससार के दुखो से छुटकारा पाने की इच्छा वाला पुरुष सदा प्रयत्नशील रहता हुआ जितेन्द्रिय रहे । सतत् सुकर्मण्यशील रहे। आत्मा के गुणो का विकास करने के लिये जितेन्द्रियता सर्व प्रथम सीढी है । जितेन्द्रियता के अभाव में आत्मा के व्यक्तित्व का विकास नही हो सकता है ।
( ३३ ) दुक्करं तारुण्णे समणत्तणं ।
उ०, १९, ४०
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सूक्ति-सुधा
[१५५. टीका-यौवन अवस्था मे ब्रह्मचर्य पूर्वक साधू-धर्म पालना अत्यन्त कठिन है। साधु-धर्म की पालना के प्रति अत्यन्त जागरूकता की आवश्यकता है।
(३४) नातिवेल हसे मुणी।
. . सू०, ९, २९ टीका--साधु मर्यादा को छोड़कर नही हँसे । मर्यादा का उल्लंघन करते हुए हँसना साधु और श्रावक दोनो के लिये सभी दृष्टियों से हानिकर है, अवांछनीय है।
( ३५ ) अकुसीले सया भिक्खू, गोव संसग्गिय भए ।
सू०, ९, २८ टीका-साधु स्वयं कुशील न वने, विपरीत मार्ग गामी न हो। किन्तु सदैव सच्चारित्र शील होकर वीतराग देव द्वारा कथित अहिंसा दया-मार्ग पर और सेवा-मार्ग पर ही चलता रहे । पूर्ण ब्रह्मचारी रहे। कुशील यानी दुराचारियो की सगति भी नही करे । सगतिका जीवन पर वहुत बड़ा असर हुआ करता है । अतएव सदैव सुशील पुरुषो की ही सगति करनी चाहिये ।
सुद्धे सिया जाए न दूसएज्जा। -
सू०, १०, २३ टीका-निर्दोष आहार मिल जाने के वाद साधु आहार के स्वादिष्ट अथवा अस्वादिष्ट होने पर राग-द्वेप करके उसको अशद्ध नही वनावे । भावना द्वारा सदोप न कर दे । यानी स्वादिष्ट आहार के प्रति राग-भाव, मूर्छा-भाव नही लावे । इसी प्रकार नीरस आहार
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१५६]
[श्रमण-भिक्षु-सूत्र
के प्रति द्वेष-भाव या घृणा-भाव नही लावे । सर्प-विल प्रवेश-न्याय के समान तटस्थ भाव से आहार-पानीको गले से उतार दे। .
( ३७ ) विशगरेजा समयासुपन्ले ।।
. सू०, १४, २२. टीका--उत्तम बुद्धि सपन्न साधु धनवान और दरिद्र सवको समान भाव से ही धर्मोपदेश देवे । धर्म कथा कहते समय साधु धनवान के प्रति अधिक ध्यान न दे और गरीब के प्रति कम ध्यान नहीं दे, किन्तु सबके प्रति समान भावना के साथ उपदेश दे।
ण कत्थई भास विहिसइज्जा।
सू०, १४, २३ टीका-~-जो श्रोता उपदेश को ठीक रीति से नहीं समझता है, उसके मनको साधु अनादर के साथ कोई बात कहकर नही दुखावे, तथा कोई श्रोतां प्रश्न करे, तो उसकी बात की निन्दा भी नही करे, व्याख्याता हर सयय गंभीरता का, प्रियता का, सौष्ठव का और भापा सौम्य का ध्यान रखे।
णो तुच्छए णो य विकथइज्जा ।।
सू०, १४, २१ । टीका-~ज्ञानी पुरुप पूजा-सत्कार को पाकर मान नही करे तथा अपनी प्रशसा भी नही करे । आत्मश्लाघा से दूर रहे । पूजा-सत्कार भी एक प्रकार का अनकल परिषह है। महा कल्याण के पथिक को इस पर भी विजय प्राप्त करना चाहिये।
(४०) निई च भिक्खू न पसाय कुज्जा।
सू०, १४, ६
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[ १५७
टीका—अनत शाति का इच्छुक भिक्षु अत्यधिक निद्रा और प्रमाद का सेवन नही करे, बल्कि शास्त्र मे निर्दिष्ट निद्रा से ज्यादा निद्रा नही लेवे ।
सूक्ति-सुधा
C
४१ )
( ४१
अलोल भिक्खू न रखेंखु गिज्झे ।
द०, १०, १७
- टीका - साधु - मर्यादा ग्रहण करके भिक्षु इन्द्रिय लोलुपता न रखे, इन्द्रियो के रसो मे गृद्ध न वने । भोगी और इन्द्रिय-लम्पट त हो । किन्तु रूखे-सूखे, नीरस ओर निस्वाद भोजन मे ही सतोष रखे । ( ४२ ) सामण्णं ' दुच्चर । उ०,१९,, २५
टीका — श्रमण-धर्म का पालना, साधु- वृत्ति का पालना, पाचो महाव्रतो की निर्दोप रूप से परिपालना करना अत्यंत कठिन है, तलवार की धार पर चलने के समान है । बल हीन आत्मा इस प्रशस्त और कल्याण कारी मार्ग पर नही चल सकता है |
( ४३ ) मज्जई ।
मुणी सू०, २, २, उ, २
टीका—सच्चा मुनि-महात्मा वही है, जो कि अहकार नहीं
करता है, अभिमान नही करता है, बल्कि विनय, नम्रता, सरलता को ही जीवन का आधार बनाता है ।
( ४४ )
1
1
निरुप्रमो
निरहंकारो, चरे भिक्खु जिणाहियं ।
सू०, ९, ६
टीका - भिक्षु ममता रहित हो, आसक्ति रहित हो, अभिमान.
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१५८]
[श्रमण-भिक्षु-सूत्र
रहित हो, यानी विनय शील हो, ऐसे गुणो से युक्त होकर जिनेन्द्रभगवान द्वारा कथित धर्म मे शाति पूर्वक जीवन व्यतीत करता रहे।
( ४५ ) चिच्चाण यंतगं सोयं, निरवेक्खो परिवए।
सू०, ९, ७ टीका-आतरिक शोक को, ताप को, आसक्ति को त्याग कर निरपेक्ष होकर, तृष्णा रहित होकर, मुमुक्षु या परमार्थी पुरुष अपना जीवन-काल व्यतीत करता रहे । सेवा की साधना मे सलग्न रहे ।
(४६ ) जो धोवती लुसयती व वत्थं, अहाहु से णाग णियस्स दूरे। .
सू०, ७, २१ टीका-जो मुनि होकर, त्यागी होकर, श्रृंगार- भावना से चस्त्र को घोता है, अथवा शोभा की दृष्टि से बड़े वस्त्र को छोटा करता है, या छोटे को बड़ा करता है तो वह सयम से दूर है, ऐसा तीर्थंकरो ने तथा गणधरो ने कहा है।
(४७) अभयंकरे भिक्खु प्रणाविलप्पा । ।
सू०, ७, २८ टीका-मुनि का यही धर्म है कि वह प्राणियों को अभय देने चाला हो, तथा विषय-कषाय से रहित हो। स्वस्थ चित्त वाला होकर अच्छी रीति से सयम की परिपालना करे।
(४८) . भारस्स जाता मुणि भुजपज्जा।
सू०, ७, २९
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सूक्ति-सुधा
[ १५९
टीका - मुनि अथवा निस्पृह त्यागी स्वाद के लिये और शरीर को बलिष्ठ बनाने की भावना से भोजन नही करे, वल्कि सयमरूपी यात्रा के लिये और पांच महाव्रत की रक्षा के लिये अनासक्त होकर भोजन करे ।
T
( ४९ ) दुक्खेण पुट्ठे धुय माइएज्जा ।
सू०, ७, २९
1
टीका -- दुःख का स्पर्श होने पर, कठिनाइयो के आने पर, परिपहों और उपसर्गों के उपस्थित होने पर, साधु विचलित न हो, परन्तु दृढता के साथ, सयम पर स्थित रहे और मोक्ष का ही ध्यान रखें ।
(५०)
अणगारे पञ्चकखाय पावए ।
सू०, ८, १४
टीका-साघु या त्यागी महात्मा, पाप कर्मों का अशुभ मानसिक, वाचिक और कायिक कर्मों का त्याग करके, भोगों को और कषायों को दूर करके निर्मल आत्मा वाला होवे । कषाय यानी क्रोध, मान, माया और लोभ का परित्याग करने पर ही मुनि धर्मं और त्याग - अवस्था कायम रह सकती है |
( ५१ ) भिक्खवत्ती सुहायहा । ०, ३५, १५
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टीका - मानव-जीवन प्राप्त करके, सभी सासारिक सम्बन्धों को त्याग करके, निश्चितता पूर्वक भिक्षा वृत्ति से जीवन चलाना वास्तव में महान् आनन्द दायक है । अनासक्ति के साथ जीवन व्यवहार को चलाने के लिये भिक्षावृत्ति निस्सदेह सुख को लाने वाली है ।
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१६०7
[श्रमण-भिक्षु-सूत्र
( ५२ ) अणगार चरित्त धम्म दविहे, ' सराग सजमे चेव, वीयराग सजमे चेव । ।
ठाणा, २, रा, ठा, उ, १, २५ टोका--अणगार चारित्र अथवा साधु धर्म भी दो प्रकार का है --१ सराग सयम और २-वीतराग सयम । - सराग सयम मे गरीर, धार्मिक-उपकरण, यश कीति, सन्मान आदि के प्रति ममत्व-भाव रहता है, जब कि वीतराग मयम में ममता, आसक्ति आदि का सर्वया लोप हो जाता है। ...,
मुणी मोर्ण समायाय,
धणे कम्म सरीरगं ।' - - - . . . आ०, २, १००, उ, ६ .
टीका--आत्मार्थी मुनि-मौन को ग्रहण कर, अपनी वृत्तियो को नियत्रित कर, सात्विक-मार्ग पर उन्हे सयोजित कर, अपने पूर्व सचित कर्मो का और, मानसिक अशुभ सस्कारो - का, तथा अनिष्ट वासनामो का क्षय करता रहता है । अथवा इन्हे क्षय करे ।
चत्तारि आयरिया, आमलंग महुरफल समाणे, मुदियामहुर फल समाणे खीर महुर फल समाणे,
खंड महुरफल समाणे।
ठाणा०, ४ था, ठा०, उ, ३, १३ । टीका-आचार्य चार प्रकार के होते है--१-आवले के रस के समान शब्द-प्रयोग में उपालभ आदि रूप खटास-मिटास-पद्धति का प्रयोग
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सूक्ति-सुधा]
[१६१ करते हुए हित शिक्षा देने वाले गुरु । २ द्राक्ष के समान अधिक मधुर वचनो का प्रयोग करते हुए और उपालभ रूप शब्दों का अति सूक्ष्म ही प्रयोग करने वाले शिक्षा-दाता गुरु देव दूसरे प्रकार के आचार्य है। ३ क्षीर के समान अति मधुर शब्दो का प्रयोग करके हित-शिक्षा देने वाले गुरु तीसरे प्रकार के है। ४ शक्कर के समान सर्वथा मधुरमधुर शब्दो का प्रयोग करते हुए ही हित-शिक्षा देने वाले आचार्य चौथे प्रकार के गुरु देव है।'
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महापुरुष-सूत्र
सड्ढी आणाए मेहावी ।
आ०, ३, १२५, उ, ४ टीका-जो भगवान की आज्ञा में-वीतराग के आदेश में विश्वास करता है, ज्ञान, दर्शन और चारित्र के प्रति आस्था रखता है, वही मेधावी है । वही तत्वदर्शी महापुरुष है।
(२) विणियहृति भोगेसु, जहा से पुरिसुत्तमो।
द०, २, ११ टीका-जो भोगो से दूर रहते है, वे ही वास्तव में पुरुषोत्तम हैं। वे ही श्रेष्ठ और महापुरुष है।
पंडिया पवियक्षणा विणियट्टन्ति भोगसु।
उ०, ९, ६२ टीका-पडित तथा विचक्षणपुरुष यानी प्रतिभा सपन्न महापुरुष भोगो से निवृत्ति लेते है 1 वे भोगो में कभी भी नही फसते है।
(४) बुद्धो भोगे परिचयई।।
उ०, ९,३ टीका-बुद्धिमान् पुरुप, विवेकी पुरुष ही भोगो को छोड़ता है।
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सूक्ति-सुधा ]
[ १६३
मूर्ख तो भोगों में फस जाता है और अत में जाल में फसी हुई मछली के समान दुख पाता है ।
( ५ ) मेधाविणो लोभ मयावतीता ।
सू०, १२, १५
टीका
-
- बुद्धिमान् पुरुष लोभ से दूर रहते है । ज्ञानी तृष्णा के जाल में नहीं फसते है । और इस प्रकार अपनी वीतराग भावना की वृद्धि करते रहते है |
( ६ )
अंताणि धीरा सेवंति, तेगा अंतकरा इह | सू०, १५, १५
टीका -- महापुरुष विषय और कषाय का अन्त कर देते हैं, इसलिये वे ससार का भी अत कर देते हैं, जहाँ त्रिषय और कषाय है, वही ससार है; और जहा ये नही हैं, वही अमर शान्ति है ।
.- ( ७ )
से हु चक्खू मणु हसाणं, जे कंखाए य अंतर |
こ
- सू०, १५, १४
टीका-जिस पुरुष को भोग की तृष्णा नही है, वहीं पुरुष सब मनुष्यो को नेत्र के समान उत्तम मार्ग दिखाने वाला 1 '( ८ )' जिदिए जो सहर, स पुज्जो
द०, ९,८, तृ, उ
टीका -- जितेन्द्रिय होकर, स्थित प्रज़ होकर, कर्म योगी होकर जो दूसरो के द्वारा बोले हुए दुष्ट और अनिष्ठ वचनों को भी अका-, रण सहता है, तथा सत्कार्य म मलग्न रहता है, वही पूजनीय है
·
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१६४]
ह महापुरुष-सूत्र
चउक्कसायावगए स पुज्जो।
द०, ९, १४, तृ, उ, टीका--जो पुरुष चारो , कषायो से-क्रोध, मान, माया और लोभ से रहित है, वही कर्म योगी है। और वही पुरुष पूजनीय है।
संतोल पाहन्न रए स पुज्जो।
द०, ९, ५ तृ, उ टीका--जो उपलब्ध यानी प्राप्त सामग्री में ही संतोष कर लेता है, और इच्छा तृष्णा को नहीं , बढ़ाता है, पर-धन को धूल के समान और पर-वनिता को माता-वहिन के समान समझता है, वही पूजनीय है।
अणासए, जो उ सहिज्ज, कंटए स पुज्जो।
. द०, ९, ६, त, उ,, टीका-विना किसी आशा-तृष्णा के, एवं निष्काम भाव से जो संकट सहता रहता है, और स्व-पर-कल्याण में रत रहता है, वही पूजनीय है।
(१२) जो राग दोसेहिं समोस पुज्जो.।
द०, ९, ११, तु, उ, • टीका-~-जो पुरुष निन्दा स्तुति मे, मान-अपमान में, इष्ट-अनिप्ट के संयोग-वियोग में समान भावना रखता है, तथा हर्ष शोक. से दूर रहता है, वही पूजनीय है ।
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सूक्ति-सुधा]
[१६५
(१३) गुरुं तु नासाययई स पुज्जो।
द०, ९, २, त, उ, टीका-जो अपने गुरु की यानी अपनी से ज्ञान-वृद्ध की, आय वृद्ध की, चारित्र वृद्ध की, गुण वृद्ध की आशातना नहीं करता है, अविनय नही करता है, अभक्ति नहीं करता है, दुर्भावना नही करता है । वही पूज्य है-वही आदर्श है।
( १४ ) सुरा दृढ़ परक्कमा ।
उ०, १८, ५२ ___टीका-जो शूरवीर होते है, जो प्रबल पुरुष होते है, वे ही धर्म मार्ग मे और सेवा मार्ग में दृढ तथा पराक्रम शील और पुरुषार्थी होते है।
(१५) परिसह रीऊ दंताधूअ मोहा जिइंदिया।
द०, ३, १३ टीका-जो परिषह-उपसर्ग रूपी शत्रुओ को जीतने वाले है, मोह रूपी पर्वत को भेदने वाले है और इन्द्रिय रूपी घोड़ों को वश में करने बाले है, वे ही महर्षि है।
संजया सुसमाहिया।
द०, ३, १२ टीका-जो वास्तव में सयमी हैं, वे सदैव इन्द्रियो और मन को ज्ञान-ध्यान और समाधि में ही लगाये रखते है ।
(१७) अवि अप्पणो वि देहमि, नायरंति भमाइये।
द०, ६, २२
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१६६
[महापुरुष-सूत्र
टीका-विवेकी पुरुप, सज्जन पुरुप-धन, वैभव, पुत्र, पत्नी, परिवार, मकान, मोटर, परिग्रह, यश. कीर्ति, सुख और सन्मान में मी , ममता या आसक्ति नही रखते हैं, यह तो ठीक है, परन्तु अपने शरीर तक में भी ममत्व-भाव, आसक्ति-भाव नही रखते है । ऐसे महापुरुप हमारे लिये आदर्श है ।
(१८) खवति अप्पारण ममोह दंसिणो।
द०, ६, ६८ टीका-मोह रहित यानी अनासक्ति के साथ सांसारिक दशाओ को और विषमता को देखने वाले, तत्त्व और अतत्व पर विचार करने वाले, प्रकृति के मूल रहस्य का चिंतन करने वाले, ऐसे तत्त्व दर्शी अपने पूर्व जन्मो में सचित सभी कर्मो का क्षय इस प्रकार कर देते हैं जैसे कि आग घास का कर देती है।
महप्पसाया इसिणो हवन्ति ।
उ०, १२, ३१ टीका-ऋपिगण और स्व-पर की कल्याण कारी भावना वाले मुनिगण सदा ही प्रसन्न चित्त और निर्लिप्त चित्त वाले होते है। ये महात्मा निन्दा और स्तुति, मान और अपमान, पूजा और तिरस्कार, सभी अनुकूल और प्रतिकूल सयोगो के प्रति समभावशील रहते है। ये हर्प-शोक से अतीत होते है । ये राग द्वेष से रहित होते है ।
(२०) हिरिमं पडिसलोणे सुविणीए ।
उ०, ११, १३, __ टीका- जो लज्जा वाला है, जो मर्यादा पूर्वक जीवन-व्यवहार को चलाने वाला है, जो इन्द्रियो को वश में करने वाला है,जो भोगों
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सूक्ति-सुधा]
[.१६७ के प्रति आसक्ति नही रखने वाला है, ऐसा पुरुष ही विनीत है, मोक्ष का अधिकारी है।
(२१ ) पियं न विज्जई किंचि, अप्पियं पिन विज्जई।
उ०, ९, १५ टीका-सात्विक विचारो वाले पुरुष के लिये न कोई प्रिय है और न कोई अप्रिय । उसकी दृष्टि में तो सभी समान है। किसी पर भी उसका राग अथवा द्वेष नही है, चाहे कोई उसकी निन्दा करे यह स्तुति करे।
(२२) किरियं चरो अए. धीरो।
उ०, १८, ३३ टीका-धीर पुरुष, आत्मार्थी पुरुप, इन्द्रियो का दमन करने वाला पुरुष सत् क्रिया में रुचि रक्खे, नैतिक और धार्मिक क्रियाओ के प्रति आस्तिकता रक्खे । चरित्र के प्रति दृढ़ श्राद्धावान् हो ।
(२३) धोरेय सीला तवसा उदारा, धीरा हु भिक्खारिय चरन्ति ।
उ०, १४, ३५ टीका-तप-प्रधान जीवन वाले तपस्वी और धर्म धुरन्धर धीर पुरुष ही भिक्षा-चर्या और मुनिवृत्ति का अथवा मोक्ष मार्ग का अनुसरण कर सकते है । निर्बल पुरुषो में, इन्द्रियो के दास पुरुषो में यह शक्ति नही हो सकती है।
(२४) धीरा बंध गुरुमुक्का।
सू०, ३, १५ उ, ४
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१६८ ]
[ महापुरुष- सूत्र
टीका - धीर पुरुष अर्थात् कठिनाइयाँ आने पर भी कर्त्तव्यमार्ग से पतित नही होने वाले महापुरुष - बंधनो से मुक्त हो जाते ह्वै । वे ससार से शीघ्रही पार होकर मुक्त हो जाते है ।
( २५ )
सव्वेसु काम जाए, पासमाणो न लिपई ताई । उ०, ८, ४
टीका - आत्मार्थी पुरुप ससार के दुःखो को देखता हुआ और संसार की विषमताओ का विचार करता हुआ काम भोगो मे लिप्त च्हीं होता है । वह विषयो मे मूच्छित नही होता है ।
( २६ ) भुजमाणो यमेावी, कम्मणा नोवलिप्पs |
सू०, १, २८, उ, २
टीका - जिसके अन्त करण में राग-द्वेष नही है, जो अनासक्त हैं, जो निर्ममत्व शील है, ऐसा ज्ञानी आत्मा शरीर - निर्वाह के लिये विविध रीति से आहार करता हुआ एव जीवन- व्यवहार चलाता हुआ भी कर्मो से लिप्त नही होता है । वह संसार में अधिक जन्मरण नही करता है ।
( २७ )
मोहावी अपणो गिद्ध मुद्धरे । सू., ८, १३
टीका - बुद्धिमान् पुरुष और आत्मार्थी पुरुष अपनी ममत्व बुद्धि को, अपने आसक्ति-भाव को हटादे, इन्हें खत्म कर दे और निर्ममत्व होकर, अनासक्त होकर विचरे । यही कल्याण - मार्ग है | यही महापुरुषो का पथ है |
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सूक्ति-सुधा]
[१६९
(२८) एत्थोवरए मेहावी सव्वं, . पावं कम्मं झोसइ।
आ०, ३, ११३, उ, २. टीका-जो मेधावी पुरुष, जो तत्त्वदर्शी पुरुष भगवान् के वचनो पर स्थित है, भगवान् के वचनो पर श्रद्धा शील है और धर्म-मार्ग पर आरूढ है, ऐसा पुरुप अपने सभी पाप-कर्मो का क्षय कर डालता है।
( २९ ) न या वि पूर्य गरहं च संजए।
उ०, २१, १५ टीका-सयमी पुरुप और आत्म-कल्याणी पुरुष, अपनी निंदास्तुति, तिरस्कार अथवा पूजा की तरफ चित्त वृत्ति को चचल नही करे। सम तोल चित्त-वृत्ति ही समाधि का प्रमुख लक्षण है।
(३०) मेरुव वापण अकम्पमाणो, परीसहे पायगुत्ते सहिज्जा।
उ०,२१, १९ टीका--सयम निष्ठ और आत्मार्थी पुरुष सदैव कछुए के समान इन्द्रियो को गोप कर, वायु के वेग से कम्पायमान नही होने वाले मेरु पर्वत की तरह दृढ रह कर कल्याण-मार्ग में आने वाले परिषदों को-उपसर्गों को और कठिनाइयो को सहन करता रहे।
(३१) अणुनए नावणए महेसी।
उ०, २१, २० का-महर्षि और महात्मा पुरुष, न तो हर्ष से अभिमानी हो
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१७० ]
[ महापुरुप सूत्र
और न दुख से दीन हो । दीनता और हीनता से आत्मार्थी
सदैव दूर रहे |
( ३२ ) उणी सयई सिंयं रय, एवं कम्मं खवइ तवस्सिमाहणे ।
सू० २,१५, उ, १
टीका -- जैसे पक्षिणी अपने शरीर में लगी हुई धूल को गिरा देती है, उसे झाड देती है, उसी तरह से तपस्वी महात्मा भी अपने पूर्व-कृत कर्मों को अपने सत्कार्यो द्वारा झाड़ देते है, उन्हे अलग कर देते है ।
( ३३ ) - चिच्चा वित्त च णायओ, आरंभं च सुसंवुढे चरे । सू० २,२२, उ, १
टीका -- आत्मार्थी के लिये यही सुन्दर मार्ग है कि धन, ज्ञातिवर्ग, माता-पिता आदि को और आरंभ - परिग्रह को छोड़ कर उत्तम सयमी वन कर जीवन व्यवहार चलावे ।
( ३४ )पूया पिट्टतो कता, ते ठिया सुसमाहिए ।
सू०, ३, १७, उ, ४
टीका — जिन्होने स्व-पूजा, अपनी यग. कीर्ति, सन्मान आदि की इच्छा का त्याग कर दिया है, वे ही सुसमाधि मे स्थित है ऐसे ही पुरुषो की इन्द्रियां और मन उनके वश में है ।
( ३५ ) सुन्वते समिते चरे । सू, ३, १९, उ, ४
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[ १७१
सूक्ति-सुधा J
- टीका — उत्तम व्रतो वाला, कत्तंव्य-निष्ठ और इन्द्रियों को वश मे रखने वाला पुरुष ही समितियो का और विवेक पूर्वक जीवनव्यवहार का, सम्यक् प्रकार से परिपालन कर सकता है ।
(३६)
जे गिव्या पावेहिं कैम्महिं अणियाणा ते वियाहिया ।
आ०, ८, १९७, उ, १
-
टीका -- जिन धर्मात्मा पुरुषो ने पाप कर्म की, अनिष्ट प्रवृत्तियों की, अनैतिक कामो की निवृत्ति कर ली है, जो सदैव दान, शील, तप और भावना रूप सयम मे ही संलग्न है वे अनिदान यानी अपनी धर्म क्रियाओ का मुह मागा फल नही चाहने वाले कहे गये है । वेल्य-रहित यानी निर्दोष और पवित्र आत्मा वाले कहे गये है । उनकी गणना महापुरुपो में की गई है ।
( ३७ ) गीवारे व ण लीएज्जा, छिन्न सोए अणाविले |
सू०, १५, १२
टीका - सुअर आदि प्राणी को आकर्षित करके मृत्यू के स्थान पर पहुँचाने वाले चावल के दाने के समान स्त्री प्रसग है । अत. स्त्री प्रसग से दूर रहने में ही जीवन की सार्थकता है। इसी प्रकार विषयभोग में इन्द्रियो की प्रवृत्ति करना ही संसार में आने के द्वार है, इसलिये जिसने विषय-भोग रूप आश्रव द्वार को छेदन कर डाला है, वही राग द्वेष रूप मल से रहित है - वही महापुरुष है ।
( ३८ ) सव्व धम्माणु वत्तिणो देवेसु उववज्जई ।
उ०, ७, २९
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.१७२]
[ महापुरुष-सूत्र ___टीका-धर्म क्रियाओ का यानी दया, क्षमा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्म-चर्य, सतोष, अनासक्ति, इन्द्रिय-दमन, कषाय-विजय आदि का आचरण करने वाला देव गति मे या उच्च गति में उत्पन्न होता है।
जे यबन्ध पमुक्ख मन्नेसी कुसले पुणो नो बद्ध नो मुक्के ।
आ०, २, १०३, उ, ६ टीका--जो प्रशान्त आत्मा, बन्ध और मोक्ष के कारणो का अन्वेषण करने वाली है, यानी जो वीतराग भावना के साथ निर्जरा करती हुई आत्म-विकास कर रही है, वह नवोन बध नहीं करती है और वर्तमान मे मुक्त नहीं होने पर भी शीघ्र ही मुक्त हो जाने वाली है।
(४०) बहु पि अणुसासिए, जे तहच्चा, समे हु से होइ- अझंझपत्ते।
सू०, १३, ७ . टीका-भूल होने पर गुरुजनो द्वारा उपालभ आदि के रूप में “शासन करने पर जो पुरुष अपनी चित्त-वृत्ति को शुद्ध और निर्मल रखता है, यानी क्रोध नहीं करता हुआ भूल स्वीकार कर पुन. कर्त्तव्यमार्ग मे आरूढ हो जाता है, ऐसा पुरुष ही आध्यात्मिक गुणो को, - समता और शाति आदि गुणो को प्राप्त करने का अधिकारी है, ऐसा “पुरुष ही शुद्ध अन्त. करण वाला होने से भव्य आत्मा है।
विभज्ज वायं च वियागरेज्जा।
सू, १४, २२ टीका-पंडित पुरुष स्याद्वाद. मय भाषा बोले, एकान्त आग्रह “पूर्ण और निश्चयात्मक भापा नहीं बोले 4 स्याद्वाद युक्त भाषा लोकव्यवहार से मिलती हुई और सर्वव्यापी भाषा है । यह निर्दोष भी
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सूक्ति-सुवा ]
[. १७३
है और अक्लेशकर भी है, इसलिये ज्ञानी को स्याद्वाद मय भाषा ही बोलना चाहिये ।'
( ४२ )
कहं धीरो अहे श्रहिं, उम्मत्तो व महिं चरे ।
उ०, १८, ५२
टीका—घर्य शाली और विचार शील महापुरुष घर गृहस्थी का,परिग्रह का, सुख का और वैभव का त्याग क्या बिना कारण ही और क्या बिना विचारे ही करते हैं ? पृथ्वी पर उन्मत्त की तरह क्या बिना कारण ही घूमते रहते है ? नही, उनके विचारों के पीछे ठोस आत्म बल, नैतिक पृष्ठ भूमि और आध्यात्मिक विमल' विचारो का आधार होता है । इसलिए साधारण पुरुषों को उनका अनुकरण निश्शक होकर करना चाहिए ।'
( ४३ )
S
विगय संगामो भवाओ परिमुच्चप ।
९, २२
टीका—जिस आत्माने कर्मों और विकारो के साथ सग्राम कर, उन पर विजय प्राप्त कर ली है, यानी अब संसार में जिस आत्मा की किसी के भी साथ कषाय-रूप सग्राम नहीं रहा है, जो आत्मा विगत कषाये हो गई है, "वह ससारं बघन से शीघ्र ही छूट जाती है ।
E
(४४) आयगुत्ते संयादंते, छिन्नसोप अणासवे ।
० सू०, ११, -२४,- -
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१७४ ]
[ महापुरुरुष-स्त्र
टीका- अपनी आत्मा को पाप से बचाने वाला, सदा जितेन्द्रिय होकर रहने वाला ससार की मिथ्यात्व पूर्ण शोक आदि धारा को तोडने वाला तथा आश्रव रहित, ऐसा सत्पुरुष ही ससार का सन्मार्ग दर्शक है | वही स्व और पर के कल्याण का उत्कृष्ट
-साधक है |
( ४५ )
पतं लूह सेवंति वीरा समत्त दंसिणो । आ०, २, १००, उ, ६
-
टीका – सम्यक्त्व दर्शी आत्माए ही यानी राग द्वेप रहित वीर - आत्माएं हो काम-वासनाओ और विकारो पर विजय प्राप्त करने के लिये नीरस तथा स्वाद रहित आहार करती है, वे रूखा सूखा आहार करके आत्म बल और चारित्र बल का विकास करती है तथा ज्ञान चल से सभी प्रकार की काम वासनाओ को खत्म कर देती है ।
( ४६ )
जे गहिया सणियाणपओगा,
ण ताणि सेवंति सुधीर धम्मा । सू०, १३, १९
टीका -- जो काम निंदनीय है, अथवा जो सत् क्रियाऐं फलविशेष की प्राप्ति की दृष्टि से की जाती है, उनको ज्ञानी- पुरुष न तो स्वय करते है, और न करते हुए को अच्छा ही समझते है । सृज्जन पुरुष तो अनासक्त भाव से और सात्विक रीति से अपना जीवन-व्यवहार चलाते हैं और ईसी में स्व-पर- का कल्याण
1
r
-समझते है ।
(४७) नारई सहई यीरे, वीरेन सहई रतिन
मा २,९९, उ, ६
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सूक्ति-सुधा] .
[१७५
टीका--जो अपनी आत्मा को भोगो से और कपायो से हटाता है, उसे ही वीर महापुरुप कहते है । ऐसा वीर महापुरुष न तो रति यानी आसक्ति करता है और न भोगो की तरफ जरा भी आकर्षित होता है ! इसलिये ऐसे वीर-पुरुषो में "राग” का धीरे धीरे अभाव हो जाता है। इसी प्रकार किसी भी वस्तु के प्रति उनकी घृणा नही होती है, इस कारण से उनकी भावना तटस्थ हो जाती है, इसलिये उन मै "द्वेष" का भी धीरे धीरे अभाव हो जाता है, तदनुसार वीरआत्माएँ “वीतराग" बनती चली जाती है । इस तरह पूर्ण विकास की ओर प्रगति करती जाती है।
(४८)
.
जे अणन्न दंसी से अणण्णारामे, जे महाराणारामे से अणन्न दंसी।
__ आ०, २, १०२, उ, ६ टीका-जो आत्माऐ अनन्य दी है, यानी अहिंसा, सत्य, ब्रह्मचर्य और अनासक्ति आदि आदर्श सात्विक मार्ग का ही अवलम्बन लेने वाली है और जीवन में विपरीत बातो को स्थान नही देती है, वे निश्चय ही मोक्ष-गामी है। और जो मोक्ष गामी है, वे उच्च आदर्शों वाली ही हैं। तात्पर्य यह है कि जो अनन्य दी है वह अनन्य आराम वाला यानी मोक्ष वाला है, और जो अनन्य याराम वाला है, वह अनन्य दर्शी है ।
(४९) चत्तारि समणो वासगा, श्रद्दागसमाणे, पडागसमाणे, खाणुसमायो, खर कंट समाणे। ठाणा०, ४ था, ठा, उ, ३, २०
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२७८]
[प्रशस्त-सूत्र
(४) आणाए अभि समेच्चा अनुमोभयं ।
आ०, १, २२, उ, ३ ।। टीका-जैसा वीतराग देव ने फरमाया है, उसी के अनुसार जो बानता है, जो श्रद्धा करता है, तदनुसार जो आचरण करता है, तदनुसार जो प्ररूपणा करता है, उसको संसार का भय कैसे हो सकता है ? उसको ससार का मिथ्या-मोह कैसे आकर्षित कर सकता है ? वह पुरुष कैसे कर्त्तव्य-मार्ग से विचलित होकर भोगो में फंस सकता है ?
सवमओ अप्पमत्तस्स नत्थि भय ।
__आ०, ३, १२४, उ, ४ टीका-जो प्रमादी नही है, यानी जो विषय-विकार, वासना, कृष्णा आदि में फंसा हुआ नहीं है, उसको किसी भी तरह से भय, चिन्ता, अशांति, दुःख आदि नही उत्पन्न होते है 1 अप्रमादी को किसी भी ओर से भय नही है।
श्रावट्ट सोए संग मभिजाणइ ।
आ०, ३, १०८, उ, १ टीका-जो सम्यक् दर्शी है, वह आवर्त यानी जन्म, जरा, मरण लादि रूप संसार को और श्रुति रूप शब्द आदि को तथा काम-गुण रूप विषय की इच्छा को-इन दोनों के सम्बन्ध को भली-भांति जानता है। और ऐसा जानने वाला ही संसार के चक्र से तथा काम-गुणो से मुक्ति प्राप्त कर सकता है ।
जिया भस्खये करिस्सर उज्जोय सब लोगश्मि पाणिं !
उ०, २३, ७८
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सूक्ति-सुधा ]
१७९
टीका – जिनदेव अर्थात् अरिहंत रूप सूर्य, संपूर्ण ससार में
-
मोहाघकार से आच्छादित जीवो के लिये ज्ञान और चारित्र के प्रकाश को प्रकट करते हैं, इसी प्रकार (भविष्य मे भी अनन्त अरिहत होंगे, जो कि इसी रीति से ज्ञान और चारित्र का प्रकाश करते रहेगे ।
+
( ८ ),
मुहादाई मुहाजीवि दो वि गच्छति सुग्गरं ।
द०, ५, १००, उ, प्र
टीका - निस्वार्थ भाव से लेने वाले, और निःस्वार्थ भाव से ही देने वाले, दोनो ही सुगति को प्राप्त होते है । निस्वार्थ सेवा ही आदर्श व्रत है । निस्वार्थ सेवा में किसी भी प्रकार की आशा नही होती है, कोई आसक्ति या वासना अथवा विकार नही होता है । इसीलिये यह उच्च भावना धर्म ध्यान या शुक्ल ध्यान रूप होती है । - ( ९ )
से ये खुमेयं ण पमाय कुज्जा । सू०, १४, ९
टीका - " इसमें मेरा ही कल्याण है" ऐसा सोच-विचार कर, आत्मार्थी प्रमाद का सेवन नही करे । जो प्रमाद या आलस्य नहीं करेगा, उसी को लाभ होगा । अतएव प्रमाद के स्थान पर कर्मण्यता को ही जीवन मे स्थान देना चाहिये ।
( १० )
चरित संपन्नयाए, सेलेसी भांव जणया । उ०, २९, ६१वाँग,
टीका — चारित्र - संपन्नता से जीवन में निर्मल गुण पैदा होते हैं । सात्विक वृत्ति से कर्मण्यता आती है । इस प्रकार शैलेसी भाव उत्पन्न
E
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१७६ ]
[ महापुरुष-सूत्र
टीका - श्रावको की चार श्रेणियाँ और भी इस प्रकार है :
·
(१) जैसा साधुजी कहते हैं, वैसी ही श्रद्धा रखने वाला श्रावक-दर्पण मे पड़ने वाले प्रतिविम्ब के समान आदर्श श्रावक है । (२) साघुजी की प्रसंगोपात्त - विविध देशना सुनकर चल वृद्धि का हो जाने वाला श्रावक पताका समान श्रावक है' | (३) अपना हठ कभी भी नही छोड़ने वाला श्रावक ठूठ समान स्थाणु श्रावक है ।
1 2
(४) साधुजी द्वारा हित की शिक्षा देने पर भी कठोर औरदुष्ट वचन वोलने वाला श्रावक खर-कंटक समान श्रावक है ।
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}
टीका - - लोक - रुचि के अनुसार आचरण मत करो । - लोक तो गाड़रिया प्रवाह है, लोक तो दो रंगी चाल वाला है । लोक -, समूह तो सस्कारो और वातावरण को गुलाम होता है । अतएव जिसमे अपना कल्याण प्रतीत होता हो, अपना स्वतंत्र विकास होता हो उसी मार्ग का अवलबन लेना चाहिये । लोक-भावना के स्थान पर कर्त्तव्य-भावना प्रधान है ।
}
4
प्रशस्त सूत्र
( १ )
नो लोगस्सेसणं चरे । आ०, ४, १२८, उ, १
J
टीका- -जो बुद्ध होते हैं, जो ज्ञानी होते है, जो तत्व दर्शी होते है, वे ही धर्म और चारित्र का सम्यक् प्रकार से ज्ञान रखने वाले होते है । धर्म के गभीर रहस्य का सूक्ष्म स्वरूप उनसे छिपा हुआ नही रह सकता है ।
( २ )
बुद्धा धम्मरुल पारगा ! आ०, ८, १८, उं, ८ '
,,
·
( ३ ) नाणी तो परिदेवए ।
}
उ०, २, १३ }
टीका -- ज्ञानी कभी विषाद यानी / खेद अथवा शोक नही करता है । ज्ञानी जानता है कि खेद करना प्रमादजनक है, ज्ञान-नाशक
,
है, निरर्थक है, आर्त्तध्यानं है और शक्ति विनाशक है ।
१२
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१७८]
[प्रशस्त-सूत्र
(४) आणाए, अभि समेच्चा अकुमओभयं ।
आ०, १, २२, उ, ३ टीका-जैसा वीतराग देव ने फरमाया है, उसी के अनुसार जो जानता है, जो श्रद्धा करता है, तदनुसार जो आचरण करता है, तदनुसार जो प्ररूपणा करता है, उसको संसार का भय कैसे हो सकता है ? उसको ससार का मिथ्या-मोह कैसे आकर्षित कर सकता है ? वह पुरुष कैसे कर्त्तव्य-मार्ग से विचलित होकर भोगो में फस सकता है ?
सवयो अप्पमत्तस्स नत्थि भयं ।
आ०, ३, १२४, उ, ४ टीका-जो प्रमादी नही है, यानी जो विषय-विकार, वासना, कृष्णा आदि में फंसा हुआ नही है, उसको किसी भी तरह से भय, चिन्ता, अशांति, दुःख आदि नही उत्पन्न होते है । अप्रमादी को किसी भी ओर से भय नही है।
श्रावट्ट सोए संग मभिजाणइ ।
आ०, ३, १०८, उ, १ टीका-जो सम्यक् दर्शी है, वह आवर्त यानी जन्म, जरा, मरण सादि रूप संसार को और श्रुति रूप शब्द आदि को तथा काम-गुण रूप विषय को इच्छा को-इन दोनों के सम्बन्ध को भली-भाति जानता है। और ऐसा जानने वाला ही ससार के चक्र से तथा काम-गुणो से मुक्ति प्राप्त कर सकता है ।।
(७) जिण भक्खये करिस्सर उज्जोयं सच लोगम्मि पाणिणं ।
उ०, २३, ७८
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सूक्ति-सुधा ]
[ १७९
टीका — जिनदेव अर्थात् अरिहत रूप सूर्य, संपूर्ण ससार में मोहांघकार से आच्छादित जीवो के लिये ज्ञान और चारित्र के प्रकाश को प्रकट करते है, इसी प्रकार (भविष्य में भी अनन्त अरिहत होंगे, जो कि इसी रीति से ज्ञान और चारित्र का प्रकाश करते रहेगे ।
( ८ )
मुहादाई मुहाजीवि दो वि गच्छति सुग्गई ।
द०, ५, १००, उ, प्र
1
टीका – निस्वार्थ भाव से लेने वाले, और निःस्वार्थ भाव से ही देने वाले, दोनो ही सुगति को प्राप्त होते हैं । नि. स्वायं सेवा ही आदर्श व्रत है । निस्वार्थ सेवा में किसी भी प्रकार की आशा नहीं होती है, कोई आसक्ति या वासना अथवा विकार नही होता है । इसीलिये यह उच्च भावना धर्म ध्यान या शुक्ल ध्यान रूप होती है ।
( ९ )
से ये खु मेयं ण पमाय कुज्जा । सू०, १४, ९
टीका—“इसमें मेरा ही कल्याण है" ऐसा सोच-विचार कर, आत्मार्थी प्रमाद का सेवन नही करे । जो प्रमाद या आलस्य नहीं करेगा, उसी को लाभ होगा। अतएव प्रमाद के स्थान पर कर्मण्यता को ही जीवन मे स्थान देना चाहिये ।
( १० ) चरित संपन्नयाप, सेलेसी भांव जणयइ ।
उ०, २९, ६१र्वांग,
टीका — चारित्र - संपन्नता से जीवन में निर्मल गुण पैदा होते है । सात्विक वृत्ति से कर्मण्यता आती है । इस प्रकार शैलेनी भाव उत्पन्न__
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१८० ]
[ प्रशस्त सूत्र.
होते है, आत्मा ऊंचे दर्जे के विकास भाव को प्राप्त होती है । आत्मा अनत वलशाली और अनंत गुणशाली बनती है ।
( ११ है - सम्मग्गं तु जिराक्खायं, एस मग्गे हि उत्तमे ।
N
उ०, २३, ६३
टीका - संम्यक् मार्ग और मोक्ष मार्ग, भगवान वीतराग प्रभुः श्री जिनदेव का बतलाया हुआ ही है । यही मार्ग उत्तम है, यही श्रेष्ठ है, यही कल्याण कारी है और यही मोक्ष का दाता है । ( १२ ) अणुत्तरे नाणधरे जसंसी, ओभासई सूरि एवं तलिक्खे। उ०, २१, २३
1 टीका - सम्पूर्ण कर्मों का क्षय होने पर 'आत्मा; सर्वोत्तम और अप्रतिपाती केवलज्ञान का धारक होकर पूर्ण यश को प्राप्त करता हुआ ऐसा शोभा पाता है, जैसा कि आकाश मे सूर्य ।
( -१३ ) . अधमत्तो जए. निच्चं ।
द०, ८, १६.
1,1
'टीका - प्रमाद पाप का घर है, इसलिये सदैव अप्रमादी रहना चाहिये, कर्मण्यशील रहना चाहिये, यानी सत्कार्य, सेवा में ही लगे रहना चाहिये । अप्रमाद से इन्द्रियो और मन पर नियंत्रण रहता है । इससे कषाय और विकार जीतने में मदद मिलती है । कर्मण्यता जीवन का शृङ्गार है — भूषण है ।
IS (१४ )' अच्चन्त' नियागा' खमा, एसा मे भासिया वई ।
२० 9/ 63
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3
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सूक्ति-सुधा
[ १८१
, टीका-कर्म-मल के शोधन में, पाप को हटाने में दुष्वृत्तियो और विकारो को दूर करने में, अत्यत समर्थ इस वाणी मे यह उपदेश श्री चीतराग प्रभु महावीर द्वारा दिया गया है। यानी यह जिनवाणी, यह जैन धर्म, आत्मा मे स्थित सपूर्ण दोषो को, वासना को, आसक्ति को, अज्ञान को और अविवेक को, हटाने में पूर्ण रीति से समर्थ है-शक्ति गाली है। । ।
(१५) । भाव विसोहीए, निव्वाण मभिगच्छद ।
सू०, १, २७, उ, २ टीका-भावो की विशुद्धि से-अनासक्ति और निर्ममत्व भावना से ही मोक्ष की प्राप्ति होती है । भाव-विशुद्धि से कर्म-बन्धन नही होता है, और कम-बन्धन के अभाव में स्वभाव से ही मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है।
1
' समो निन्दा पसंसासु तहा माणावमाणओ।
उ०, १९, ९१ टीका-निन्दा और स्तुति मे, मान और अपमान मे समभाव रखना चाहिए। अनुकूल और प्रतिकूल सभी परिस्थितियो मे समता रखने से बुद्धि का समतोलपना रहता है, विवेक वरावर बना रहता है और इससे पथ-भ्रष्ट होने का डर नहीं रहता है।
पाए वीरे महा विहिं सिद्धिपहं आउय धुवं ।
सू०, २, २१, उ, १
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१८२]
[प्रशस्त-सूत्र
टीका-कर्म का भेदन करने में समर्थ महापुरुप उस महान् __ मार्ग से चलते है, जो मोक्ष के पास ले जाने वाला है, जो ध्रुव है। और जो सिद्धि मार्ग है।
(१८) नोवि य पूयण पत्थए, सिया।
०, २,१६, उ, २ टीका-जिसका ध्येय एक मात्र स्व-कल्याण और पर-सेवा ही है, उसको स्व-पूजा-और स्व-अर्चना की भावना से विल्कुल दूर ही रहना चाहिये।
गुरुणो छंदाणुवत्तगा, विरया तिन महोघ माहिय ।
1. सू०, २, ३२, उ, २ टीका-गुरु की-अनासक्त महात्मा की एव ज्ञान-चारित्र सम्पन्न __ महापुरुप की आज्ञा मे चलकर और विषय-कषाय से तथा वासनाओ
से रहित होकर अनेक सरल आत्माओ ने इस महासागर रूप ससार को पार कर लिया है।
(२०) सासयं परिणिन्धुए।
उ०, ३६, २१ टीका--जो पुरुष वीतरागी होते है, जो राग द्वेप से रहित होते हैं, जो आश्रव-भाव से दूर रहते है, वे ही शाश्वत् . अवस्था को प्राप्त होते हैं, वे ही मुक्ति स्थान को प्राप्त करते है ।
(२१) अप्पमत्तो कामेहिं उवरओ पावकम्महि ।
आ०, ३, ११०, उ, १
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सूक्ति-सुधा]
[१८३ टीका--जो ज्ञानी आत्मा, कामों से, तथा शव्द, रूप, गंध, रस, स्पर्श और आसक्ति आदि से अप्रमादी है, यानी इनमें नहीं फंसा हुआ है और ज्ञान, दर्शन, चारित्र को ही अपना एकमात्र लक्ष्य मानता है; वह पाप कर्मों से और नवीन-बन्धन से छूट जाता है। इस प्रकार वह शीघ्र ही निर्वाण अवस्था को प्राप्त हो जाता है।
(२२) अणोम दंसी निसणे, __पावहिं कस्मेहि ।
आ०, ३, ११५, उ,२ टीका--जो सम्यक् दर्शन-ज्ञान-चारित्र वाला है, जो संयमी है, वह पाप कर्मों से निवृत्त हुआ जैसा ही है । क्योकि उसके जीवन का तो प्रत्येक क्षण आत्म-चिंतन में ही जाता है, आत्म मनन में ही जाता है। ऐसी स्थिति में उसके पाप-कर्मों के बन्धने का कारण ही क्या रहा ?
(२३) अदीगो वित्ति मेसिज्जा।
द०, ५, २८, उ, द्वि टीका-अदीन होकर यानी अपना गौरव अक्षुण्ण रख कर और आत्मा की अनन्त शक्ति पर विश्वास रखकर जीवन निर्वाह के योग्य आवश्यक वस्तुओं की खोज करना चाहिये।
(२४) जय संघ चंद ! निम्मलसम्मत्त विसुद्ध जोण्हागा।
नं०,९ टीका-निर्मल सम्यक्त्व रूपी शुद्ध चाँदनी वाले हे चन्द्र रूप श्रीसंघ ! तुम्हारी जय हो, सदा तुम्हारी विजय हो।
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३८४]
[प्रशस्त-सूत्र
( २५ ) संघ पउमस्स भई, समण गण सहस्स पत्तस्ल
न०, ८ टीका-श्रीसघ कमल रूप है, जिसके हजारो साधु रूपी सुन्दर आदर्श और गुणकारी पत्र लगे हुए है, ऐसा कमल रूप श्रीसघ हमारे लिये कल्याण कारी हो। ऐसे श्री सघ का सदैव कल्याण ही कल्याण हो।
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योग-सूत्र
(१.) पंच निग्गहया धीरा ।
द०, ३, ११
टीका - जो पाँचो इन्द्रियो का निग्रह करते है, विषयों से हटकर सेवा, त्याग, ब्रह्मचर्य, अनासक्ति आदि सात्विक मार्ग में इन्द्रियो को चलाते है, वे ही धीर पुरुष है, वे ही आदर्श पुरुष है ।
( २ )
आय गुत्ते सया वीरे । आ०, ३, ११७ उ, ३
टीका - जो वीर होता है, जो महापुरुष होता है, वह सदैव अपने मन, वचन और काया को नियंत्रण में रखता है । मनोगुप्ति, वचन गुप्ति और काया - गुप्ति का वह सदैव सम्यक् रीत्या पालन करता है ।
( ३ )
भावणा जोग सुद्धप्पा, जलेणावा व श्राहिया ।
सू०, १५,५
टीका--उत्तम-भावना के योग से जिसका अन्तःकरण शुद्ध हो गया है, वह पुरुष ससार के स्वभाव को छोड़कर, ससार के मोह को त्याग कर, जल में नाव की तरह संसार - सागर के ऊपर रहता है । जैसे नाव जल में नही डूबती है, उसी तरह वह पुरुष भी संसार - सागर में नही डूबता । यह सब महिमा उत्तम भावना के साथ शुद्ध योग की है ।
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१८६ ]
( ४ )
पच्छा पुरा व चहयव्वे | फेण बुब्बु सन्निभे ।
उ०. १९, १४
[ योग-सूत्र
टीका - यह शरीर आगे या पीछे छोडना ही पड़ेगा, इसकी स्थिति तो जल के फेन-या झाग के बुलबुले के समान है, जो कि अचानक और शीघ्र ही नष्ट हो जाने वाला है ।
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अनित्यवाद-सूत्र
( १ ) जीवियं चेववि रूव च, विज्जु संपायचंचलं ।
उ०, १८, १३
टीका—यह जीवन और रूप-सौन्दर्य, भोग और पौद्गलिक सुख... ये सब विजली के प्रकाश के समान चचल है, क्षणिक है । इसलिये भोगो मे मूच्छित न वनो । वासना और विकार को छोड़ो । ( २ ) इमे सरीरं श्रणिच्चं, सुई असुर संभवं ।
उ०, १९, १३
टीका - यह शरीर अनित्य है । न मालूम किस क्षण नष्ट हो जाने वाला है । अशुचि से भरा हुआ है । मल-मूत्र, मांस, हड्डी, खून आदि घृणित पदार्थो से वना हुआ है । इसी प्रकार अशुचिमय कारणो से ही, घृणित और निंदनीय मैथुन से ही, अब्रह्मचर्यमय क्रिया से ही - इसकी उत्पत्ति हुई है ।
( ३ )
मससिया वासमियां. दुक्ख केसारा भावणं
०, १९, १३
टीका - जीव और शरीर का सम्वन्ध अगारवत् है, अस्थायी है, क्षणभगुर है, अचानक और शीघ्र टूट जाने वाला है । इसी प्रकार यह शरीर दुख और क्लेशो का, विपत्ति और रोगों का घर है ।
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१८८]
। अनित्यवाद-सूत्र
(४)
एगग्ग मसंनिवेसण याए,
चित्तनिरोह करे।
उ०, २९, २५वा, ग टीका-मनको एकान करने से, चित्तको एक ही शुभ विचार ‘पर स्थिर करने से अव्यवस्थित चित्तवृत्ति . और अस्थिर चित्तवृत्ति से छुटकारा मिलता है । चित्त की समाधि होती है। और इससे मनोवल बढता है, जिससे कर्मण्यता, निर्भयता तथा कार्यकुशलता आदि सद्गुणों की वृद्धि होती है।
(५) मणो साहस्सिओ भीमो, दुटुस्सो परिधावई।
उ०, २३, ५८ टीका-यह मन ही एक प्रकार का बड़ा दुस्साहसिक, भयकर और दुष्ट घोड़ा है, अनीति मार्ग पर दौड़ने वाला विनाशकारी घोड़ा है । यह रात और दिन सदैव स्वच्छद होकर विषयो के मार्ग पर दौडता रहता है। इस मन रूपी घोड़े पर नियन्त्रण रखना अत्यन्त आवश्यक है।
(६). मण गुत्तो वय गुत्तो काय गुत्तो, जिंइदियो जावज्जीवं दढव्वओ।
उ०, २२, ४९ टीका-मनको गोपकर, वचन को गोपकर, जितेन्द्रिय होकर, यावत् जीवन तक व्रत मे और धर्म मार्ग मे दृढ रहना चाहिये । धर्म मार्ग से विचलित नहीं होना चाहिये ।
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सूक्ति-सुधा]
[१८९.
(७) मल्लीण गुत्तो निसिए।
द०, ८, ४५, टीका-सदैव मन और इन्द्रियो को वश में रखने वाला बने । वचन, मन और काया को उपयोग के साथ मर्यादा में रखने वाला बने। उठने, बैठने आदि की क्रियाऐ मर्यादा वाली और विवेक वाली हो । .
(८) गुत्ते जुत्तं सदा जए. आय परे ।
सू०, २, १५, उ, ३ टीका-मन, वचन और काया को विषय, कषाय और भोगउपभोग से हटाते हुए सदैव स्व और पर के कल्याण के लिये यत्न करते रहना ही मानवता है।
। ' आयाग गुत्त वलया विमुक्के। , .
. सू०, १२, २२ टीकाकर्तव्य-निष्ठ पुरुष मन, वचन और काया को अपने वश मे रक्खे, इन्हे स्वच्छंद-रीतिः से नहीं विचरने दे। जीवन में माया-कपट को स्थान नही दे। मायाचार स्व-कल्याण और परकल्याण का विघातक है। इसलिये कल्याण की भावना वाला योगा पर सयम रखता हुआ अमायावी होकर जीवन व्यतीत करता रहे।
अगुत्ते अणाणाए।
आ०१, ४३, उ, ५ टीका--जो मन, वचन और काया पर नियत्रण नही रखता है, इन योगो द्वारा अशुभ प्रवृत्तियो का सेवन करता है, वह भगवान की आज्ञा का आराधक नहीं है, किन्तु विराधक है।
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१९०]
अनित्यवाद-सूत्र
कर्तव्य-मार्ग से अर्थात् मानवता के मार्ग से ऐसा पुरुष बहुत दूर है।
(११) जे इन्दियाण विसया मणुन्ना, न तेसु भावं निसिरे कयाइ ।
उ०, ३२, २१ टीका--इन्द्रियो के जो विषय, मनोज्ञ, सुन्दर और आकर्षक दिखाई देते है, उनमें चित्त को, आकाक्षा को और आसक्ति को कभी भी प्रस्थापित नही करना चाहिये ।
(१२) नाणा रुई च छन्दं च, परिवज्जेज्ज संजओ।
उ०, १८, ३. टीका-नाना रुचि यानी मन की अस्थिरता को, अव्यवस्था को, अनवस्था को और छन्द यानी आसक्ति एव मूर्छा आदि को साधु 'पुरुष छोड़ दे। मन की अस्थिरता और चित्त की आसक्ति आत्मा की शक्तियों को छिन्न-भिन्न करने वाली है। अतएव आत्मार्थी इनका परित्याग कर दे।
अमणुन्न समुप्पाय दुक्खमेव ।
सू०, १, १०, उ, ३ टीका--अशुभ अनुष्ठान करने से ही-मन, वचन और काया की अशुभ प्रवृत्तियो से ही दुख की उत्पत्ति होती है।
(१४) सावज्ज जोग परिवज्जयतो, चरज्ज भिवाव सुसमाहि इंदिए ।
उ०, २१, १३
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सूक्ति-सुधा ]
[ १९१
टीका - सावद्य योग का यानी पापकारी प्रवृत्तियो का परित्याग करते हुए समाधिस्थ होकर और चित्त वृत्तियों को रोक कर एवं इन्द्रियो का दमन करते हुए भिक्षु विचरे । आत्मार्थी अपना कालक्षेप करे |
( १५ ) सरीर माहु नावति, जीवो goes नाविओ ।
उ०, २३, ७३
टीका - यह मानव-शरीर संसार रूप समुद्र को तैरने के लिये नाव के समान है और भव्य आत्मा तैरने वाला नाविक है 1.
( १६ ) न सव्व सव्वत्थ अभिरोयपज्जा । उ०, २१, १५
-
टीका — प्रत्येक स्थान पर और प्रत्येक वस्तु के प्रति यानी सर्वत्र और सब वस्तुओं के प्रति मन को नही ललचावें । मन को बश में रक्खें 1
( १७ )
सद्देसु जो गिद्धि मुवेर तिव्वं अकालियं पावर से विणासं ।
उ०, ३२, ३७
टीका - जो शब्दो में- यानी रागात्मक गीत गायनों में तीव्र वृद्धि भाव रखता है, इनमें मूर्च्छा-भावना और मूढ़ भावना रखता है, उसकी अकाल में ही मृत्यु होती है । वह अकाल में ही घोर दुःख का भागी होता है ।
( १८ )
रुवे जो गिद्ध मुवेइ तिब्वं अकालिय पावर से विणास ।
उ० ३२, २४
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१९२]
[ अनित्यवाद-सूत्र टीका-जो पुरुष रूप मे और स्त्री-सौदर्य में तीव्र मर्छा रखता है वह अकाल मे ही विनाश को प्राप्त होता है । वह घोर दुर्गति का भामी बनता है।
(१९) गन्धाणुरत्तस्स नरस्स एवं कत्तो सुहं होज्ज कयाइ किंचि ।
उ., ३२, ५८ । टीका---गध रूप घ्राण-इन्द्रिय के भोग में फसे हुए मनुष्य के लिये कैसे सुख प्राप्त हो सकता है ? कव सुख प्राप्त हो सकता है ? क्योकि इन्द्रियाँ तो कभी तृप्त होती ही नहीं है, इनकी तृष्णा तो उत्तरोत्तर बढती ही चली जाती है। .. ,
रसेस्सु जो गिदि मुवेइ तिव्वं :
'(२०)
:
___, ... ; , अकालिय पावइ स विणासं।
उ०, ३२, ६३ टीका-जो प्राणी रस में, यानी जिह्वा के भोग में तीव्र गद्धि भावना रखता है, महती आसक्ति रखता है, तो ऐसा प्राणी अनिष्ट एव नीच कर्मों का उपार्जन करता है और , अकाल मे ही मृत्यु को प्राप्त होता है।
, ( २१ ) , , फासेसु जो गिद्धि मुवेइतिव्वं, अकालियं पावर से विणासं।'
उ०, ३२, ७६ टीका-जो प्राणी स्पर्श इन्द्रिय के भोगो में तीव्र आसक्ति रखता है, जो भोगो में ही तल्लीन है, वह अकाल मे ही विनाश को प्राप्त होता है।
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सूक्ति.सुधा]
(२२) आवज्जई इन्दिय चोर बस्से।
उ०, ३२, १०४ टीका--जो आत्मा इन्द्रिय-भोग रूपी चोरो के वश मे पड़ा हुआ __ है, उसका जन्म-मरण कभी वद नही होने वाला है, वह तो ससार मे परिभ्रमण करता ही रहेगा।
(२३) . जे दूमण ते हि णो णया, ते जाणंति सम हि माहियं ।
- सू०, २, २७, उ, २ . . टीका-मन को दुष्ट बनाने वाले जो शब्द-गध आदि विषय है, जो इन्द्रियो के सुख है, उनमे जो आत्माये आसक्त नही होती है, वे ही अपने में स्थित राग-द्वेष का त्याग कर, अनांसक्त होकर धर्मध्यान का असली रहस्य जानते ह या जान सकते है । इन्द्रिय सुखभोग और धर्म-ध्यान का आराधन-दोनो साथ २ नहीं हो सकते है।
.
. . ( २४ )
विहरेज्ज समाहि इदिए, अत्तहियं ख. दुहेण लन्भह ।
सू०, २, ३• उ, २ टीका-आत्महित का मार्ग, यानी वास्तविक कल्याण-मार्ग -बहुत ही कठिनाई से प्राप्त होता है । इसलिये इन्द्रियो को वश में रखो-। मन घोड़ा रूप है और इन्द्रियाँ लगाम रूप है-इसलिये लगाम द्वारा घोडे को नियत्रित रखना चाहिए। इस तरह समाधि के साथ सयम का अनुष्ठान करे।
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१९४]
[ अनित्यवाद-सूत्र
( २५) मणला काय वक्केणं, णारंभी ण परिग्गही।
मू०, ९, ९ टीका--आत्महित की कामना वाला पुरुष, मन, वचन और “काया से न तो आरंभी यानी तृष्णामय प्रयत्न वाला हो और न परिग्रही-यानी ममतामय संग्रह वाला हो । आरंभ और परिग्रह का त्याग करने पर ही आत्मा विकास की ओर गति कर सकती है।
(२६) तिविहेणावि पाण माहणे।
सू०, २, २१, उ, ३ टीका-मन, वचन और काया से प्राणियो की हिंसा नही करनी चाहिये । मन से किसी भी प्राणी के लिये अनिष्ट और घातक विचार अथवा षड्यन्त्र नही सोचना चाहिये। वचन से किसी भी प्रागी के लिये मर्म घातक या कष्ट दायक शब्द नही वोलना चाहिये। - काया से किसी भी प्राणी को कष्ट, हानि अथवा मरणान्त दुख नहीं पहुँचाना चाहिये । यानी तीनो योगो से प्राणी मात्र के लिये हित की ही कामना करनी चाहिये, इसी में कल्याण है।
(२७) झाण जोगं समाहा काय विउसेज्ज सव्वसो।
___सू०, ८, २६ टीका-आत्मार्थी पुरुप अथवा परमार्थी पुरुप, ध्यान-योग को हग करके, चित्त वृत्तियो को सुस्थित और एकाग्र करके, सव प्रकार से शरीर को बुरे व्यापारो से रोक दे । शरीर-कार्यों को एकान्त रूप से न्व-पर सेवा में लगा दे। इस प्रकार स्व-पर कल्याण में ही मग्न हो जाय।
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सूक्ति-सुधा]
[ १९५
(२८) तमो गुत्तीओ पएणत्ताओ, मणगुत्ती, वयगुत्ती, कायगुत्ती।
ठाणा, ३ रा ठा, १ ला, उ, ९ टीका-गुप्तियाँ तीन प्रकार की कही गई है.-१ मन-गुप्ति '२ वचन गुप्ति और ३ काया-गुप्ति । मन, शरीर और इन्द्रियों की प्रवृत्तियों पर विवेक-पूर्वक धर्मानुसार नियत्रण करना गुप्ति-धर्म है।
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कर्मवाद-सूत्र
रागो य दोसोऽवि य कम्मवीय ।
उ०, ३२, ७ टीका-राग और द्वेष, इष्ट पदार्थो पर आसक्ति, प्रिय पदार्थो पर मुर्छा और रति भाव, इसी प्रकार अप्रिय पदार्थो पर घृणा, इर्षा __ और अरति भाव ही कर्म के मूल-बीज है ।
पदुद्द चित्तो यो चिणाइ कम्म ।
उ०, ३२, ५९ टीका--मूर्त रूपसे, बाह्य रूप से, शरीर द्वारा कोई कार्य नहीं करने पर भी यदि चित्त मे द्वेष भरा हुआ है, तो ऐसा प्राणी भी कर्मों का बध करता रहता है । निस्सदेह कर्मों के बधने और छुटने में मन की क्रिया का यानी चित्त की भावना का बहुत बड़ा सबध रहा हुआ है।
कडाण कम्माण न मोक्खो अत्यि।
उ०, १३, १० टीका-बाघ हुए कर्मो को भोगे विना उनसे मोक्ष यानी छटकारा नही मिल सकता है । इसलिये कर्मों की निर्जरा के लिये तप, सयम, दया, दान, परोपकार, सेवा आदि का आचरण जीवन में अति आवश्यक है।
कहाण कम्माण न मुक्ख अस्थि ।
उ०, ४, ३
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सूक्ति-सुधा ]
[ १९७
टीका - अपने किये हुए कर्मों को भोगे बिना उनसे छुटकारा नही मिल सकता है । इसलिये पाप कर्मो को त्याग कर, पुण्य कर्मों का अर्थात् शुभ कर्मों का ही आचरण करना चाहिये ।
( ५ ) कस्माणि बलवन्ति हि ।
उ०, २५, ३०
टीका - कर्म ही बलवान् है । कर्मो के उदय होने पर वृद्धि और वल, धन और जन, सुख और सुविधा, कर्मानुसार हो जाते है | पुण्य कर्मों के उदय से अनुकूल सयोगो की प्राप्ति होती है और पापमय कर्मों के उदय से प्रतिकल सयोगो की प्राप्ति होती है ।
( ६ ) कम्म च मोहप्प भवं ।
उ०, ३२, ७
टीका -- कर्म ही मोहको उत्पन्न करता है, यानी द्रव्य - आश्रव से भाव-आश्रव होता है, और भाव-आश्रव से द्रव्य आश्रव होता है ।
( ७ )
गाढा य विवाग कम्मुणो ।
उ०, १०, ४,
फल महान कटू होता है, इसलिये आश्रव को यानी प्रवृत्ति से बचना चाहिये ।
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टीका——कर्मों का त्रास कारी होता है, रोकना चाहिये । पाप
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( ८ )
कम्मे हिं लुपति पाणिणो । सू० २, ४, उ १
भयंकर रूप से कर्म-द्वार को
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१९८]
[कर्मवाद-मूत्र टीका- अगुभ-योग वाले प्राणी यानी अनुभ-प्रवृत्तियां, वाले प्राणी कर्मो से सबंवित होते रहते है। उनके कर्मों का निरंतर यायब होता ही रहता है।
(९)
कम्मं च जाइ मरणस्स मूलं ।
उ०, ३२, ७ टीका--कर्म से ही जन्म और मृत्यु के दुख उठाने पड़ते हैं। जन्म-मृत्यु का मूल कर्म ही हैं।
(१०) संसरइ सुहा सुहेहिं कम्मेहिं ।
उ०, १०, १५ टीका-शुभ और अशुभ कर्मों के बल पर ही, जीवन और मरण का, सुख और दुख का, उत्पत्ति और विनाग का चक्कर चलता है।
(११) थाहा कस्मेहिं गच्छई।
उ०, ३, ३ टीका-प्रत्येक बात्मा स्व-कृत गुम और बगुभ कर्मों के अनुसार ही सुख और दुःख का भागी वनता है । मुल में कर्म ही मुखदुख के कता है। अन्य तो निमित्त मात्र है।
(१२) कम्मुणा उवाही जाय।
मा०, ३, ११०, उ, १ टीका--कर्मों से ही यानी अशुभ कार्यों से ही, जन्म, मरण, वृद्धत्व, रोग, नानापीड़ाऐं, विषम सयोग-वियोग, भव-भ्रमण बादि उपाधियां पैदा हुया करती है।
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सूक्ति-सुवा]
[.१९६
( १३) इहं तु कम्माई पुरे कडाई।
उ०, १३, १९ टीका-यहाँ पर जो कुछ भी सुख-दुःख मिलता है, वह सब पहिले किये हुए कर्मों का ही फल है।
(१४) सकम्म वीओ अवसो पयाइ, परं भवं सुंदर पावगं वा।
उ०, १३, २४, टीका-यह जीव एक तो आप स्वय और दूसरे कर्म को लेकर कैदी के समान परवशता को प्राप्त होता हुआ कर्मानुसार परलोक में या तो सुन्दर स्थान को अर्थात् देवगति आदि को-अथवा पाप स्थान को यानी नरक आदि को जाता है । यथा कर्म तथा गति अनुसार स्थिति को प्राप्त होता है।
(१५) असुहाण कम्माणं निजाणंपावगं
उ०, २१, ९ टोका-अशुभ कर्मों का अन्तिम फल निश्चय मे पाप रूपी होता है, महान् वेदना रूप ही होता है ।
( १६ ) अनिग्गहप्पा य रसेसु गिद्धे, न मुलश्रो छिदइ वन्धणं से।
उ०, २०, ३९ दीका-जो आत्मा निर्वल होकर इन्द्रियो के अधीन हो जाता है तथा रसो मे मुच्छित हो जाता है, वह राग द्वेष जनित कई बधन का उच्छेद जड-मूल से नही कर सकता है।
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२००]
[कर्मवाद-सूत्र
(१७) कत्तार मेव अणुजाइ कम्मं ।
उ०, १३, २३, टीका--जो जीव कर्मों का वध करता है, वे कर्म सुख दुख देने की शक्ति को अर्थात् विपाक-शक्ति को साथ में लेकर ही उस जीव के साथ साथ जाते है । कर्म परमाणु जीव-कर्ता के अनुयायी होते है।
(१८) कम्मुणा तेण संजुत्तो गच्छई उ परं भवं ।
उ०, १८, १७ टीका-मृत्यु प्राप्त होने पर जीव केवल कर्मो से-यानी पापयुण्यो से सयुक्त होता हुआ ही पर-भव को जाता है। धन-वैभव, कुटुम्ब आदि तो सब ज्यो के त्यो यही पर रह जाने वाले है ।
अज्झत्थ हे निययस्स वन्धो, संसार हे च वयन्ति बन्छ ।
उ०, १४, १९ टीका- अध्यात्म हेतु यानी मिथ्यात्व, प्रमाद, कषाय, अशुभ योग और अव्रत, ये वन्ध के कारण है । और यह बन्ध ही ससार को बढाने वाला है । ऐसा महर्षि, सन्त, महात्मा गण कहते है ।
(२०)
अमिरगुम बाडेहिं मूच्छिए, तिन्वं ते कस्मेहिं किच्चती।
सू०, २, ७, उ, १ । टीका-जो पुरुप मायामय कामो मे सलग्न है, माया मे मूच्छित है, वे कर्मों द्वारा अत्यन्त पीडित किये जाते है। उनको घोर दुख उठाना पडता है ! सुख उनको मिल ही नहीं सकता है।
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सूक्ति-सुधा]
[२०१
( २१) जहा कडं कम्म तहा ले भारे ।
सू०, ५, २६, उ, १ टीका-पूर्व जन्म मे जिसने जैसे कर्म किये है, उन कर्मों के अनुसार ही उसे पीड़ा प्राप्त होती है । यथा कर्म-तथा फलं, इसलिये दुःख के समय धैर्य और सतोप रखना चाहिये।
(२२) जे जारिस पुत्र मकासि कस्म, तमेव आगच्छति संपराए ।
सू०, ५, २३, उ, २ टीका-प्राणियो ने पूर्व जन्म में जेसी स्थिति वाले तथा जैसे प्रभाव वाले जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट कर्म किये है, दूसरे जन्म मे वैसी ही स्थिति वाले और वैसे ही प्रभाव वाले जघन्य, मध्य और सयोग-वियोग रूप फल पाते है । इसलिये विचार कर काम करना चाहिये, जिससे इस लोक और पर लोक मे शाति मिले ।
( २३ ) कम्मी कम्महिं किच्चतो। .
. सू०, ९, ४ टीका-पाप कर्म करने वाला अकेला ही पाप कर्मों के फल को ‘भोगता है । उसमे हिस्सा वटाने के लिये न तो कोई समर्थ है और न कोई हिस्सा बटाने के लिये ही आता है।
। २४ । वाला बेदति कम्माइं पुरे कडाई।
सू०, ५, १, उ; २ टीका-विवेक-भ्रष्ट और अनीति के मार्ग पर चलने वाले अज्ञानी मनुष्य पूर्व जन्म मे किये हुए अपने कर्मों का फल अवश्य
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२०२]
[कर्मवाद-सू
भोगते है । पाप का फल अवश्य भोगना पडता है, यह प्रकृति का अटल नियम है ।
( २५ ) सम्मुणा विपारेयासुवेह |
सू०, ७, ११
-
टीका -- जीव अपने कर्म के बल से ही सुख के लिये इच्छा करता हुआ भी दुख ही पाता है । कर्म-गति बलीयसी, बड़े २ तीर्थंकर, चक्रवर्ती, गणघर, आचार्य आदि सभी कर्म के आगे क्या कर सकते है ?
( २६ )
चविहे बंधे, पगइ बंधे, ठिइबंधे, बंधे ।
अणुभाव बंधे, पपस
ठाणां०, ४ था, ठा, उ, २, २७
टीका - आत्मा के साथ बन्धने वाले कर्मो का बन्ध चार प्रकार का कहा गया है – १ प्रकृति बन्ध, २ स्थिति बन्ध, ३ अनुभाव बन्ध और ४ प्रदेश बन्ध ।
( २७ ) श्रयाणिज्जं परिन्नाय परियाएण विचिs |
आ०, ६, १८१, उ, २
टीका--कर्म- सिद्धान्त के अनुसार कर्मों के प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभाग आदि भेद-प्रभेद को और इनके स्वरूप को जान कर ज्ञानी सयम-धर्म के द्वारा पूर्व सचित कर्मों का क्षय करे । इस रीति से कर्मो की निर्जरा करके मोक्ष को प्राप्त करे ।
( २८ ) देह दुक्खं महाफलं ।
द०, ८, २७
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सूक्ति-सुधा]
[२०३
टीका-दुखो की उत्पत्ति पूर्व कर्मो के उदय का फल है । इसलिये यदि कर्मों के उदय से शरीर मे व्याधि खडी हो जाय, शरीर __ मे नाना रोगो का श्री गणेश हो जाय तो भी चित्त मे शाति रक्खे,
सहिष्णुता से उन्हे सहन करे । इसीमे महान् सुख का खजाना रहा हुआ है ।
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कषाय-सूत्र
छिदाहि दोसं विणएज्ज राग।
द०, २, ५, टीका--द्वेप, अरति और ईर्षा को छोड दो। राग, मोह और आसक्ति का विनाश कर दो।
(२) गगस्स हेउं समणुन्न माहु, दोसस्स हे अमणुन्ना महु ।
उ०, ३२, ३६ टीका--राग का कारण आसक्ति भावना है और द्वेप का कारण “घृणा-भावना है। इस प्रकार राग और द्वेष ही विश्व-वृक्ष है । ससार भ्रमण के मूल कारण है ।
राग होला दओ तिव्वा. नेह पासा भयंकरा ।
उ०, २३, ४३ टीका-रागद्वेष आदि कषाय रूपी पाश और तीव्र मोह रूपी पाश बडी ही भयकर है । मोह, माया और ममता पाश रूप ही है, जाल रूप ही है । ससारी आत्माएँ इसी जाल में फंसी हुई है। समर्थ और स्थिर समाधि वाली आत्माएँ ही इस पाश से मुक्ति पा सकती है
कसाया अग्गियो कत्ता, सुय सील तवो जल।
उ०, २३, २
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[२०५
सूक्ति-सुधा]
टीका-कषाय अर्थात् क्रोध, मान, माया और लोभ ये चारों जाज्वल्यमान अग्नि है, इनको गात करने के लिये श्रुत-शास्त्र का और सात्विक साहित्यका अध्ययन, पठन-पाठन, मनन-चिन्तन ही शक्तिशाली जल है। ब्रह्मचर्य और मर्यादा पालन कषाय-अग्नि को शांत कर सकता है। तथा बारह प्रकार का वाह्य और आभ्यतर तप भी कपाय-अग्नि को बुझा सकता है ।
चत्वारि वमे सया कसाए ।
- दे०, १०, ६ टीका-सदैव चारों कषायो का, कोध, मान, माया और लोभ का परित्याग करते रहना चाहिये। क्योकि कषाय से मुक्ति होगी, तभी ससार से भी मुक्ति प्राप्त हो सकेगी।
वमे चत्तारि दोसे उ इच्छंतो हिय मप्पणो।
- द०, ८, ३७ टीका--क्रोध, मान, माया और लोभ रूप चारो दोषो को छोड' दो। यदि अपना हित चाहते हो तो इनका नाश कर दो। कषायमुक्ति ही मोक्ष का सच्चा मार्ग है, यह नहीं भूलना चाहिये।
(७) चत्तारि एए कसिणा कलाया, सिंचिंति मूलाई पुणब्भवस्स।
द०,८,४० टीका-ये चारों कषाय-क्रोध, मान, माया और लोभ, पुनर्भव की अर्थात् जन्म-मरण की जड़े सीचते रहते है। इन कषायो केवल से ही अनन्त ससार की वृद्धि होती रहती है।
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२०६]
[कपाय-मूत्र
(८) वेराणुवधीणि महळ्याणि । -
सू०, १०, २१ टीका-वासना और कपाय के वश होकर, भोगों से आकर्षित होकर, जीव वैर तो वाँव लेते है, परन्तु यह नहीं जानते है कि वैरबाँचना इस लोक और परलोक में महान भय पैदा करना है, महान् दु.ख मोल लेना है।
(९) वेराणुगिद्धे णिचयं करेति ।
सू०, १०, ९ टीका-जो प्राणी अन्य प्राणियों के साथ वैर-भाव रखता है, अति-स्पर्धा जनित राग-द्वेप के भाव रखता है, वह घोर पाप कर्म का उपार्जन करता है, वह चिकने कर्मों का बंध करता है।
(१०) माया मोसं विवज्जए।
द०, ५, ५१, २, द्वि. टोका-बुद्धिमान् अपने कल्याण के लिये, अणु-मात्र भी, थोड़ा सा भी माया-मृपावाद नही वोले यानी कपट पूर्वक झूठ मिथ्यात्व का पोपक है और मोक्ष का नागक है।
. (११) माया मित्ताणि नासेइ ।
द०, ८,३८ टीका-माया या कपट, मित्रता का नाग कर देता है । सम्यचत्व का भी कपट से नाम हो सकता है। कपट से विश्वास उठ जाता है।
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सूक्ति-सुधा ]
( १२ ) माया गई पडिग्धाओ, लोभामो दुहओ भयं ।
उ०, ९,५४
टीका - माया से अच्छी गति का नाश होता है, और लोभ से दोनो लोक में भय पैदा होता है ।
( १३ ) पेज्जवत्तिया मुच्छा दुविहा,
माए चैव लोहे चेव ।
:
ठाणा, २, रा, ठा, उ, ४, १३
टीका - राग यानी मूर्च्छा और राग जनित आसक्ति दो कारणों से हुआ करती है १ माया से और २ लोभ से ।
-:
[.२०७
( १४ )
मायं च वज्जएं सया ।
उ०, १, २४
टीका—माया का. कपट का सदैव परित्याग करते रहना चाहिए 'क्योकि माया आत्म - विकास के मार्ग में शल्य समान है, काटे के समान है | साया मैत्री का और सहृदयता का नाश करने वाली है ।
( १५ )
जे इह मायाइ मिज्जई, श्रागता गन्भाय णंतसो ।
सू, २, ९, उ, १
टीका - जो पुरुष यहाँ पर माया आदि कषाय का सेवन करता है, कपट क्रियाओं में ही सुख मानता है, उसे अनन्त बार जन्म-मरण - धारण करने पड़ते है ! उसे अनेक वार गर्भ में आने के दुःख उठाने
पड़ेगे ।
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२०८ ]
( १६ ) जे माण दसी से माया दंसी ।
आ०, ३, १२६, उ, ४
टीका–जो मान वाला है, उसके हृदय में कपट है ही । जिसके हृदय में मान होता है, उसके हृदय में कपट भी होता ही है । मान और माया का सहचर सम्बन्ध है ।
( १७ ) माणो विज्ञाय नासणो । - द०, ८, ३८
[ कषाय-सूत्र
टीका- - मान विनय का नाश करता है, नम्रता को दूर भगाता है । मान से आत्मा मे गुणों का विकास होना रुक जाता है । ( १८ )
आत्तणं न समुक्कस | ८०, ८, ३०
टीका - अपने आपको बडा नही समझे, यानी अहकार का सेवन नही करे । अहकार सेवन से आत्माकी उन्नति रुकती है, ज्ञान- दर्शन और चारित्र मे बाधा पहुँचती है, एव मरणात मे दुर्गति की प्राप्ति होती है ।
( १९ )
न बाहिर परिभवे ।
द०, ८, ३०
टीका – कभी किसी को तिरस्कार नहीं करे । तिरस्कार करने से पर के मर्म की हिसा होती है, तथा अपनी आत्मा मे मान- कषाय का पोषण होता है |
('२० ) सुश्रलाभे न मज्जिज्जा !
द० ८, ३०
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सूक्ति-सुधा]
२०९ टीकाबहुत विद्वान् होने पर भी विद्या का अभिमान नहीं करे । अपने श्रुत-ज्ञान के प्रति अहकार-भावना नही लावे। अहकारी का सदैव सिर नीचा ही रहता है,। . .
. (२१) . इमा पया वहु माया, मोहे पाउडा ।
सू०, २, २२, उ, २ टोका-भौतिक-सुख की मान्यता वाली आत्माऐ माया आदि कपाय से युक्त होती है । और मोह से ग्रसित होती है । ऐसी आत्माऐ अनन्त काल तक,संसार मे परिभ्रमण करती रहती है।
(२२) - छन्नं च पसंस णो करे, , न य उक्कोस पगास माहो ।
सू०, २, २९, उ, २ टीका-विवेक शील पुरुष, छन्न यानी अभिप्राय को छिपाने रूप माया न करे। प्रशस्य-यानी सभी ससारी आत्माओ में रहने वाला लोभ भी न करे। उत्कर्प यानी जन साधारण को विवेक हीन कर देने वाला जो अभिमान है; उसको भी स्थान न दे। इसी प्रकार प्रकाश यानी आत्मा के स्वभाव' को विकृत रूप से पेश करने वाला जो क्रोध हैं, उसको भी तिलांजली दे दे। “कषाय मुक्ति किल मक्ति रेव" यही सिद्धात आदर्श है।
(२३ ) 1 , अहे वयइ कोहेणं, :
माणेणं अहमा गई ।
- टीका क्रोध से अधोगति मे जाता है और मान से नीच-गति की प्राप्ति होती है। .
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२१०]
[कषाय-सूत्र (२४) उक्कसं जलणं णूम, मज्झत्थं च विगिंचए ।
सू०, १, १२, उ, ४ टीका-आत्मा का हित चाहने वाला पुरुष, क्रोध. मान, माया और लोभ का त्याग कर दे । कषाय के त्याग मे ही आत्मा का अमर सुख रहा हुआ है।
(२५) णो कुज्झे णो माणि ।
सू०, २, ६ उ, २ टीका-न तो क्रोध करे और न मान करे । आत्मार्थी का यही मार्ग है । परमार्थी का यही जीवन-व्यवहार है ।
(२६ ) . . कोई माग ण पत्थए ।
सू०, ११, ३५ ।। . . टीका-क्रोध और मान को सर्वथा छोड़ दो। क्रोध नाना पापों को लाने वाला है । यह विवेक, समता, सद्बुद्धि आदि गुणों का नाश करने वाला है। इसी प्रकार मान भी सभी गुणो का नाश करने वाला है । आत्माकी उन्नति को रोक कर उसे पीछे धकेलने वाला है।
(२७) जे कोह देसी से माण दंसी।
___ मा०, ३, १२६, उ, ४ टीका--जो क्रोधी है, वह मानी मी है ही। जिसके हृदय में क्रोध का निवास है, उसके हृदय मे मान भी अवश्य है। क्रोध और मान का परस्पर मे अविनाभाव सम्बन्ध समझना चाहिये। । '
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सूक्ति-सुधा]
[२११
(२८) दोस वत्तिया मुच्छा दुविहा, कोहे चेव, माणे चेव ।
ठाणा, २रा, ठा, उ, ४, १३ टीका--द्वेष-मूर्छा, अथवा द्वेष-जनित घृणा, दो कारणो से हुआ करती है :-१ क्रोध से और २ मान से ।
(२९) सुहमे सल्ले दुरुद्धरे, विउमंता पयहिज्ज संथवं ।
__सू०, २, ११, उ, २ टीका-सूक्ष्म शल्य का नाश करना यानी अभिमान का त्याग करना बड़ा ही दुष्कर काम है । जड़ मूल से इसको उखाड़ फेकना अत्यन्त कठिन है, इसलिये आत्मार्थी पुरुष वदना-पूजना आदि रूप परिचय से दूर रहे। मुमुक्षु आत्मा वदना-पूजना, यश-कीति की बाछा न करे। सेवा और त्याग को ही सर्वस्व समझे।
( ३० ) विहे बंधे पेज्ज बंधे चेव,
दोस बंधे चेव ।
- ठाणा, २ रा, ठा, उ, ४, ४ . टीका-आत्मा के साथ कर्मों का बधन दो कारणो से हआ करता है-१ राग भाव से और २ द्वेष भाव से । माया और लोभ के कारण से राग भाव पैदा होता है, तथा क्रोध और मान से द्वेष भाव पैदा हुआ करता है।
" (३१) एत्थ मोहे पुणो पुणो। या०, ५, १४३, उ, १
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२१२]
[ कषाय-सूत्रं
टीका-जब तक ज्ञान, दर्शन और चारित्र का आराधन करके आत्मा को पूर्ण निर्मल नहीं किया जायगा, शात और अनासक्त नही किया जायगा, तब तक बार बार मोह अपनी ताकत लगाता ही रहेगा। __ मोह की प्रवृत्तियो का प्रवाह अनासक्त होने पर ही रुक सकता है, । अन्यथा नहीं।
मोहेण गम्भं मरणाइं ए।।
, आ०, ५, १४३, उ, १ . टीका-मोह कर्म के कारण से ही ससारी जीव को बार बार गर्भ मे आना पड़ता है और बार बार मृत्यु के चक्कर मे फसना पडता है। मोह की महिमा बहुत ही गूढ है, वह अनेक रूप धारण कर जीवन में आता है। मोह आत्मा को मदिरा के समान वेभान कर देता है। ससार का सारा चक्र मोह रूपी नट के हाथ में ही स्थित है।
( ३३ ) अहिगरणं न करेज्ज पंडिए ।
। सू०:२, १९, उ, २ . ____टीका--ज़ो पडित है, यानी जो आत्मा को शाश्वत् सुख में पहुंचाना चाहता है, तो उसको कलह से दूर ही रहना चाहिये । वैरभाव, लडाई-झगडा आदि के स्थान पर प्रेम, सहानुभूति और बन्धुत्व भावना रखनी चाहिये।
(३४) आरम संमिया कामा, न ते. दुक्ख विमोयगा। 2. सू., २, ३ .
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[२१३
सूक्ति-सुधा ]
टीका-जो विपय लोलप है, और जो तृष्णा मय आरंभ कार्यों से भरे हुए है, ऐसे पुरुष दुःखो से यानी आठो कर्मो के जाल से मुक्त होने वाले नही है । वे तो कोल्हूं के बैल के समान निरन्तर संसार में ही चक्कर लगाते रहेगे।
(३५)
अणुवसन्तेणं दुक्कर दमसागरो।
उ०, १९, ४३ टीका-जिस आत्मा की कषाय वृत्ति शान्त नही है, ऐसी आत्मा से दम रूप समुद्र का यानी इन्द्रिय-दमन रूप सागर का-तैरा जाना दुष्कर है । ससार से मुक्ति पाने के लिये कषायो पर विजय प्राप्त करना सर्व प्रथम आवश्यक है।।
अवि प्रोसिए धासति पावकम्मी।
सू., १३,५ टीका-कलह आदि कषाय मे और ईर्षा-द्वेष में सलग्न पुरुष अधम है, वह पाप कर्मी है, और दु ख का ही भागी है।
( ३७ ) - जो विग्गहीए अन्नाय भासी, न से समे होइ अझंझपत्ते ।
सू०, १३, ६ टीका-जिस पुरुष की वृत्ति ही झगडा करने की हो गई है, तथा जो न्याय को छोड़कर बोलता है, यानी अनीति पूर्वक भाषण करता है, ऐसा पुरुष राग और द्वेष से युक्त होने के कारण समता धर्म नही प्राप्त कर सकता है, वह शाति का अनुभव नही कर सकता है और न कलह से ही उसका छुटकारा हो सकता है।
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कामादि-सूत्र
( १ )
नागो जहा पंक तलाव सन्नो, एवं वयं काम गुगोसु गिद्धा 1
उ० १३, ३०
टीका - जैसे हाथी कीचड़ वाले तालाव मे फस जाता हे और कीचड़ की बहुतायत से वही मृत्यु को प्राप्त हो जाता है, वैसे ही हम संसारी जीव भी काम भोगो मे फसे हुए है और अंत मे मर कर दुर्गति को प्राप्त होते है ।
( २ ) अबंभ चरित्र घोरं ।
द०, ६, १६
टीका -- अब्रह्मचर्य, मैथुन या वीर्य नाश घोर पाप है, इससे आत्मा का तो पतन होता ही है, परन्तु गारीरिक, मानसिक और वाचिक शक्तियाँ भी इससे नष्ट होती है । सामारिक आपत्तियाँ भी नाना प्रकार की इससे पैदा हो जाती है ।
( ३ )
इत्थी वसं गया वाला, जिरा-सासरा परम्मुहा । सू०, ३, ९, ३, ४
टीका - स्त्री के वग में गये हुए जीव यानी ब्रह्मचर्य का पालन नही करने वाले मूर्ख - अज्ञानी जीव, जिन-गासन से अहिंसा धर्म से परामुख है यानी ऐसे कामी पुरुष जिन - शासन के पालक या आराघक नही कहे जा सकते है ।
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सूक्ति-सुधा]
[ २१५
रूवेहिं लुप्पंति भयावहेहिं ।
मू० १३, २१ टीका--स्त्री का रूप, अग-प्रत्यंग आदि भयकर है, जो पुरुष स्त्री के रूप मे आसक्त होते है, उनकी इस लोक मे भी निंदा होती है, और पर लोक मे नरक-आदि नीच-गति की प्राप्ति होती है। दोनो लोक मे स्त्री-आसक्ति से विविध दु:ख, ताडना, मारना आदि पीडाऐ सहन करनी पडती है ।
कामे कमाही, कमियं खु दुक्खं ।
द०, २, ५ _____टीका-कामनाओ को यानी पांचो इन्द्रिय संबधी विषयो को
और मन की वासनाओ को हटा दो। इससे दुख, सक्लेग, जन्ममरण आदि व्याधियाँ अपने आप ही हट जायगी। विषय-वासना का नाश ही दुःख का नाश है।
मूलमेय महमस्ल।
द०, ६, १७ टीका-यह अब्रह्मचर्य पाप की जड़ ह, अधर्म का मूल है । यह सभी प्रकार के पतन और दुःखो को लाने वाला है। इस लोक और परलोक मे शांति चाहने वाले को इससे बचना चाहिये।
(७) सल्लं कामा विसं कामा, कामा आसी विसोवमा ।
उ०, ९, ५३ टीका-ये काम-भोग तीक्ष्ण नोक वाले शल्य यानी काटे के समान है, जो कि शरीर और चित्त में गहरे घुसकर रात और दिन
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२१६ 1
[ कामादि-सूत्र पीडा पहुचाते रहते है। ये मधु-मिश्रित विष के समान है, जो कि मोगते समय तो मधुर दिखाई देते हैं, किन्तु परिणाम मे घोर दुख के देने वाले हैं। ये काम-भोगे, जिसके डाढ़ में जहर है ऐसे सर्प के समान है, जो कि देखने में तो सुन्दर है, किन्तु स्पर्श करते ही आत्मा मे महान् अनर्थ पैदा करने वाले है।
(८) - दुप्परिच्चया इम कामा, नो सुजहा अधोर पुरिसेहिं ।
उ०, ८, ६ टीका-ये काम-विकार अत्यत कठिनाई से छूटते है, इसलिये अधीर पुरुषो से-निर्बल आत्माओ से ये विकार सरलता के साथ नही त्यागे जा सकते है। इनके लिये धैर्य और दृढ निश्चय की आवश्यकता है।
कामा दुरतिवकमा।
आ०, २, ९३, उ, ५ टीका-काम-भोगो की इच्छाऐ बहुत ही कठिनाई से जीती जाती है। बहुत ही सावधानी के साथ, ज्ञान-पूर्वक प्रयत्न करने पर ही इन पर विजय और नियन्त्रण किया जा सकता है। इसलिये कभी भी काम-इच्छा को जीतने के प्रति ढीलाई नही रखनी चाहिये। बल्कि हर क्षण इनके लिये जागृत और प्रयत्न शील रहना चाहिये।
(१०) काम भोग रसगिद्धा, उपवज्जन्ति श्रासुरे काए ।
उ०, ८, १४, टीका-काम-भोगो मे मच्छित, इन्द्रिय-रसो मे आसक्त, विकार _ और वासनाओ मे मूढ आत्माऐ मर कर असुर कुमारो मे-हलकी
जाति के देवो मे उत्पन्न होती है ।
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सूक्ति-सुधा
[२१७
उविच्च भोगा पुरिसं चयन्ति, दुमं जहा खीण फलं व पक्खी।
उ०, १३, ३१ टीका-जैसे पक्षी फल हीन वृक्ष को छोड़ कर चले जाते है, वैसे ही काम-भोग भी पुरुप को क्षीण करके छोड देते है, यानी काम-भोगो से पुरुप क्षीण होकर, अशक्त होकर मृत्यु को प्राप्त हो जाते है।
(१२) भोगा इमे संग करा हवति ।
उ०, १३, २७ टीका--ये काम भोग ही, इन्द्रिय-पोषण की प्रवृत्तियाँ ही, दुख देने वाले कर्मों का अर्थात् अनन्त जन्म मरण कराने वाले कर्मों का घोर वधन कराने वाली होती है ।
खाणी आणत्थाण उ काम भोगा।
टीका--काम-भोग और इन्द्रिय-विषय-विकार, अनर्थों की खान है। ये अनन्त विपत्ति और घोर पतन को लाने वाले है।
(१४ । कामे संसार वढणे, संकमाणो तणुं चरे।
उ०, १४, ४७ टीका-काम-भोग अर्थात् मूर्छा और विकार वासना, इन्द्रियभोगो की आसक्ति ससार के दुखो को वढाने वाली है। भोगो से कदापि तृप्ति होने की नही है । ऐसा समझ कर यत्न पूर्वक इन से दूर होकर विचरण करे, अपना जीवन व्यतीत करे।
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२१८]
[ कामादि-सूत्र
दुज्जय काम भोगे य, निच्चसो परिवज्जए।
उ०, १६, १४ टीका-ये काम-भोग अत्यत कठिनाई से जीते जाने वाले हैं, पूर्ण ज्ञान-साधना और सतत जागरूकता होने पर ही इन काम__भोगो पर विजय प्राप्त की जा सकती है। अतएव सदैव के लिये
ब्रह्मचारी इनका परित्याग कर दे ।
काम भोगे य दूंच्चए।
उ०, १४, ४९ टीका-ये काम-भोग अत्यत कठिनाई से त्यागे जाते है। इनसे पिड छुडाना महान् कठिन है । यत्न पूर्वक और ज्ञान पूर्वक ही भोगों का त्याग किया जा सकता है । इसलिये सदैव भोगो के प्रति जागरूक रहने की-सावधान रहने की आवश्यकता है ।
सत्ता कामेसु माणवा ।
आ०, ६, १७५, उ, १ ___टीका-आश्चर्य की बात है कि मनुष्य काम-भोगो मे फसे हुए है। पर-लोक, मौत और नाना-विध दु खो का जरा भी विचार भोग भोगते समय नहीं किया करते है। आयु क्षीण हो रही है, परन्तु इसका उन्हे जरा भी ख्याल नहीं है । क्या यह आश्चर्य की बात नही है ?
( १८ ) न कामभोगा समयं उवेन्ति ।
उ०, ३२, १०१
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सूक्ति-सुधा]
[२१९
टीका-काम-भोगो मे आसक्त रहता हुआ प्राणी कभी भी राग द्वेष से रहित नहीं हो सकता है ।
(१९) कान भोगाणु राएणं केसं संपडिवज्जई ।
उ०, ५, ७ ___टीका-काम भोग के अनुराग से, भोगों में आसक्ति रखने से क्लेश ही क्लेश प्राप्त होता है। भोगो से सुख की आशा करना बालू से तेल निकालने के समान है।
(२०) काम भोगा विसं ताल उडं।
___ उ०, १६, १३ टीका--काम-भोग तालपुट विष के समान है जो कि तत्काल मृत्यु को लाने वाले है। आत्मा के गुणो का नाश करने वाले है। शीघ्र ही अधोगति को देने वाले है | काम-भोगो से सिवाय विनाश के, सिवाय नाना विध दुःखो की प्राप्ति के अन्य कुछ भी प्राप्त होने वाला नही है।
( २१) वित्ते गिद्धे य हात्थसु, दुहओ मलं संचिणाइ।
२०, ५, १० टीका-स्त्रियो मे और धन में मूच्छित होने से, इनमें आसक्त रहने से, आत्मा इस लोक मे भी अपना समय, अपनी शक्ति-और अपना जीवन व्यर्थ खोता है, तथा पर लोक मे भी नाना तरह के दुख उठाता है । वास्तव मे भोग घृणित वस्तु है।
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२२० ]
( २२ ) जहाय किस्पाग फलां मणोरमा, एश्रोमा काम गुणाविवागे ।
उ०, ३२, २०
---
टीका - जैसे किपाक - फल देखने मे सुन्दर और आकर्षक होते है, खाने मे स्वादिष्ट और मधुर होते है, परन्तु परिणाम मे विप रूप है, प्राण-नाशक है, वैसे ही काम-भोग भी देखने मे सुन्दर, आकर्षक, मनोरम होते है और भोगने में क्षण-भर के लिये थोड़ी देर के लिये आनन्द-जनक, सुख दायक प्रतीत होते हैं, परन्तु फल मे आत्म-घातक, दुर्गति-दायक और अनन्त जन्म-मरण के बढ़ाने वाले होते है ।
( २३ ) कामाणु गिद्धिष्भवं खु दुखं ।
[ कामादि-सूत्र
उ०, ३२, १९
टीका - निश्चय कर के दुखो की उत्पत्ति काम-भोगो मे मूच्छित होने से पैदा होती है । मूर्च्छा ही दुख ह ।
( २४ ) कुररीविवाभोग रसाणु गिद्धा, निरट्ट सोया परिताव मेइ |
उ०, २०, ५०
टीका - काम भोगो में और इन्द्रिय रसो में निरन्तर आसक्त जीव, विकार और वासनाओ मे मूच्छित जीव, निरर्थक शोक करने वाली कुररी नामक पक्षिणी की तरह मरने पर घोर वेदना और असह्य परिताप को ही प्राप्त होता है ।
( २५ ) सन्नाइह काम-मुच्छिया, मोह जंति नरा श्रसंबुडा । सू०, २, १०, उ, १
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सूक्ति-सुधा ]
[ २२१
-
टीका - जो पुरुष अथवा जो आत्माऐ इस मनुष्य-भव, अथव इस ससार मे आसक्त है, एव काम भोग में मूच्छित है, तथा हिसा आदि पापो से निवृत्त नही है, वे पुरुष
मोहनीय-कर्म का सचय
करते है |
( २६ )
गिद्ध नरा कामेसु मुच्छिया
सू०, २, ८, उ, ३
ही काम भोग मे
टीका - क्षुद्र मनुष्य प्रकृति के जीव ही विषयो मे आसक्त होकर स्थान को प्राप्त करते है । -
मूच्छित होते है । लघु.. नरक आदि यातना -
( २७ )
वज्जए इत्थी विसलित्तं, व कंटगं नश्या ।
सू०, ४, ११, उ, १.
टीका — जैसे विष-लिप्त काटा तत्काल निकाल कर फेक दिया जाता है, उसी प्रकार अनन्त जन्म-मरण को उत्पन्न करने वाले स्त्री रूप काटे को भी तत्काल छोड़ देना चाहिये । यानी पूर्ण ब्रह्मचर्य के साथ जीवन व्यतीत करना चाहिए। जीवन विकास के इच्छुक को सर्व-प्रथम ब्रह्मचर्य व्रत धारण करना चाहिये ।
L
( २८ )
नो विहरे सह णमित्थीसु ।
सू०४, १२, उ, १ -
टीका — आत्म-कल्याण की भावना वाला, स्व-पर-सेवा की इच्छा वाला, स्त्रियो के साथ विहार नही करे । स्त्रियो की संगति से सदैव दूर रहे |
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२२२]
[कामादि-सूत्र
(२९) अदक्खु कालाई रोगवं।
मू०, २, २, उ, ३ टीका-जिन्होने निश्चय रूप से, अडोल हृदय से, काम-भोगों को साक्षात् रोग ल्प समझ लिया है, मैथुन को दु.खों का मूल-स्थान और मादि-कारण समझ लिया है, वे मुक्त-आत्मा के समान ही है, उन्हे शीघ्र ही मुक्ति प्राप्त होगी, इसमे जरा भी सदेह नहीं है।
(३०) विसन्ना विसयं गणाहि, दुहनोऽवि लोय अणु संचरंति ।
सू०, १२, १४ टीका-जो जीव विषयो मे अर्थात भोगो में और स्त्रियो में आसक्त है, जो विपयांव है, भोगांव है या कामांव है, वे वार वार स्थावर और त्रस-योनियो में जन्म लेते है, अनन्त जन्म मरण करते है, उनको संसार में अनन्त काल तक परिभ्रमण करना पड़ेगा।
विसएसण झियायति, . कंका वा कलसाहमा।
मू० ११, २८ टीका-जो विषय-भोगो की प्राप्ति का ध्यान करते रहते है, वे ढक पक्षी की तरह पापी और अवम है । जैसे ढक आदि पक्षी सदैव मछली पकड़ने का ही ख्याल रखते है, वैसे ही मूढ़ जन भी सदैव विपय-पोषण और विकार सेवन का ही ख्याल रखते है। ऐसे प्राणी निश्चय ही नीच और दुष्ट है; तथा निरन्तर दुख के ही भागी है।
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'सूक्ति-सुधा]
[ २२३
( ३२ ) सच लोयसि जे कामा, तं विज्ज परिजाणिया।
सू०, ९, २२ टीका-समस्त लोक में जो काम-भोग है, विद्वान् पुरुष उनको दु.ख के कारण समझ कर तथा ससार में परिभ्रमण कराने वाले समझ कर उन्हे त्याग दे । काम भोग से सर्वथा सम्बन्ध विच्छेद कर दे।
(३३) पंचविहे काम गुणे,निच्चसो परिवज्जए।
___उ०, १६, १०, __ टीका-पांचो प्रकार के काम गुणो को-(१) मधुर काम वर्द्धक शब्द, (२) काम दृष्टि से देखना ( ३) पुष्प माला आदि सुगन्धित पदार्थों का शृङ्गार, (४) काम वर्द्धक-भोजन और ( ५ ) काम वर्द्धक स्पर्श-क्रिया आदि को ब्रह्मचारी सदैव के लिये छोड़ दे। ब्रह्मचर्य की घात करने वाली पांचो इन्द्रियो की प्रवृत्ति का ब्रह्मचारी परित्याग कर दे।
काम कामी खलु अयं पुरिसे, से सोय ,जूरइ, तिप्पड़, परित पइ ।
आ०, २, ९३, उ, ५ 'टीका-जो कामान्ध होता है, जो भोगान्ध होता है, उसे भोगपदार्थो का वियोग होने पर, रोग होने पर अथवा मृत्यु के सन्निकट आने पर शोक करना -पड़ता है, झूरना पड़ता है, प्रलाप करना थड़ता है, आतरिक वाह्य रूप से ताप, परिताप भोगना पड़ता है, घोर
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२२४ ]
[ कामादि-सूर
वेदना और असह्य मानसिक खेद उठाना पड़ता है। भोगी न तो कभी सुखी हुआ है और न कभी होगा।
- ( ३५ ) . अझोववन्ना कामहि, पूयणा इव तरुण ए।
. सू०, ३, १३, उ, ४ टीका-जैसे पूतना नामक डाकिनी अथवा रोग-विशेप बालकों पर आसक्त रहता है, वैसे ही आत्मिक सुख का विरोधी पुरुष भीकामान्ध पुरुष भी-काम-भोगो मे अत्यत मूर्च्छित रहते है। जिसका परिणाम नरक, तिथंच आदि गति में परिभ्रमण करना होता है।
थम्मा कोहा पमापणं, रोगेगालस्सएण य सिक्खा न लब्भई। ,
उ०, ११, ३ । टीका--अहकार से, क्रोध से, प्रमाद से, रोग से और आलस्य से-इन पाच-कारणो से ज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता है। ज्ञान प्राप्ति के लिये विनय, नम्रता, प्रयत्न, और भावना मय आकाक्षा की आवश्यकता है।
द्धे अणिग्गहे अविणीय। . . . . उ०, ११, २ टीका-~जो अहकार युक्त है, लोभी है, और इन्द्रियो का गुलाम है, वह अविनीत है। वह भगवान की आज्ञा का विराधक है। जो विराधक है, वह मोक्ष से दूर है।
(३८) बोच्छिद सिगोह मप्पणो।
उ०, १८, २४
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सूक्ति-सुधा ]
[ २२५
टीका - आत्मा मे रहे हुए मोह, मूर्च्छा, आसक्ति, वासना और विकार को काट दो, इन्हे हटा दो ।
( ३९ )
बहिया उढ मादाय, नावकखे कथाइ वि ।
उ०, ६, १४
टीका - अनासक्त जीवन को ही और स्थितप्रज्ञ अवस्था को ही सर्वोच्च, तथा सर्वश्रेष्ठ समझ कर आत्मार्थी पुरुष विषयसुख की
किसी भी समय मे और किसी भी दशा मे आकांक्षा न करे, भोरा
f
सुख की तृष्णा न करे ।
7
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क्रोध-सूत्र
कोहो पीई पणासेह।
द०, ८,३८ टीका-क्रोध, प्रेम का और मित्रता का नाश करता है। क्रोध से हिंसा की, अविवेक आदि दुर्गुणो की उत्पत्ति होती है ।
उवसमेण हणे कोहं।
८०,८,३९ टीका-शाति गुण से क्रोध को हटाना चाहिये । शाति के नल पर हिंसक से हिंसक प्राणी भी और विरोधी से विरोधी मनुष्य भी बय में हो जाता है।
कोहं असच्चं कुग्वेज्जा ।
उ., १, ३४ टीका-सदैव क्रोध को दवाते रहना चाहिये। क्रोध का जड़भूल से नाश हो ऐसा प्रयत्न करते रहना चाहिये । क्योकि क्रोव वैरविरोध का मूल है।
कलहं जुद्धं दूरओ परिवज्जए।
६०, ५, १२, उ, प्र, टीका-हित को चाहने वाला पुरुष क्लेश को, वाक्युद्ध को और अन्यविध लड़ाई को दूर से ही छोड़ दे। यानी उसके समीप नहीं जावे।
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सूक्ति-सुधा]
[२२७
प्रासुरत्तं न गच्छिज्जा, सुच्चाणं जिण-सासगां।
द०, ८, २५, टीका-जिन-शासन यानी जैन धर्म के सिद्धान्तों का रहस्य समझ कर कभी किसी पर क्रोध नही करे । क्रोध विवेक को भ्रष्ट करने वाला है, बुद्धि को उलझन में डालने वाला है, प्रामाणिकता और अप्रामाणिकता का भेद नही करने वाला है । क्रोध कलह को पैदा करने वाला है और अत मे दुर्गति का दाता है।
नहुमुखी कोवपरा हवन्ति ।
. उ०, १२, ३१ टीका-मुनि, आत्मार्थी कभी क्रोव नही करते है। संयमी कषाय-भाव से दूर ही रहते है। .
दुविहे कोहे-पाय पइदिए चेव,
पर पइहिए . चेव ।
ठाणां०, २रा, ठा, उ, ४, ६ । - टीका-क्रोध दो प्रकार का कहा गया है-१ आत्म प्रतिष्ठित और २ पर-प्रतिष्ठित । स्वभाव से ही आत्मा में उत्पन्न होने वाला क्रोध तो आत्म-प्रतिष्ठित है और बाह्य-कारणो से आत्मा में उत्पन्न होने वाला क्रोध पर-प्रतिष्ठित है।
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हिंसा-सूत्र,
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द०, ६, ११
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टीका - प्राणियो का वध करना, मन, वचन और काया से जीवों को कष्ट पहुँचना घोर पाप है
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( १ )-- पाणि वहं घोरं ।
( २' )
अजं चरम णो अपाण भूयाई हिंसइ । द०, ४, १ -
टीका - जो अयत्ना से 'यानी अविवेक से और उच्छृंखलता से "चलता है, उसको प्राणियों की उसके द्वारा भले ही हिंसा न होती हो तो भी प्राणियो को मारने का पाप लग जाता है ।
(a) अजयं भुजमागो श्र पाण भूयाई हिंस | द०, ४, ५
टीका - जो अयत्ना से, अविवेवक से और लोलुपता से, भोजन करता है, उसको प्राणियो की उसके द्वारा भले ही हिसा न होती हो तो भी प्राणियों को मारने का पाप उसको लग जाता है ।
(x)
हिंसन्नियं वाण कहं करेज्जा ।
सू०, १०, १०
टीका-जिन कथा - वार्त्ताओ से हिंसा पैदा होने की सम्भावना 'जनसे हिंसा को अर्थात् पर पीडन को और गरीबो के शोषण
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सूक्ति-सुधी ]
[ २२९ -
को उत्तेजना मिलती हो, ऐसी कथा- वार्त्ताओं से तथा चर्चाओ से
दूर रहे |
(५)
न हुं पाणं वह अंशु जाणे, मुच्चेज्ज कयाइ सव्व दुक्खायां ।
उ०, ८, ८
टीका --- प्राणियों के प्राणो के वध की, उनको नाश करने की अनुमोदना करने वाला मनुष्य कभी भी सम्पूर्ण दुखों से छुटकारा नही प्राप्त कर सकता है । ऐसा मनुष्य कभी मुक्ति नही प्राप्त कर सकता है ।
( ६ ) किं हिंसाए पसज्जसि । उ०, १८, ११
टीका - हिंसा में क्यो आसक्त होते हो ? हिंसा कदापि सुख की देने वाली नही है । हिंसा राग और द्वेष को ही पैदा करने वाली है । हिंसा दुःख का ही मल है ।
( ७ )
व पंडिए अगणि समारभिज्जा ।
सू०, ७, ६
टीकापडित मुनि, आत्मज्ञ पुरुष अग्नि का समारम्भ नही करे । यानी सम्यक्-दर्शनी और श्रावक आदि मनुष्य बड़े २ मील, कारखाने आदि रूप अग्नि का समारम्भ नही करे ! क्योकि इनमें त्रस, स्थावर जीवो की हिंसा के साथ साथ मनुष्यों का शोषण भी होता है तथा साथ में नैतिक पतन भी होता है ।
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२३०]
[हिंसा-सूः
(८) , पाणाणि चेवं विणिहंति मंदा।।
सू०, ७, १६, टीका-मूर्ख जीव, अज्ञानी नेताओ के पीछे चलकर भोगो । लिये और मनोरंजन के लिये नाना विध प्राणियो की घात कर रहते है, और अन्त में घोर कष्ट दायक कर्मों का बन्धन करते रहते है
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.. लोभ-सूत्र -
(१) लोभो सव्व विणासपो।
द०, ८,३८ टीका--लोभ सभी आत्मिक-गुणो का नाश कर देता है। लोभ पाप का बाप है । लोभ वशात् मनुष्य न जाने क्या क्या पपप कर बैठता है ?
(२) इच्छा हु अागास समा अणन्तिया।
उ०, ९, ४८ टीका-विश्व भर की सपत्ति और वैभव प्राप्त हो जाने पर भी लोभी चित्त को शांति नही हो सकती है, क्योंकि इच्छा-तृष्णा तो आकाश के समान अनन्त है, इनका कोई पार नही है, ऐसा सोच कर सतोष को ग्रहण करना चाहिये।
(३) दुप्पूरए इमे आया।
____उ०, ८, १६
टीका-संसार का संपूर्ण वैभव भी प्राप्त हो जाय, पुद्गलों की अपरिमित रूप से सुखमय प्राप्ति हो जाय, तो भी तृष्णा-ग्रस्त आत्मा सतुष्ट नही हो सकती है। तृष्णा के आगे तृप्ति अत्यत कठिन है । इसलिये यह आत्मा दुष्पूर है।
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२३२]
[लोभ-सूत्र
(४) जहा लाहो तहा' लोहो, लाहा लोहो पर्वड्ढई ।
उ०, ८, १७ टीका-ज्यो ज्यो लाभ होता जाता है, त्यों त्यो लोभ बढता जाता है, इस प्रकार तृष्णा के रहते हुए लाभ से लोभ बढता __ ही रहता है।
मोहाययणं खु तहा।
उ० ३२, ६ टीका-तृष्णा ही मोह का स्थान है, मोह का नाश करने के लिये सर्व-प्रथम तृष्णा का नाश किया जाना चाहिये। तृष्णा रूपी लता के जन्म-मरण रूपी कटु फल है।
मोहं च तण्हाययणं
उ०, ३२, ६ । टीका--मोह तृष्णा का घर है, तृष्णा के नाश के लिये मोह की वृत्तियो पर नियत्रण रखना परम आवश्यक है।
: (७) . भव तरहा लया वुत्ता, भीमा भीम फलोदया।
उ०, २३, ४८ टीको-ससार मे तृष्णा यानी अतृप्ति एक प्रकार की विष लता के समान कही गई है, जो कि वडी ही भयंकर है, और जो भयकर फलो को, यानी नानाविध आपत्तियों को और विपत्तियों को
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सूक्ति-सुधा ]
[ २३३
देने वाली है । तृष्णा कभी भी शात होने वाली नही है और यह बाकाश के समान अनन्त विस्तृत है ।
( 2 ) - करेइ लोहं वेरं वढेर अप्पणी 1
आ०, २, ९५, उ, ५
टीका - जो लोभ करता है, जो तृष्णा-वासना मे फसा रहता है, उसके लिये चारो तरफ से वैर भावना ही बढ़ती है । उसको प्रति क्षण क्लेश ही क्लेश अंति रहते हैं । लोभ मे वास्तविक शांति का सर्वथा अभाव है ।
↑
C
( ९ ) इच्छा कामं च लोभ च, सज्जओ परिवजए ।
~
उ०, ३५, ३
7
टीका-सयती आत्मा और तत्त्व दर्शी आत्मा अपने मे रही हुई इच्छा को, मूर्च्छा को मूढता को, पाचो इन्द्रियो के काम-गुणो को और लोभ को छोड दे
}
(-१)
अतुट्ठि दोसेरा दुही परस्स, लोभाविले श्रययई श्रदत्तं । 4.
t
उ०, ३२, ६८
+
टीका -- जिस प्राणी का चित्त असतोष से भरा हुआ होता है, वह सदैव दुखी रहता है । ऐसा प्राणी दूसरे के सुख को देख कर अंदर ही अदर मन में जला करता है, और लोभाव होकर दूसरे की वस्तु को अदत्ता-रूप से अर्थात् चोरी रूप से लेने को तैयार हो जाता है ।
(१) इच्छा लोभ न सेविज्जा । ०८, ३९, ८
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२३४ ]
[ लोभ-सूत्र.
टीका --सासारिक पुद्गलो की अथवा सांसारिक सुखों की इच्छा कभी भी नही करनी चाहिये । लोभ-तृष्णा का भी परित्याग कर देना चाहिये । लोभ ही अनर्थों की जड़ है । अतएव लोभ का नाश करना, तृष्णा - जाल को दूर फेक देना, जीवन विकास के लिये आवश्यक सीढी है ।
+
( १२ ) संतोसिणो नो पकरेंति पाव । सू०, १२, १५
टीका -- सतोषी पुरुष पाप कर्म नही करते है । संतोष से चित्त वृत्तिया स्थिर होती है, और इससे सेवा तथा कर्त्तव्य के मार्ग की तरफ अभिरुचि बढती है । संवर और निर्जरा का आचरण जीवन मे बढता है | नवीन कर्म रुकते है, और प्राचीन कर्म क्षय होते हैं, इससे आत्मा निर्मल और सबल होती है, यही मोक्ष का मार्ग है ।
( १३ )
आयं ण कुज्जा इह जीवियट्ठी ।
सू०, १०, १०,
अर्थी पुरुष, ससार का अंत करने वाले रहने की इच्छासे द्रव्य-पदार्थों का नही रक्खे । धनादि पदार्थों और
टीका -- कल्याण के पुरुष, चिरकाल तक जीवित संचय नही करे । तृष्णा-भाव मकानो का संग्रह नहीं करे ।
( १४ )
विणी तिust विहरे ।
६०, ८, ६०
टीका -- तृष्णा को हटा कर, लालसा से रहित होकर, जीवन को परम संतोष के साथ व्यतीत करना चाहिये ।
-
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________________
सूक्ति-सुधा
( १५ ) पीय कामगुगोसु तरहा ।
[ २३५.
उ०, ३२, १०७
स्पर्श, इन
टीका - शब्द, रूप, रस, गंध और काम-भोगों में तृष्णा को हटाओ, इन्हें छोडोगे तभी सच्ची गांति प्राप्त होगी ।
( १६ )
सव्वं पि ते अपज्जतं. नेव तारणाय तं ।
उ०, १४, ३९
१
तो भीटीका-यदि सारे संसार का वैभव भी प्राप्त हो जाय, तृष्णा के लिये वह अपर्याप्त है । तृष्णा की शांति होना अत्यन्त कठिन है । ससार का वैभव आत्मा को जन्म-मरण से मुक्ति प्रदान करने मे कदापि समर्थ नही हो सकता है । आत्मा की मुक्ति तो भोगों के छोड़ने में ही रही हुई है ।
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a
अधर्म-सूत्र
( १ ) । अहम्म कुणमाणस्ल, अफला जन्ति राइओ।
उ० १४, २४ टीका-~-अधर्म करने वाले के लिये, पाप का सेवन करने वाले के लिये प्रत्येक रात्रि अर्थात् रात और दिन व्यर्थ ही जा रहे है।
' पडन्ति नरए, घोरे, ' जे नरा पात्र कारिणो।
उ०, १८, २५ टीका-जो आत्माएँ पाप करने वाली है, जो पांचों इन्द्रियों के भोग भोगने वाली है, जो मोह, माया और ममता मे ही मस्त रहने वाली है, वे घोर नरक में पड़ती है। विविध दुख को प्राप्त करने वाली होती है।
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भोग-दुस्प्रवृत्ति-सूत्र
णिक्खम्म से सेवइ अगारि कम्म, ण से पारए होइ विमोयणाए ।
सू०, १३, ११... टाका-संयम-मार्ग पर आरूढ होकर भी जो पुरुष सांसारिक आरंभ-समारंम करता है, या भोगो को भोगने की इच्छा करता है, ऐसा पुरुष अपने कर्मो को यानी अपनी दुष्वृत्तियो-को और वासनाओं को क्षय नही कर सकता है, और इस प्रकार मोक्ष की प्राप्ति भी या अनन्त निर्मलता की प्राप्ति भी-उस कैसे हो सकती है ?
(२) - -- -भोगा- भुत्ता - विसफलोवमा,, ... . . कहुय विवागा अणुबंध दुहावहा : - उ०, १९, १२
, टीका--हमने भोग तो भोगे है अथवा भोग रहे है, किन्तु इनके फल साक्षात विष के समान है। इनका. विपाक-या परिणाम अत्यत कडुआ है. और निरन्तर दुखो को देने वाला है।
.
.
न सुन्दरो।
.
... ..: भुत्ताण मोगाणं परिणामो न सुन्दरो। - . . . उ०, १९, १८ . . टीका--भक्त भोगो का परिणाम कभी भी सुन्दर नही हो सकता
है। इन भोगो का फल कदापि श्रेयस्कर नहीं हो सकता है। ..
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२३८]
[ भोग-दुष्प्रवृत्ति-सूत्र
सद्दाणु गासाणुगए य जीवे, चराचरे हिंसइयोगरूवे ।
उ०, ३२, ४० टीका-जो पुरुष शब्द आदि इन्द्रिय-भोगो मे सुख की खोज करता है, वह विविध रीति से अनेक त्रस और स्थावर जीवो की "हिंसा करता है।
(५) दुखाई अणुहोति पुणो पुणो,
मच्चु वाहि जरा कुले ।
- सू०, १, २६, उ, १ ।। टीका--भोगो मे फंसी हुई आत्माएं बार बार मृत्यु का, रोग का, 'वुढापे का, सयोग-वियोग का, आदि नाना दुःखो का अनुभव करती है।
रसा पगाम न निसेवियव्वा ।
उ०, ३२, १० टीका-इन्द्रियो पर सयम की इच्छा रखने वाले को दूध, दही. घत, तेल, मेवा, मिठाई आदि रस-वर्धक एव उत्तेजक आहार नहीं करना चाहिये।
उवलेवो होह भोगेसु, अभोगी नोव लिप्पई। उ०,२५, ४१
, टीका-पाचो इन्द्रियो के भोगो से कर्मों का ही बन्ध होता है, ‘जीव को भोगो से नानाविध आपत्तियो का और विपत्तियो का ही “सयोग होने की परिपाटी कायम होती है। और अभोगी जीव कर्मों
से 'लिप्त नही होती है। अभोगी जीव को स्थायी आनन्द और निरा‘वाघ सुख की प्राप्ति होती हैं।
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सूक्ति-सुधा]
[२३९
(८) भोगी भमइ संसारे, अभोगी विप्प तुच्चई।
उ., २५, ४१. - टीका-शब्द, रूप, रस, गव और स्पर्श के भोगो मे मच्छित भोगी जीव-ससार में एवं नाना योनियो में परिभ्रमण करता ही रहता है । उसका अनन्त जन्म-मरण बढ जाता है। किन्तु अभोगी जीव, अनासक्त आत्मा या विषय मुक्त आत्मा, बन्धन के चक्कर से और दु.खो के जाल से छूट जाता है—मुक्त हो जाता है।
जे गुणे से आवटे, .. जे आवट्टे"स गुणे।
आ०, १, ४१, उ, ५ टीका-जहाँ पाचो इन्द्रियो के भोग है, वहाँ ससार है। और जहाँ ससार है, वहाँ पांचो-इन्द्रियो, के भोग है । भोग और ससार का परस्पर में कार्य-कारण सम्बन्ध है,- सहयोग सम्बन्ध है, तदुत्पत्ति सम्बन्ध है ! भोगों के छोड़ने पर ही ससार का तथा सासारिक तृष्णा और व्यामोह का भी छुटकारा हो सकेगा । गुण यांनी भोग और आवट्ट यानी आवर्तन-सांसारिक जन्म मरण का चक्र। "
, पुणो पुणो गुणासाए,
वंके सेमायारे । - - - . आ०,१,४४,उ, ५ - - - - टीका--जो पुरुष बार बार इन्द्रियो के भोगो का आस्वादन करता है, भोगों में ही तल्लीन रहता है, वह असयमी है, वह पतित है, वह भ्रष्ट है । उसमें आत्म-वल, ज्ञान-बल, और कर्मण्यता-बल कभी भी विकसित नहीं हो सकते है, और जीवन में असयम के
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२४० ]
[ भोग-दुष्प्रवृत्ति-सूक कारण उसे अनेक नीच योनियो मे जन्म-मरण और नानाविध दुखों का सयोग ग्रहण करना पडेगा। । . .
जे गुणे से मूल ठाणे,
जे मूल द्वाणे से गुणे। - ___ - - आ०, २, ६३, उ, १ । -
टीका-जो आत्मा शब्द, रूप, गंध, रस, स्पर्श आदिः भोगो 'में फंसा हआ है, वह ससार के राग-द्वेष रूपी कीचड मे ग्रसित है ही। इसी प्रकार जो ससार के राग-द्वेष मे ग्रसित है, वह पांचो इन्द्रियों के भोगो मे अवश्यमेव ग्रसित है, जो गुण मे यानी भोग मे है, वह मूलस्थान मे अथवा राग द्वेष में है और जो मूल स्थान. मे है, वह गुण में है ही। .:: .
5 . काम समणन्ने असमिय दुक्खे, .. 5.7 दुक्खी दुक्खाणमेव आवट्ट अणु परियहई। .: , , . . . , . आ०, २, ८२, उ, ३
" .., टीका-जो मनुष्य काम-भोगो को ही प्रिय समझता है, उसके दुख कभी भी शान्त नही होते है, वह सदैव दुखी होता हुआ ही दुःखो की परम्परा, को प्राप्त करता रहता है।
(१३) जीवियं दुप्पडि बूदगं।
। आ०, २, ९३, उ, ५ टीका--जो मनुष्य काम-भोगों में फंसकर अपना जीवन पूरा कर देता है, उसको पीछे घोर पश्चात्ताप करना पड़ता है, क्योकि , जीवन तो जितना है, उतना ही रहेगा, वह तो वढाया नही जा
सकता है, बल्किा भोगो के कारण अकाल मृत्यु भी हो सकती है। ., अतएव भोग में ग्रस्त रहना मूर्ख मात्माओ की वृत्ति है। ,
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सूक्ति-मुवा ]
( १४ ) सव्वत्र पमत्तस्स भयं ।
आ० ३, १२४, उ, ४
टीका - जो प्रमादी है, जो विषय में, विकार में, वासना में, तृष्णा, आदि में फसा हुआ है, उसको हर तरह से भय, चिन्ता और अशाति घेरे रहती है । प्रमादी को सब तरह से और सब ओर से भय ही बना रहता है ।
( १५ )
मंदा वितीयंति, मच्छा विट्ठा व केणे ।
१६
[ २४१
1
सू०, ३, १३, उ, १
• टीका - भोगों में मूच्छिंत जीव एवं मोह में डूबे हुए जीव इस तरह दुख पाते है, जैसे कि जाल में फसी हुई मछली दुख पाती है ! भोग ही रोग का और दुःख का घर है ।
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कन्हैया लाल लोढा, एम०ए० सी-ट, नई अनाज मण्डी बांदपोल, जयपुर - 8 अनिष्ट प्रवृत्ति-सूत्र
T
( २ )
दुक्खो इद्द दुक्कडेणं । सू०, ५, १६, उ, १
( १ ) संतप्पती साहुकम्मा ।
सू०, ५, ६, उ, २
टीका --नीच कर्म करने वाला पुरुष महान् वेदनाऐं और ताप भोगता है । पाप और ताप का स्वाभाविक संबंध है ।
C
टीका - दुष्कृत से, इन्द्रिय-भोगो से मन की वासनाओं से और तृष्णा से, इस लोक में भी अर्थात् इस जीवन में भी दुख प्राप्त होते है और मरने पर भी दुःख प्राप्त होते है ।
( ३ )
जे गारवं होइ सलोग गामी, पुणो पुणो विपरियासुवेति ।
सू०, १३१२
अपनी स्तुति की यश:ससार में जन्म-मरण
टीका - जो अभिमान करता है, या जो कोत्ति की इच्छा रखता है, वह वार वार यदि दुःखों को भोगता है, वह अनिष्ट और विपरीत सयोगों को प्राप्त करता है, एवं तदनुसार नाना दुःखो का वह भागी बनता है। ( ४ )
अविणी यादीसंति दुहमेहना । ब०, ९, ७, द्वि, उ,
こ
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सूक्ति-सुधा.]
[२४३ : टीका-अविनीत आत्माएँ-विकथा, कलह, हास्य,व्यसन, निद्रा, प्रमाद, आज्ञा-विराधना झादि दुर्गुणो में ग्रस्त आत्माऐ दु.ख, रोग, वियोग, अपयश, अकीर्ति, विपत्ति, दरिद्रता, दुर्गति आदि अनिष्टः और अप्रिय सयोगो को प्राप्त करती हुई देखी जाती है।
. . . (५) ।
चुज्झइ से अविणी अप्पा, ,
कहुँ सोअगयं - जहा।
द०, ९, ३, द्वि, उ - टीका-जैसे समुद्र मे सूखी लकड़ी का टुकड़ा कही का कही बह जाता है और लापता हो जाता है, वैसे ही अविनीत पुरुष भी धर्म-भ्रष्ट होकर ससार-समुद्र मे, डूब जाता है। अनन्त जन्ममरण की वृद्धि कर लेता है। . .
(६).. ' - न मावि मुक्खो गुरू, हीलणाए। __.. . द०, ९, ७, प्र, उ टीका-गुरु की हीलना करने से, गुरु का अविनय करने से, उन की आज्ञा का भंग करने से, मोक्ष की प्राप्ति नही हो सकती है। . .. - . (७)
, प्रासयण नत्थि मुक्खो।
_____द०, ९, ५, प्र, उ टीका-आसातना मे, ग्रानी दृढ श्रद्धा के अभाव में, अविनय __ में और आज्ञा-भग में मोक्ष नही रहा हुआ है। विकार-पोषण में
और विकथा मे मोक्ष का अभाव है। ।
तिन्य जज गुणवं, विररिज्जासि।
'६०, ५, १२ , दि ...
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२४४]
[ अनिष्ट-प्रवृत्ति-सूत्र
टीका-लज्जा रहित जीवन और गुण रहित जीवन पृथ्वी पर भार-भूत है । इसलिये जीवन-विकास के लिये लज्जा शील और गुण शील होना चाहिये।
(९) अगुणप्पहीण आराहे संवरं ।
द०, ५, ४३, उ, द्वि टीका-गुणो को नही देखने वाला यांनी छल-छिद्र को और अवगणो को ही देखने वाला, सवर-धर्म का भागी नहीं हो सकता है, उसके लिये आश्रव अवस्था ही रहती है। उसकी आत्मा के साथ कर्मो का घोर बधन होता रहता है ।
(१०) - पूयणट्ठा जसो कामी,
वहुँ पसघई पायं।
। द०, ५, ३७, उ, द्वि० । टीका-पूजा की, यश की इच्छा करने वाला, बहुत पाप का भागी होता है, क्योकि पूजा, सन्मान और यश मे आसक्ति रहने से, कपट, कृत्रिमता, झूठ आदि नाना पापो के साथ घोर पतन प्रारम्भ हो जाता है। इसलिये पूजा-सन्मान की और यश-कीर्ति की कामना नही रखना चाहिये।
(११) - अयकरी अन्नेसी इंखिणी। ।
सू०, २,१, उ, २ . ' टीका-दूसरे की निन्दा करने की बुराई कल्याण का नाश करने वाली है। पर-निन्दा करने से राग-द्वेष की उत्पत्ति होती है. इससे कषाय-भाव पैदा होते है। इतालये पर-निन्दा करना आत्म घातक है और वह ससार को बढ़ाने वाली है।
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सूक्ति-सुधा ]
[ २४५
जो परिभवइ परं जणं, संसारे परिवत्तई महं।
सू०, २, २, उ, २ टीका-जो पुरुष दूसरे का तिरस्कार करता है, जो दूसरे का अपमान करता है, वह ससार में चिर काल तक घूमता है, वह अनेक-जन्म और मरण करता है। .
(१३) इंखिणिया उ पाविया।
सू०, २, २, उ, २ टीका--पर निन्दा साक्षात् पाप की प्रति-मूत्ति है, पाप की निधि ही है।
(१४) . दुस्सील पडिपीए मुहरी निक्कसिज्जई।
उ०, १, ४ टीका-दुराचारी, प्रतिकूल वत्ति वाला और वाचाल प्रत्येक स्थान पर धिक्कारा जाता है । वह दुत्कारा जाता है । वह बहिष्कृत किया जाता है।
(१५.) पडिणीप असबुद्धे अविणीए ।
. 'उ०. १, ३. टीका व्यवहार से और मर्यादा से प्रतिकूल वृत्ति वाला, तथा समझदारी यानी योग्यता नही रखने वाला अविनीत कहलाता है। 'बह विनय-शून्य कहा जाता है ।
वेराणुयद्धा नरयं उबैति ।
उ०, ४, २ .
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२४६ }
[ अनिष्ट-प्रवृत्ति-सूत्र टीका--जो अन्य जीवो से वैर बाधता है, जो हिंसा, कष्ट, पराधिकार-अपहरण आदि रूप वैर कार्य करते है, वे मर कर नरक मे उत्पन्न होते है । वे घोर-कप्ट प्राप्त करते है।
(१७) पमत्ते अगार मावसे।
आ०, १, ४५, उ, ५ . टीका--जो पुरुप साधु वेश धारण करके भी अर्थात् त्यागभावना का वेश धारण करके भी शब्द आदि इन्द्रिय-विषयो मे अनुरागी है, वह द्रव्य साधू है, वह दिखाऊ त्यागी है। ऐसा पुरुष तो भोगों में फसे हुए पुरुष के समान ही है। गृहस्थ-पुरुष के समान ही वह आरभी-समारभी है । वह पाप-पंक मे ही मग्न है ।
(१८) दोसं दुग्गइ वड़ढणं ।
द., ६, २९ टीका-दोष यानी आत्म-निर्बलता ही दुर्गति को बढाने वाली है। इसलिये आत्मा को मवल, निर्भय, साहसी और सेवा-मय बनाना चाहिये।
सप्पहासं विवज्जए ।
द०,८,४२ टीका-अत्यन्त हसना भी नहीं चाहिये। क्योकि अधिक हंसना असभ्यता का द्योतक है। यह गैर जिम्मेदारी को बढाने वाला होता है।
(२०)
जे इह आरंभ निस्सिया, आत दंडा।
सू०, २, ९, उ, ३
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[२४७
सूक्ति-सुधा ] -
टीका-जो पुरुष यहाँ पर आरंभ-परिग्रह मे ही एवं स्वार्थपोषण मे ही रत रहते है, वे अपनी आत्मा के प्रति घोर अन्याय करते है, अपनी आत्मा के लिये वे नाना प्रकार का दुख संचय करते है।
(२१) मज्ज मंसं लसुणं च भोच्चा, अनत्थ वासं परिकप्पयंति ।
सू०, ७, १३ टीका-प्राणी मोह-वश, एव भोग वश, भक्ष्य-अभक्ष्य का विचार न कर, मद्य, मास लशुन आदि अभक्ष्य पदार्थों को भोग कर अपना ससार बढाया करते है । इन्द्रिय-तृष्णा पर क्या कहा जाय ? मनुष्य इन्द्रियो के दास बन कर नाना दुख उठाया करते है। .
(२२) रसाणुरत्तस्स नरस्त एवं, कत्तो सुहं होज्ज कयाइ किंचि ।
उ०, ३२, ७१ ___टीका-जो मनुष्य रात और दिन रसो में ही अनुरक्त है, उसको कभी भी कैसे सुख मिल सकता है।
( २३ ) दुक्खी मोहे पुणो पुणो।
सू० २, १२, उ, ३ टीका-दु.खी-प्राणी वार बार मोह को प्राप्त होता रहता है। वह बार बार भले और बुरे के विवेक से रहित होता रहता है। '
( २४ ) पावाई कम्माई करति रुद्दा, तिव्वामितावे नरए पडंति ।
सू०, ५, ३, उ, १
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२४८ ]
टीका - प्राणियो के लिये नाना प्रकार का भय उत्पन्न करने वाले अज्ञानी जीव, सकारण और अकारण घोर पाप करते रहते है, और वे मर कर तीव्र ताप वाली एव घोर अधकार वाली तथा महा दुःख देने वाली नरक में जाकर उत्पन्न होते है |
[ अनिष्ट प्रवृत्ति-सूत्र
( २६ )
भुज्जो भुज्जो दुहावासं, असुहत्तं तहां नहा ।
-
( २५ )
पावोवगा य आरसा, दुक्खफासा य अंतसो । सू०, ८, ७
टीका - - आरभ समारभ ही, और तृष्णा की तृप्ति के लिये किया जाने वाला प्रयत्न ही, हिंसा झूठ आदि पाप को उत्पन्न करता है, और अन्त में परिणाम स्वरूप दुःख की परपरा ही उत्पन्न होती है ।
सू०, ८, ११
टीका - अज्ञान-भाव, स्वार्थ भाव, इन्द्रिय-पोषण भाव और भोग
उपभोग की वृत्ति, ये सब जीव को रहती है, और ज्यो ज्यो अज्ञानी जीव अशुभ विचार वढता जाता है ।
बार बार दुख ही दुख देती दुख भोगता है, त्यो त्यो उसका इस प्रकार अज्ञान से अशुभ विचार और अशुभ विचार से दु.खोत्पत्ति - यह चक्र चलता ही रहता है ।
( २७ ) मिच्छ दिट्ठी अणारिया ।
सू०, ३, १३, उ, ४
टीका - जो अनार्य है, जो माम-मदिरा के खाने वाले है, जो
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सूक्ति-सुधा
[२४९
अहिंसा और ब्रह्मचर्य मे विश्वास नही रखने वाले है, वे मिथ्यादष्टि है, वे अनार्य है, और जो अनार्य है, वे मिथ्यादृष्टि है।
(२८ ) असमियंतिमन्नमाणस्स, समिया वा असमिया वा असमियाहोइ ।
आ०, ५, १६४, उ, ५टीका-जो आत्मा ज्ञान में, दर्शन मे और चारित्र में विश्वास नही करता है, जो जिन-वचनो के प्रति अश्रद्धा प्रकट करता है, वह मिथ्यात्वी है। उस मिथ्यात्वी के लिये सत्य भी झूठ हो जाता है।
और झूठा ज्ञान तो उसके लिय झूठा है ही। यानी सत्य और झूठ दोनों ही उस मिथ्यात्वी के लिये झूठ रूप ही है। यह मिथ्यात्वश्रद्धा का परिणाम है।
(२९) पाव दिट्ठी विहन्नई।
उ०, २, २२ टीका-पाप दृष्टि वाला प्राणी विकार का और विषय का पोषण करने वाला होता है। वह मर्यादा का उल्लघन करने वाला होता है । वह वीतराग भगवान को वाणी और आज्ञा की विराधना करता है।
(३०) अणियते अयं वासे, , णायएहि सुहीहि य ।
सू०, ८, १२ - टीका-आत्मा-अज्ञानवश "यह मेरा, यह मेरा" ऐसा कहता ही रहता है और अपने आपको इस मोह में भूलाये रखता है। परन्तु
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-२५० ]
[ अनिष्ट-प्रवृत्ति-सूत्र आत्मा इस बात को भूल जाता है कि ज्ञाति वालो के साथ और वन्धु-वाधवो के साथ तथा वैभव एव सुख सुविधाओ के साथ आत्मा का सम्बन्ध अनित्य है और एक दिन इन सब को छोड़ कर जाना है।
वीरा असमत्त दंसियो, असुद्धं तेसिं परक्कंतं।
सू०, ८, २२ टीका--जो मिथ्यात्वी है, यानी जिनकी दृष्टि मे पौद्गलिक सुख प्राप्त करना ही एक मात्र ध्येय है, ऐसे पुरुष भले ही वीर हो परन्तु उनका मारा प्रयत्न चाहे वह सत् हो या असत् कैसा भी होतो भी वह अशुद्ध ही है यानी पाप मय ही है। क्योकि उनकी भावना, उनका दृष्टिकोण विपरीत है, इसलिये वे ससार में परिभ्रमण कर्ता है ।
( ३२ ) णि पि नो पगामाए ।
___ आ०, ९, ६९, उ, २ टीका-जिसको अपनी आत्मा का कल्याण करना है, उसके लिये अति निद्रा लेना अपराध है । अति निद्रा लेना प्रमाद है, और प्रमाद सेवन से इन्द्रियाँ सुख की अभिलापा करने लग जाती है। इस प्रकार पतन का प्रारम्भ हो जाता है, इसलिये अति-निद्रा लेना। आत्म- घातक पाप समझो। ..
(३३ ) तेसि पि तवो ण सुद्धो, निक्खता जे महाकुला।
सू०, ८,२४ टीका-जो महापुरुष-चाहे वे बड़े कुल के ही क्यो न हो, किन्तु यदि उनके तप करने का और पर सेवा करने का ध्येय अपनी यशः
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सूक्ति-सुधा.]
[२५१ कीत्ति और मान मर्यादा प्राप्त करने मात्र जितना ही है, तो उनका यह तप और सेवा कार्य शुद्ध और हितावह नही कहा जा सकता है। वल्कि ससार बढाने वाला ही कहा जायगा।
(३४) कीवा जत्थ य किस्संति, । नाइ संगेहिं मुच्छिया। ।।
___ सू०, ३, १२, उ, २ टीका-नपुसक यानी दुर्बल आत्मा वाले पुरुष अपने ज्ञाति वर्गवालो के साथ, या माता-पिता, पुत्र, भाई-वन्ध आदि के साथ मोह
मे पड़ कर और भोगो से सम्बन्ध जोड कर, कर्तव्य-मार्ग से भ्रष्ट __ हो जाते है और बाद में पश्चात्ताप करते है, इस प्रकार वे घोर दुःख उठाते है।
( ३५ ) प्रारंभा विरमेज्ज सुव्वए ।
सू०, २, ३, उ, १ टीका-आरम्भ-समारम्भ के कामो से, जीव-हिंसा और परपीडन के कामो से, वडे २ कल-कारखानो से, आत्म-हित की इच्छा वाला पुरुष दूर ही रहे। बडे २ कल-कारखाने अनीति का प्रचार करने वाले, बेकारी को बढाने वाले, जीव-हिंसा को उत्तेजना देने वाले, तृष्णा को बढाने वाले और मोह मे ग्रस्त करने वाले होते हैं।
( ३६ ) चउहि ठाणेहिं जीवा तिरिक्त जोणियत्ताए, कम्मं पगरेंति, माइल्लयाए, नियडिल्लयाए, अलियवयणेयां, कूड तुल्ल कूड माणेणं।
ठाणा०, ४ था, ठा, उ, ४, ३९
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२९२]
' [अनिष्ट-प्रवृत्ति-सूत्र
टीका-चार प्रकार के कामो से जीव तिर्यच-गति का बंध करते है -१, माया के कामो से, २ वचना करने से ठगाई से, ३ असत्य बोलने से और ४ खोटा तोल तथा खोटा माप करने से।
( ३७ ) चउहि ठाणेहिं जीवा णेरइयत्ताप कम्मं : पगरेति, महारभयाए, महापरिग्गहय ए, पदिय वहेगा,
कुणिमहारेणं । -
ठाणां०, ४ था, ठा, उ, ४, ३९ टीका-चार प्रकार के कामो से जीव नरक-गति का बंध करते है.--१ महा आरभ के कामो से, २ महा परिग्रह से, ३ पचेन्द्रिय जीवो की घात करने से और ४ मास का आहार करने से।
(३८) पाणा पाणे किलेसति ।।
आ०,६,१७४, उ, १ टीका-प्राणी ही प्राणियो को दु ख देते है। राग-द्वेष-वशात् और कषाय-विकार-वशात् परस्पर में कलह करते है। एक दूसरे को हानि पहुंचाते है । एक दूसरे की हत्या करते है। परस्पर में ताड़ना, फटकारना--मारना-आदि क्लेश वर्धक कार्य करते है।
तिविहा उवही, मच्चित्ते, अच्चित्त, मीसए ।
ठाणा, ३, रा, ठा १, ला, ३, २७. ___टीका-वस्तुओं का संग्रह करना उपाधि है और वस्तुओ पर ममता-भाव रखना परिग्रह है । उपाधि तीन प्रकार की कही गई है -१ सचित्त उपाधि, २ अचित्त -उपाधि, और ३ मिश्र उपाधि ।
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सूक्ति-सुधा ]
[ २५३
दास, दासी, नौकर-चाकर, पशू, पक्षी आदि का संग्रह करना सचित्त उपाधि है । मोटर, गाड़ी, खेत, मकान, सोना, चाँदी, धान्य आदि का संग्रह करना अचित्त उपाधि है । सचित्तं - अचित्त दोनो का संग्रह मिश्र उपाधि है ।
4
(४०)
छन्द निरोहेगा उबेर मोरखं ।
उ०, ४, ८
टीका - इच्छाओं को तथा वासनाओ को, और आसक्ति को रोकने से ही, इन पर काबू करने से ही आत्मा मोक्ष प्राप्त कर सकती है । इच्छा, वासना और आसक्ति पर काबू नही करने वाला अनन्त जन्म-मरण करता है ।
3
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बाल-जन-सूत्र
बाल भावे अप्पाणं नो उवदसिज्जा।
आ०, ५, १६४, उ,५ टीका-अन्य साधारण पुरुपो द्वारा आचरित मार्ग पर अपनी आत्मा को नही लगाना चाहिये, यानी जन-साधारम के मार्ग पर अपने जीवन को नही खेचना चाहिये । वल्कि जिस मार्ग को ऋषिमुनियो ने और सत-महात्माओ ने श्रेष्ठ बतलाया है उसी पर चलना; चाहिये । साधारण आदमियो का ज्ञान और आचरण सामान्य कोटि का, एवं इन्द्रिय-सुख प्राप्ति का होता है। साधारण आदमी तत्त्व के तह तक कैसे पहुँच सकते है ? अतएव आदर्श मार्ग का अवलंचन करो।
(२) बाले य मन्दिए मढे, बझई मच्छिया व खेलस्मि ।
उ०, ८, ५, टीका-~वाल यानी आत्मा के गुणो की उपेक्षा करने वाला, __ मंद यानी हित और अहित का विवेक नही रखने वाला, मूढ यानी
काम भोगो में और इन्द्रिय-विकारो मे मूच्छित रहने वाला, ससारचक्र में इस प्रकार फस जाता है, जैसे कि मक्खी नाक और मुख के ! मल में यानी श्लेष्म में फंसकर जीवन खत्म कर देती है। इसी प्रकार भोगी आत्मा भी अपने सभी गुणो का नाश कर देती है।
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सूक्ति-सुधा ] .
[ २५५०
बालाण मरणां असई भवे ।
उ०, ५,३ टीका-मों की, अज्ञानियों की और भोगियो की मृत्यु बारबार होती है । उनको अनेक जन्म-मरण करने पड़ते है।
. . ( ४ ) ... लुष्पन्ति बहुसो मूढा, संसारमित अणन्तए।
उ., ६,१ टीका-मूढ आत्माएं यानी विषय और विकारो में ही मूच्छित रहने वाली आत्माऐं, इस दुःख पूर्ण ससार में अनन्त बार जन्म और मरण के चक्कर में फंसती है और निरन्तर दुःख ही दुख भोगती है।
(५). अकोविया दुक्ख ते न स्तुति, . - - सउणी पंजरं जहा।
सू०, १, २२, उ, २ . . . . टीका-जैसे पक्षी पीजरे को नहीं तोड़ सकता है, वैसे ही अकोविद यानी भोगो में मूच्छित प्रागी, आसक्त-प्राणी भी कर्म-बन्धन को नही तोड़ सकते है। मूढ आत्माएँ तो निरन्तर कर्मों के जाल में फंसती ही रहती है। " ,
....... - न कम्मुणा कम्म खति बाला। - । - ... . . . . .
सू., १२, १५ . . . . . . .... - टीका-अज्ञानी जीव तृष्णा और भोगो में फंसे- -रहते है। इस., लिये वे निरन्तर पाप का ही आश्रय करते रहते है और अपने कर्मों; का क्षय नही कर सकते है । निरन्तर आश्रव होने से निर्जरी का;
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२५६ ]
[ बाल- जन-सूत्र
मौका ही कैसे मिल सकता है ? आश्रव रुके तो संवर की और निर्जरा की सम्भावना हो ।
सू०, १०, १८
"
टीका - मूढ आदमी तृष्णा और वासना के वश होकर धन कमाने में इतना अंधा, आसक्त' और अविवेकी हो जाता है कि मानो वह कभी मरेगा ही नही । मानो कभी उसको वुढापा आवेगा. ही नही ।
( ७ )
श्रट्टे मढ़े अजरामरेच्या ।
37
>
(८)
अन्नं जगणं खिसति बालपन्ते ।
सू०, १३, १४
"
टीका -- मूर्ख पुरुष, मदमति पुरुष, अन्य जनों की निंदा करता ही रहता है । अज्ञानी को दूसरे की निंदा करने में ही आनन्द आता है । बाल बुद्धि पुरुष दूसरे का तिस्कार ही करता है ।
( ९ ) जं मग्गद्दा बाहिरियं विसोहिं, न तं सुट्ठे कुलता वयन्ति । उ०, १२, ३८
{
t
"
टीका--जो केवल वाह्य - विशुद्धि को ही स्नान-शृंगार-शरीरसफाई को ही सब कुछ मानते है और इसी में कर्त्तव्य की इतिश्री समझते है, उन्हे ज्ञान शील पुरुष सुयोग्य, सुदृढ और धर्मानुगामी नही कहते है । आन्तरिक शुद्धि अर्थात् कषाय त्याग के अभाव में बाह्य शुद्धि निरर्थक है । यह तो मृत पुरुष को शृंगारित करने के समान हैं ।
J
2
J
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________________
सूक्ति-सुधा ]
६२५७
मिच्छादिट्ठी अणारिया, संसारं अणुपरियति ।
सू०, १,३२, उ, २ टीका-जो मिथ्या दृष्टि है, जो भोग-उपभोग को ही सर्वस्त्र समझने वाले है, इन्द्रिय-सुख को ही मोक्ष का सुख समझने वाले हैं, वे अनार्य है। और इससे ससार मे परिभ्रमण करना ही उनके जीवन का प्रमुख अग बन जाता है। यानी ऐसी आत्माऐ ससार मे ही परिभ्रमणकरती रहती है।
(११) न सरणं वाला पंडिय माणिणो।
सू०, १, १ उ, ४ , टीका-जो पडित या आत्म ज्ञानी नहीं होते हुए भी अपने आप को पडित मानते है आर इन्द्रिय भोगो में फसे हुए हैं, ऐसी बाल आत्माओ के लिये ससार मे कही भी शरण नहीं है, उनके लिये कही. भी वास्तविक सुख नहीं है । य आत्माऐ तो फुट बाल (Foot Bar) के समान इधर की उधर जन्म-मरण करती रहती है।
बाल जणो पगा।
मू०, २१, उ, २ टीका-जो मूर्ख है, जो वासना और विषय मे मूच्छित है, वहीं पापी है । मूर्छा ही पाप है।
वाले पाहिं मिज्जती।
स०, २, २१, उ,२ टीका-विवेक हीन आत्माऐ पापो से लिप्त होती हैं। विदेक हीन का सत्कार्य भी असत्य कार्य ही है। ऐसी आत्माएं पौद्गलिक सुख को ही वास्तविक सुख समझती है।
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[वाल-जन-सूत्र
(१४) धित्तं पसयो य नाइयो, तं वाले सरणं ति मन्नइ ।
मू०, २, १६, उ, ३ टीका-मूर्ख प्राणी, विपयासक्त प्राणी ही धन को, पशु को, जुटाव को, जाति-वन्धुओ को अपना शरण देने वाले मानता है। उन्हें भावार-भूत मानता है । "ये मुझे दु.ख से बचा सकेगे" ऐसी मान्यता रखता है।
(१५) हिंडंति भयाउला सढा, जाइ जरा मरणहिं अभिदुता।
सू०, २, १८, उ, ३ टीका-जन्म, जरा और मरण से पीडित प्राणी, भयाकुल शठ ___माणी, भोगी प्राणी वार वार ससारचक्र मे भ्रमण करते है । भोगों
ने इस लोक और परलोक में नाना दुःख उठाते हैं, नाना कष्ट
मंदा मोहेण पाउडा।
सू०, ३, ११ उ, १ टीका--मूर्ख प्राणी, वासना-ग्रसित प्राणी, विवेकहीन प्राणी, मोह से ढके हुए रहते है । उन्हे हित का और यहित का भान नहीं रहता है। ऐसे जीव भोग-सुख को ही आत्म-सुख समझत है। स्वच्छंदता को ही स्वतंत्रता समझते है ।
वदामोति य मन्नता, अंत ए ते समाहिए ।
सू., ११, २५
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सुक्ति-सुधा ]
[ ५९
टीका--जो अपने आप को ज्ञानी मानते है, स्वयं को पंडित समझते हैं, तथा ऐसी धारणा रखते है कि हम तो परिपूर्ण ज्ञाता है, वे अभिमानी है, उनका आत्मविकास रुक जाता है, वे वास्तविक मार्ग से बहुत दूर है तथा उनका वाल मरण होने से अंत में उन्हें नरक गति, तिर्यंच गति आदि नीच गति की ही प्राप्ति होती है । ( १८ ) सीयंति अवहा |
2
सू०, ३, १४, उ, २
टीका -- अज्ञानी पुरुष, कर्त्तव्य मार्ग से पतित होकर और भोगों में आसक्त होकर, महा दु ख भोगते है ।
( १९ ) 'कीवा वसगया गिह। सू०, ३१७ उ, १
इन्द्रियो के दास पुरुष, निर्बल आत्माकल्याण मार्ग में आने वाले उपसर्गों से, ससार मार्ग पर और इन्द्रिय-पोषण यानी सेवा मार्ग को या धर्म-मार्ग
टीका - कायर पुरुष, वाले पुरुष, स्व-पर के कठिनाइयों से घबरा कर पुन मार्ग पर चलने लग जाते है । को त्याग देते है ।
( २० ) मंदा विसीयंति, उज्जाणसि व दुब्वला ।
सू०, ३, २० उ, २
टीका - जैसे दुर्बल बैल ऊचे मार्ग मे दुख पाते है, गिर जाते हैं और महान् वेदना का अनुभव करते है, वैसे हो वासना - ग्रसित और मूच्छित मूर्ख जीव भी विभिन्न जन्मो मे नाना प्रकार के दुख उठाते है | इन्हे अनेक प्रतिकूल पदार्थों का और प्रिय वस्तुओं के वियोगों का सामना करना पड़ता है ।
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२६०]
बाल-जन-सूत्र
(२१) बद्ध विसय पासहि, मोह मावज्जइ पुणो मंदे।
सू०, ४, ३१, उ, १ टीका-विपय-वासना रुपी जाल में फंसा हुआ मूर्ख मनुष्य बार बार मोह को प्राप्त होता है। वह आत्मा का स्वरूप भूल जाता है, और ससार में अनेक जन्म-मरण की वृद्धि करता है, नाना तरह के प्रतिकूल सयोग-वियोग को वह प्राप्त करता
(२२ ) रागदोलस्सियो बाला, पापं कुब्वति ते बहुं ।
सू०,८,८, . टीकाराग-द्वप के आश्रित होकर तथा मूर्छा और ममता में पड़ कर, मूर्ख जीव या अज्ञानी और स्वार्थी जीव नाना प्रकार के पाप कर्म और जघन्य कर्म-करते रहते है। वे अत में दुःख प्राप्त होने पर पश्चात्ताप करते है ।
(२३) कूराई कम्माई बालेपकुब्बमायो, तेण दुवखेण संमूढे विप्परियास मुवेइ ।
आ० २, ८१, उ, ३ टीका-जो मद बुद्धि वाला है, जो मूर्ख है, ऐसा बाल प्राणी क्रूर कर्म करता है, घोर पाप पूर्ण कर्म करता है । अत मे उन कर्मों के कारण उत्पन्न दुख से वह मूढ होता हुआ, हित-अहित के विवेक से शून्य होता हुआ विपर्यास स्थिति को प्राप्त होता है, राग-द्वेष के चक्कर मे फस जाता है। इस प्रकार मूढ बुद्धि वाले की ससारपरम्परा चक्रवत् चालू ही रहती है। '
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सूक्ति-सुधा]
[२६१
(२४) मंदस्सा वियाणओ।
आ० १, ५०, उ, ६ टीका-जो मंद बुद्धि है, यानी मिथ्या-शास्त्रो के कारण से जिसकी बुद्धि मे भ्रम आ गया है, जो सासारिक-विपय-वासना को ही सर्वस्व और आराध्य मानता है, वह विवेक हीन है, और ऐसा पुरुष चिर काल तक नाना दु खो का भाजन बनता है।
(२५) मंदा नरय गच्छन्ति, वाला पावियाहिं दिट्ठीहिं ।
उ०, ८, ७ टीका-मन्द यानी हित और अहित का विवेक नही रखने वाले और बाल यानी आत्मा के गुणो की उपेक्षा करने वाले, पाप-पूर्ण विचारो मे ही ग्रस्त रहने के कारण से तथा अनीति पूर्ण आचरणों
में ही ग्रस्त रहने के कारण से मर कर नरक मे जाते है, नीच गति मे जाते है।
(२६) ममाइ लुप्पई वाले।
सू०, १, ४ उ, १ टीका-"यह मेरा है" ऐसा करके ही मूर्ख आत्मा पापों से-दुष्ट कार्यों से और दुर्भावनाओ से परिलिप्त होती है। ससारसमुद्र मे डूबती है।
(२७) सत्ता कामे हि माणवा।
उ०, १, ६, उ, १ टीका-मद वृद्धि वाले मनुष्य ही कामो में-यानी इन्द्रीय-भोगों में आसक्त रहते है । मूच्छित रहते है ।
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प्र
२६२ ]
( २८ ) अन्नाणिया नाणं वयंता वि निच्छयत्थं न याणंति
सू०, १, १६, उ, २. टीका -- अज्ञानी आत्माऐ यानी सासारिक मानने वाली आत्माऐ ज्ञान सबधी चर्चा करती अर्थ को नही जानती है। सच्चे मार्ग को या जानती है ।
( ३० ) अन्न पत्ते धणा मेसमाो, पप्पोति मच्छु पुरिसे जरं च ।
[ बाल- जन-सूत्र
( २९ ) अपणो य पर नाल, कुतो अन्नाणु सासिउं । सू०, १, ११७, उ, २.
टीका - अज्ञानी पुरुष या भोगी पुरुष जब स्वय को भी ज्ञान देने में समर्थ नही है, तब वे अन्य को तो ज्ञान दे ही कैसे सकते है ? भोगी -पुरुषो द्वारा स्व पर हित की साधना नही हो सकती है ।
भोगो में ही सुख हुई भी निश्चित मोक्ष मार्ग को नही
( ३१ ) पवढ्ढती वेर मसंजतस्स ।
उ० १४, १४
टीका - दूसरो के लिये दूषित प्रवृत्ति करने वाला और धन कमाने मे ही जीवन समाप्त कर देने वाला अन्त में बुढापा तथा को प्राप्त कर असह्य कष्टो को प्राप्त होता है ।
मृत्यु
उ०, १०, १७
टीका-जो अपनी इन्द्रियों और मन पर काबू नही रखता है, वह असयमी है । प्रतिदिन विभिन्न प्राणियों के साथ असयम के कारण उसका वैर-विरोध और शत्रुता बढती रहती है ।
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सूक्ति-सुधा ]
( ३२ ) सव्वं विलविय गीयं. सव्वं नहं विडम्बियं ।
उ०, १३१६
1
टीका - ससार के गीत - गायन विलाप रूप है, और सह प्रकार का खेल-तमाशा, मनोरजन-कार्य, नाचना, नाटक आदि विडम्वना रूप है, क्योकि ये क्षण भर के लिये आनददायी हैं मोट अत में परिणाम की दृष्टि से विष समान है ।
[ २६३
( ३३ )
सपण दुक्खेण मूढे विष्परियास मुवे |
आ०, २, ९८, उ, ६
टीका - मोह और अज्ञान के कारण भोगो में फसा हुआ सूर्ख प्राणी अपने ही किये हुए कर्मों के कारण दुख पाता है, और सुख का प्रयत्न करने पर भी दुख ही का सयोग मिलता है । कर्मों के कारण अच्छा करने के प्रयत्न में भी बुरा संयोग ही पाता है
( ३४ )
जरा मच्चु व सोवणीए नरे, सययं मूढे धम्मं नाभि जाणइ ।
आ०, २, १०९, उ, १
टीका - - महामोहनीय कर्म के उदय के कारण मूढ़ मामा अज्ञान में ग्रसित होता हुआ तथा मृत्यु और जन्म के चक्कर में ही सदैव घूमता हुआ धर्म के स्वरूप को और ज्ञान दर्शन - चारित्र के रहस्य को नही समझ सकता है । वह इस चक्कर से नहीं छूट सकता है ।
( ३५ ) कायरा जणा लूसगा भवंति । आ० ६, १९० उ, ४
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[बाल-जन-सूत्र
टीका-जो मनुष्य कायर होते है, अस्थिर और चचल वृद्धि के होते हैं, वे अन्त मे जाकर धर्म से भ्रष्ट हो जाते है। वे सम्यक् दर्शन से पतित हो जाते है, और अपना अनन्त जन्म मरण रूप संसार बढ़ा लेते है । कायर पुरुष हर कार्य मे विफल होता है, अयशस्वी होता है।
( ३६ ) सीयन्ति एगे वहु कायरा नरा । उ०, २०, ३
. टीका-अनेक आत्माऐ कायर वनकर, निर्बल वनकर, नैतिक मौर आध्यात्मिक मार्ग पर चलने में असमर्थ होकर दुखी बन जाती है। हतोत्साह होकर शुभ-कार्य से हट जाना ही कायरता है। ऐसी कायरता ही विनाश का मार्ग है ।
( ३७ ) कुष्पवयण पासंडी, सब्ने उम्मग्ग पट्ठिया।
उ०, २३, ६३, टीका-कुदर्शन वादी सभी पाखडी है, मिथ्यात्वी है, वे सव उन्मार्ग में-मोक्ष मार्ग से सर्वथा विपरीत मार्ग में स्थित है। क्योकि उनका व्यय संसार के भोगो को भोगने की तरफ है।
(३८) सय सय पसंसंता, गरहंता परं वयं, संसारं ते विउस्सिया।
सू० १, २२, उ, २ का-जो मूर्ख केवल अपनी मान्यता की प्रशसा करते रहते हैं मोर दूसरो की मान्यता की सदैव निदा करते रहते है, वे सँसार में दृढ़ कबसे बध जाते है, यानी वे अनन्त जन्म मरण करते है और विविध लापत्तियो में से गुजरते है।
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संसार-सूत्र
( १ ) . जम्प्रदुख जरा दुक्ख दुश्खो हु संसारो।
उ०, १९, १६ टीका-यह ससार दुख हो दुख से भरा हुआ है, जन्म का दुख है, जरा यानी बुढापे का दुख है, रोग, मृत्यु, आकस्मिक संयोगवियोग का दुख है, इस प्रकार नाना विपत्तियो का जमघट इस ससार में भरा हुआ है।
(२) एगन्त दुक्ख जरिए व लोए ।
सू०, ७, ११ टीका-यह ससार ज्वर के समान एकान्त दुख रूप ही है। जैसे-ज्वर-ताप-बुखार-एकान्त रूप से दुखदायी ही है, वैसे ही यह संसार भी जन्म-मरण, सयोग-वियोग से युक्त होने के कारण एकान्त रूप से दुखमय ही है।
(३) दाराणि य सुया चेव, मयं नाणुस्त्रयन्ति य ।
उ०, १८, १४ टीका-जीवन मे और कुटुम्ब में, वैभव मे और भोगो में, इतनी आसक्ति, इतनी मूर्छा क्यो रखते हो? याद रक्खो कि मरने पर स्त्री और पुत्र आदि साथ नही आनेवाले है, ये तो जहाँ के तहाँ ही रह जाने वाले है, केवल पाप और पण्य ही साथ में लाने वाले है।
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२६६ ]
[ संसार-सूत्र
(४) उज्झमाणं न बुज्झामो, राग दोसाम्गिणा जग।
उ०, १४, ४३ टीका-राग और द्वेष की अग्नि से जलते हुए ससार को हम नहीं पहिचान रहे है-अर्थात् आत्मा मे स्थित राग और द्वेष का हम विचार नही कर रहे है, यह एक लज्जा जनक और दुख जनक बात है ।
संसारो अण्णवो वुत्तो।
उ०, २३, ७३ टीका-ससार एक भयकर समुद्र है, जिसमे कषाय, विषय, वासना, विकार, मूर्छा, परिग्रह, मोह और इद्रियभोग आदि भयकर और विषम एव विनाशकारी जलचर प्राणी है, जो कि भव्य आत्मा को निगलने के लिये तैयार बैठे है ।
सारीर माणसा चेव, वेयणा उ अणंतसो।
उ०, १९, ४६ ___टीका-इस ससार मे शारीरिक और मानसिक वेदनाऐ अनन्त प्रकार की रही हुई है । कर्मोका उदय आने पर प्रत्येक आत्मा को इन्हे भोगना ही पड़ता है।
महन्भयाओ भीमाओ, नरएसु दुह वेयणा ।
उ०, १९, ७३ ___टीका--नरक स्थानो मे महाभय उत्पन्न करनेवाली, सुनने मात्र से ही भय पैदा करने वाली, प्रचड और नानाविध दुःख रुप वेदनाएं है।
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[२६७
सूक्ति-सुधा]
'१.८) • अणंत गुणिया नरएसु दुख वेयणा ।
उ०, १९, ७४ टीका-नरक-स्थानो मे यहा से अनन्तगुणी भयकर दुख वेदनाऐंहै । वेदनाऐ अनन्तगुणी ठडी, अनन्तगुणी उष्ण, अनन्तगुणी भूख-प्यास वाली और अनन्तगुणी चिन्ता और खेद जनक है।
(९) पास ! लोए महन्भय।
आ०, ६, १७४, उ, १ टीका--देखो | ससार मे कितना भय रहा हुआ है । मौत का,. वियोग का, अनिष्ट सयोग का, रोग का, हानि-लाभ का, कलह-.. अशाति का. नाना तरह का भय और शोक ससार में व्याप्त है। इसलिये हमें ईश्वर और आत्मा पर विश्वास करके, सत्कार्यों द्वारा नैतिक और सात्विक आचरण द्वारा इस ससार-परिभ्रमण को समाप्त करने का प्रयत्न करना चाहिये । आत्मा को निर्मल बनाना चाहिये।
बहु दुक्खा हु जन्तवो।
आ०, ६, १७५, उ, १ टीका-इस ससार मे सभी प्राणी विभिन्न दुखो में, विभिन्न क्लेशो मे, विभिन्न सतापो मे, विभिन्न पीडाओ और वेदनाओ मे फसे हए है। इसका मूल कारण पूर्व-जन्मो में कृत और सचित अशुभ कार्य और कर्म ही है । इसलिये कार्य करते समय ध्यान रक्खो कि यह मै अशुभ कार्य कर रहा हूँ या शुभ कार्य कर रहा हूँ। अन्यथा घोर दुख उठाना पड़ेगा।
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२६८]
[ संसार-सूत्र
अणिच्चे जीव लोगम्मिकि पसज्जसिा
उ०, १८, १२ टीका-इस अनित्य, नाशवान और दुख पूर्ण ससार में क्यो “आसक्त होते हो ? क्यो इसमे मच्छित हो रहे हो ? आत्मा के स्वरूप को क्यो भूल रहे हो?
(१२) अणाग नेव य अथिकिंचि, सद्धा खमणे विणइत्तु राग ।
उ०, १४, २८ टीका-~-संसार मे ऐसा कोई पदार्थ वाकी नही रहा है, जो कि जीव को अतीत के जन्म-काल मे, पूर्व जन्मो में न मिल चूका हो। इसलिये राग-द्वेप को, रति-अरति को, वासना और विकार को मूर्छा और माया को हटाकर धर्म मे, तप और सयम मे पूर्ण श्रद्धा तथा पराक्रम रखना चाहिये ।
(१३) चउबिहे संसारे, दत्र संसारे, खेत्त संसारे, काल संसारे, भार संसारे ।
ठाणा०, ४, था, ठा, उ, १, ३१ ।। टीका-~ससार चार प्रकार का कहा गया है ---द्रव्य ससार, क्षेत्र ससार, काल ससार और भाव ससार । १---जीव द्रव्यो और सुद्गल द्रव्यो का परिभ्रमण ही द्रव्य ससार है। २-चौदह राज लोक जितना लोकाकाश ही क्षेत्र ससार है । ३-दिन रात्रि आदि से लगाकर पल्योपम सागरोपम आदि तक की परिभ्रमण अवस्था ही काल ससार है। ४-~-ससारी आत्मा मे कर्मोदय से पैदा होनेवाले विभिन्न राग-द्वेपात्मक विचार ही भाव ससार है ।
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सूक्ति-सुधा]
[२६९ (१४) अणंते निइए लोप, सासए ण विणस्सती।
सू०, १, ६, उ, ४ टीका-यह लोक अनन्त है, नित्य है, शाश्वत है और इसका कभी भी किसी भी काल मे विनाश नही होता है ।
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प्रकीर्णक-सूत्र
(१) रमा अज्ज वयणम्मि, तं वयं बूम माहणं ।
उ०, २५, २० टीका-जो आर्य वचनो में, सत्य, अहिंसा, अनुकम्पा, दान, शील, तप, भावना आदि में रमण करता है, विश्वास करता है, तदनुसार आचरण करता है, उसी को हम ब्राह्मण कहते है ।
(२) राग दोस भयाई य, तं वयं वूम महाणं!
उ०, २५, २१ टीका--जो राग, द्वेष और भय आदि दुर्गुणो से रहित है उसीको हम ब्राह्मण कहते हैं । आचरण से और गुणो से वर्ण-व्यवस्था है, न कि जाति से और जन्म से । ऐसा श्री जैन धर्म का आदेश है।
कन्मुणा उम्भणो होह, कम्मुणा होह खत्तियो।
उ०, २५, ३३ टीका-कर्म से ही (यथा नाम तथा गुण होने पर ही) ब्राह्मण होता है, और कर्म से ही-आचरण से ही क्षत्रिय होता है । जो क्षमा, दान, ध्यान, सत्य, सरलता, धैर्य, ज्ञान-विज्ञान, दया, ब्रह्मचर्य, आस्तिकता आदि का आचरण करता हो तो वह चाहे किसी भी जाति अथवा वर्ण में पैदा हुआ हो, तो भी ब्राह्मण ही कहा जायगा । और
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सूक्ति-सुधा]
[२७१
इसके विपरीत-सद्गुणो से रहित एव दुर्गुणो से ग्रसित ब्राह्मण-कुल में उत्पन्न हुआ भी वास्तव मे ब्राह्मण नही है । इसी प्रकार जो जनता की रक्षा करे, परोपकार के लिए जीवन न्यौछावर करे, वही क्षत्रिय है। गुणो के अभाव में क्षत्रिय-कुल में उत्पन्न हुआ भी वास्तविक क्षत्रिय नही कहा जा सकता है। आचरण-अनुसार वर्णव्यवस्था है।
वईसो कम्मुणा होइ, सुद्दो हवइ . कम्नुणा।
उ०, २५, ३३ टीका-कर्म से ही, आचरण से ही वैश्य होता है, और कर्म से ही शूद्र होता है। जो कृषि-कर्म, पशु-पालन और व्यौपार करता है, वही सच्चा वैश्य है, फिर चाहे वह किसी भी कुल अथवा वर्ण मे उत्पन्न हुआ हो।
इसी प्रकार जो शिल्प-कला और सेवा-कार्य में लगा हुआ हो, वही शूद्र है । फिर चाहे जन्म से और वर्ण से कोई भी हो।
जैन धर्म गुणो के आधार से और आचरण के आधार से वर्णव्यवस्था का विधान करता है ।
रुढि के आधार से और जाति-कुल के आधार से जैन धर्म वर्ण 'व्यवस्था को नही मानता है ।
। असंबिभागी न हुतस्ल मुक्खो।
द०, ९, २३, द्वि. उ, . टीका--असंविभागी को, स्वार्थी को, दूसरों के सुख दुख का, हित-अहित का ख्याल नहीं करने वाले को मोक्ष-सुख प्राप्त नही हो सकता है। उसे कदापि शाश्वत् सुख प्राप्त नही हो सकता है। .
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२७२
( ६ ) विवत्ती श्रविणीश्ररूम, संपत्ती विणिस्स अ । द०, ९, २२ द्वि, उ,
टीका - अविनीत आत्मा को सदैव इस लोक दुख ही दुख मिलता है, तथा विनीत आत्मा को ओर पर लोक मे सुख ही सुख मिलता है ।
t
( ७ )
गिहे दीव मपासंता, पुरिसा दागियानरा ।
सू०, ९, ३४
'टीका - भोगों में फँसे हुए रहने की हालत में न तो ज्ञान रूप दीपक के प्रकाश की प्राप्ति हो सकती है, और न चारित्र रूप द्वीप ही ससार - समुद्र की दृष्टि से प्राप्त हो सकता है । इसीलिये परमार्थ की आकाक्षा वाले पुरुष आध्यात्मिक पुरुषो की शरण लेते है ।
( ८ )
की लेहिं विज्यंति असाहु कम्मा ।
,
[ प्रकीर्णक-सूत्र
सू०, ५, ९, उ, १
"
टीका - पापी नाना प्रकार के दुख पाते है, नरक- आदि गति' मे कील आदि तीखे शस्त्रो से पीड़ित किये जाते है, परमं अधार्मिक देवता उन्हे घोर पीड़ा पहुँचाते है, ऐसा शास्त्रीय विधान है ।
(':');
और पर लोक में सदैव इस लोक,
थति लुप्पंति तस्संति कम्मी ।
.. सू०, ७, २०
टीका - पाप कर्म करने वाले प्राणी पाप का उदय होने पर
*
·
$
,
असह्य वेदना होने पर रोते है, तलवार आदि के द्वारा छेदन किये
जाते है और नाना विधि से डराये जाते है, भयभीत किये जाते है .
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सूक्ति-सुधा:
... (१०) निरुद्धगं वा वि न दीहरज्जा! .
सू०, १४, २,३, टीका-व्याख्याता पुरुष छोटी बात को भी शब्दों के आडम्बर से बडी नही बनावे । इसी प्रकार जो बात थोडे में कही जा सकती है या समझाई जा सकती है, उसे लम्बे चौडे वाक्यों द्वारा- यौर विस्तृत शब्दो द्वारा कभी नही कहे । क्योकि ऐसां व्याख्यान बलचि आदि दोषो को पैदा करने वाला होता है और इसमे सिवाय समय नप्ट करने के और स्व-विद्वत्ता-प्रकाशन के और दूसरा कोई मर्यसिद्ध नही होता है।
कोलावासं समासज्ज वितह पाउरे सए ।
आ०, ८, ३३, उ,८ , टीका-जैसे काठ का कीडा अपना घर वनाने में मशगल हो जाता है, और अन्ततोगत्वा घोर परिश्रम कर घर वना कर इसमें रहने लगता है, वैसे ही तत्वदर्शी पुरुष भी अपनी आत्मा की वास्तविकता को ढूंढने में और उसको प्राप्त करने में सदैव लगा है। जब तक आत्मा की परिपूर्णता प्राप्त नहीं हो जाय, तद तक निरन्तर ज्ञान की आराधना मे और अपने चारित्र को-अति उज्ज्वल करते मे लगा रहे । प्रत्येक क्षण कर्त्तव्य-मार्ग म लगन की दूता उत्तरोत्तर बढती ही चली जाय, ऐसा ही प्रयत्न रहे।
एगे जिए : जिया पंच, पंच जिए जिया दस।
उ०, २३,३६० टीका---एक के जीत लेने पर, पाचो को जीत लिया जाता है, और पाचो के जीत लेने पर दसो को जीत लिया जाता है
१८
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१७४]
[प्रकीर्णक-सूत्र
बर्षात् एक यानी आत्मा, पाच यानी मन और चारो कषाय, दस यानी पांचो इन्द्रियाँ, तीनो योग, कषाय और नोकषाय वृत्ति ।
. (१३) दुक्खं च जाई मरणं।
___उ०, ३२, ७ टीका--जन्म-मृत्यु ही दुख है, यानी जन्मने और मरने के बराबर घोर दुःख दूसरा और कोई नहीं है। जन्म-मृत्यु दुखो की प्रथम श्रेणी में है।
(१४) पुरिमा उज्जु. जड़ा उ, वक्क जडा य पच्छिमा ।
उ० २३, ३६ टीका--पहले तीर्थकर के समय मे जनता सरल और अति सामान्य बुद्धि वाली थी, किन्तु चौवीसवे तीर्थकर के शासन-काल में जनता कपटी, और मुर्ख होती है। मूर्खता को ही चतुरता समझने बाली होती है।
(१५) मज्झिमा उज्जु पन्ना उ ।
__उ., २३, २६ टीका-द्वितीय तीर्थंकर से लगा कर २३ वे तीर्थकर तक के शासन-काल मे जनता सरल हृदय वाली और बुद्धि-शालिनी थी।
(१६) वहु मायाओ इत्यिो ।
सू०, ४, २४, उ, १ टीका-स्त्रियाँ बहुत माया वाली होती है, और इसलिये स्त्रियों के चंसर्ग से उनकी सगति करने वालो मे भी माया-जाल की उत्पत्ति
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सूक्ति-सुधा]
[.३७६ हो जाती है । स्त्रियों का सहवास घन; 'धर्म, शक्ति और सद्गुण - आदि का नाश करने वाला है।
पुढो य छंदा इह मागणवा उ ।
- सू०, १०, १७ - - टीका-इस लोक मे मनुष्यों की भिन्न भिन्न रुचि होती है, एक समान रुचि होना अत्यत कठिन है । "मु. मुडे मति भिन्ना" इसका समर्थक है।
( १८ ) जीवो उवओग-लक्खण।
• उ०, २८, १० टीका-जीव का लक्षण, आत्मा का लक्षण उपयोग है। यानी अनभति, ज्ञान या चेतना ही आत्मा का मुख्य और असाधारण धर्म है।
(१९) वण रस गघ फाला, पुग्गलाणं तु लक्खणं।
उ०, २८, १२ टीका-पुद्गल का यानी अचेतन रूप जड पदार्थ का--रूपी तत्त्व का लक्षण वर्ण, गध, रस और स्पर्श धर्म वाला होना है। छ:द्रव्यो में से केवल इस जड़ द्रव्य मे ही रूप, रस, गध और स्पर्श-धर्म पाये जाते है और किसी मे नही। शेष पाचो द्रव्य अमर्त्त है, अरूपी है, अवर्णं वाले है, अगध वाले है, अस्पर्श वाले है और अरस वाले है ।
(२०) गइ लकावणो उ धम्मो।
उ०, २८, ९
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________________
२७६ ]
[ प्रकीर्णक-सूत्र
1
टीका - धर्मास्तिकाय का लक्षण, जीव और पुद्गल को गति देने मे --आवश्यकता पड़ने पर सहायक रूप होना है, जैसे जल मछली की चाल मे सहायक है ।
टीका - अधर्मास्तिकाय का लक्षण जीव और पुद्गल को “स्थिति” धारण करने के समय में सहायक रूप होना है । जैसेधूप मे थके हुए मुसाफिर के लिये वृक्ष की छाया है ।
( २२ ) भायां सव्व दव्वानं, नहं ओगाह लक्खणं । उ० २८, ९
टीका - आकाश सभी द्रव्यो का भाजन है, सभी द्रव्यों के अवगाहन के लिये, यानी रहने के लिये स्थान देता है । छ ही द्रव्यो के रहने के लिये आकाश ही केवल एक आधार भूत द्रव्य है । ( २३ ) वित्तणा लक्खणो कालो ।
( २१ ) अहम्मो ठाण लक्खणो ।
उ०,२८,९
1
उ०, २८, १०
टीका-काल वर्त्तना लक्षण वाला है, यानी नये को पुराना करना और पुराने को जीर्ण-शीर्ण करना ही, वस्तुओं के विनाश मे मदद पहुँचाना ही काल का लक्षण है । जैसे कि कैची और कपडे का
सवध है |
1
1
( २४ ) छक्काय. श्रहिया, णावरे कोइ विज्जई | -
सू०, ११,८
-
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सूक्ति-सुधा]
[२७७ टीका-सपूर्ण लोक मे-सपूर्ण ब्रह्माड मे, सभी जीवों का संवि. भाजन केवल ६ अवस्थाओ मे या ६ काया मे किया गया है। इसमें सभी जीवों का समावेश हो जाता है । वे छ. काय इस प्रकार हैं१ पृथ्वीकाय, २ अपकाय, ३ तेजसकाय, ४ वायुकाय, ५ वनस्पतिकाय और ६ त्रसकाय ।
( २५ ) . दुविहा पोग्गला, सुहमा चेव वायरा चेव ।
ठाणा, २ रा, ठा, उ, ३, ३ टीका--पुद्गल दो प्रकार के कहे गये है--१ सूक्ष्म और २ वादर। पुद्गल यानी जड़ और रूपी द्रव्य, जिनमें रूप,रस, गध और स्पर्श पाया जाता है, ऐसे जड़ द्रव्य पुद्गल कहे जाते है । जो आखो से दिखाई देते हैं, वे तो बादर पुद्गल हैं, और जो नहीं दिखाई देते है, वे सूक्ष्म पुद्गल है।
( २६ )
दुविहे आगासे, लोगागासे चेव, अलोगागासे चेव ।
ठाणा०, २रा, ठा, उ, १, २८ टीका-आकाश दो प्रकार का कहा गया है ---१ लोकाकाश और २ अलोकाकाश।
सभी द्रव्यो को स्थान देने वाला-अवकाश देने वाला द्रव्यआकाश है। जहाँ तक-जिस परिधि तक छ: ही द्रव्य पाये जाते है, वहाँ तक तो लोकाकाश समझा जाता है, और उससे आगे पाच ही द्रव्यो का अभाव है, इसलिये वह अलोकाकाश कहलाता है । अलोकाकाश की कोई सीमाएं नहीं है। वह तो अनंतानन्त,
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[ प्रकीर्णक-सूत्र
1
२७८]
अपरिमित और असीम कोसो तक फैला हुआ है। तीर्थकर और ज्ञानी
"
भी उसकी सीमाएं नही बतला सकते हैं । किन्तु लोकाकाश परिमित है, ससीम है । लोकाकाश की कुल मर्यादा चौदह राज तक की है ।
,
( २७ ) दो दंडा पन्नता तंजहा,
अट्ठा दंडे चेव अगाट्टा दंडे चेव । ठाणां०, २रा, ठा, १ला उ, २२ टीका - पाप दो कारणो से उत्पन्न हुआ करता है - एक तो इन्द्रियो का पोषण करने से एव स्वार्थ भावना की दृष्टि से और दूसरा विना किसी कारण के केवल मूर्खता वश किया जाने से । प्रथम पाप को अर्थ दड पाप कहा जाता है, और दूसरे को अनर्थदंड पाप कहते है । ये दोनो पाप समुच्चय रूप से चारो गति मे पाये जाते है, किन्तु व्यक्तिगत रूप से अनेक विवेकी आत्माऐं इनसे बचते भी है ।
( २८ ) लोगे तं सव्वं दुपडीआरं, जीवा चैव जीवा चेव ।
ठाणां०, २रा ठागा, १, १ला उ,
7
टीका -- ससार मे यानी सपूर्ण ब्रह्माड मे या सम्पूर्ण विश्व में पाये जाने वाले सभी पदार्थों को, सभी द्रव्यो को, सभी वस्तुओ और सभी तत्त्वो को केवल दो मूलभूत द्रव्यो मे या दो मूलभूत वस्तुओ मे वाटा जा सकता है । इन दो मूलभूत तत्त्वो के सिवाय और तीसरा कोई तत्त्व नही है । वे दो है : -- जीव और अजीव - अर्थात् चेतन और अड । जीव तत्त्व में या चेतन मे सभी आत्म द्रव्य आ जाते है और अजीव में या जड़ तत्त्व में, धर्मास्तिकाय,
५
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सूक्ति-सुधा ] '
[ २७९
अवर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय, और काल द्रव्य
समझना चाहिये ।
( २९ )
तो सुसन्नप्पा, अट्ठे श्रमूढे, अबुग्गाहिए ।
ठाणा० ३रा, ठा, उ, ४, १४
टीका - तीन प्रकार के मनुष्यो को समझाना सुलभ है ६ १ अदुष्ट यानी द्वेष रहित को सरल प्रकृति वाले को, २ अमूढ़ को यानी बुद्धि शाली को और ३ कुसंगति मे नही पड़े हुए को अर्थात् मिथ्यात्वियो से भ्रमित नही हुए को ।
( ३० ) तओ दुसण्णप्पा, दुट्ठे, मूढे, कुग्गाहिए ।
ठाणा०, ३रा, ठा, उ, ४, १४
टीका -- तीन प्रकार के पुरुषो को समझाना बहुत ही कठित होता है - १ दुष्ट यानी सात्विक वातो के कट्टर विरोधी को खल पुरुष को, २ मूढ यानी सर्वथा अज्ञानी को, और ३ मिध्या धर्म मोह में पूरी तरह से ग्रसित पुरुष को, यानी कुगुरुओ द्वारा अथवा कुसंगति से भ्रमित पुरुष को ।
( ३१ )
तओ सुग्गया, सिद्ध सुग्गया,
देव सुग्गया, मरणस्स सुग्गया ।
ܕ
ठाणा०, ३रा, ठा, ३ उ, १५
टीका - सुगति तीन प्रकार की कही गई है :- १ सिद्ध सुरति
२ देव सुगति, और ३ मनुष्य- सुगति ।
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२८०
[प्रकीर्णक-सूत्र
(३२) चउबिहे संघे, समणा, समणीओ, सावगा, साविगायो।
ठाणा०, ४था, ठा, उ, ४,३० टोका-भगवान महावीर स्वामी की गासन-व्यवस्था, यानी महावीर स्वामी के अनुयायी चार भागो में विभाजित किये गये हैं:-१ साधु, २ साध्वी, ३ श्रावक और ४ श्राविका ।
चत्तारि वाणिज्जा विणीए, __ अविगइपडिबद्धे, विउसवियपाहुडे अमायी ।
ठाणां०, ४या, ठा, उ, ३, २७ टीका--चार प्रकार के पुरुष वाचना देने के योग्य होते है - ६१) विनीत, (२) स्वाद-इन्द्रिय में अगृद्ध-अनासक्त, (३) क्षमाशील और (४) सरल हृदय वाला।
' (३४) चत्तारि अवायणिज्जा, अविणीप, विगइप्पडिवद्धे, अविउसविय पाहुडे, मायी ।
ठाणां०, ४था, ठा, उ, ३,०२७ टीका--चार प्रकार के पुरुप वाचना देने के अयोग्य है. (१) सविनीत, (२) स्वाद-इन्द्रिय में गृद्ध-आसक्त, (३) क्रोधी और (४) मायावी-कपटी।
(३५) चत्तारि समणो वासगा. अम्मापिइ समाण, भाइसमाणे मित्तसमाणे, सवत्ति समाणे । ठाणा०, ४था, ठा, उ,३, २०
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।
सूक्ति-सुधा ]
[ २८१ टीका-चार प्रकार के श्रावक कहे गये है।--
(१) बिना किसी बदले की भावना के विशुद्ध हृदय से "साधुसाध्विथो के लिये सुसमाधि रहे "-ऐसी हितकारी व्यवस्था करने वाला श्रावक माता-पिता समान श्रावक है।
(२) साधु-साध्वियो को प्रमादी देख कर ऊपर से क्रोध करे, किन्तु मन मे हित की भावना ही रक्ख-ऐसा श्रावक भाई समान श्रावक है।
(३) साधु-साध्वियो के दोषो को ढक कर, दोषो की उपेक्षा कर केवल गुणो की तरफ ही लक्ष्य देने वाला श्रावक मित्र समान श्रावक है।
(४) जो श्रावक साधु-साध्वियो के गुणो को तो नही देखता है, किन्तु दोष ही दोप देखता है, ऐसा श्रावक शत्रु-श्रावक है।
(३६ ) चत्तारि सूरा, खंति सूरे, तवसरे, दाणासुरे, जुद्धसरे ।
ढाणा०, ४था, ठा, उ, ३, ७ टीका-चार प्रकार के शूरवीर-माने गये हैं -१ क्षमा-शूर, 'कठिनाइयो में और विकट एव प्रतिकूल परिस्थिति में भी घोर क्षमा रखने वाले क्षमा-शूर है।
२ तप-शर:-तपश्चर्या मे-एवं सेवा मे असाधारण वीरता रखने वाले तप-शूर है।
३ उदारता पूर्वक और अनासक्ति के साथ मुक्त हस्त होकर दान देने वाले महापुरुष दान-शूर है।
४ कायरता को भगाकर असाधारण साहस के साथ युद्ध करने वाले युद्ध-शूर होते है।
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२८२ ]
( ३७ )
खंति सूरा अरहंता, तवसुरा अणगारा, दाण सूरे वेसमणे, जुद्धसरे वासुदेवे । ठाणां०, ४था, ठा, उ, ३, ७
टीका -- क्षमा-शूरो मे सर्वोत्तम क्षमा-शूर अरिहंत हैं । तपशूरों में असाधारण तप-शूर अणगार - साधु होते हैं । दानियों में दान - शूर वैश्रमण है और युद्ध मे शूर-वीर वासुदेव हैं । ( ३८ ) चत्तारि बिकहाओ परणत्ताओ,
इत्यिकहा, भत्त कहा, देख कहा, राय कहा ।
t
ठाणा०, ४था, ठा, उ २, ६
टीका - चार प्रकार की विकथाऐ कही गई है : -- १ स्त्री कथा, २ भोजन कथा, ३ देश - कथा और ४ राज कथा ।
[ प्रकीर्णक-सूत्र
- ( ३९ )
चत्तारि झाणा, अहे झोण,
रोदे झाणे, धम्मे, भाणे, सुक्के झाो ।
ठाणां०, ४था, ठा, उ, ११५
टीका - ध्यान चार प्रकार के कहे गये है : - आर्त्तध्यान,
रौद्रध्यान, धर्मध्यान और शुक्लध्यान ।
( ४० ) चडविहे वत्रे,
गज्जे, पज्जे, कत्थे, गेये ।
ठाणा०, ४था, ठा, उ, ४, ४३
टीका- -चार प्रकार का काव्य कहा गया है
३ कथा, और ४ गेय ।
-१ गद्य, २ पद्य,
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सूक्ति-सुधा ] 7
२८३
पंचविहे सोए, पुढविसोए, आउसोए, तेउ सोए, मंतसोए, बंभसोए ।
ठाणा०, ५वा,ठा, उ, ३, ६ टीका-पांच प्रकार की वस्तुओ से पवित्रता का कार्य सपादन - किया जा सकता है।
१ पृथ्वी-मिट्टी से, २ पानी-से, ३ अग्नि से, ४ मत्र से और ५ ब्रह्मचर्य से ।
( ४२ ) पंचविहे ववहारे, अागमे, सुए, आणा, धारणा, जीए। .
ठाणा०, ५ वा, ठा, उ, २, ७ टीका-पाच प्रकार के व्यवहार कहे गये है ~~-१ आगम, २ सूत्र ३ आज्ञा, ४ धारना, और ५ जीत ।
(१) केवल ज्ञानी, मन पर्याय ज्ञानी, अवधि ज्ञानी, पूर्वधर - आदि का जीवन-व्यवहार-आगम-व्यवहार है ।
(२) सूत्रानुसार व्यवहार सूत्र-व्यवहार है।
(३) अनुभवी, विद्वान् महापुरुष की आज्ञानुसार व्यवहार करना - आज्ञा-व्यवहार है।
(४) पूर्व महापुरुष कृत व्यवहार को देखकर और प्रसगोपात्त उसे याद कर तदनुसार व्यवहार करना धारणा-व्यवहार है।
(५) परम्परा से चले आये हुए व्यवहार के अनुसार व्यवहार: करना जीत-व्यवहार है।
आगम-व्यवहार के सद्भाव मे शेष चार निषिद्ध है। सूत्र-व्यवहार के सद्भाव में शेष तीन निषिद्ध है।
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- २८४ ]
[ प्रकीर्णक-सूत्र
आज्ञा-व्यवहार के सद्भाव मे शेष दो निषिद्ध है ।
धारणा व्यवहार के सद्भाव में जीत व्यवहार निषिद्ध है । प्रथम चार व्यवहारो के अभाव में ही जीत व्यवहार आचरणीय है ।
-
( ४३ )
पंच गिद्दी - पुत्तणिही, मित्तणही, सिप्पणी, धणणिही धन्नणिही ।
ठाणां०, ५वा ठा, उ, ३, ६
टीका -- पाच प्रकार की निधि कही गई है - १ पुत्र निधि, २ मित्र निधि, ३ ज्ञान निधि, ४ धन-निधि, और धान्य निधि ।
•
( ४४ ) छविहे भावे, उदइए, उवसमिप, खइए, खयोवसमिप, पारिणामिए, संनिवाइए ।
ठाणाँ०, ६ ट्ठा, ठा, उ, १, ११५
टीका - छ प्रकार के भाव आत्मा के परिणाम कहे गये हैं :१ औदयिक २ औपशमिक, ३ क्षायिक, ४ क्षायोपशमिक, ५ पारिणामिक और ६ सान्निपातिक |
,
१ - कर्मो के उदय से होने वाले आत्मा के विचार - विशेष औद- यिक भाव है । २- कर्मो के उपशम से यानी अनुदय के आत्मा मे पैदा होने वाले विचार-विशेष औपशमिक ३ - कर्मो के क्षय होने से उत्पन्न होनेवाले आत्मा के विशेष क्षायिक भाव है । ४-कर्मों में से कुछ एक के क्षय होने पर और कुछ एक के उपगम होने पर आत्मा मे उत्पन्न होने वाले विचार विशेष क्षायोपशमिक भाव है । ५-आत्मिक विचारो का स्वाभाविक - स्वरूप परिणमन ही पारिणामिक भाव
६ - संमिश्रित भावो को सान्निपातिक भाव कहते है ।
कारण से भाव है । विचार
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सूक्ति-सुधा ]
(४५) सत्त भय द्वाणा, इह लोग भए, पर लोग भए, आदाण भए, अक्रम्हा भए, बेयणा भए, मरण भए, असि लोग भए ।
ठाणा०, ७वा, ठा, १५
टीका--सात प्रकार के भय के स्थान कहे गये है- (१) इस लोक मनुष्य का, (२) पर लोक का भय, (३)
का भय,
यानी मनुष्य 'मनुष्य को चोरी, वटवारा आदि का भय, (४) अकस्मात् रूप से पैदा होनें - वाला भय, (५) वेदना, रोग आदि का भय, (६) मृत्यु भय और ( 3 ) अयश, अपकीर्ति का भय ।
( ४६ )
सत्तविहे श्राउमेदे, अज्झवसाय, निमित्ते, आहारे, वेयणा, पराघाए, फासे, श्राषाणू
I
[ २८५....
ठाणा०, ७वा, ठा ३८
टीका—सात प्रकार से आयुष्य टूट सकती है -- ( १ ) भयानक विचार से, भयानक कल्पना अथवा भयानक स्वप्न से, (२) शस्त्र आदि के निमित्त से, (३) बहुत आहार करने से, (४) शूल आदि से. (५) पराघात से दूसरो की चोट आदि देखने पर कायर होने की हालत मे हृदय के फेल हो जाने पर, (६) सर्पादि के दश से, और - (७) श्वास आदि रोग से ।
- इति
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परिशिष्ट नं. १
अकारादि क्रम से छाया सहित
मूल सूक्ति-कोश -
(बायी ओर प्राकृत भाग और दाहिनी ओर शब्दानुलक्षी हिन्दी अनुवाद )
लोट:-सक्तियों के आगे कोष्टक ' मे जो शब्द और सख्या अति
है, उनका तात्पर्य विषय-नाम और उसी विषय की सूक्ति संख्या से है, जो कि पुस्तक के मूल भाग मे मुद्रित है।
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२८८ ]
अ
१ – अकप्पिय न गिहिज्जा |
२ - अकम्पुणा कम्म खवेति धीरा ।
[ मूल सूक्तियां
३ - अकिरियं परिवज्जए ।
( कर्त्तव्य, १ )
४ – अकुसीले सया भिक्खू, णव ससग्गिय भए, ( श्रमण - भिक्षु, ३५ )
५ - अकुव्वओ णव णत्थि ।
( सात्विक, १२ )
( सद्गुण, ३ )
६ - अकोहणे संच्च रए सिक्खा सीले । ७ - अकोहणे सच्च रते तवस्सी । ८--अकोविया दुक्ख ते नाइ तुट्टति, सउणी पजर जहा । ( बाल, ५) '
( तप, ९ )
१६- अजरा अमरा असगा ।
( उपदेश, ६९)
( सात्विक, ७ ) '
९ - अगुणप्पेही ण आराहेइ सवर । १० - अगुणिस्स नत्थि मोक्खो । ११ - अगुत्तं अणाणाए ।
( अनिष्ट, ९ ) ( मोक्ष, १७ ) ( योगे, १० )
१२ – अच्चन्त नियाण खमा, एसा मे भासिया वई । ( प्रशस्त, १४ ) -
१३ – अच्चेही अणुसास अप्पगं ।' ( उपदेश, ९४ ) १४ - अजय भुजमाणो अ पाण भूयाइ हिंसइ । ( हिंसा, ३)
१५ - अजय चरमाणो अ पाण भूयाइ हिसइ । ( हिंसा, २ )
( मोक्ष, ९ )
( उपदेश, ६१ )
१७--अज्जाइ कम्माइ करेहि ।
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ब्दानुलक्षी अनुवाद]
१-अकल्पनीय ग्रहण नहीं करे। २-वीर पुत्प अकर्म द्वारा, ( आश्रव रहित होकर ) कर्म
त अय कर देते है। -अकर्तव्य का परिवर्जन कर दे। ४-भिक्षु सदा अकुगील हो, ससर्ग वाला नहीं हो। ५-अकर्ता होता हुआ नवीन ( कर्म वाला ) नही है। ६-अक्रोवी, मत्य रत, शिक्षा भील ( होता है । ४-अकोबी, सत्य रत तपस्वी ( होता है ) ८-वे अकोविक दुन्द को नहीं तोड़ सकते है, जैसे कि शकुनि :
(पक्षी) पीजरे को। ९-अगुणप्रेक्षी मवर को नहीं मारापता है। १०-अगुणी का मोभ नहीं है। ११- अगुप्त अनाना वाला है । ( अगुप्ति वाला आना से ..
. रहित होता है) १६-मेरे द्वारा भापित यह वाणी अत्यन्त निदान क्षमा (कर्म
काटने में अत्यन्त समर्थ ) है । १४-न्यागी अपनी आत्मा को अनुशासित करे । १४-अयन्ना पूर्वक भोजन करता हुआ प्रागियो की, और भूतो की
हिना करता है। १५-~-अयत्नापूर्वक चलता हुआ प्राणियो की, और भूतो को हिला
करता है। १६-वे (मुक्त जीव ) अजर है, अमर है और असग है । ( निरन्त
निराकार है ) १९आर्य कर्मों को ( श्रेष्ठ कामो को ) करो।
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२९०]
[मूल-सूक्तियां
१८-अज्झत्य हेड निययस्स बन्यो ससार हेउ चवयन्ति बन्ध ।
(कर्म १९) १९-~-अज्झप्परए सुसमाहि अप्पा जे स भिक्खू । (श्रमण-भिक्षु ९) २०-अज्मोववन्ना कामेहि पूयणा इव तरुण ए । ( काम ३५ )
२१-अट्टेसु मढे अजरामरेवा ।
( बाल ७ )
२२-अणगारे पच्चक्खाय पावए ।
(श्रमण ५०)
२३-अणगार चरित्त धम्मे दुविहे,
सराग सजमे चेव, वीयराग सजमे चेव । (श्रमण-५२ ) २४-अणट्ठा जे य सव्वत्था परिवज्जेज्ज। ( कर्त्तव्य ६ ) २५-अणाइले या अकसाइ भिक्खू । ( श्रमण-भिक्षु ११) २६-अणागय नेव य अस्थि किंचि, सद्धा खम मे विण इत्तु राग ।
( ससार १२)
२७-अणावाह सुहाभिकखी,
गुरुप्प सायाभिमुहो रमिज्जा ।
( उपदेश ७१ )
२८--आणासए जो उसहिज्ज कटए, स पुज्जो। ( महापुरुप ११)
२९----अणिच्चे जीव लोगम्मि कि पमज्जसि। ( ससार ११ । ३०-अणियते अय वासे, णायएहि मुहीहि य । ( अनिष्ट ३० ) ३१- अणियाणभूते सुपरिवाज्जा । ( अहिंसा २२)
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शब्दानुलक्षी अनुवाद ]
२९१]
१८- - आत्मस्थ हेतु - ( मिथ्यात्व आदि ) निज का बन्ध करने वाले है और बंध को ससार का हेतु कहते हैं ।
१९ - जो अध्यात्मरत्त सुसमाधि वाली आत्मा है, वही भिक्षु है । २० – पूतना ( रोग विशेष ) से जैसे तरुण वालक ( दुखी होते है ) वैसे ही कामो से - ( भोगो से ) विषयो मे आसक्त ( आत्माएं दुखी होती है )
२१ - मूढ आर्त्त ( आर्त्तध्यान सबधी कामो ) मे अजर अमर की तरह ( फसे हुए है )
-२२–प्रत्याख्यात अनगार ( प्रतिज्ञा लिया हुआ साधु) प्राप्त करे | ( निर्मठ आत्मावाला होता है ) |
-२३ – अनगार का चारित्र धर्म दो प्रकार का है, सराग सयम और वीतराग सयम |
(
२४---जो अनर्थ रूप हैं, उन्हे सर्वथा परिवर्जित कर दे | -२५ – अनाविल ( पाप रहित ) अथवा अकषायी ही भिक्षु - २६ किचित् भी अनागत नही है ( यानी कोई भी पदार्थ
1
छोड दे )
होता है |
ऐसा नही
हैं, जो कि पहले नही मिला' हो' ) अंत मेरे राग को दूर करने के लिये श्रद्धा ही समर्थ है |
२७–अव्यावाध सुख का आकांक्षी ( मोक्ष का अभिलापी ) गुरु की प्रसन्नता के अभिमुख होता हुआ रमए करे । ( गुरु की आज्ञानुसार चलता रहे। )
-अनासक्त होता हुआ जो काटो को ( कप्टो को ) सहता है, वही पूज्य है ।
?
२९–अनित्य ( नायवान् ) जीव-लोक में क्यो आभक्त रहता है ३० -सुख शील जाति वालो के साथ यह वास, अनित्य है ।
३१ – अनिदान भूत होता हुआ (आश्रव रहित होना हुआ) जीवन
व्यवहार चलावे |
२८
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२९२]
[मूल-सूक्तियां
३२-अणिहे से पुढे अहियाए ।
(क्षमा ५)
३३-अणुक्कसे अप्पलीगे, मज्झेण नुणि जावए।(श्रमण-भिक्षु २३)
३४---अणु चितिय वियागरे।
( नत्यादि १५} ' ३५--अगुत्तरे नाणधरे जससी, ओभालई मुरि एव अतलिन् ।
' (प्रास्त्र १२ }
३६--अणुता धम्म मिण जिणाण, गेया मुगी कासव आतुपन्ने ।
(प्रा मं १ }
३७-~-अणुन मञ्च जगलि दिज्ज. गथा अतीते अभए अगाऊ।
(प्रा. म १५)
३८---अणुन्नए नावणए महेसो ।
( महापुरुप ३१
३९-अणु पुन्छ पागणेहिं सजए :
( अहिंसा १६)
४०--अगुवमन्तण दुक्कर दमसागरो।
( कपाय ३५),
४१-~अणसासण नंव पक्कमे । ४२-अणुमामिओ न कुरिजा ।
( उपदेग ७८ ) ( उपदम ५४ }
४:-~अणोम बनी निपने पावेहि कम्महि । (प्रशस्त २२ },
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शब्दानुक्षी अनुवाद ]
[ २९३
३२ – अनिह ( क्रोव आदि से रहित ) होना हुआ स्पर्श किये हुए ( प्राप्त हुए उपसर्गो को ) सहन करे ।
३३ - अनुत्कर्ष वाला ( किसी भी प्रकार का अहकार नही करने वाला), अप्रलीन वाला ( आसक्ति रहित वाला), मुनि मध्यस्थ भाव से ( तटस्थ भाव से ) विचरे ।
-३४ - अनुचितवन करके (गभार विचार करके ) बोले ।
३५ - अनुत्तर (श्रेष्ठ) ज्ञान के धारण करने वाले, यशस्वी होते हुए ऐसी गोभा पाते है (ऐसे प्रकाश गील होते है ) जैसा कि सूर्य अन्तरिक्ष मे ( आकाश में ) ।
३६ - जिनेन्द्रो का ( राग द्वेष जीतने वालो का ) यह अनुत्तर (श्रेष्ठ) धर्म है, और इसके नेता, मुनि आशु प्रज्ञ ( शीघ्र बुद्धिवाले ) काय है | ( प्रभु महावीर द्वारा यह शासित है )
३७ - (वे महावार स्वामी) सारे जगत् में अनुत्तर है ( श्रेष्ठ है ) बिज्ञ
!
7
J
है, ग्रथि से ( कषाय और परिग्रह से रहित है ) अतीत है, अभय हैं और अनायु (परम शरीरी ) है ।
३८-- महपि न तो उन्नत ( अभिमानी ) हो और न अवनत ( दुख से
दीन) हो ।
}
३९ - प्राणियों के साथ अनुपूर्व रीति से ( क्रम ने) सयम शील हो, ( यत्न वाला हो) ।
C
४० – अनुपशान्त द्वारा (जिसका कपाय शान्त नही हुआ है, ऐसे मनुष्य द्वारा ) इन्द्रिय- दमन रूप सागर, (पार कर लेना) दुष्कर है । ४१ – अनुशासन में ही ( भगवान की आज्ञा मे ही ) पराक्रम शील हो । ४२ - अनुशासित किया जाता हुआ ( उपदेश दिया जाना हुआ) क्रोत्र नही करे ।
1 ४३ – पूर्ण दर्शी (उच्च ज्ञान - चारित्र वाला) पाप कर्मों से निवृत्त ही होता है ।
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२९४ ]
[ मूल सूक्ति
४४-- अणत गुणियां नरए दुख वेयणा | ( मसार ८ } ४५ -- अणते निइए लोए, सासए ण विणस्संती | ( ससार १४ ) ४६ -- अत्तत्ताए परिव्वए ।
( कर्त्तव्य १६ )
४७-- अत्ताण न नमृक्कसे ।
( कषाय १८ )
४८ - अट्ठि दोसेण दुही परस्स लोभाविले आययई अदत्त । ( लोभ १० )
I
४९ - अतुल सुह सागर गया, अव्वावाह अणोषमं पत्ता |
( मोक्ष ११ )
५० - - - अदक्खु कामाई रोग वं ।
( काम २९ )
५१ - अदिन्नमन्नेतु य णो गहेज्जा ।
( उपदेश १० )
५२ - अदीणो वित्ति मेसिज्जा ।
( प्रशस्त २३ )
५३ - अन्तो हि त्रिऊस्सिज्ज, अज्झत्थ सुद्ध मेसए । ( उपदेश ९१ )
५४ – अन्न पाणस्स अणाणुगि ।
( श्रमण- भिक्षु २८ )
५५ – अन्न पत्ते वण मेसमाणे, पप्पोति मच्चु पुरिसे जर च । ( बाल ३० } ५६ - अन्नाण मोहस्स विवज्जगाए, एगन्त सोक्ख समुवेड मोक्ख । ( मोक्ष १५ )
५७ - अन्नाणिया नाण वयना वि निच्छयत्थ न याति ।
५८- अन्न जण लिसति बालपन्ते ।
(' वाल २८ )
• ( बाल ८ )
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शब्दानुलक्षी अनुवाद ]
2
४४ - नरको में दुख वेदना अनत गुणी है |
४५ - यह लोक अनत है, नित्य है, शास्वत् है और विनष्ट नही होता है ।
४६- आत्मा के त्राण के लिये, ( आत्मा को पाप से बचाने के लिये
संयम शील हो ।
-आत्मा के ( निर्मलता के ) लिये समुत्कर्ष शील ( अहकारी ) न हो ।
४८ - जो अतुष्ट है, ( अमतुष्ट है- लोभी है), वह इस दोष से स्वयं दुख है और पर के लिये भी दुख पैदा करता है । लोभ से व्याकुल होता हुआ अदत्त को भी ग्रहण कर लेता हूँ( चोरी कर लेता है ) ।
४९ - ( मुक्त जीव) अतुल सुख सागर को प्राप्त हुए है, अव्यावाच (अऩत) और अनुपम ( सर्व श्रेष्ठ ), ( अवस्था को ) प्राप्त हुए है ५० - काम - भोगो को रोग (पैदा करने) वाले ही देखो ।
४७
[ २९५
५१ - नही दी हुई वस्तुओ की नही ग्रहण करे ।
५२ - अदीन ( गौरव वाला ) होकर वृत्ति - ( आहार आदि को ) दूढे ५३ - आंतरिक और बाह्य रूप से त्यागी होकर आत्म। सवधा शुद्धि के इच्छा करे | अथवा अनुसधान करे ।
५४ – अन्न के लिये और पानी के लिये अनुगृद्ध ( आसक्ति वाला न हो ।
- ५५ - अन्य के लिये प्रमाद शील होता हुआ, धन की अकाक्षा या अनुमधान करता हुआ पुरुष मृत्यु को और बुढापे को प्राप्त होता है । ५६ - अज्ञान रूपी मोह के विवर्जन से ( त्याग से ) एकान्त मोक्ष- - सुख को प्राप्त करता है |
५७ – अज्ञानी ज्ञान को वालते हुए भी निश्चित अर्थ को नहीं जानते है ।
५८ - बाल प्रज्ञ ( मूर्ख बुद्धि वाला) दूसरे मनुष्य की ही निंदा करता है 1
-
1
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२९६ ]
[ मूल-सूक्तियाँ
५९ - अनिम्गहप्पा य रसेसु गिद्धे, न मूलओ छिदई बन्धण से ।
M
( कर्म १६ )
६० -- अप्पडि चक्कस्स जओ, होउ, सया सघ चक्कस्स ।
( प्रा
२० )
६१ - अप्पणा मच्च मेसेज्जा ।
( सत्यादि १ )
६२ - अप्पणी य परं नाल, कुतो अन्नाणु सासि । ( बाल २९ )
६३ - अप्पमत्तो कामेहि उवरओ पाव- कम्मे हि । ( प्रगत २१ )
६४ -- अप्पमत्तो जए निच्च ।
६५ - अप्पमत्तो परिव्वए ।
( प्रशस्त १३ ) ( सद्गुण ११ )
६६ - अपाण रक्खी चरे अप्पमत्तो ।
( उपदेश ८२ )
६७ - अप्पाहारे तितिक्खए ।
( क्षमा ६ )
( आत्म
१२ )
६८ - अप्पाकत्ता विकत्ता य, दुहाण य मुहान य । ६९ - अप्पा कांम दुहा वेणू, अप्पा मे नन्दण वण
।
( आन्म १३ )
७० - अप्पा जत्ता मुह मेहए ।
( आत्म ९ )
७१ - अप्पाणमेव जुज्झाहि, कि ते जुज्झेण बज्ओ । ( आत्म ८ )
७२ - अप्पा दन्तो मुही होइ ।
( तप १० )
७६ -- अप्पा नई वेयरणी, अधा मे कूड मामली | ( आत्म १४ )
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'वान्दानुलभी अनुवाद]
२९७
५९-न्मो मे गृद्ध (मृच्छित)-और-अनि ग्रह वाली (अजीतेन्द्रिय)आत्मा
मूल से वधन को ( कर्मो को ) नही काट सकती है। ६.नहीं है मम कक्ष देसरा चक्र जिसके, एसे सघ रूप चक्र की सदा
जय हो। ६५--अपनी आत्मा द्वारा ही सत्य का अनुसवान करो। - ६२-ला स्वय को शिक्षा देने के लिये समर्थ नहीं है, वह अन्य का
शिक्षा देने के लिये कैमे समर्थ हो सकता है ?
६३-जो काम-भोगो से अप्रमन है वही पाप-कर्मो से उपरत है
३४-अप्रमादी होता हुआ नित्य नयम मे प्रवृत्त रहे। ६५-अप्रमादी होता हुआ ही बिचरे ।
६६-अपनी आत्मा की रक्षा करने वाला अप्रमादी होता हुआ हा । विचरे। ___६७-अल्प आहार वाला होता-हुआ तितिक्षा वाला होवे, सहनशीलता
. - वाला हो । ६८-दृ.बो का अथवा सुखो का कत्ती या अकत्ता आत्मा ही है । ६९-आत्मा ही इच्छा पूत्ति करने वाली काम-वेनु है आर अपनी
मात्मा ही नदन वन है। ७०-आत्मा को जीतकर ही सुख प्राप्त करो। ७१--आत्मा से ही-( आत्मन्थ कपायो से ही ) युद्ध करो, याहयुद्ध
से तुम्हे क्या,( प्राप्त होने वाला है ) ? । 5. ७२–दमन करने वाली आत्मा ही मुखी होती है । जथवा आत्मा का
( आत्मस्य कषायो का) दमन करने वाला ही सुखी होता है। ७३-आत्मा ही वेतरणी नदी है और अपनी आत्मा ही कूट-शाल्मली
वृक्ष है।
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२०४ ]
[ मूल-सुक्तियां
• ७४-- अप्पा मित्त ममित च, दुपट्टियमुपट्टि । (आत्म ११ )
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७५ -- अपियसाविमितन्न रहे कल्याण भासई 1 (सद्गुण २)
७६ - अपुच्छिओ न भासिज्जा ।
1७७ --- अप्प भासेज्ज सुन्वए । ७८ - अवभरि घोर । ७९ - - अभयं करे वीरे अणत चक्खू
( श्रमण - भिक्षु ४७ )
८० - अभय करें भिक्नू अणाविलापा | ८१--अभय दाया भवाहि । ८२ - अभिणूम डेहि मूच्छिए, तिव्वं ते कम्मेहि किच्चती ।
( अहिमा १८
( कर्म २० )
८३ - - अभिसवए पाव विवेगभिक्खू |
८४ - अमन्न समुप्पाय दुक्खमेव ।
८५ - अरइ आउट्टे से मेहावी, खणसि मुक्के |
( सन्यादि ३४ )
( सत्यादि ११ )
( काम २ )
( प्राम, ६ )
८६-- अरए पयामु ।
८७-- अरुवी सत्ता, अपयस्स पय नत्थि ।
( उपदेश ७३ }
( योग १३ )
( सात्विक १४ )
( ग्रील १० )
( आत्म ४ )
८८ - अल्लीण गुत्तो निसिएँ ।
( योग ७ ),
८९ - अलोगे पहिया सिद्धा, लीयग्गे य पडिट्ठिया । ( मोक्ष १० )
९० - अलोल भिक्नू न रसेमु गिज्झे ।
( श्रमण भिक्षु ४१
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गन्दोनलक्षी अनुवाद
[ २९९ ७४-आत्मा ही मित्र भी है और अमित्र भी है। दुष्प्रतिन्ति और . नुप्रतिष्ठित करने वाली भी आत्मा ही है।
। ७५-~अप्रिय मित्र के लिए भी एकान्त मे जो कल्याण युक्त ही बोलता - है, वही आदर्श है। ७६---नहीं पूछा हुआ, नहीं बोले। ७७-सुव्रती अल्प ही बोले। ७८-अब्रह्मचर्य घोर पाप है। ७९-प्रभु महावीर अभय देने वाले है और अनन्त चक्षु वाले हैं।
( महा ज्ञानी है )। ८०-राग-द्वेप रहित आत्मा वाला भिक्षु अभयदान देता रहे। ८१-अभय दान देने वाले होओ। ८२-माया आदि कुकृत्यो से मूच्छित, अन्त मे वह कर्मों द्वारा तीर -
क्लेग पाता है। ८३-भिक्षु पाप का विवेक रखता हुआ निर्दीप वचन बोले । .. ८४.--अमनोज की समुत्पत्ति ही दुख है। ८५-जो अरति को नष्ट कर देता है, वही मेधावी है, वही क्षण भर -
मे मुक्त हो जाता है। ८६-प्रजाओ में अर्थात् स्त्रियो में आसक्त मत हा। ८७-( मुक्त जीव ) अरूपी सत्ता वाला होता है, शब्दातीत के लिय
शब्द नही होता है । अपद के लिये पद नहीं है । ८८-गुरु आदि के आश्रित रहता हुआ, गुप्ति धर्म का पालन करता
हुआ वैठे, अथवा रहे। १८९--सिद्ध प्रभु अलोक में जाने से रुके हुए है और लोक के अन्न भाग.. पर प्रतिष्ठित है। ९०-अबचल होता हुआ ( अनासक्न होता हुआ ) भिक्षु रसो मे गृद्धः
नही हो।
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.३०० ]
[ मूल-सक्तिया
९१-अलोलुए रमेसु नाणु गिज्जेज्जा। ९२-अल बालस्स सगेण ।
(सद्गुण १२) (कर्तव्य १२)
९३-अबाबाह मुक्ख अण्होती सासय सिद्धा। ( मोक्ष ४ )
९४-~-अविअत्त व नो वा।
( सत्यादि १८) १५-अवि अप्पणो वि देहमि नायरति ममाइय। (महापुरुष १७)
२६-अवि ओमिए वासति पाव कम्मी। ( कपाय ३६) ९७ अविणी अप्पा दीसति दुहमेहता। (अनिष्ट ४)
९८-अवि वाम सय नारिं वभयारी विवज्जए। (गील ११) । ९९-अविस्मासो अ भूआण तम्हा मोस विवज्जए। (सन्यादि ४२)
१०० -असमिय, ति मन माणस्स, समिया वा असमिया वा असमिया होड।
( अनिष्ट २८) १०१-असावज्ज मिय काले भास भासिज्ज पनव। (सत्यादि ५)
१०२-असामया वासमिण तुक्खकेसाण भायण । ( अनित्य 3 )
१०३-असाहु धम्माणि ण सवएज्जा । (उपदेश १७) १. १०४-असि धारा गमण चेव दुक्करं चरिउ तवो। (तप १४ )
'}, १०५~-असुहाण कम्माण निज्जाण पावा।
१०६----असे यकरी अन्नेसी इग्विणी । - १०७-असखये जीविर्यमा पमायए ।
(कर्म १५ ) ( अनिष्ट ११) (उपदेश २५ )
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गब्दानुलक्षी अनुबाद]
[३०१ '९१-अलोलुप होता हुआ रसो में अनुगद्ध नहीं हो। ९२-वाल पुरुषो के ( मूब आदमियो के ) ननर्ग से वज्ञ करो, यानी -
दूर रहो। ९३-सिद्ध प्रभु माम्वत् रूप से अव्याबाट सुद्ध का अनुभव करते
रहते है। ९४--अव्यक्त भापा नहीं बोले । ५५~( महा पुरुप ) अपन गरीर के प्रति भी मनत्व भाव का आवरण
नहीं करते है। ९६-~कपाय में सलग्न पापकर्मी दु ख का ही भागी है। ९७-अविनीत आत्माऐ दुग्व प्राप्त करती हुई ही देखी जाती है । । ९८ ब्रह्मचारी सौ वर्ष की आयुवाली स्त्री से भी दूर ही रहे। ९९-झूठ प्राणियो के लिये अविश्वान का स्थान है, अतएव झूठ को
छोड दो। १.०-असम्यक्त्व का मानने वाले के लिये सम्यक्त्व और असम्यक्त्व,
दोनो ही मिथ्यात्व रूप ही होते है । १.१-प्रज्ञावान् समयानुसार असावद्य निर्दोप और परिमित भाषा
ही बोले । १०२---यह वाम नयोग अशाश्वत् है और दुख एक क्लेशो का ही
भाजन है। १०३-~अमावु के धमो को-(नीच कर्तर्यो को) मत बोलो। १०४--तप आचरण करना तलवार की धारा पर चलना है..
निश्चय ही यह दुष्कर है। १०५-अगभ कर्मों का निदान (अतिम फल) पाप ही है। । १०६-दूनरो की निदा अश्रयम्कारी-(हानि प्रद) ही है। २०७-यह जीवन नष्ट हो जाने पर पुन नही जोडा जा सकने।
योग्य है. उन इन्मे प्रमाद मत करो।
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३०२ ]
[ मूल-सूक्तिया
१०८ - अमनतो अमुच्छिओ, भत्तपाण गवेसिए। (श्रमण भिक्षु-१८)
१०९ -- असविभागी न हु तस्स मुक्खो ।
( प्रकी ५ )
११० - असन्मत्त पलोइज्जा ।
( उपदेश २८ )
१११ - अहम्मो ठाण लक्खणो । ( प्रकी २१ ) १९२ -- अहम्म कुणमाणस्स अफला जन्ति राइओ । ( अधर्म १ )
११३ – अहि गरण न करेज्ज पडिए ।
( कषाय ३३ )
११४ - अहिपासए आय तुले पाणेहि ।
११५ - अहिसा निउणा दिट्ठा ।
( उपदेश ७७ )
( अहिंसा ३ )
११६ - अहीण पचेदियया हु दुल्लहा । ११७ - अहे वयड कोहेण, माणेण अहमा गई । ( कषाय २३ )
( दुर्लभ ११ )
११८ - अहो जिणेहि असावज्जा, विनी साहूण देसिया ।
११९–आणाइ सुद्ध वयण भिजे । १२० - आणाए अभिसमेच्चा अकूओभय ।
( श्रमण - भिक्षु १७ )
( सत्यादि ३८ ) ( प्रशस्त ४ )
१२१ -- आणाए मामग धम्म ।
( धर्म २१ )
१२२ -- लायगुते मया दते, छिन्नसोए ग्णासवे । ( महापुरुष ४४ )
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- अन्दानुलक्षी अनुवाद ] १०:--असभ्रात होता हुआ, अठित-(अनासक्त) होता हुआ भोजन
पानी की गवेषणा करे। १०९--जो दूसरो के माथ विषमता रखने वाला है, उसका मोक्ष
नही हो सकता है। ११०-आसक्ति पूर्वक किसी भी ओर मत देखो। १११--अधर्मास्किाय का लक्षण ठहरने में सहायता देना है। ११२-अधर्म कार्य करने वाले की रात्रियाँ-दिन और रात निष्फल
ही जाती है। ११३-पंडित-अधिकरण क्रिया का (शस्त्र अस्त्र सबवी क्रियामो
को) नही करे। ११४-अपनी आत्मा के समान ही प्राणियो को देखो को अथवा समझो। ११५---अहिंसा, निपुण यानी अनेक प्रकार के मुख को देने वाली
देखी गई है। ११६-~परिपूर्ण पाचो इन्द्रियो की स्थिति प्राप्त होना दुर्लभ है। ११७ ---क्रोध से नीचे की गति को जाता है, और मान से अवम
गति प्राप्त होती है। ११८-अहा ! (हर्प है कि)] जिन द्वारा (अरिहत-तार्थ करो द्वारा)
साधुओ की वृत्ति असावध कही गई है। ११९-~भगवान की आज्ञानुसार शुद्ध वचनो का ही उच्चारण करो। १२०-आज्ञानुसार अच्छी तरह से नि सगय पूर्वक (तत्वो को) जान
कर (तदनुसार कार्य करने वाले के लिये) कही पर भी भय
नही रहता है। १२१-~आज्ञानुसार चलना ही मेरा वर्म है। . १२२---आत्मा को गोपने वाला, सदा इन्द्रियो का दमन करने वाला,
शोक से रहित और आश्रव से रहित (ही. महापुरुष होता है)।
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३०४
• [मूल-सूक्तियां
( योग २)
१२३-आयगुत्ते सया बीरे ।
१२४ --आयरिअत्त पुण रावि, दुल्लहं ।
( दुर्लभ ९)
१२५-आयरिय उवचिट्टइज्जा, अणत नाणीवगओ वि सतो।
" (नात्विक १३) १२६-आयरिय विदिताण, मन्त्र दुवा विमुचई । (धर्म १४)
१२७-आयाण गुत्ने वलया विमुक्के। .
( योग १)
१२८-आयाणिज्ज पग्निाय परियाएण विपित्रह। (कर्म २७)
१२९-आयक दसी न करेइ पाव । ( सात्विक १६ ) १३०-आय ण कुज्जा इह जीवियट्ठी। (लोभ १३ ) १३१-आरिय उव सपज्जे ।
(धर्म २२) १३२-आरिय मग्ग परम च ममाहिए। (धर्म २३ ) १३३-आरभ नभिया कामा न ते दुक्ख विमोयगा । (कषाय ३४)
१६४-आरभा विरम ज्ज मुव्वए । (अनिष्ट ३५) १३५-आलोयणाए उज्जु भाव जणयह। . . ( तप २२ ) १३६-आवजई इन्दिय चोर वसे । ( योग २२),
१३७-आवट्ट सोए सग मभि जागड । ( प्रशस्त ६), १३८-आवट्ट तु पेहाण इत्य, विरमिज्ज वेयवी ।(सद्गुण १४)
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शब्दानुलक्षी अनुवाद ]
[ ३०६
ही थे 1 वर
१२३ – प्रभु महावीर सदैव आत्मा को गोपने वाले पुरुष सदा आत्मा को वश मे करने वाले ही होते १२४ - (सात्विक वातो का ) आचरण करना ही सब से अधिक
है ) - 1
दुर्लभ है |
१२५ - ( शिष्य ) अनत ज्ञान प्राप्त हो जाने पर भी आचार्य के प विनय पूर्वक ही वैठे ।
१२६ - आचरण-योग्य धर्म को जान करके सभी दुख नाग किये ज सकते हैं ।
१२७ - आदान पर यानी आश्रव पर गुप्ति रखने वाला ससार से (कप्लाट्र से) विमुक्त हो जाता है |
}
J
१२८ - ( ज्ञानी) आश्रव और बघ का स्वरूप जानकर साधुता रूपा पर्या द्वारा उन्हें दूर करता है |
१२९
- आतक दर्शी - (सम्यक्त्वी ) पाप नही करता है । १३०—–जीवितार्थी - (आत्महितपी) लोभ नही करे । १३१ - ज्ञानी के शरण में जाओ ।
१३२ - ज्ञानी का मार्ग ही श्रेष्ठ है और ( वही ) समाधि चाला है १३३—–काम-भोग आरभ से भरे हुए ही होते है, इसलिये वे दूख के विमोचक नही हो सकते हैं ।
१३४ - - सुव्रती ज्ञानी, आरभ के कामो से दूर रहें ।, १३५-आलोचना से ऋजु भाव-याने निष्कपटता के भाव पैदा होते हैं । - १३६ - इन्द्रिय रूपी चोर के वश मे - ( पडी हुई ग्रात्मा ससार में ही भ्रमण करती है ।
-
-
१३७ - (जो ज्ञानी है, वह ) आवर्तन रूप ससार को और श्रुति अदि इन्द्रियो के विषय के पारस्परिक सबघ को भलीभांति जानता है । १३८ - शास्त्रो का ज्ञाता आवर्त्तन रूप ससार को देख कर यहाँ प पाप-कामो से दूर हो जाय ।
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[ मूल सूक्तियां
१३९-आसयण नत्थि मुक्खो ।
( अनिष्ट ७ ) १४०-आसुरत्त नगच्छिज्जा, सुच्चाण जिण सासण । (क्रोध ५)
१४१--आस च छद च विगिं च धीरे ।
( उपदेश ४६ )
१४२--आहा कम्मे हिं गच्छई ।
( कर्म ११)
१४३-इओ विद्धसमाणस्स, पुणो सवोहि दुल्लभा ।(दुर्लभ १४)
१४४---इच्छा काम च लोभ च सज्जओ परिवज्जए। (लोभ ९) १४५-इच्छा लोभ न सेविज्जा ।
( लोभ ११)
१४६-इच्छा हु आगास समा अणन्तिया । १४७-इखिणिया उ पाविया । १४८-इगियागार सपने से विणीए।
( लोभ २) ( अनिष्ट १३) (सात्विक २)
१४९ ---इत्यियो जे ण सेवंति, आइ मोक्खा हु ते जणा।
(सील २) १५०-इत्थियाहि अणगारा सवासेण णास मुवयति (शील २४) १५१--इत्थी निलयस्म मज्झे न वम्भयारिस्स खमो निवासो।
(गील २० ) १५२-इत्थी वमगया वाला जिण-सासण परम्महा ( काम ३ )
१५३-इमा पया बहु माया. मोहेण पाउडा । (कपाय २१)
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शब्दानुलक्षी अनुवाद ]
[३०७ १३९-आसातना में-आज्ञा भग में मोक्ष नही है । १४०-जिन-शासन को सुन कर (जन-धर्म का ज्ञान प्राप्त कर) क्रोध
मत करो। १४१-हे धीरज वाले आदमी | तू विपयो सवधी आशा को और
अभिलाषा को छोड़ दे। १४२-(आत्मा) अपने किये हुए कर्मो के अनुसार ही (परलोक को)
जाता है।
१४३- यहाँ से विध्वस हुई आत्मा के लिये पुन ज्ञान प्राप्त होना
- दुर्लभ है। १४४-सयती, इच्छा को, काम-वासना को, और लोभ को छोड़ दे । १४५-- ( विषय की) इच्छाओ को और लोभ को मत सेवो, इनकी
. सेवना मत करो। --- - - - - - . . १४६-निश्चय करके इच्छाएं आकाश के समान अनन्त है। --
१४७-निन्दा ही पाप है। - २४८-"इंगित और आकार में ही" याने सकेंत-ईशारे में ही समझ .
.. लेने वाला विनीत कहा जाता है । १४९—जो स्त्रियो को नही सेवते है, वे महापुरुष निश्चय ही आदि मुक्त
__ याने मोक्ष प्राप्त किये हुए ही है। । १५०-स्नियो के साथ सहवास करने से अनगरि नाश को प्राप्त होते है।
१५१-स्त्रियो के निवास के मध्य मे ब्रह्मचारी का निवास योग्य नही है।
.
१५२–जो वाल-मूर्ख स्त्री के वश में गये हुए है, वे जिन-शासन से परा
ङ्मुख है । ( याने दूर हैं ) . । २५३-ये स्त्रियां बहुत माया वाली है और मोह से ढंकी हुई है ।
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३०८]
, - [ मूल सूक्तियां
१५४-~-इमेण चेव जज्झाहि, किं ते जुज्झेण बज्झओ। (कर्त्तव्य १४);
१५५-इम च मे अत्थि इम च नत्थि, हरा हरति त्ति कह पमाओ। .
- ( उपदेश ५९), १५६-इम सरीर अणिच्च, असुइ, असुइ सभव । (अनित्य २) १५७-इसीण सेठे तह वद्धमाणे। । ( प्रा म ८) । १५८- इह माणुस्सए ठाणे, धम्म माराहिउणरा । ( धर्म ६ ) १५९-इह सति गया दविया, णाव कखति जीविउ । (सात्विक २२) १६०-इह तु कम्माइ पुरे कडाइ। - ( कर्म १३ ),
१६१-उक्कस जलण णूम, मज्झत्थ च विगिंचए। (कषाय २४)१६२–उग्ग महव्वय बभ धारेयव्व सुदुक्खर। ( शील ७ ), १६३--उच्चावएसु विसएसुताई, निस्ससरय भिक्खू समाहिपत्ते।
. ' . ( श्रमण-भिक्षु ३० ).
१६४--उत्तम धम्म सुई हु दुल्लहा । (दुर्लभ १) १६५-उदही नाणा रयण पडिपुण्णे, एव हवइ बहुस्सुए।(ज्ञान १६)
१६६---उवणिज्जई जीविय मप्पमाय, मा कासि कम्माइ महालयाइ।
(वैराग्य ११) १६७-उवलेवो होइ भोगेसु, अभोगी नोव लिप्पई । (भोग ७)
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शब्दानुलक्षी अनुकाद]
[ ३०९ । १५४-(आत्मस्थ कपायो से ही) युद्ध करो, तुम्हारे वाह्य युद्ध से क्या,
(लाभ है ? )। १५५ -यह मेरा है, और यह मेरा नहीं है, ऐसा कहते कहते ही मृत्यु
रूपी चोर आत्मा को चुरा ले जाते है, तो फिर प्रमादा बनकर
कैसे बैठे हो। १५६—यह शरीर अनित्य है, अशुद्ध है और अगुद्धि से ही उत्पन्न हुआ है। १५७-इस प्रकार ऋपियो में सर्व श्रेष्ठ श्री वर्धमान महावीर स्वामी है । १५८-इस मनुष्य-लोक में धर्माराधन के लिये मनुष्य ही (समर्थ) है । १५९--यहा पर शाति को प्राप्त हुई भव्य आत्माऐ-जीवन के लिये
(ससार परिभ्रमण के लिये) आकाक्षाएं नहीं रखती है । - १६०--यहा पर जो कर्म (फल दे रहे है) वे पहिले किये हुए है, पहिले
वांधे हुए है।
.१६१-~-(आत्महितपी) मान को, क्रोध को, माया को और लोभ का छोड़ दे। १६२-जो उग्र है, महाव्रत है, सुदुष्कर है, ऐसे ब्रह्मचर्य को धारण करना
चाहिये। १६३-उच्च आपत्तियो को लाने वाले, और महान् दुःखो को पैदा करने
वाले विपयो से जो अपनी रक्षा करता है, निस्सदेह वह भिक्षु है,
और उसने समाधि प्राप्त कर ली है। १६४.-निश्चय ही उत्तम धर्म का श्रवण दुर्लभ है। १६५-जैसे उदधि-समुद्र, नाना रत्नो से परिपूर्ण होता है, वैसे ही वहु
श्रुत भी (विविध ज्ञान से परिपूर्ण) होता है। १६६--यह जीवन विना प्रमाद के, विना ढील किये ही मृत्यु के पास चला .. - जा रहा है, अत महती दुर्गति के देन वाले कर्मों को तू मत कर। १६७-भोगो के भोगने पर ही, उपलेप याने कर्मों का लेप होता है,
किन्तु अभोगी कर्मों से उपलिप्त नहीं होता है ।
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३१० ]
[ मूल-सूक्तियां
१६८– उववाय कारी य हरी मणे, य एगत दिट्ठी य अमाइ रुवे ।
( सात्विक. ८ )
( क्रोव २ )
१६९ – उवसमेण हणे कोहं ।
-
१७० - उविच्च भोगा पुरिस चयन्ति, दुम जहा खीण फलव
पक्खी |
( काम. ११ )
ए
१७१ – एक्को सय पच्चणु होइ दुक्ख । १७२ – एक्को हु धम्मो ताण न विज्जई
१७३ – एगग्ग मण सनिवेसण याए, चित्त निरोह करेइ ।
( वैराग्य १८ ) अन्नमिहेह किंचि ।
( धर्म १२ )
१७९–एगे आया ।
१८० - एगे चरिते ।
( योग ४ )
१७४ - एगत्त मेय अभिपत्थरज्जा । १७५ -- एगन्त दुक्खे जरिए व लोए । १७६ - एगप्पा अजिए सत्तू, कसाया इन्दियाणि य । ( उपदेश
( वैराग्य १९
१८२ - एगे नाणे ।
१८३ - एगो सय पच्चणु होइ दुक्ख ।
( वैराग्य २० )
१७७ – एगस्स ज़तो गति रागती य । १७८ - एगे अह मसि, न मे अत्यि कोइ, न या हमवि कस्स वि ।
( ससार २१ )
५० )
( वैराग्य १ )
( आत्म १ )
( चारित्र १ )
१२ )
१८१ - एगे जिए जिया पंच, पच जिए जिया दस । ( प्रकी
( ज्ञान १ )
( वैराग्य १२ )
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-शब्दानुलक्षी अनुवाद ]
[ ३११
१६८ – आज्ञाकारी लज्जा वाला, एकान्त सम्यक् दृष्टि पुरुष अमायाको होता है - निष्कपट होता है ।
१६९ -- शान्ति द्वारा क्रोध का नाश करे ।
१७० -- जैसे पक्षी नष्ट हुए फल वाले वृक्ष को छोड़ कर चले जाते हैं. वैसे ही भुक्त भाग भी पुरुष को छोड़ देते है । ( भोगो से क्षीण होकर अंत में पुरुष मर जाता है | )
ए
१७१ – दु.ख का अनुभव अकेले को ही आर खुद को ही करना पडता ' १७२ – अकेला धर्म ही रक्षक है, अन्य कोई यहाँ पर रक्षक नही पाया जाता है ।
१७३ - एकाग्र रूप से मन का सनिवेश करने से चित्त निरोध होता है
१७४ - एकत्व भावना की ही प्रार्थना करो ।
१७५–यह लोक ज्वर के समान एकान्त दुख रूप ही है ।
१७६ - वश में नहा किया हुआ आत्मा एक शत्रु रूप ही है, इसा प्रकार केपाय और इन्द्रियाँ भी शत्रुरूप ही है
१७७ - प्राणी अकेला ही जाता है और अकेला ही आता है ।
१७८ - में अकेला ही हूँ, मेरा काई नहा है, और मैं भी किसी का नही हूँ ।
१७९ - एक ही आत्मा है ।
१८० - एक ही चारित्र है ।
१८१ - एक के जीत लेने पर पाँच जीत लिये जाते है, पाँच के जीन लेन पर दस जीत लिए जाते हैं ।
१८२ - एक ही ज्ञान है ।
१८३ – अकेला स्वय हा दुःख का अनुभव करता है ।
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१२]
[मूल-सृक्तियाँ
१८४ – एग जिणेज्ज अप्पाण, एस से परमो जओ । (आत्म ७)
१८५ - एगत दिट्ठी अपरिग्गहे उ, वृज्झिज्ज लोयस्स वस न गच्छे |
( उपदेश ९० )
१८६ -- एत्थ मोहे पुणो पुणो । ( कपाय ३१) १८७ - - एत्थोवरए मेहावी सव्व पाव कम्मं झोसड | ( महापुरुष २८ )
१८८ - एयाइ मयाइ विगिच धीरा । ( उपदेश १८ ) १८९ -- एय खु नाणिनो सार जन्न हिंसइ किचणं । ( अहिमा २ )
ओ
१९० - एस धम्मे बुवे निच्चे सासए जिण देसिए । ( धर्म ११ )
( सत्यादि ३७ )
१९१ - ओए तहीय फरूस बियाणे ।
अं
१९२ - ओमा सणाण दमि इन्द्रियाण, न राग सत्तू घरि सेइ - चित्त । ( सद्गुण ९ ) १९३ - - अताणि धीरा सेवति, तेण अंतकरा इह । ( महापुरुष ६ )
क १९४—कडाण कम्माण न मुक्ख अत्थि । १९५–— कडाण कम्माण न मोक्खो अत्थि ।
१९६—कत्तार मेव अणुजाई कम्म ।
( कर्म १७ )
१९७ - कप्पिओ फालिओ छिन्नो, उक्कित्तो अ अणेगसो ।
( आत्म १६ )
( कर्म ४ ) ( कर्म ३ )
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शब्दानुलक्षी अनुवाद]
[३१३ १८४-अकेली आत्मा पर ही विजय प्राप्त करो, यही सर्व श्रेष्ठ
. विजय है। . १८५-एकान्त सम्यक् दृष्टि वाला अपरिग्रही ही है, और वह लोक का
स्वरूप समझ कर उसके वश मे नही जावे ।। १८६–यहाँ पर मोह बार बार (आकर्पित करता रहता) है। १८७-इस मोह से उपरत- ( दूर ) होता हुआ मेधावी सभी पाप
कर्म को जला डालता है। १८८-धीर पुरुप इन अभिमान- मद के कारणो को दूर कर दे। १८९-ज्ञानी के लिये यही सार है कि वह किसी की भा हिंसा नही
करता है। -१९०-जिन भगवान द्वारा उपदिष्ट यह धर्म ही ध्रुव है, नित्य है,
गाश्वत् है।
१९१-राग द्वेप रहित हो, किन्तु कठोर हो तो ऐसे वचन नही बोले । १९२-अल्प आहार करने वाले के आर इन्द्रियो का दमन करने
वाले के चित्त को राग रूप शत्रु नही जीत सकता है।
-१९३-धीर पुरुप राग द्वेप को अत करने वाली क्रियाओ का सेवन
करते है, इसलिय यहां पर वे अन्त करा याने चरम-शरीरी कहलाते है।
१९४-कृत कर्मो को ( भोगे विना ) मोक्ष नही है । १९५-कर्म करने वालो का मोक्ष नही है । '१९६-कर्म कर्ता का ही अनुगमन करता है । १९७--(यह आत्मा) अनेक वार कतरा गया, फाडा गया;छेदन किया
गया, आर उत्कर्तन-याने चमडी उतारी गई ।
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३१४]
[मूल-सूक्तियां १९८--कम्माणि बलवन्ति हि ।
( कर्म, ५ ) १९९-कम्मी कम्मेहिं किच्चती।
( कर्म २३ ) २००~-कम्म च मोहप्पभव ।
( कर्म ६) २०१-कम्म च जाइ मरणस्स मूल । ( कर्म ९) २०२-कम्मुणा उवाही जायइ ।
(कर्म १२) २०३-कम्मुणा तेण सजुत्तो, गच्छई उ परं भवं। ( कर्म १८) २०४-कम्मुणा वम्भणो होइ, कम्मुणा होइ खत्ति ओ।
(प्रकी. ३). २०५-कम्मेहि लुप्पन्ति पाणिणो।
( कर्म ८) २०६--करेइ लोह वेर वड्ढेड अप्पणो । ( लोभ ८) २०७-कलह जुद्ध दूरओ परिवज्जए। ( क्रोध ४) २०८--कपाय पच्चक्खाणेण, वीयराग भाव जणयइ।
(सात्विक २०) २०९--कसाया अग्गिणो कुत्ता, सुय सील तवो जल ।
(कषाय ४) २१०-कह धीरो अहे अहिं, उम्मत्तो व महिं चरे।।
( महापुरुप ४२) २११---काउस्सग्गेण तीय पडुप्पन्न, पायच्छित्त विसोहेह ।
(तप १८) २१२--काम कामी खलु अय पुरिसे, से सोयइ, जूरइ, तिप्पइ, परितप्पइ,
( काम ३४) २१३-काम भोग रस गिद्धा, उव-वज्जन्ति आसुरे काए।
(काम १०), २१४-काम भोगाणुराएण केसं सपडिवज्जई। ( काम १९),
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शब्दानुलक्षी अनुवाद ]
१९८ - - निश्चय में कर्म वलवान है ।
१९९ - कर्मी कर्मों से
ही दुख पाता है ।
२०० -- कर्म मोह से ही उत्पन्न होते है ।
२०१ - कर्म ही जन्म और मरण का मूल है ।
२०२ --- कर्म से उपाधि ( नाना विपत्तियाँ) पैदा होती है ।
[ ३१-५
२०३ - उस कर्म से सयुक्त होता हुआ ही (जीव ) परलोक को जाता है । २०४-कर्म याने आचरण से ही ब्राह्मण होता है और आचरण से ही क्षत्रिय होता है ।
२०५ -- प्राणी कर्मो से ही डूबते है ।
२०६—जो लोभ करता है, उसके लिये चारो ओर से वैर वढना है । २०७ - कलह को और युद्ध को दूर से ही छोड दे ।
२०८ – कषाय का परित्याग करने से वीतराग भाव उत्पन्न होता है ।
-
२०९ – कषाय को अग्नि कहा गया है और ज्ञान, शील, तप को जल वतलाया है ।
२१० – धीर
पुरुष क्यो रात और दिन, इधर उधर उन्मत्त की तरह से पृथ्वी पर घूमते रहते है ?
२११ – कायोत्सर्ग से अतीत काल का और वर्तमान काल का प्रायश्चित विशुद्ध होता है ।
२१२ – जो पुरुष निश्चय करके काम-भोगो का कामी है- इच्छुक है; वह शोक करता है, वह झूरता है, वह ताप भोगता है और वह परिताप को प्राप्त होता है ।
२१३ - जो काम-भोगो के रस मे गृद्ध है, वे अन्त में असुर काया में - - ( नीच जाति में ) उत्पन्न होते हैं ।
२१४ – काम - भोगों में अनुराग रखने से (जीव ) क्लेश को सप्राप्त - होता है ।
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-३१६ ]
[ मूल-सूक्तियों
२१५-काम भोगा विस ताल उड। ( काम २०) २१६--काम भोगे य दुच्चए ।
( काम १६ ) २१७-काम समणुन्ने असमिय दुक्खे, दुक्खी दुक्खाणमेव आवट्ट अणु परियट्टइ।
( भोग १२) २१८-कामाणु गिद्धिप्पभव खु दुक्ख । ( काम २३) २१९-कामा दुरतिक्कमा .
( काम ९) २२०-कामे कमाही, कमिय नु दुक्ख ।
( काम ५) २२१-कामे ससार वढ्ढणे, सक माणो तणु चरे। ( काम १४ )
२२२-कायरा जणा लसगा भवन्ति । (वाल ३५ ) २२३-काले काल समायरे।
( उपदेश २२ ) २२४-किरिय चरो अए धोरो। ( महापुरुप २२ ) २२.-किसए देह मणासणाइहिं ।
( तप २६ ) २२६-कि हिन्साए पसज्जसि ।
( हिंसा ६) २२६-कीलेहिं विज्झन्ति असाहु कम्मा। (प्रकी. ८) २२८-कीवा जत्य य किस्सन्ति, नाइ सगेहिं मुच्छिया ।
त असाहु कम्मा गहि मुच्छियानिष्ट ३४)
२२९--कीवा वसगया गिह । .
( वाल १९) .२३०-कुज्जा साहूहिं सन्थव । . . ( उपदेश, ७० ) २३१-कुप्प वयण पासन्डी, सव्वे उम्मग्ग पट्ठिया। (वाल ३७)
२३२-कुम्मुब अल्लीण पलीण गुत्तो।
(उपदेश ६६ )
mr
m
३-कुररी विवाभोग रसाण गिद्धा, निर? सोया परिताव मेइ।
( काम २४ )
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शब्दानुलक्षी अनुवाद]
[३१७ २१५ --काम-भोग साक्षात् तालपुट विप के समान ही है। - २१६-काम-भोग कठिनाई से त्यागे जाते है । २१७-जिमको काम-भोग ही प्रिय है, उसके दुख शात नहीं होते है।
वह दु.खी हाता हुआ दुखो की आवृत्ति की ही प्राप्त करता
रहता है। २१८-दुख निश्चय ही काम-भोगो में अनुगृद्ध होने से उत्पन्न होते है। २१९--काम-भोगो पर विजय प्राप्त करना वडा ही कठिन है। २२०-काम-भोगो को हटा दो, इससे निश्चय ही दुख भी हट
जायगा। २२१-काम-भोग ससार को वढाने वाले है, ऐसा समझते हुए उन्हे
पतला कर दे - (क्षीण कर दे)। २२२-कायर पुरुष व्रत के नाश करने वाले ही होते है। .. -- २२३-काल-क्रम के अनुसार ही जीवन-व्यवहार को चलावे । । २२४-धीर पुरुप सत् क्रिया का आचरण करने वाला होवे । । - २२५-अनशन आदि तप द्वारा देह को कृश करे। -
२२६-हिंसा मे क्यो उद्यत रहते हो? २२७-नीच कर्म करने वाले कीलो से वीधे जाते है। २२८-ज्ञाति वालो के साथ मच्छित हुए, निर्बल आत्मा वाले. पुरुष
अन्त में घोर दुख पाते हैं। २२९–निर्बल आत्माएँ घर-गृहस्थी के जजाल मे ही फस जाती है । २३०-साधु-सज्जन पुरुपो के साथ सगति और परिचय करो। २३१---कुप्रवचन वाले पाखडी याने मिथ्यात्वीं सभी उन्मार्ग मे ही
स्थित है। - २३२ गुरु आदि के आश्रय मे रहता हुआ कछुऐ के समान अपनी इन्द्रियो
को और मन को सयम में रखने वाला होवे। २३३-काम-मोगो के रसो में गद्ध आत्मा अन्त में निरर्थक शोक करने
वाली कुररी नामक पक्षिणी की तरह परिताप को प्राप्त होती है।
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३१८]
[ मूल-सूक्तियां २३४--कुसग्गे जह ओस विंदुए, एवं मणुयाण जीविय ।
___.( वैराग्य ५) “२३५---कुसग्गे पणुन्न निवइय वाएरियं, एव बालस्स जीविय ।
( वैराग्य ६) २३६---कुसील वड्ढणं ठाण, दूरओ परिवज्जए। ( शील ८) २३७-कूराइ कम्माइ वाले फ्कुव्वमाणे, तेण दुक्खेण समूढे विप्परियास मुवेइ।
( बाल २३ )
२३८--कोलावास समासज्ज वितह पाउरे सए। ( प्रकी ११)
-
२३९--कोहो पीइ पणासेई। "२४०--कोह असच्च कुव्वेज्जा। .
२४१-कोह माण ण पत्थए। - -२४२--कखे गुणे जाव सरीर भेउ । ।
- ( क्रोध १)
(क्रोध ३) ( कपाय २६ ) ( उपदेश ६ )
२४३-खण जाणाहि पडिए । ... ( उपदेश ४५ ) २४४--खण मित्त सुक्खा बहु काल दुक्खा, पगाम दुक्खा अणिगाम सुक्खा ।'
( उपदेश ५२ ) २४५-खन्ती एण परिसहे जिणइ ।
(क्षमा २ ) २४६---खमा वणयाए पल्हायण भाव जणयइ ।- - ( क्षमा ३ ) २४७-खमेह अवराह मे; वइज्जन पुणु त्ति अ । ( सात्विक ३ )
२४८-खवति अप्पाण ममोहदसिणो।
( महापुरुष १८ )
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शब्दानुलक्षी अनुवाद
२३४---जैसे कुशाग्र भाग पर, (घास पर) ओस की विदु अस्थिर होती
है; वैसे ही यह मनुष्य-जीवन मा अस्थिर है । २३५-कुशाग्र पर (ठहरा हुआ) जल बिंदु हवा द्वारा प्रेरणा पाकर
गिर पडता है, वैसे ही वाल जन का, भोगी का जीवन भी नष्ट
हो जाता है । २३६-कुशील को बढाने वाले स्थान को दूर से ही छोड़ दो।। - २३७--मंद बुद्धिवाला क्रूर कर्म करता हुआ और उसके दु.ख से विवेक
शून्य होता हुआ अत मे विपरीत स्थिति को ( राग द्वेप की
स्थिति को ) प्रप्त होता है। २३८-जैसे काठ का कीडा अपना घर काठ मै वनाही लेता है, वैसे ही
आत्मार्थी मिथ्यात्व की खोज करता हुआ सत्य को प्राप्त कर ले। २३९-क्रोध प्रीति का नाश करता है। २४०-क्रोध को असत्य कर दो, याने क्रोध मत करो। २४१-क्रोध की और मान की इच्छा मत करो। २४२-शरीर समाप्ति के अन्तिम क्षण तक भी गुणो की आकाक्षा करते रहो। . .
- -
२४३-हे पडित ! हे आत्मज्ञ ! क्षण को अर्थात् समय के मूल्य को
पहिचानो! २४४-काम-भोग क्षण-मात्र के लिये ही सुख रूप है, जब कि इनका
परिणाम बहुत काल के लिये दुखदाता है । ये अल्प सुख देने
वाले और महान् दुख देने वाले हैं । २४५-(उच्च आत्मा) क्षमा द्वारा परिपहो को जीतता है। २४६--क्षमापना से प्रसन्नता के भाव पैदा होते है । -.... २४७-मेरे अपराध को क्षमा करो, और ऐसा बोले कि "पुन ऐसा
नही होगा।" , . २४८–अमोहदर्शी याने तत्त्वदर्शी अपने पूर्व कर्मों का क्षय कर डालते है।
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२२० ]
[ मूल-सूक्तियां
२४९--खाणी अणत्थाण उ काम भोगा। २५०--खेम च सिव अणुत्तर ।
(काम १३ ) ( मोक्ष १).
२५१-खेयन्नए से कुसला सुपन्ने, अणत नाणी य अणत दसी।
(प्रा म १४) २५२--खति सूरा अरहता, तवसूरा अणगारा, दाण मूरे वेस
मणे, जुद्ध सूरे वासुदेवे । ___( प्रकी ३७) २५३--खति सेविज्ज पडिए ।
(क्षमा १) २५४--खते अभिनिव्वुडे दते, बीतगिद्धी सदा -जए। .
- , , (चारित्र ४)
२५५-गइ लक्खणो उ धम्मो।
(प्रकी २०), २५६-गाढा य विवाग कम्मणो । - - -( कर्म ७) २५७--गिद्ध नरा कामेसु मुच्छिया। (काम २६ ), २५८-गिर च दुटुपरिवज्जए सया, सयाण मज्झे लहइ पससणं।
... ( सत्यादि ४४ ), २५९-गिहे दीव मपासता, पुरिसा दाणिया नरा । ( प्रकी ७ ) २६०-गुणेहि साहू अगुणेहिं असाहू। . ( श्रमण-भिक्षु १६ ) २६१-प्रतिदिए गुत्त बम्भयारी सया अप्पमत्ते विहरेज्ज ।
'(शील २१) २६२-गुत्ते जुत्ते सदा जए आय परे। (योग ८ ) २६३---गुरुणो छदाणुवत्तगा, विरया तिन्न महोघ माहिय ।
(प्रशस्त १९)
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शब्दानुलक्षी अनुवाद ]
३११]
। २४९-काम-भोग निश्चय ही अनर्थो की खान है । . -- . ___ २५०- (मोक्ष) क्षेम स्वरूप है, शिव स्वरूप है और अनुत्तर पदे ' श्रेष्ठ है। २५१-(प्रभु महावीर ) खेदज्ञ याने ससार के दुख सुखको जानने वाले
थे, कुशल और शीघ्र बुद्धि वाले थे, अनत ज्ञानी और सदन्त
दर्शी थे। २५२-क्षमा शूर अरिहंत है, तप शूर अनंगार है, दान शूर कुवेर है - और युद्ध शूर-वासुदेव है।
२५३-पडित याने सज्जन पुरुप क्षमा का आचरण करे । २५४-(आत्महितपी)-क्षमा वाला हो, कषाय से रहित हो, जितेन्द्रिय
हो, अनासक्त हो, आर सदा यत्ना शील हो।
. .
.
. ..
ग
.. -
२५५-धर्मास्तिकाय का लक्षण जीव-पुद्गलो के लिये गति में सहायक
होना है। । २५६-कर्मों का विपाक (फल) प्रगाढ याने अत्यत कडुआ होता है । १ २५७-गृद्ध मनुष्य काम-भोगो में मूच्छित होते है । . 1 २५८-सदा दुष्ट वाणी से दूर ही रहो, इससे (ऐसा आत्मा ) सज्ज
के मध्य में प्रशंसा को प्राप्त करता है। . . २५९-~-गृद्ध पुरुप न तो ज्ञान रूप दीपक को हा देख सकते हैं और न
चारित्र रूप द्वीप को ही प्राप्त कर सकते है । २६०-गुणो द्वारा ही साधु कहा जाता है, और दुर्गुणो से ही असावु
कहा जाता है। २६१–जितेन्द्रिय और गुप्त ब्रह्मचारी सदा अप्रमादी होकर ही विचरे ।
. २६२-आत्म भावना वाला सदा गुप्तिशील, जितेन्द्रिय और यत्ला बाला ... - होवे । । २६३-यह ससार महान् प्रवाह रूप समुद्र के समान कहा गया है, यार
इसकों गुरु की आज्ञानुसार चलने वालो ने तथा पापो से दूर रहने वालो ने ही पार किया है।
। ..
इसकों या
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r
३२२..
[ मूल-सुक्तियां:
( महपुरुष १३ )
२६४ – गुरुं तु नासाययई सं पुज्जो । २६५----गधाणुरत्तस्स नरस्स एव कत्तो सुहं होज्ज कयाइ किंचि ।
( योग १९ )
च
२६६-- चउक्कसायावगए स पुज्जो । २६७ -- चउव्विहा बुद्धी, उप्पइया, वेणइया, णामिया ।
( महापुरुष ९ ) कम्मिया, पारि
( ज्ञान ८ )
२६८ --- चव्विहे कव्वे, गज्जे, पज्जे, कत्थे, गेये । ( प्रकी ४० ) २६९-- चउव्विहे पायच्छित्ते, णाणपायच्छित्ते, दसण, पायच्छित्ते चरित पायच्छित्ते, वियत्त किच्चे पायच्छित्ते । ( तप २५ ) २७०-- चउव्विहे वन्धे, पगइ बन्धे, ठिइ बन्धे, अणुभाव बन्धे, एस बन्धे । ( कर्म २६ ) २७१ -- चउव्विहे सधे, समणा, समणीओ, सावगा, साविगाओ । ( प्रकी ३२. ) २७२ -- चउव्विहे ससारे, दव्व ससारे, खेत्त ससारे, काल ससारे भाव ससारे ! ( संसार १३ ) २७३--चउव्वीसत्यएण दसण विसोहि जणयइ | ( दर्शन १० )
1
२७४-- चउहि ठाणेहि जीवा तिरिक्ष जोणियत्ताए कम्म पग्रेति, माइल्लयाए, नियडिल्लयाए, अलिय वयणेणं, कूडतुल्ल कूडमाणेण । - ( अनिष्ट ३६ )
२७५ - चउहि ठाणेहिं जीवा णेरइयत्ताए कम्म पगरेति, महारंभयाए, महापरिंग्गह्याए पचेदिय वण, कुणिमाहारेण ।
( अनिष्ट ३७ )
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सन्दिानुलक्षी अनुवाद ]
[३२३
२६४ --जो गुरु की आशतिना या अविनय नहीं करता है, वहीं पूज्य है। २६५-गंध रूप विषय में अनुरक्त मनुष्य के लिये जरा भी सुख कैसे
और कब हो सकता है ?
। २६६-जो चारो कषायो से रहित हो गया है, वही पूज्य है । • २६७-चार प्रकार की बुद्धि बतलाई गई है, औत्पातिकी, वैनयिकी,
कार्मिकी, और पारिणामिकी।। २६८-काव्य चार प्रकार का है । गद्य, पद्य, कथा और गेय । ।
२६९-प्रायश्चित चार प्रकार का है :- १ ज्ञान प्रायश्चित २ दर्शन . प्रायश्चित, ३ चारित्र प्रायश्चित और ४ व्यक्तकृत्य प्रायश्चिन । २७०-वध चार प्रकार का है - १ प्रकृति वध, २ स्थिति वध, ३
अनुभाव वंध और ४ प्रदेश वध । - २७१-सघ चार प्रकार का है, १ सोधु, २ साध्वी, ३ श्रावक और ४
श्राविका । २७२--ससार चार प्रकार का है, १ द्रव्य ससार, २ क्षेत्र संसार, ३ काल
ससार, और ४ भाव ससार । -२७३-चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति से दर्शन-विशुद्धि (सम्यक्त्व शुद्धि)
होती है। + १२७४--चार प्रकार के कामो से जीव तिर्यच योनि का कर्म बध करते है
१ माया से, २ ठगने का कार्य करने से, ३ झूठ वचन से, और
४ खोटा तोल खोटा माप करने से । २७५-चार प्रकार के कामो से जीव नरक-योनि का कर्म-बघ करते
है ।१ महा आरंभ से, २ महा परिग्रह से, ३ पचेन्द्रिय जीवो की ! . “घात करने से और ४ मास का आहार करने से ।
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३२४ ]
- [ मूल - सूक्तियां
२७६ - चउहि ठाणेहिं जीवा देवाउयत्ताए कम्म पगरेति, सराग संजमेण, संजमासज़मेण, वालतवो कम्मे, अकाम निज्जराए ।
- ( सद्गुण २४ ) : पगरेति, पगइ
२७७ -- चउहि ठाणेहिं जीवा मणुस्सत्ताए कम्म भयाए, विणीयाए, 'साणुक्कोसयाए, अमच्छरियाए ।
".
f
( सद्गुण २५ )) २७८ -- चत्तारि अवायणिज्जा, अविणीए, विगइप्पडिवद्धे, अविउसविय पाहुडे, मायी । - - ( प्रकी ३४ ), २७९ - चत्तारि आयरिया, आमलग महुर फल समाणे, मुद्दिया . महुर फल समाणे, खीर महुर फल समाणे, खड महुर फल समाणे । ( श्रमण ' ५४ ) २८० ८० - चत्तारि एए कसिणा कसाया, सिंचिति मूलाइ पुणव्भवस्स
}
( कषाय ७ ) -
२८१ - चत्तारि झाणा, अट्टे झाणे, रोद्दे झाणे, धम्मे झाणे, सुक्के ।' झाणे | ( प्रकी ३९ )
. २८२ ——चत्तारि धम्म दारा, खति, मोत्ती, अज्जवे, मद्दवे ।
( धर्म ३६ ).
२८३ – चत्तारि भासाओ भासित्तए, जायणी, पुच्छणी, अणुन्नवणी, पुटुस्स वागरणी । ( सत्यादि ४६ ) ।
31
२८४ - चत्तारि वमे सया कसाए ।
( कपाय - ५ ),
२८५ - - चत्तारि वायणिज्जा, विणीए, अविगइ पडिवद्धे, विउसवियपाहुडे, अमायी । (प्रका ३३ )
२८६——चत्तारि विकहाओ पण्णत्ताओ, इत्थि कहा, भत्त कहा, - देस कहा, राय कहा ।
1
( प्रकी. ३८ ).
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शब्दानुलक्षी अनुवाद
[३२५
२२७६-चार प्रकार के कामो से जीव देव-योनि का कर्म बघ करते ....... " है,-१ सराग सयम. से, २.सयमासंयम से ३ वाल-तपस्या से
और ४ अकामनिर्जरा से। २७७-चार प्रकार के कामो से जीव मनुष्य-गति का कर्म वर्ष करते '' है;-१ प्रकृति की भद्रता से, २ विनीत भाव से, ३ दयालु प्रकृति
से और ४ मात्सर्य भाव नही रखने से। २७८-चार प्रकार के पुरुष वाचना देने योग्य नहीं होते हैं:-१ अवि
, नीत, २ स्वाद इन्द्रिय में गृद्ध, ३ क्राधी आर ४ कपटी।, २७९-चार प्रकार के आचार्य होते है १ आवले के मधुर फ़ल समान,
२ द्राक्ष मधुर फल समान, ३ क्षीर मधुर फल समान और ४ -:.-- खाड मधुर फल समान । - . .
२८०-ये चारो ही परिपूर्ण कपाय, पुन पुन जन्म-मरण की जड़ो को 3. , .सीचते रहते है।। . २८१-ध्यान चार प्रकार का है, आत्तं ध्यान, रौद्र ध्यान, धर्म-ध्यान, ... .. और शुक्ल ध्यान । . . . . . . •~ ..२८२-चार,प्रकार के धर्म द्वार है-१क्षमा, २ विनय,-३ सरलता,
__ और ४ मृदुता याने सतोष ।-:- .-. ; २८३-चौरे प्रकार की भाषा कही गई है -१, याचनिका, २ पृच्छ
निको, ३ अवनाहिका और ४ पृष्ट-व्याकरणिका । २८४-चारो कपाय सदा छोड़ने योग्य है। २८५-चार प्रकार के पुरुष वाचना देने के योग्य होते है -१ विनीत, . .. २ स्वाद-इन्द्रिय में अगुद, ३ . क्षमा-शील और ४ सरल. हृदय
वाला। २८६-~-चार प्रकार की विकथाएँ कहीं गई है -१-स्त्री. कथा, २
भोजन कंघा, ३ देश कथा और ४ राज कथा ।
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३२६ ]
मूल- सूक्तियां
२८७ -- चत्तारि समणो वासगा, अद्दागसमाणे, पडाग समाणे, वाणु समाणे, खर कट समाणे ।
( महापुरुष ४९
२८८ - चत्तारि समणोवासगा, अस्मापिइ समाणे, भाइ समाणे, मित्त समाणे, सवत्ति समाणे । ( प्रकी ३५ )
It
२८९ - चत्तारि सूरा, खंति सूरे, तव सूरे, दाण सूरे, जुद्ध सूरे । ( प्रकी ३६ )
२९० - चरिज्ज़ धम्म जिण देसिय विऊ । ( धर्म २८ ) २९१–चरित्त सपन्नयाए सेलेसी भाव जणयइ । ( प्रशस्त १० )
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।
२९४— चरेज्ज अत्तगवेसए । २९५ – चरे मुणी सव्वउ विप्पमुक्के | २९६—चरे मुणी सव्वतो विप्पमुक्के । २९७ -- चिच्चाण पंतग सोय, निरवेक्खो
I,
२९२ -- चरितेण निगिण्हाइ |
२९३--चरियाए अप्पमंत्तो पुट्ठो तत्थ अहियासए ।
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( चारित्र २ )
( उपदेश ११ )
( कर्तव्य १३ )
12 ( श्रमण - भिक्षु २९ )
( श्रमण - भिक्षु ३१ ) परिव्वए
( श्रमण- भिक्षु, ४५ )
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२९८ - चिच्चा वित्त च णायओ आरभ च सुसवुड़े चरे ।
( महापुरुष ३३ )
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२९९ - छक्काय ओहिया, णावरे कोइ विज्जई । ( प्रकी. २४ )
1
३०० - छन्द निरोहेण उवेइ मोक्खं ।
( अनिष्ट ४० )
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शब्दानुलक्षी अनुवाद ]
[३ . २८७-चार प्रकार के श्रमणापासक याने श्रावक कहे गए है -१ दर्पफ
समान, २ पताका समान, ३ स्थाणु समान, आर ४ खर कंटक
'समान । २८८-चार प्रकार के श्रमणोपासक याने श्रावक कहे मए है:-मका
पिता समान, २ भाई समान, ३ मित्र समान और ४ श् समान ।
. २८९-चार प्रकार के शूर कहे गये है --१क्षमा शूर, २ तप शूर,
३ दान शुर और ४ युद्ध शूर ।। २९०--विद्वान् पुरुष जिन भगवान द्वारा उपदिष्ट धर्मका आचरण करे । २९१-चारित्र की संपन्नता से सेलेशी भाव (चौदहवे गुणस्थान में होने
वाली स्थिति विशेष) की उत्पत्ति होती है। २९२--चारित्र द्वारा ही आश्रव का निरोध किया जा सकता है। २९३-चारित्र मे अप्रमत्त शील होता हुआ उसके ( चारित्र के ) साई
में आने वाले उपसर्गों को धैर्य के साथ सहन करता रहे । २९४-आत्मा का अनुसधान करने वाला चारित्र शील हो । २९५-सब तरह से प्रपच से दूर रहता हुआ मुनि जीवन-व्यवहार चला।
२९६-सब प्रकार से विप्रमुक्त होता हुमा मुनि जीवन-व्यवहार चलादे। . २९७-(साधु ) आतरिक शोक का परित्याग करके निरपेक्ष हाता
हुआ परिवजा शील हो। २९८-( सज्जन ) धन को, ज्ञाति जनो को और आरभ को छोड़कर
सुसवृत्त याने आत्म निग्रही होता हुआ विचरे ।
२९९-काय (जीव-समूह) छः प्रकार का कहा गया है। इसके अतिरिक्त
अन्य (काय) कोई नही पाया जाता है। ३.०--विषयो के प्रति आसक्ति का निरोध करने से मोक्ष की प्राप्ति
-, होती है।
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२२८ ]
[ मूल सूक्तियाँ
३०१ -- छन्नं च पसंस णो करे, न य उक्कोस पगास माहणे ।
( कपाय २२ ) ३०२ - छव्विहे भावे, उदइए, उवसमिए, खइए, खयोवसमिए, पारिणामिए सनिवाइए ।
३०३ - छिदाहि दोस विणएज्ज राग । ३०४ – छिदिज्ज सोय लहुभूयगामी ।
३०५ - छिन्न सोए अममे अकिंचणे ।
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( प्रकी. ४४ )
( कषाय १ )
( उपदेश ९२ )
( उपदेश ७९ )
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३०६–जग णाहो जग बंधू, जयइ जग प्पिया महो भयव i
( प्रा. म १२ )
३०७ - जत्थ य एगो सिद्धो, तत्थ अणता । ३०८ - - जमठ्ठे तु न जाणिज्जा एव मेअ ति नो
( मोक्ष १४ ) वए ।
( सत्यादि २१ )
३०९–जम्म दुक्ख जरा दुक्ख दुक्खो हु ससारो । ( ससार १ )
३१०-जयइ गुरु लोगाण जयइ महप्पा महावीरो ।
( प्राम, ९ )
३११ – जयइ जग-जीव-जोणी-वियाणओ, जग-गुरू, जगाणदो ।
-
( प्रा म १३ )
३१२-जयइ सुआण पभवो, तित्थयराण अपच्छिमो जयइ ।
( प्रा. म. १० ) ३१३ - जय सघ चद । निम्मल सम्मत्त विसुद्ध जोहागा । ( प्रशस्त २४ )
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शब्दानुलक्षी अनुवाद ]
[ ३२९
३०१ - विवेकी, छन्न याने माया, प्रशस्य याने लोभ, उत्कर्षं याने मान, और प्रकाश याने काव नही करे ।
३०२- भाव छ. प्रकार के हैं; १ - औदयिक, २ औपशमिक, ३ क्षायिक, ४ क्षायोपशमिक, ५ पारिणामिक और ६ सोन्निपातिक
'३०३—— द्वेष को काट डालो और राग का हटा दो ।
- ३०४ - शीघ्र ही मोक्ष में जाने की इच्छा रखने वाला शोक - सताप को काट डाले, (इन्हें) दूर कर दे ।
३०५ - ( आत्मार्थी ) छिन्न शोक वाला, ममता रहित और अकिंचन धर्म वाला होवे ।
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३०६ -- जो जगत् के नाथ है, जो जगत् के बघु है, जो जगत के पितामह है, ऐसे भगवान् महावीर स्वामी जय शील हों ।
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३०७ - जहाँ एक सिद्ध है, वही अनेक याने अनत सिद्ध भी है । . ३०८ - जिस अर्थ को तुम नही जानते हा, उसको "ऐसा ही है" इस प्रकार मत बोलो ।
३०९–यहाँ पर जन्म का दुख है जरा याने वुढापे का दुःख हैं, इस प्रकार ससार निश्चय ही दुखो का समूह ही है ।
३१० – ससार के गुरु, महान् आत्मा, प्रभु महावीर जय - शील हो । सदैव इनकी जय-विजय हो ।
२३११ - जगत् की जीव-योनि के ज्ञाता, जगत् गुरु, जगत् को आनद देने . वाले भगवान् महावीर स्वामी जयशील हो ।
1, ३१२ –– सभी ज्ञान-विज्ञान के उत्पादक और तीर्थंकरो मे चरम तीर्थंकर; - ऐसे देवाधिदेव महावीर स्वामी जय शील हो । -
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३१३ – निर्मल सम्यक्त्व रूप विशुद्ध चादनी वाले हे सघ रूप चन्द्रमा ! तुम्हारी जय हो । विजय हो ।
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३३०
.., [मल-सूक्तियां
- ३१४-जय चिठे मिअ भासे ।
(उपदेश ७) ३१५-जरा जाव न पीडेइ, ताव धम्म समायरे ।
(उपदेश,२३) ३१६-जरामच्चुवसोवणीए नरे, सयय मूढे धम्म नाभिजाणइ ।
(बाल, ३४) ३१७-जरोवणीयस्स हु नत्थि ताण । . . (उपदेश ३७ ) ३१८-जवा लोहमया चेव चावेयव्वा सुदुक्कर । ( चारित्र ५) ३१९-जहा कड कम्म तहा से भारे। (कर्म २१) ३२०-जहा य किम्पाग फला मणो रमा, ए ओवमा काम गुणा विवागे।
(काम-२२) ३२१--जहारिह मभि गिज्झ आ लविज्ज' लविज्ज वा ।
( सत्यादि ४५). ३२२---जहा लाहो तहा लोहो लाहा लोहो पवड्ढई । (लोभ-४)
३२३-जहा से दीवे असदीणे एव से धम्मे आरिय पदेसिए।
(वर्म २०) ३२४- 'जाइ सद्धाइ निक्खत्तो तमेव अणुपालिज्जा। (कर्त्तव्य ३-). ३२५-जाए सद्धाए निक्खतो, तमेव अणुपालिज्जा ।
(कर्तव्य ११) ३२६-जा जा दिच्छसि नारीओ, अट्ठि अप्पा भविस्ससि।।
(पील २५) ३२७-जाया य पुत्ता न हवन्ति ताणं। (वैराग्य १४ ) -३२८-जाव इदिआ न हायति, ताव धम्म समायरे। । -
(उपदेश २४)
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शब्दानुलक्षी अनुवाद ]
३१४-यत्ना पूर्वक बैठे और परिमित बोले। , . . .३१५---जब तक वुढापा पीड़ा पहुंचाना प्रारम नही कर दे, तब तक-धर्म . का आचरण कर लो। ३१६–बुढापा और मृत्यु के चक्कर में फसा हुआ, सदैव मूढ बनता
हुआ मनुष्य, धर्म को नहीं समझ सकता है। ३१७-बुढापे को प्राप्त हुए जीव के लिये निश्चय ही रक्षा का साधन ।
नही है । ३१८-जैसे लोहे के, जौ चवाना अत्यंत कठिन है, उतना ही कठिन
सयम मार्ग है। ३१९-जैसा कर्म किया है, वैसा ही उसका भार समझो। . ३२०-जैसे किपाक फल मनोरम होते है, यही उपमा फल के लिहाज
से काम भोगो की समझनी चाहिये। ३२१-यथा योग्य स्वीकार करके आलाप-सलाप करें, बात चित करे।
३२२-ज्यो ज्यो लाभ, त्यो त्यो लोभ, लाभ लोभ की वृद्धि करता
रहता है। ३२३-जैसे समुद्र मध्य में शरण भूत द्वीप है; वैसे ही ससार समद्र में
अरिहंतो द्वारा उपदिष्ट यह धर्म है। ' -३२४-जिस श्रद्धा के साथ धर्म मार्ग पर-निकले, उसी अनुसार - उसका - . अनुपालन करे.
. . . . . . . . . ३२५ ---जिस श्रद्धा के साथ निकले, उसी के अनुसार अनुपालन करे ।
३२६-काम-भावना से जिस जिस नारी की ओर देखोगे, उतनी ही बार
आत्मा अस्थिर होगी। । ३२७-कर्म-फल भोगने के समय स्त्री और पुत्र रक्षक नहीं हो सकेंगे।
३२८-जब तक इन्द्रियां हीन नही होवें; तब तक धर्म का आचरण
कर लो।
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३३२]
मूल-सूक्तियां ३२९–जिइदिए जो सहँइ, स पुज्जो। । । (महापुरुष ८ ) ' '३३०-जिइन्दिो सव्वओ विप्पमुक्के, अणुक्कसाई से मिक्खू ।
श्रमण-भिक्षु ७) "' ३३१–जिण, भक्खरो करिस्सङ्, उज्जोय सव्व. लोगम्मि 4 . . पाणिणं .. .
(प्रशस्त ७) ३३२--जिणो जाणइ केवली।
( ज्ञान ९) ' । ३३३--जीवियए वह पच्च वायए, विहुणा हि रय पुरे कडें ।
(उपदेश, ६३) ३३४-जीवियं चेव रूव च, विज्जु सपाय चंचल । ( अनित्य १)
३३५-जीविय दुप्पड़ि वूहग । . .. ( भोग १३) . ३३६--जीविय नाभिकोज्जा, मरण नो. वि पत्थए ।
( वैराग्य २१ ) . ३३७-जीविय नावक खिज्जा, सोच्चा धम्म मणुत्तर ।
: । (धर्म २४ ) ! .. ३३८--जीवो उवओग लक्खण ।
(प्रकी १८) ३३९-जीवोपमाय बहुलो।
(उपदेश ३२) ३४०-जुद्धारिह खलु दुल्लह ।
(दुर्लभः १३ ) ३४१-जे अज्झत्थ जाणइ, से बहिया जाणइ, जे वहिया जाणइ, से अज्झत्थ जाणइ ।
(आत्मा ६) ३४२-जे अणन्न दसी से अणण्णारामे, जे अणण्णारामे से ' - अणन्नदसी।
(महापुरंप ४८) ३४३-जे आया से बिन्नाया, जे विन्नाया से आया । (आत्मा. ५) .. ३४४-जे आसवां ते परिस्सवा, जे परिस्सवा ते आसवा ।
, (सद् गुण १३)
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शब्दानुलक्षी अनुवाद]
३३३. '. ३२९–जितेन्द्रिय होता हुआ जो उपसर्गो को सहता है। वही पूज्य है । ३३०–जो जितेन्द्रिय है, जो सव प्रकार से परिग्रह से मुक्त है, जो कषायों
को पतला करने वाला है, वही भिक्षु है। ३३१-सारे लोक में प्राणियो के लिये जिन-याने तीर्थंकर रूप सूर्य ही - (ज्ञान-दर्शन का) उद्योत करेगे। । “३३२-जिन रूप केवली ही सब कुछ जानते है । .. ३३३–यह जीवन अनेक विघ्न बाधाओ से परिपूर्ण है, इसलिये शी
ही पूर्व कृत कर्मों का नाश कर दो। . '३३४—यह जीवन और रूप-यौवन विद्युत की चमक के समान चचल है ।।
३३५—यह जीवन-(आयु) वढाया जा सके, ऐसा नही है । ' ३३६-(महापुरुष) न तो जीवित रहने की आकांक्षा करे और न मृत्यु
की वाछा करे । । । .... ३३७-श्रेष्ठ धर्म का श्रवण करके (भोगों के लिये) जीवन की आकांक्षा
नही करे। ३३८--उपयोग याने ज्ञान ही जीव का लक्षण है। "३३९-(स्वभाव से ही) जीव बहुत प्रमादी है।
३४०-आर्य-युद्ध याने कपायो से युद्ध करना बहुत ही दुर्लभ है। ३४१-जो आतरिक को जानता है, वही वाह्य को भी जानता है, और
जो बाह्य को जानता है, वही आतरिक को भी जानता है। ३४२-जो अनन्य दी है, वही अनन्य आराम वाला है, और जा अनन्य ... आराम वाला है, ही अनन्य-दर्शी है । - ३४३-जो आत्मा है, वही ज्ञाता है, और जो ज्ञाता है, वही आत्मा है।
३४४- (ज्ञानी के लिये) जो आश्रव-स्थान है, वे ही सवर स्थान हो न जाते है, इसी प्रकार (अज्ञानी के लिये) जो सवर स्थान है, वे . .. ही आश्रव-स्थान हो जाते है । ,
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३३४]
1
[ मूल-सूक्तिमां
३४५--जे इन्दियाण विसया मणुन्ना, न तेसु भाव निसिरे
( योग ११)
क्याइ | ३४६–जे इह आरंभ निस्सिया आत दंडा ।
( अनिष्ट २० )
1
३४७ - जे इह मायाइ मिज्जई, आगंता गब्भाय णतसो ।
V
( कषाय १५ ) ३४८ - जे एगं जाणइ, से सव्वं जाणइ, जे सव्व जाणइ, से एग ( ज्ञान १३ ) ३४९ - जे एग नामे से बहु नामे, जे वहु नामे, से एग नामे ।
जाणइ ।
( सात्विक १७ )
( श्रमण - भिक्षु ५ )
३५० - जे कम्हि विन मुच्छिए स भिक्खू । -३५१ - जे कोह दसी, से माण दसी ।
( कषाय २७)
३५२ - जे गरहिया सणियाणप्पओगा, ण ताणि सेवति सुधीर ( महापुरुष ४६ ) ३५३ -- जे गारव होइ सलोगगामी, पुणो पुणो विप्परियासुवेति ।
धम्मा ।
( अनिष्ट ३ )
३५४-- जे गुणे से आवट्टे, जे आवट्टे से गुणे |
( भाग ९ )
३५५–जे गुणे से मूल ट्ठाणे, जे मूलट्ठाणे से गुणे । ( भोग ११)
३५६ – जेण वियाणइ से आया ।
( आत्म ३ )
३५७--जे णिव्बुया पावेहिं कम्मे हि अणियाणा ते . वियाहिया ।
( महापुरुष ३६ ) ३५८ - जे दूमण ते हि णो णया, ते जाणंति समाहि माहिय । ( योग - ३ ) ३५९--जे घम्मे अणुत्तरे तं गिण्ह हियति उत्तम । ( धर्म २६ )
1
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ब्दानुलक्षी अनुवाद]
। ३३५
__ . ३४५--इन्द्रियों के जो मनोज्ञ विषय है, उनमें कभी भी चित्तं को संलग्न ! मत करो। । ३४६-~जो यहाँ पर "आरंभ" में ही सलग्न हो गये है; वे अपनी आत्मा
के लिये दड सग्रह कर रहे हैं। ३४७-जो यहाँ पर माया में डूब जाता है, वह अनन्त वार गर्भ में आने
वाला है। , ३४८-जो एक को जानता है, वही सभी को जानता है, और जो सभी
को जानता है, वही एक को भी जानता है। ३४९—जिसने एक (माहेनीय का.) क्षय कर दिया है, उसने वहत . (कर्मों) का क्षय कर दिया है, और जिसने वहत का क्षय कर
दिया है; उसने एक का भी क्षय कर दिया है। , ३५०-जो किसी में भी मूच्छित नही होता है, वही भिक्षु है।
३५१–जो क्रोध करने वाला है, वह मान करने वाला भी है। . ३५२-जो (क्रियाएँ) निंदनीय है और (जो क्रियाएँ) नियाणा पूर्वक की
- जाती हैं, उनकान्सुधीर धर्म वाले आचरण नहीं करते है। .३५३--जो अभिमान करता है और अपने यश की इच्छा करता है, वह
बार बार विपरीत सयोगो को प्राप्त करता है। ३५४-जो गुण याने विषय वासना है, वही आवतं याने ससार है, और । ८ जो आवर्त्त है, वही गुण (विषय वासना) है। । ३५५-जा गुण (विषय-वासना) है, वही मूल स्थान (कषाय) है। है और जो मूल स्थान हैं, वहीं गुण है।
. - : ३५६-जिसके आधार से ज्ञान होता है, वही आत्मा है। ___ ३५७-जो पाप कर्मों से निवृत्त हो गये हैं, वे ही 'अनिया'" वाले
कहे गये है। - ३५८-जो शब्द आदि इन्द्रियों के विषय है। उन विषयो में -जो नहीं
प्रविष्ट हुए है, वे ही विख्यात समाधि को जानते हैं। . ३५९-जो धर्म श्रेष्ठ हैं, ऐसे हितकारी उत्तम धर्म को ग्रहण करो।
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३३६ ]
-: [ मूल-सूक्तियां ३६०-जे न वदे न से कुप्पे, वदिओ न समुक्कसे... .
... ( उपदेश ६५ ), ३६१--जे माण दसी.से माया दसी। -- (पाय १६ ) ३६२–जे य बन्ध पमुक्ख मन्नेसी, कुसले पुणो नो बड़े नो मुक्के ।
____ (महापुरुष ३९ ३६३-जे विन्नवणा हि ऽजोसिया सतिन्नेहि सम वियाहिया।
( शील ५) ३६४-जो, वोवती.लूसयती व वत्थं, आहाहु सेणागणियस्स दूरे,
· · · । . . . (श्रमण-भिक्षु ४६ ) ३६५--जो परिभवई परं जण, ससारे परिवत्तई मह ।।
(अनिष्ट १२) ३६६-जो राग दोसेहिं समो स पुजो। ( महापुरुष १२ ) ३६७-~-जो विग्गहीए अन्नाय भासी, न से समें होइ अझंझपत्ते ।। . . ::
(कपाय ३७ ) ३६८–ज किच्चा णिब्बुड़ा एगे निद्रं पावति पडिया। .. 1 -
- . (उपदेश २१ ) ३६९-ज छैन्न तं न वत्तव्ब ।
( सत्यादि १४ }, ३७० जारिसं पुन्व मकासि कम्म, तमेव आगच्छिति संपराए।
" ( कर्म २२ )। .३७१-ज मरगहा वाहिरिय विसोहि, न त सुइट्ठ कुसला वयन्ति।
. , ( वाल ९) ३७२-जं मयं सन्द साहूण, तं मय सल्लगत्तण । ( उपदेश ३७३–ज बदित्ता अणुतप्पती। . ( सत्यादि ५१ )
.
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शब्दानुलक्षो अनुवाद ]
[३३५ ..३६०-यदि कोई वदना नही करे तो क्रोधित नहीं हो जाय, इसी प्रकार
.... वंदना किया जाने पर हर्षित भी न हो।. . . . . । ६६१-जौ मान करने वाला है, वह माया करने वाला भी है। ३६२--जो वध और मोक्ष के कारणो का अनुसधान करने वाला है,
। वह कुशल है, उसके पुन वध नहीं होने वाला है और वह , अमुक्त होता हुआ भी शीघ्र मुक्त हो जाने वाला है। ३६३---जो स्त्रियो द्वारा सेवित नहीं है, याने पूर्ण ब्रह्मचारी हैं, वे सिद्ध
पुरुषो के समान ही कहे गये है। . . ३६४-जो-(शृंगार भावना से) वस्त्र को घोता है, अथवा छोटा बड़ा - करता है, वह निग्रंथ अवस्था से दूर कहा गया है। ३६५-जो दूसरे मनुष्य का अपमान करता है, वह ससार में नगर वार - - - ---परिभ्रमण करता है। .
. . . . ३६६–जो राग और द्वेष से शान्त हो गया है, इनसे दूर हो गया है।
7 वह पूज्य है। ३६७—जो विग्रह-(लडाई झगडा) करता रहता है; और अन्याय व्यक्त
बोलता है, वह न तो शाति प्राप्त कर सकता है, और न कोम
'माया से रहित ही हो सकता है। ३६८ -- जिस (सत् आचरण को) करके. अनेक निवृत्त हुए है, उसी
आधार से पडित सिद्धि को प्राप्त करते हैं। ... : ३६९-जो गोपनीय हो, उसे नहीं बोलना चाहिये। ३७०-जिसने जैसे पूर्व में कर्म किये हैं, वैसा ही ससार में उसको फल
प्राप्त होता है। ..... ३७१-जो वाद्य विशुद्धि की ही खोज करते हैं, उसको पडित "सुइष्ट' . याने वाछनीय नही कहते है। ३७२-जो सिद्धान्त सभी साधुओ द्वारा मान्य है, वही, सिद्धान्त, क
को (माया, नियाणा, मिथ्यात्व को) छेदने वाला है। ३७३ --जिसको वोल कर पछताना पड़े । (वह मत बोलो)
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मल-मूक्तियाँ
१३८
३७४-- सेयं तं समायरे ।. . ३७५-ज हंतव्य तं नाभिपत्यए। -
हवत नामपत्याए । -
.
( उपदेश ५ )
(उपदेश ३५)
'. ३७६-- झाण जोग समाहट्ट कार्य विउसेज्ज सब्यसो ।
( योग २७ )
, ३७७-उज्झमाण न बुज्झामो, रागद्दोसग्गिणा जग ।
( संसार ४)
, ३७८-ण कत्यई भास विहिंसइज्जा । (श्रमण-मिक्ष ३८) ३७९---णच्चा धम्म यणुत्तर कय किरिए ण यावि मामए।
(धर्म २५) ३८०-ण पंडिए अगाणि समारमिज्जा । (हिंसा ७) ३८१---ण मिज्जई महावीरे ।
( सात्विक ११)
३८२-णमो तित्ययराणं। . . (प्रा म. १) ३८३-णमो सिद्धाणं ।
. (प्रा. मं २) , ३८४-ण य सखय माहु जीवित, तह वि य वाल जणो पगभई।
(वैराग्य ७) .-३८५-ण यावि पन्ने परिहास कुज्जा । (सात्विक ९) ३८६-~णाति वेलं वदेज्जा।
( सत्यादि ३९ ) ३८७---णालं ते तव ताणाए वा सरणाए वा, तुमं पि- तेसि
‘णाल ताणाए वा सरणाए वा । ( वैराग्य १७ )
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शब्दानुलक्षी अनुवाद ]
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३७४ - जो श्रेय हो, कल्याणकारी हो, उसीका आचरण करो ।
1
३७५ -जो मारने योग्य है, उसकी आकाक्षा नही करे 1
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३७६—घ्यान योग का आचरण करके सब प्रकार से काया को अनिष्ट प्रवृत्ति से दूर कर दो ।
[ ३३९
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३७७ – राग और द्वेष रूपी अग्नि से जलते हुए ससार को हम नही समझ रहे है | ( यह आश्चर्य है | )
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. ३७८ - वह भाषा नहीं कही जाय, जो हिंसा पैदा करने वाली हो ।
1
३७९ -- अनुत्तर- ( श्रेष्ठ ) धर्म को जान कर क्रिया करता हुआ ममत्व भावना नहा रखे ।
३८० - पंडित अग्नि सववी समारंभ नहीं करे ।
二
. ३८१ – महान् शूर वीर, महापुरुष वार वार जन्म मरण नही करता है ।
२ ३८२ - तीर्थंकरो के लिये नमस्कार हो ।
। ३८३ - सिद्धो के लिये नमस्कार हो ।
३८४ - टूटा हुआ जीवन पुन नही जोडा जा सकता है, फिर भी बालजन पाप करता ही रहता है ।
३८५ - प्रज्ञावान् पुरुष किसी की भी हंसी मजाक नही करे ।
३८६ – लम्बे समय तक वार्तालाप नही करे ।
(३८७-- ( हे आत्मा'' ) तेरे लिये वे, (ज्ञाति जन ) न तो सरक्षक हो • सकते हैं और न शरण दाता ही । इसी प्रकार तुम भी उनके लिये न तो सरक्षक और न शरण दाता ही हो सकते हो ।
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२४०
:- [ मूल-सूक्तिया
३८८ - क्खिसम्म से सेवइ अगारि कम्मं, प से पारए होइ
विमोयणाए ।
- (भोग-१), ३८९ - णिच्छिण्ण सव्व दुक्खा जाइ जरा मरण वंधण - विमुक्का },
३९२ - व वफेज्ज सम्मय ।
३९३ – णो कुज्झे णो माणि । ३९४ - णो जीवितं णो मरणाहि कखी ।
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३९० -- द्दि पि नोपगामाए । ३९१ - णीवारे व ण लीएज्जा, छिन्न सोए अणाविले
( मोक्ष ८) ( अनिष्ट ३२ )
( महापुरुष ३७ )
( सत्यादि २६ )
( कषाय २५)
( कर्त्तव्य ४ )
[
३९५ - णां तुच्छए णो य विकथइज्जा ।
।
( श्रमण- भिक्षु ३९ )
३९६ – णो निग्गथे इत्थीणं इन्दियाइ मणोहराइ, मणोरमाइ आलोएज्जा, निज्झाएज्जा ।
( शील २३ ) ३९७ – णो निग्गंथे इत्थीण पुव्व रयं पुष्व कीलियं अणुसरेज्ज ।
"
( शील १३ )
४०३—तओ दुसण्णप्पा, दुट्वें, मूंढे, वुग्गाहिए
1
३९८ - णो निग्गंथे पणीय आहारं आहारेज्जा । ( शील ३० ) ३९९—णो निग्गंथेविभूसाणुवादी हविज्जा । ( श्रमण - भिक्षु २२ )
- ४०० -- णो पूयणं तवसा आवहेज्जा ।
( तप ११ )
४०१ - णो सुलभ वोहिं च आहिय ।
( दुर्लभ ५ )
त
४०२ - तओ गुत्तीओ पण्णत्ताओ मण. गुत्ती, वय गुत्ती, काय गुत्ती ।
( योग २८ )
( प्रकी. ३० )
८
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शब्दानुलक्षी अनुवाद ]
[ ३४१
३८८—जो संसार का परित्याग करके भी गृहस्थ जैसे ही कर्म करता है,
वह ससार से मुक्ति पाने के लिए पार नही जा सकता है । ३८९–सिद्ध प्रभु संभी दुखो से पार हा गये हैं तथा, जन्म, जरा,मृत्यु और बधन से विमुक्त हो गये है ।
-३९० - बहुत निद्रा मी मत लो ।
IK
३९१-छिन्न शोक वाला, कपाय रहित ( आत्मा ) धान्य के प्रति ( सूअर की तरह) काम- -भोगो की तरफ आकर्षित नही होवे ।
`३९२ – मर्मघाती बाक्य नही बोले । -३९३—न क्रोव करें और न मान करे ।
7
-३९४ – ( अनासक्त महापुरुष ) न तो जीवन की आकाक्षा करे और न मृत्यु की ही आकांक्षा करे
I
३९५ - ( ज्ञानी) तो अपने का तुच्छ समझे और न अपनी प्रशंसा करे । '३९६—–—निग्रथ स्त्रियो के मनोहर और मनोरम अंगोपाग रूप इन्द्रियो को न तो देखे और न उनका चिंतन करे ।
- ३९७ – निर्ग्रथ स्त्रियो के साथ पूर्व काल में भोगे हुए भोगो को याद नही करे ।
३९८ – निग्रंथ सरस आहार नही करे ।
३९९--निग्रंथ शृंगार वादी नहीं हो ।
f
४००--तप द्वारा पूजा-प्रतिष्ठा की इच्छा मत करो
२४०१ – सम्यक् ज्ञान " सुलभ रीति से प्राप्त होने योग्य" नही कह । गया है ।
त
— ४,२–तीने प्रकार की गुप्तियाँ कही गई हैं, मन गुप्ति, वंचन गुप्ति, और काया गुप्ति ३
४०३ - तीन प्रकार की आत्माएं मुश्किल से समझाये जाने योग्य है. --१ दुष्ट, (२) मुंडे और ( ३ ) दुराग्रही |
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३४२]
. [ मूल-सूक्तियाँ __४०४-तओ सुग्गया, सिद्ध सुग्गया, देव सुग्गया, मणुस्स सुग्गया।
... ( प्रकी ३१ ) ४०५-तओ सुसन्नप्पा, अदुठे, अमूढ़े, अबुग्गाहिए। (प्रकी २९) ४०६-तण्हा हया जस्स न होइ, लोहो, लोहो हओ जस्स न किंचणाई। .
(सद्गुण ८) ४०७-तमेव सच्च नीसक, ज जिणेहिं पवेइय । (उपदेश १)
( तप २)
४०८-तरुण ए वास सयस्स तुट्टती, इत्तर वासे य वुज्झह ।
( वैराग्य ८) ४०९-तवसा धुणइ पुराण पावग । ., ४१० तवेण परिसुज्झई।
(तप ३) ४११–तवेण वोदाण जणयइ ।
( तप ६) ४१२-तवेसु वा उत्तम बंभचेर ।... ' (शील १) ,४१३–तवो गुण पहाणस्स उज्जमइ ।
(तप ४) ४१४-तव कुव्वइ मेहावी।
(तप ५) ४१५-तव चरे।
. . (तप १) ४१६--तस काय समारभ जाव जीवाइ वज्जए। (. अहिंसा २३) ४१७-तसे पाणे न हिंसिज्जा ।
(अहिंसा ५) ४१८--ताइणो परिणिव्वुडे । । । ( अहिंसा २० ) ४१९ -ताले जह वधण-चुए एव आउखयमि नुट्टती। ४२०-तिण्णो हु सि अण्णवं मह, कि पुण-चिट्ठसि तीर मागओ।
उपदेश ४) ४२१-तिव्वलज्ज गुणव, विहरिज्जासि । (अनिष्ट ८) ४२२-तिविहा उवही, सच्चित्ते, अचित्ते, मीसए। (अनिष्ट ३९)
. (वैराग्य ९)
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शब्दानुलक्षी अनुवाद ]
[ ३४३
४०४ - तीन प्रकार के सद्गत जीव है, - ( १ ) सिद्ध सा ( २ ) देव सद्गत, (३) मनुष्य सद्गत |
सरलता से
४०५ - तीन प्रकार की आत्माएँ
(१) अदुष्ट, (२) अमूढ और (३) ४०६ - जिसकी तृष्णा नष्ट हो गई है, उसके
शिक्षा देने योग्य
अनाग्रही ।
लोभ नही होता
जिसका लोभ नष्ट हो गया है, उसके परिग्रह नही होता है - उसी को सत्य और निश्शंक समझो, जो कि जिन वीतराग देव रा कहा गया है ।
४०७
४०८ - सौ वर्ष की आयु वाले पुरुष की आयु भी तरुण अवस्था में जाया करती है, अत यहाँ पर अल्प कालीन वास ही समझो । ४०९-तप द्वारा पुराने पाप की निर्जरा होती है । ४१०--तप से आत्मा विशेष रीति से शुद्ध होती है ।
.
४११ - तप से निर्जरा पैदा होती है ।.
t
४१२ - सभी तपो में सर्व श्रेष्ठ तप ब्रह्मचर्य ही है । ४१३-तप रूप प्रधान गुण वाले की मति सरल होती है । ४१४ - मेघावी पुरुष तप करता है ।
४१५-तप का आचरण करो ।
४१६—त्रस काय का समारंभ जीवन पर्यंत के लिये छोड दो 1 ४१७ - त्रस प्राणियो की हिंसा मत करो ।
- ४१८ - अभय दान देने वाले ससार से पार उतर जाते है ।
४१९——जैसे वघन से गिरा हुआ ताड़ फल टूट जाता है, वैसे ही हुष्य के क्षय होते ही प्रणी - ( पर लोक को चला जाता है ।)
L
४२० - निश्चयही महान् ससार रूप समुद्र तो तैर गये हो, फिर किनारे तक पहुचे हुए होकर ठहरे हुये हो ।
४२१- -गंभीर लज्जा शील होकर विचरो ।
४२२ - उपधि तीन प्रकार की है
सचित्त, अचित्त और मिश्र
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३४४ ]
४२३ - तिविहेणा वि पीण माहणे । ४२४–तिविहे भगवया वम्मे, सुमहिज्जिए, सुज्झाइए,
सुतवस्सिए ।
मूल- सूक्तियाँ
( योग २६ )
'
४२५ - तुम तुम ति अमणुन्न, सव्वसो त ण वत्तए । -
- (वर्म ३५)
( सत्यादि १६ )
४२६ - तेसि पि तवो ण सुद्धो निक्खता जे महाकुला ।
( अनिष्ट ३३ )
४२७-तं ठाणं सासय वान, ज सपत्ता न सोयन्ति । (मोन १९ )
थ ४२८–द्धे लुद्धे अणिग्गहे अविणी ।
४२९ - यणति लृप्पति तस्संति कम्मी | ४३० - यम्मा कोहा पमाएण, रोगेणा सिक्खा न लभई । ४३१-यव थुइ मंगलेण नाण दसण चरित वोहिलाभं जणयइ ।
( धर्म ३२ ) ( शील १२ )
४३२ — थी कं तु विवज्जए ।
लस्सएण य
४३४~~दया धम्मस्सं खतिए, विप्पसीएज्ज मेहावी ।
( काम ३७)
( अंकी ९)
( काम ३६ )
४३३ - दद्धो पक्को अ अवसो, पाव कम्मेहि पाविओ ।
( आत्मा १७ )
- ( अहिंसा ११ )
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शब्दानुलक्षी अनुवाद
[.३.४५
४२३-मन, वचन और काया करके भी प्राणियों को मत-मारो। ४२४-भगवान ने तीन प्रकार का धर्म फरमाया हो-१ सम्यक् प्रकार . .से सूत्र आदि का अध्ययन, २ सम्यक प्रकार से ध्यान और
३ सम्यक् तप । ४२५-- "तू ! तू । ऐसा अमनोज्ञ" शब्द किसी भी रूप से मतं बोलो।
४२६---जो महान् कुल से निकले हुए है, (लेकिन जिनका ध्येय अपनी , ' , यश कीर्ति, और पूजा प्रतिष्ठा ही है तो) उनकी तपस्या शुद्ध - नहीं है। ४२७-वह स्थान शाश्वत् निवास वाला है, जिसको प्राप्त करके शोक . रहित हो जाते है ।
. . . .
४२८–जो अहंकारी है, जो लोभी है, जो स्वछद इन्द्रियो वाला है, वह - अविनीत है। ४२९- पाप कर्मी अत में रोते हैं, छेदे जाते है और दुःखी किये जाते है। ४३४- अहकार से, क्रोध से, प्रमाद से, रोग से और आलस्य से ज्ञान
1 प्राप्त नहीं हो सकता है। "४३१-ईश्वरीय प्रार्थना-स्तुति रूप मगल से ज्ञान दर्शन चारिश रूप __ . बोध का प्राप्ति होती है। . . ४३२--स्त्री-कथा को सर्वथा छोड दो। .
४३३----यह पापी आत्मा पाप कर्मों द्वारा आग से जलाया गया, पकाया
' गया और दुःख झेलने के लिये विवश किया गया । ०४३४-मेघावी दया धर्म के लिये क्षमा-शील होता हुआ अपनी आत्मा • , . को प्रसन्न करे।
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३४६ ]
[ मूल सूक्तियां
४३५ - दव्वओ खेत्तओ चेव कालओ भावओ तहा जयणा
चउत्रिहा वृत्ता ।
( धर्म २९ ) ।
४३६ -- दवदवस्स न गच्छेज्जा ।
( उपदेश ६८ ) .
४३७ -- दाण भत्ते सणा रया ।
( श्रमण - भिक्षु २० ),
४३८ – दाणाण सेट्ठ अभयप्पयाण । ( अहिंसा १ ) ४३९ -- दाराणि य सुया चेव, मय नाणुव्वयन्ति य । ( संसार ३ ) ४४० -- दिट्ठिम दिठ्ठि ण लूसएज्जा ।
( दर्शन ९ )
""
०४१ - दिट्ठेहि निव्वेय गच्छिज्जा ।
४४२ - दिव्व च गइ गच्छन्ति, चरिता धम्म मारिय ।
( उ देश ९३ )
( धर्म १७ ) (वर्म ३ )
४४३ - दीवे व धम्म ।
,४४४ - दुक्कर तारुण्णे समणत्तण ( श्रमण- भिक्षु ३३ ), ४४५ - दुखाइ अणुहोति पुणो पुणो, मच्चु वाहि जरा कुले ।
( भोग ५ ) । ( अनिष्ट २ ).
४४६ - दुक्खी इह दुक्कडेण । ४४७ – दुक्खी मोहे पुणो पुणो । ४४८ – दुक्खेण पुट्ठे घुमाइएज्जा, ४४९ -- दुक्ख च जाई मरणं ।
( प्रकी. १३)
४५० --- दुक्ख हय जस्स न होइ मोहो, मोहो हओ जस्सन J
होइ तरहा !
( सद्गुण ७ )
( अनिष्ट २३ )
(श्रमण- भिक्षु ४९ ),
४५१ - दुज्जयए काम भोगे य निच्चसो परिवज्जए ।
--
( काम. १५)
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'शब्दानुलक्षी अनुवाद ]
[३४७. ४३५-यतना चार प्रकार की कही गई है ---द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से - और भाव से। ४३६-जल्दी जल्दी, (उतावला उतावला) घव धब करके नही चले। ४३७– (आत्मार्थी) दिये जाने वाले निर्दोष आहार-पानी के अनुसं-.
. घान में रत रहते है। ४३८-सभी प्रकार के दानो में श्रेष्ठ दान “अभय दान” देना है। ४३९-मृत्यु होने पर स्त्री, पुत्र आदि साथ मे आने वाले नही है । ४४सम्यक् ष्टि वाला अपनी दृष्टि को (अपने विश्वास को) दूषित
नही करे। ४४१-विरोधी उपदेशो से निर्वेद अवस्था (उदासीनता) ग्रहण कर लो। ४४२-आर्य धर्म का आचरण करके अनेक महापुरुष दिव्य गति को
जाते है। ४४३-धर्म दीपक के समान है। ४४४ -यौवन अवस्था में साधु धर्म पालना अत्यन्त कठिन है। ४४५--भोगी, मृत्यु व्याधि और बुढामे से आकुल होते हुए बार बार
दुखो का अनुभव करते है । . ४४६--यहां पर प्राणी दुष्कृत्यो से ही दुखी होता है। ४४७-मोह ग्रस्त (प्राणी ) बार बार दुखी होता है । ४४८-नीतिवान् दुखो के आने पर भी ध्रुव रूप से स्थित रहे। ४४९-बार बार जन्म और वार वार मरण, ये ही दुःस्व के रूप है। '४५.—जिसको मोह नहा होता है, उसका दु,ख नष्ट हो गया '. , और.जिसको.तृष्णा नहीं सताती है, उसका मोह भी नष्ट हो।
गया है। . ४५१-कठिनाई से छोडने योग्य इन काम-भोगो को सदैव के लिये
- छोड दो।
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३४८]
- [मूल-सूक्तियां ४५२-दुप्परिच्चया इमे कामा, नो सुजहा अधीर पुरि सेहिं ।
(काम ८) ४५३-दुप्पूरए इमे आया।
- (लोभ ३) .४५४-दुम पत्तए पड़यए जहा, एव मणुयाण जीविय ।
( वैराग्य ४) ४५५-दुल्लभे ऽय समुस्सए । . . . (दुर्लभ १०) ४५६-दुल्लहया काएणं फासया ।
(दुर्लभ ७) ४५७-दुल्लहाओ तहच्चाओ। .. ( दुर्लभ ८ ) ४५८-दुल्लहे खलु माणुसे भवे ।
(उपदेश ३१) ४५१ . दुल्लह लहित्तु सामण्ण, कम्मुणा न विराहिज्जासि ।
__ . . (उपदेश ७२) ४६०-दुविहा पोग्गला, सुहुमा चेव वायरा चेव । (प्रकी. २५ ) ४६१ - दुविहा वोही, णाण बोही चेव दसण वोही चेव ।
- . (ज्ञान ३) ४६२--दुविहे आगासे, लोगागासे चेव, अलोगागासे चेव ।
... (प्रकी. २६) ४६३----दुविहे कोहे-आय पइट्ठिए चेव पर पइट्ठिए चेव ।
(क्रोध ७) '४६४-दुविहे दसणे, सम्म दंसणे चेव मिच्छा दंसणे चेव ।
(दर्शन १२) ४६५-दुविहे धम्मे पन्नत्ते, सुअ धम्मे चेव चरित्त धम्मे चेव ।
धर्म.,३४१ ४६६-दुविहे नाणे, पच्चक्खे चेव परोखे चेव । ( ज्ञान ६ ) ४६७-दुविहे बंधे पेज्ज बंधे चेव दोसं बंधे चेव । (कपाय ३० ) ४६८-दुविहे सामाइए, अगार सामाइए, मणगार सामाइए ।
(तप १५)
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दानुलक्षी अनुवाद ]
८.३४९:
. ४५२-- कठिनाई से छोड़ने योग्य ये काम-भोग अधीर पुरुषो द्वारा सर-.
लता पूर्वक नहीं छोड़े जा सकते है। - ४५३ -यह आत्म स्थित तृष्णा कठिनाई से पूरी जाने वाली है। .४५४-जैसे वृक्ष का पीला पत्ता गिर पडता है, वैसे ही मनुष्य के जीवन
को ( अचानक पूर्ण हो जाने वाला) समझो। - ४५५--यह शरीर सपत्ति दुर्लभ है। . * ४५६-शरीर द्वारा धर्म का परिपालन किया जाना दुर्लभ ही है । ४५७-श्रद्धा अनुसार ही त्याग- प्राप्ति भी दुर्लभ ही है। ४५८–निश्चय ही, मनुष्य-भव दुर्लभ है । ४५९-दुर्लभ श्रमण धर्म प्राप्त करके अकृत्यों द्वारा उसकी विराधना
मत करो। । ४६०-पुद्गल दो प्रकार के है-सूक्ष्म और वादर ।
४६१-समझ दो प्रकार की है:-१ ज्ञान समझ २ दर्शन समझ ।
मत
। ४६२–आकाश दो प्रकार का है: लोकाकाश और अलोकाकाश ।
४६३-क्रोध दो प्रकार का है-आत्मा प्रतिष्ठित और परप्रतिष्ठित ।
' ४६४-दर्शन दो प्रकार का है:–१ सम्यक्त्व दर्शन और २ मिथ्या..
. त्व दर्शन । ,४६५-दो प्रकार का धर्म कहा. गया है.-१ श्रुत धर्म और २ ... चारित्र वर्म। • ४६६-ज्ञान दो प्रकार का है –१ प्रत्यक्ष और २ परोक्ष ।
४६७-बघ दो प्रकार का है :-१ राग वध और २ द्वेष वंध । ४६८--सामायिक दो प्रकार की हैं:-१. गृहस्थ सामायिक और २
साध सामायिक ।
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३५०]
[मूल सूक
४६९ – दुस्सील पडिणीए महरी निक्कसिज्जई। (अनिष्ट १४ )
४७० – देव दाणव गन्धव्वा बम्भयारि नर्मसति । ( झील ३) ४७१ – देह दुक्ख महाफल । ( कर्म २८ ) ४७२--दो दडा पन्नता, तजहा, अट्ठा दडै चेव, अणट्ठा दडे चेव । (प्रका २७ ) ४७३ -- दोस वृत्तिया मुच्छा दुविहा, कोहे - चेव माणे चेव । ( कषाय २८) ( अनिष्ट १८ )
४७४--दोस दुग्गइ वड्ढण ।
४७५ - दोहि ठाणेहिं आया केवलि पत्नत्त धम्म लभेज्जा सत्रणयाए, खएण चेव उवसमेण चेव । ( धर्म ३३ ) ४७६ - दसण संपन्न याए, भव मिच्छत्त छेयण करेइ ।
( दर्शन ७) ( दर्शन ३ )
-४७७ - दसणेण य सहे ।
,
ध
४७८ - वणेण किं धम्म धुरा हि गारे
४७९—धम्म ज्झाणरए जे स भिक्खू । ४८० - धम्म सद्धाए ण साया सोक्खेसु रज्जमाणे
४८१ - धम्मस्त विणओ मूल ।
४८२ - धम्म विऊ उज्जू ! ४८३ – धम्माण कासवो मुह ।
( धर्म ७ )
( श्रमण - भिक्षु ८ ) विरज्जइ ।
( धर्म १५ ) ( धर्मं ५ )
( धर्म १३ )
(घनं ३० )
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IN
शब्दानुलक्षी अनुवाद ]
[ ३५१
४६९ - दुराचारी, प्रतिकूल वृत्तिं वाला, और वाचाल वहिष्कृत किया
जाता है ।
- ब्रह्मचारी को देवता, दानव और गन्धर्व भी नमस्कार करते है ।
४७०
४७१ - शरीर में उत्पन्न होने वाले दुःख पूर्वकृत कर्मों के ही
1 ४७२ - दंड दो प्रकार के कहे गयें हैं, वे इस प्रकार है :
और २ अनर्थ दंड ।
- ४७३- द्वेष वृत्ति वाली मूच्छी दो प्रकार की है ~ १ क्रोध और २ मान ।
१
महाफल हैं ।
- १ अर्थ दंड
४७४ - द्वेष दुर्गति का बढाने वाला है
४७५——आत्मा केवली के कहे हुए धर्म को सुनकर दो प्रकार से प्राप्त करता है: - १ क्षय रूप से और २ उपशम रूप से ! ४७६-दर्शन की संपन्नता से ( आत्मा ) सासारिक मिथ्यात्वक करता है ।
४७७ - दर्शन के अनुसार ही श्रद्धा रक्खो ।
छेदन
ध
४७८-- धर्म रूपी धुरा के अगीकार कर लेने पर धन से क्या (तात्पर्य - है ) ?
४७९ - जो धर्म- ध्यान में रत है, वही भिक्षु है ।
४८१ – धर्म का मूल विनय है ।
४८२-धर्म को समझने वाला सरल हृदयी होता है ।
४८०-धर्म के प्रति श्रद्धा के जम जाने पर साता वेदनीय जनित सुखो पर विरक्ति पैदा हो जाती है।
४८३ – वर्मो का मुख ( आदि स्त्रोत ) काश्यप-, ( श्री ऋषभदेव(स्वामी) है।
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३५२].
..मूल सूक्तिया. ४८४--धम्माराम चरे भिक्खू । .. - (श्रमण-भिक्षु १९) ४८५६-धम्मे ठिओ सव्व पाणु कम्पी। . ('अहिंसा १९ ) ४८६-धम्मे हरए बम्भे सन्ति तित्थे। (धर्म. ४ ) ४८७-धम्मो दीवो।
. . . (ध ह२ । ४८८-धम्मो मगल मुक्किट्ठ । - - - - - - -(धर्म १) ४८९-धम्म अकाऊण जो गच्छइ. पर भव, सो दुही होइ।
. ... . . . . . . . ... ... ... ... (धर्म १८} ४९०-धम्म च कुणमाणस्स सफला जन्ति. राइओ.। (धर्म ८) ४९१-धम्मं चर सुदुच्चर । । .... (धर्म १०),
--- ४९२-धम्म पि काऊण जो गच्छेइ परं भवं, सो सुही गई।
(धर्म ९) ४९३-धितिम विमुक्केण ये पूयणट्ठी न सिलोय गामी य 7 ! 'परिवएज्जा।
। (उपदेश १६) ४९४-धीरा बंधणमुक्का । (महापुरुष २४) ४९५-धीरे मुहुत्त मवि णो पमायए। . (उपदेश ३) . ४९६-धुय मायरेज्ज। - - - (कर्त्तव्य १५) ४९७–घोरेय सीला, तवसा उदारा, धीरा हु भिक्खारिय चरन्ति ।
(महापुरुष२३)
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शब्दानुलक्षी अनुकाद]
[ ३५३ ___४८४-भिक्षु धर्म रूपी वाटिका में ही वित्ररे । ४८५-धर्म में स्थित होते हुए सभी जीवो पर अनुकमा करने वाले
होओ। '४८६-धर्म रूपी तालाब में ब्रह्मचर्य रूप तीर्य (घाट हैं)।
४८५--ससार ममुद्र मे धर्म ही द्वीप है। '४८८- धर्म ही उत्कृष्ट मगल है। ४८९-धर्म की विना आराधना किये ही जो परलोक को जाता है, - , , वह दुःखी होता है 1 . ४९०-धर्म करने वाले के दिन रात सफलं ही होते है। . ४९१-"आचरण में कठिनाई वाला और फल में अच्छाई वाला"
ऐसे धर्म का तू आचरण कर। ४९२ -जो धर्म' का आचरण करके ' पर भव को जाता है, वह सुबी
होता है। . ४९३-चर्य शाली पुरुप विकारो से विमुक्त होता हुआ अपने लिये
- पूजा की इच्छा नहीं करे । यश-कीर्ति की इच्छा वाला भी न हो, . तथा संयम शील होता हुआ विचरे। . ४९४-धैर्य शाली बन्धन से उन्मुक्त होते है। ४९५-धैर्य जील क्षण मात्र का भी प्रमाद नही करे। - ४९६ सयम का आचरण करो। - - - -
. ४९७-तप प्रधान जीवन वाले, शील को अग्न गण्य रखने वाले, धर्म
घुरघर धीर पुरुप ही भिक्षा चर्या का अनुसरण करते हैं।
२३
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३५४]
[मूल-सूक्तिया
'४९८-न असभ माहु। ४९९----न आविमुक्खो गुरुहीलणाए। ५००-न कम्मुणा कम्म खवेति वाला। .
( सत्यादि ८) (अनिष्ट ६) (वाल ६)
५०१-न काम भोगा समयं उवेन्ति ।
( काम १८ )
,५०२--न कखे पुव्व सथव ।
( सद्गुण, १८) ५०३-न चरेज्ज वेस सामते। ..
( शील ९) ५०४-नत्थि अमोक्खस्स निव्वाणं ।' ( मोक्ष १८) ५०५-नत्थि चरित्त सम्मत्त विहूण । ( दर्शन २) ५०६-न त अरी कठ छित्ता करेइ, ज से करे अप्पणिया दुरप्पा ।
( आत्म १५) ५०७-न त सुह कामगुणेसु राय, ज भिक्खुण सील गुणे रयाण ।
(शील ४) ५०८-न वाहिर परिभवे ।
( कपाय १९) ५०९-न भासिज्जा भास अहिम गामिण ! ( सत्यादि ७ ) ५१०~-नमइ मेहावी
( सात्विक ५) ५११-नमो ते ससयातीत ।
(प्रा. म ४) ५१२-न य रूवेसु मण करे।
( शील, १७) ५१३-नाय वित्तासए पर ।
( अहिंसा १०) ५१४-न या विपूय गरह च संजए। ( महापुरुप २९ ) ५१५-न लवेज्ज पुट्ठो सावज्ज । ( सत्यादि १२ ) ५१६-न सरण बाला पडिय माणिणो।
(वाल ११)
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जन्दानुलक्षी अनुवाद ]
[३५५
४९८-असभ्यता के साथ मत बोलो। ... .. . ४९९ --- गुरुकी हीलना-निंदा करने से कभी भी मोक्ष नही मिल सकता है। ५००-बाल जन, अज्ञानी अपने कार्यों द्वारा कर्म का क्षय नहीं कर ' सकते हैं। ५०१-काम-भोग वाले प्राणी शाति (समता) को नहीं प्राप्त कर
सकते हैं। “५०२-(ज्ञानी) पूर्व काल में प्राप्त प्रशसा आदि की इच्छा नही,करे। ५०३-(विवेकी) वेश्या आदि के मकान के आसपास नही जावे आवे । ५०४ - कर्मों से अमुक्त के लिये निर्वाण नही है। - ५०५-सम्यक् दर्शन के अभाव में चारित्र नहीं होता है । ५०६-जितनी हानि अपनी पापी आत्मा स्व के लिये कर संकती है,
- उतनी कठ का छेदन करने वाला शत्रु भी नही कर सकता है। ५.७-जो सुख शील गुण में रत भिक्षुओ को प्राप्त होता है, वह सुख
काम भोगो मे राग रखने से नहीं मिल सकता है। .. ५०८-वाह व्यक्तियो को पराजित मत करो। ५०९-अहित करने वाली भाषा मत बोलो। ५१०-मेधावी विनय शील होता है । ५११-हे संशय से अतीत । तुम्हे नमस्कार हो। ५१२-रूप-विषयो में मन को सलग्न मत करो। ५१३-दूसरे को त्रास मत दो। ५१४ - संयती पूजा और निंदा से (चचले) नहीं होवे । ५१५ पूछने पर सावद्य नहीं बोले । “.
५१६-अपने आप को पडित मानने वाले वाल जन- शरण " रहित . . होते है । ..
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३५६ ]
..[ मूल-सुक्तियां ५१७-न सव्व सव्वत्थ अभिरोयएज्जा। (योग १६ )
५१८-न सिया तोत्त गवेसए । . ( उपदेश ३९) . - ५१९---न सत सति मरण ते सीलवन्ता बहुस्सुयाः। (शील ३२)
५२०-न हणे णो विघायए।
. (अहिंसा ४), ५२१-न हणे पाणिणो पाणे ।
(अहिंसा १२) ५२२-न हिंसए किंचण सव्व लोए। (अहिंसा ९) ५२३-न हु पाण वह अणु जाणे, मुच्चेज्ज कयाइ सव्व दुक्खाण ।
{ हिंसा, ५) ५२४-- न हु मुणी कोवपरा हवन्ति ।
(क्रोव ६) ५२५-नाइमत्त तु भुजिज्जा वम्भचेर रओ। (शील २९) ५२६-नाइ वाइज्ज कचण ।
( अहिंसा १४ ) ५२७-नागो जहा पक तलाव सन्नो, एव वय काम गुणेसु गिद्धा ।
( काम १) ५२८-नाणभट्ठा दसण लूसिणो ।
( दर्शन ४)
१५२९ नाण सपन्नयाए जीवे, सव्व भावाहि गम जणयइ ।
. (ज्ञान ७) ५३०-नाणा रुइ च छन्द च, परिवज्जेज्ज सजओ।
( योग १२ ) ५३१-नाणी नो पमाए कयाइ वि । ( उपदेश ३८) ५३२-नाणी नो परिदेवए ।
(प्रशस्त ३ ) ५३३--नाणेण जाणई भावे।
( जान ४) ५३४,-नाणेण य मुणी होइ, तवेण होइ तावसो । ( ज्ञान ११ ) ५३५--नाणेण विना न हुन्ति चरण गुणा। ( ज्ञान ५ )
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शब्दानुलक्षी अनुवाद ]
५१७ - सब जगह किसी भी पदार्थ के प्रति लालायित मत हो ।
५१८ – पर ब्रिद्रो के ढूढने वाले मत होओ ।
५१९– हे सत । हे शीलवन्त । हे बहुश्रुत । तुम्हारे लिये मृत्यु नादि दुःख नहीं होते हैं ।
५२० - ( ज्ञानी जीवो को ) व तो मारे और न घात करे ।
५२१ - प्राणियो के प्राणो को मत हणो ।
1
[ ३५७
५२२ – सपूर्ण लोक में किसी की भी हिंसा मत करो ।
५२३ - ( विवेकी ) प्राणि-वध की अनुमति नही दे, क्योकि इससे सभा दु.खो का कभी भी नाश नही होता है ।
५२४ – मुनि त्रोध करने वाले नही होते हैं ।
-५२५ – ब्रह्मचर्य में रत होता हुआ अति मात्रा में भोजन नहीं करे । ५२६ - कोई भी वात अति विस्तृत रूप से नहा कहे ।
५२७ - जैसे हाथी कीचड़ वाले तालाव मे फस जाता है, वैसे हो हम काम-भोगो में गृद्ध हैं ।
-५२८–सम्यक् दर्शन से पतित हुए प्राणी सम्यक् ज्ञान से भी भ्रष्ट हो जाते हैं ।
५२९ -- ज्ञान को संपन्नता से जीव सभी पदार्थों का ज्ञान उत्पन्न कर लेता है ।
मयमी नाना रुचि का और विषयो की अभिलाषा को छोड़ दे ।
५३०.
3
५३१ - ज्ञाना कमा भी प्रमाद नही करे ।
. ५३२ -- ज्ञानी खेद नही करे ।
५३३ - ज्ञान द्वारा ही पदार्थ जाना जाता है ।
५३४ - ज्ञान से ही मुनि होता है और तप से ही तपस्वी होता है ।
५३५ -- सम्यक् ज्ञान के बिना सम्यक् चारित्र नहीं हो सकता है
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३५८
- . [ मूल-मूक्तियां
५३६-नाति वेल हसे मणी।
(श्रमण-भिक्षु ३४ ); ५३७-ना दसणिस्स नाणं ।
( ज्ञान १०) ५३८-.-ना पुट्ठो वागरे किंचि।
( सत्यादि १३ ), ५३९-~-नायएज्ज तणा मवि। ' ( सात्विक २१ ) ५४० -नारइ सहई वीरे, वीरे न सहई रति ।
( महापुरुप ४७ ५४१---नारीसु नोवगिज्झज्जा, धम्म च पेसल णच्चा ।
' ( शील १६ ). ५४२--निग्गया उज्जु दसिणो। (श्रमण-भिक्षु १४ ) ५४३-निग्गया धम्म जीविणो। . ( श्रमण-भिक्षु १३ ), ५४४-निद्देस नाइवटेज्जा मेहावी । ( उपदेश ५६ ), ५४५-निदं च न बहु मन्निजा।
(उपदेश ३०), ५४६--निदं च भिक्खू न पमाय कुंज्जा। (श्रमण-भिक्षु ४०) ५४७-निमम्मे निरहंकारे ।
(सद्गुण १), ५४८--निम्ममो निरहंकारो, चरे भिक्ख जिणाहियं ।
. . (श्रमण-भिक्षु ४४), ५४९--निरढाणि उवज्जए। .. (सात्विक ६) ५५०-~-निरासवे सखवियाण कम्म, उवेइ ठाण विउलुत्तम धुव !!
(उपदेश ८३) ५५१-निरुद्धग वा वि न दीहइज्जा। (प्रकी १०
(प्रकी १०) ५५२---निव्वाण वादी णिह णायपुत्ते
(प्रा में ७) ५५३-निव्वाण सधए मुणि । । । ' ' " ( उपदेश ७५), ५५४-निविण्ण चारी अरए पयासु।' (शील १८ )
५५५---निवि देज्ज सिलोग पूयण। ।
(कर्तव्य १८ )
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शब्दानुलक्षी अनुवाद]
५३६-मुनि बहुत समय तक नही हसे । । ५३७–सम्यक् दर्शन से रहित का सम्यक् ज्ञान नहा होता है। ५३८--विना पूछे कुछ भी नहीं बोले । .५३९-'विना आज्ञा के ( किनी का ) तृण मात्र भी नहा लेवे । ५४०-वीर पुरुष न ता रति ( राग) रखता ह और न अरेति (द्वेष)
ही रखता है। ५४१- ( साधक ) धर्म को सुन्दर समझ कर स्त्रियो मे गृद्ध नही हावे
५४२-निHथ सरल दृष्टि वाले होते है। ...... ५४३-निग्रंथ धर्म जीवी होते है । ५४४---मेधावी ( गुरु जनो की ) आज्ञा का उत्लघन नही करे। ५४५-- ( आत्मा हितैपी ) बहुत निद्रा नही लेवे। ~, . ५४६-भिक्षु निद्रा और प्रमाद नही करे। ५४७-ममता रहित और अहकार रहित होओ। . . . , ५४८-ममता रहित और अहकार रहित होता हुआ भिक्षु जिन आजा
नुसार विचरे। ... . ५४९---निरर्थक कार्यों को छोड दो। . ५५० --- (मुमुक्षु) आश्रव रहित होता हुआ, कर्मों का सम्यक् प्रकार से
क्षय करके, विपुल, उत्तम और ध्रुव स्थान का प्राप्त होता है ५५१--स्वल्प को दीर्घ रूप नही दे । ५५२-निर्वाण वादियो में ज्ञात पुत्र महावीर स्वामी सर्व श्रेष्ठ है। ५.३-मुनि निर्वाण को ही साधे। - - 1 . .. . ५५४-वैराग्य शील हाकर विचरने वाला स्त्रियो के प्रति रति-भावन्य
नही लावे । ५५५, अपनी प्रशसा और पूजा प्रतिष्ठा से दूर ही रहो !
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३६० ]
[ मूल सूक्तिया
५५६ - निव्वेषेण दिव्व माणुस तेरिच्छिएसु काम भोगेसु 'निव्वेयं हव्व मागच्छइ ।
( वैराग्य २३ )
५५७ - नो अत्ताण आसाइज्जा. तो पर आसाइज्जा ।
( उपदेश २७ )
( प्रशस्त १८ )
अमुत्तभावा विय होइ
( आत्म २ )
५५८ नोऽवि य पूयण पत्यए सिया । ५५९ - नो इन्दिय गेज्झ अमृत्त भावा, निच्चो ।
}
५६० - नो निहणिज्ज वीरिय । ( उपदेश ८० ५६१ - नो रक्खसीसु गिज्झेज्जा, गड वच्छासु अणेग चित्तासु ।
( शील २६ )
५६२ - नो लोगस्सेसण चरे । ५६३ - नो वि सहणमित्थीसु । ५६४ - नो सुलभ पुणरावि जीविय ।
प्रशस्त / ) ( काम २८ )
( दुर्लभ १२ )
प ५६५ - पच्चक्खाणेण आसव दाराइ निरुम्भङ । ५६६-पच्चमाणस्स कम्मेहिं नाल दुक्खाओ मोजणे ।
( तप १९ )
( सात्विक १९ )
५६७ --- पच्छा पुरा व चइयच्चे, फेण बुब्बुय सन्निभे ।
( अनित्य ४ )
५६८ — पन्डित नरए घोरे जं नरा पावकारिणो । ( अधर्म २ ) ५६९ --- पडिक्क्रमणेण वयछिद्दाणि पिइ ।
( तप १७ )
५७० - पडिणीए असवुद्धे अविणीए ।
( अनिष्ट १५ )
५७१ - पटम नाग नओ दया ।
(ज्ञान २ )
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, 'सन्दानुलक्षी अनुवाद ]
[ ३६१
५५६--विरक्ति भावना से देवता मनुष्य और तिर्यच सबधी काम-भोगो
पर शीघ्र ही वैराग्य उत्पन्न हो जाता है। ५५७-न तो अपनी आत्मा को दुखी करो और न दूसरे की आत्मा को . दुखी करो।
५५८--अपनी पूजा-प्रतिष्ठा के प्रार्थी मत बनो। ५५९--आत्मा अमूर्त स्वरूप वाली है, इसीलिये इन्द्रियो द्वारा ग्राह्य
नहीं है । अमूर्त स्वरूप वाली होने से ही निश्चय पूर्वक वह
नित्य है। ५६०-आत्म-वल का विनाश मत करो। । ५६१-स्तन वाली, चचल चित्त वाली ऐसी राक्षसी समान स्त्रियो में
गृद्ध मत होओ। ५६२--ससार की इच्छानुसार मत विच।। ५६३-स्त्रियो के साथ विहार मत करो। ५६४-बार बार जीवन प्राप्त होना सुलभ नही है ।
५६५-- प्रत्याख्यान से आश्रव के द्वार बंद हो जाते है। ५६६-कर्मो से पीडित प्राणी के लिये दुःखो से छुडाने में कोई भी
समर्थ नही है। ५६७---यह शरीर पीछे या पहले छोड़ना ही होगा, इसकी स्थिति फेन
या वुल वुले के समान है। ५६८-~-जो मनुष्य पापकारी है, वे घोर नरक में पडते हैं । ५६९–प्रतिक्रमण से व्रतो के छिद्र ढंक जाते हैं। ५७०-प्रतिकूल वृत्ति वाला और समझदारी नही रखने वाला अवि
नीत होता है। ५७१-~-पहले ज्ञान और पीछे दया।
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६२]
[मूल-सूक्तियाँ __५७२–पणए वीरे महाविहि, सिद्धि पह णेआउय धुव ।
(प्रशस्त १७ ), __५७३-पण्ण समत्ते सया जए, समता धम्म मुदाहरे।।
( कर्तव्य २१) __५७४-पट्ट चित्तो यो चिणाइ कम्म । ( कर्म २ ) ५७५-पमत्ते अगार मावसे ।।
( अनिष्ट १७ ) ५७६-परक्कमिज्जा तव सजममि ।
(तप ७) ५७७–पर किरिअ च वज्जए नाणी। . ( उपदेश ५७ ) ५७८--परिजू रइ ते सरीर य, समय गोयम | मा पमायए ।
( वैराग्य २) ५७९-परिव्वयन्ते अणियत्त कामे, अही' यं राओ परितप्पमाणे।
( उपदेश ६०) ५८०--परिसह रिऊ दता धू अमोहा जिइदिया। ..।
( महापुरुप १५) १८२वड्ढता वर मसजतस्स ।
( बाल ३१ ) ५८२-पहीयए- कामगुणेसु.तण्हा ।. . ( लोभ १५ ) ५८३-पाडिओ फालिओ छिन्नो, विप्फुरन्तो अणेगसो। ,
( आत्म १८) ५८४---पाणाणि चेव विणि हति मदा । ( हिंसा ८) ५८५-पाणातिवाता विरते ठियप्पा.। ... ( अहिंसा २१ ) ५८६-पाणा पाणे किलेसति ।
( अनिष्ट ३८ ) ५८७-पाणि वह घोर । .
( हिंसा १) ५८८- पाणे य' नाइ वाएज्जा, निज्जाइ उदग व थलाओ।
( अहिंसा ८) ५८९-पायच्छित्त करणेण पाव कम्म-विसोहिं जणयइ ।
( तप"२० ).
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शब्दानुलक्षी अनुवाद]
। ५७२-जो सिद्धि पथ, महान् विधि रूप है. न्याय युक्त है, ध्रुव है.
उसी पर विनात वीर चलता है। ५७३–पूर्ण बुद्धिमान् सदा यत्न शील होता हुआ समता 'धर्म का उपदेश' -'' करता रहे। .५७४-जो द्वेष पूर्ण चित्त वाला है, वह कर्म को इकट्ठा करता है । - ५७५--जो साधु प्रमादी है, वह गृहस्थ अवस्था में ही रहा हुआ है। ५७६-तप-सयम में पराक्रम वतलाओ। । - .,
५७७-ज्ञानी दूसरो के लिये भोग-उपभोग की क्रियाएं करना छोड दे। . ५७८-तुम्हारा शरीर निश्चय ही जीर्ण होने वाला है, इसलिये है . गौतम । समय मात्र का भी प्रमाद मत करो - । ५७९--जो काम-भोगो को नहीं छो ते हैं, वे रात दिन परिताप पाते - हुए परिभ्रमण करते रहते है। ५८०--जो परिपह रूप शत्रु को जीतने वाले है, जो मोह को नष्ट करने
वाले है, वे ही जितेन्द्रिय है। ५८१- असयती के लिए वैर ही बढता है। . , . . ५८२-काम-मोगो मे रही हुई तृप्णो हटाई जाय । ५८३—यह आत्मा अनेक बार इधर उधर भागते हुए पटका गया,
फाडा गया, छिन्न भिन्न किया गया । , ", ।, - ५८४-मद वुद्धि वाले, प्राणियो की हिंसा करते है ।
५८५-स्थितप्रज्ञ आत्मा प्राणातिपात से विरतिवाली होती है। ५८६-प्राणी ही प्राणियो का क्लेश पहुँचाते है। ५८७-प्राणियो का वध घोर पाप है। ०५८2-जा प्राणियो की हिंसा नही करता है, उस के कर्म. इस प्रकार दूर
हो जाते है, जसे कि ढालू जमीन से पानी दूर हो जाता है। ५८९--प्रायश्चित्त करने से पाप-कर्मों की विशुद्धि होती है ।
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३६४]
[ मूल-सूक्तिया
.५९०--पाव कम्म नेव कुज्जा न कारवेज्जा-1 ( उपदेश ३६ ) ५९१--पावदिट्ठी विहन्नई !
( अनिष्ट २९) '. ५९२-~-पावाइ कम्माइ करति रुद्दा, तिब्दाभितावे नरए पडति ।
... { अनिष्ट २४ ) ५९३-पात्राइ मेधावी अज्झप्पेण ममाहरे। ( उपदेश ८९) ५९४----पावाउ अप्पाण निवट्टएज्जा। ( उपदेश १५) ५९५-पावोवगा य आरमा, दुक्ख फासा य अतसो ।
(अनिष्ट २५) - ५९६-पास ! लोए महन्भय ।
. ( ससार ९ ) ५९७-पासे समिय दसणे, छिन्दे गेहि सिणेह च । (उपदेश ८६ )
५९८--पिट्ठि मस न खाइज्जा ।
( सत्यादि ३५ ) ५९९-पियं करे पियवाई, से सिक्ख लद्ध मरिहई । (मत्यादि ३२ )
६००-पिय न विज्जई किंचि, अप्पिय पि न विज्जई ।
(महापुरुप २१) -६०१---पियमाप्पय कस्सइ णो करेज्जा! ( उपदेश १२ ) “६०२--पिय मप्पिय सव्व तितिक्खएज्जा। (क्षमा ४ ) ६०३–पिहियासवस्स दतस्सतस्स पाव कम्म न बधई। (उपदेश २६)
६०४-पुढवि समे मूणी हविज्जा । (श्रमण-भिक्ष २५ )। ६०५-पुढो य छदा इह माणवा उ । (प्रकी. १७) ६०६-पुणो पुणो गुणासाए, वक समायारे। (भाग १)
६०७-पुरिमा उज्जु जड्डा उ, वक्क जडा य पच्छिमा ।
( प्रकी. १४ }
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[ ३६५
गन्दानलक्षी अनुवाद ]
- ५९० - पाप कर्म न तो करे और नहीं करावे ।
५९१ - पाप दृष्टि वाला विनष्ट हो जाता है ।
५९२ - रौद्र भावना वाले पाप कर्म करते है और तीव्र ताप वाले
नरक मे पडते है ।
९९३ - मेधावी अत्म ध्यान द्वारा ही पापो को दूर कर देता है ।
५९४ - पाप से आत्मा को लौटा लो ।
५९५ – आरभ के काम पाप को पैदा करने वाले है और अतमें दुख का स्पर्श कराने वाले ही है ।
1
५९६ =
-- देखो | लोक महान् भय वाला है
५९७ – सम्यक् दर्शनी विचार करे, और आसक्ति तथा मोह को दूर करे 1
५९८ - निंदा मत करो ।
५९९ –– जो प्रिय करने वाला है और प्रिय बोलने वाला है, वही शिक्षा ग्रहण करने की योग्यता रखता है ।
६०० – महात्मा के लिये न कोई प्रिय होता है और न कोई अप्रिय -
होता है ।
६०१ - किसी का भी प्रिय अप्रिय ( राग द्वेष के कारण से ) मत करो । ६०२ - प्रिय अप्रिय सभी शाति पूर्वक सहन करो ।
६०३ – जिसने आश्रव का
रोक दिया है और जो इन्द्रियो का दमन
करने वाला है, उसके पाप कर्म नही वधा करते है । ६०४ - मुनि पृथ्वी के समान धैर्यशाली होवे ।
६०५—इस ससार में मनुष्य अनेक प्रकार के अभिप्राय वाले होते हैं । ६०६—जो बार बार इन्द्रियो के भोगो का आस्वादन करता है, वह कुटिल आचरण वाला है ।
६०७-- प्रथम तीर्थकर के युग मे जनता सरल और जड थी, जब कि अतिम तीर्थकर के युग में जनता वक्र और जड़ है ।
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[मल-सूक्तिया ६०८-पुरिसा |, अत्ताण मेव अभिणिगिज्झ, एव दुक्खा
पमुच्चसि । । (. उपदेश ४८.) ६०९-पुरिसा ! तुममेव तुम मित्त, कि बहिया मित्त मिच्छसि ।
. . . . (उपदेश ४७) ६१०-पुरिसा | सच्च मेव समभि जाणाहि.।, -( सत्यादि ३) ६११-पूयणट्ठा जसो कामी बहु पसवइ पाव। . (अनिष्ट १०) ६१२--पूयणा पिट्ठतो कता, ते ठिया सुसमाहिए। (महापुरुष ३४) ६१३–पेज्जवत्तिया मुच्छा दुविहा, माए चेव लोहे चेव ।
(कषाय १३) ६१४-पच ठाणाइ समणाणं जाव अब्भणुन्नायाइ भवति, सच्चे,
सजमे, तवे, चियाए, बभ चेर वासे। (धर्म ३७ ) ६१५--पच णिही, पुत्त णिही, मित्तणिही, सिप्पणिही, धणणिही धन्नणिही। ..
(प्रकी ४३)
1
, ', }
(योग १)
६१७-पच विहे आयारे, णाणायारे, दसणायारे, चरित्तायारे,
। तवायारे, बीरियायारे। ..: । (सद्गुण २३) ६१८-पच विहे काम गुणे निच्चसो परिवज्जए । ( काम ३३) ६१९-पचविहे ववहारे, आगमे, सुए, आणा, धारणा, जीए ।
(प्रकी ४२) ६२०-पचविहे सोए, पुढवि सोए, आउ सोए, तेउ सोए. मत __ सोए, बभसोए ।
( प्रकी, ४१ ) • ६२१-पडिया पवियक्खणा, विणियट्टन्ति भोगेसु ।
(महापुरुष ३ ) ६२२–पत लूह सेवति वीरा समत्त दक्षिणा । ( महापुरुष ४५ )
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शब्दानुलक्षी अनुवाद]
[ ३६७
.. ६०८-हे पुरुप । अपनी आत्मा में ही अनुरक्त हाओ और इसी रीतिसे
मुक्त हो सकोगे। ६०९-हे पुरुष ! तुम ही तुम्हारे मित्र हो, बाह्य मित्र की इच्छा __
क्यो करते हा? ६१०-हे पुरुप ! सत्य का ही सम्यक् प्रकार से ज्ञान प्राप्त करो। ६११-पूजा का आकाक्षी और यश का कामी बहुत पाप का उपार्जन
करता है .६१२--जिसने पूजा से मुंह मोड़ लिया है, वही सुसमाधि में स्थित है । , ६१३-राग वृत्ति से सवधित मूर्छा दो प्रकार की है --माया सबपी
और लोभ सवधी। ६१४-साधुओ के लिये पांच प्रकार के स्थान कर्तव्य रूप से कहे गये
-, है-सत्य, सयम, तप, त्याग और ब्रह्मचर्य । १८.६१५–निधियां पाच है -पुत्रनिधि, मित्रनिधि, ज्ञाननिधि, धननिधि
- और घान्य निधि ।। 1..६१६-~-पाचो इन्द्रियो का निग्रह करने वाले ही धीर पुरुप कहलाते है ।
६१७-आचार पाच प्रकार का कहा गया हैः-ज्ञानाचार, दर्शनाचार, 1:.. चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार । - - - - 15 ६१८--पाच प्रकार के काम-भोगो को सदैव के लिये छोड दो। ।। ६१९-व्यवहार पाच प्रकार का हैः-आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा . और जीत । ।
- - , ६२०-पवित्रता पाच प्रकार की कही- गई है, पृथ्वी मिट्टी से जनित
- पवित्रता; पानी से, अग्नि से, मत्र से और ब्रह्मचर्य से ।, ।। ६२१--पडित और प्रवीण पुरुष भोगो से निवृत्त ही होते है ।
६२२—सम्यक्त्व दर्शी वीर पुरुष नीरस और निस्वाद मोज़न का आहार __ - ' करते है।
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___३६८]
मूल सूक्तियां
६२३-फासेसु जो गिद्धि मुवेइ तिव्वं, अकालिय पावइ से विणास ।
। (योग २१)
६२४-बद्धे विसय पासेहि, मोह मावज्जइ पुणो मदे ।
( बाल २१) ६२५--बहिया उड्ढमादाय, नाव कखे क्याइ वि, ( काम ३९)
६२६--बहु कम्म लेव लित्ताण, बोही होइ सु दुल्लहा ।'
(दुर्लभ १५, ६२७-बहु दुक्खा हु जन्तवो।
(ससार १०) ६२८--बहु पि अणुसासिए जे तहच्चा, समेहु से होइ अझझपत्ते।।
(महापुरुष ४०)
६२९.--बहु मायाओ इथिओ।
(प्रकी १६) ६३०-~वाल जणो पगब्भइ ।
(बाल १२ ६३१-~बाल भावे अप्पाण नो उव दसिज्जा। (बाल १) ६३२-बालाणं मरणं असइ भवे ।
(वाल ३) ६३३~बाला वेदति कम्माइ पुरे कडाइं । (कर्म २४) ६३४-बालुया कवले चेव, निरस्साए उ सजमे ।
(श्रमण-भिक्षु २१), ६३५-~वाले पापेहि मिज्जती ।।
.( बाल १३) ६३६-~-बाले य मन्दिए मढे, वज्झई मच्छिया व खेलम्मि ।
(बाल २ ),
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शब्दानुलक्षी अनुवाद ]
६२३-जो स्पर्श इन्द्रिय के भोगो मे तीव्र गृद्धि भाव रखता है, वह
अकाल में ही विनाश को प्राप्त होता है।
६२४-मूर्ख आत्मा विपय-पाश से बची हुई होकर वार वार मोह
ग्रस्त होती है। ६२५- महत्वाकाक्षी उच्च स्थिति प्राप्त करके फिर कभी भी भोगों को
आकाक्षा नहीं करे। ६२६---बहुत कर्मों के लेप से लिप्न प्राणियो के लिए सम्यक् ज्ञान
दर्शन की प्राप्ति सुदुर्लभ होती है। ६२७~~ससारी जीव निश्चय ही विविध दु ख वाले होते है। ६२८-बहुत प्रकार से अनुशासित किया जान पर भी जो विवारों में
विकार नहीं आने देता है, वह निश्चय में समता शील होता
हुआ व्याकुलता से रहित होता है । ६२९स्त्रियां बहुत माया वाली होती है । ६३०-बालजन ही अभिमानी होता है। ६३१-अपनी आत्मा को वाल भाव में नही दिखाना चाहिए। ६३२-~मूखों की मृत्यु बार बार होती है। ६३३-मूर्ख आत्माएं पूर्व कृत कर्मों का फल भोगती है। ६३४-सयम पालना वालु-रेत के कौर के समान निस्स्वाद और
कठोर है। ६३५-मूर्ख पापो से डूबता है। ६३६-बाल आत्मा, मन्द आत्मा, मूढ आत्मा इस प्रकार फस जाती है.
जैसे कि मक्खी नाक और मुख के कफ रूप मल में फंस जाती है।
२४
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३७०
मूल-सूक्तियाँ
६३७-बुद्धा धम्मस्स पारगा।
(प्रशस्त २) ६३८--बुद्धामो ति य मन्नता अत ए ते, समाहिए। (वाल १७)
६३९-बुद्धा हु ते अत कडा भवति ।
( ज्ञान १२)
६४०--वुद्धे परि निव्वुडे चरे, सन्ती मग्ग च बूहए।
( उपदेश ६४) ६४१-बुद्धो भोगे परिच्चयई ।
( महापुरुष ४) ६४२---बंभयारिस्स इत्थी विग्गहओ भय.। ..( शील २)
६४३-भद्द सव्व जगज्जोयगस्स, भद्द जिणस्स वीरस्स ।
(प्रा. म १७) ६४४-भई सील पडागु सियस्स, तव नियम तुरय जुत्तस्स ।।
(प्रा म २१) ६४५ -भद्द सुरासुर नमसियस्स भद्द धुय रयस्स। (प्रा मं. ११)
६४६-भय वेराओ उवरए ।
( सात्विक १८) ६४७-भव तण्हा लया वृत्ता भीमा भीम फलोदया।
(लोभ ७) ६४८-भवे अकामे अझझे।
( सात्विक १०) ६४९ -भायण सव्व दवाण, नहं ओगाह लक्खण ।
प्रकी. २२ ) ६५०-भारस्स जाता मुणि भुज एज्जा । (श्रमण-भिक्षु ४८)
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शब्दांनुलक्षी अनुवाद ]
६३७ -- बुद्ध, ज्ञानी धर्म के पार पहुँचे हुए होते हैं ।
६३८ - "हम ज्ञानी हैं" ऐसा जो अपने आप को मानते हैं, वे समाधि से बहुत दूर है |
[ ३७१
६३९ - जो निश्चय में जानी है, वे ससार का अन्त करने वाले होते हैं ।
६४० - ज्ञान शाली होकर, सव प्रकार से परिनिवृत्त होकर विचरे, तथा शाति के मार्ग की वृद्धि करता रहे।
६४१ -- ज्ञानी ही भोगो को छोडता है ।
६४२ - ब्रह्मचारी के लिये स्त्री के शरीर से भय रहा हुआ है ।
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1
६४३ - - सपूर्ण ससार में उद्योत करने वाले जिन देव वीर प्रभु का शासन भद्र हो, कल्याणकारी हो ।
६४४ – जिसमें शील रूप पताका फरक रही है, और जिसमें तप, नियम रूप घोडे जुते हुए हैं, ऐसे श्री मघ रूप रथ के लिए भ हो, मंगल हो ।
६४५ -- जिनको सुर और अमुर सभी नमस्कार करते है और जिन्होने कर्म रूप रज का वो डाली है, ऐसे श्री वीर प्रभु मंगलकारी है |
-६४६ - भय और वैर से दूर रहो ।
६४७~~~तृष्णा एक प्रकार की सासारिक भयकर लता कही गई है, जिससे भीपण फल प्राप्त होते है ।
६४८ - निष्कामना वाला राग रहित होवे ।
६४९–आकाश सभी द्रव्यो का भाजन है और "स्थान देना " ही इसका लक्षण हैं ।
( ६५० -- तयम रूपी यात्रा के निर्वाह के लिये ही मुनि भोजन करे ।
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३७२]
[ मूल-सूक्तिय
६५१--भावणा जोग सुद्धप्पा, जले णावा व आहिया ।
(योग ३ ६५२-भाव विसोहीए निव्वाण मभि गच्छइ । ( प्रशस्त १५ ६५३-भासमाणो न भासेज्जा ।
( सत्यादि २७ ६५४--भासियव्व हिय सच्च ।
( सत्यादि ६ ६५५ --भिक्खवत्ती सुहावहा।
(श्रमण ५१ ६५६-भिक्खू सुसाहुवादी ।
(श्रमण-भिक्षु २६ ६५७-भज्जो भुज्जो दुहा वास, असुहत्त तहा तहा ।
अनिष्ट २६ ६५८-~भुत्ताण भोगाण परिणामो न सुन्दरो। ( भाग ३, ६५९-~-भुजमाणो य मेहावी कम्मणा नोवलिप्पइ ।
(महापुरुष २६ ६६०-- जिंज्जा दोष वज्जिअ । . ( सद्गुण २२ ) ६६१-भूएहिं न विरुज्झज्जा ।
( उपदेश ४१] ६६२-भूओ व घाइणि भास नेवं भासिज्ज पन्नव ।
( सत्यादि १९ ६६३--भोगा इमे सग करा हवति । ( काम १२ ) ६६४-भोगा भुत्ता विसफलोवमा, कडुय विवागा अणुबध दुहावहा । .
(भोग २) “६६५--भोगी भमइ ससारे, अभोगी विप्पमुच्चई। (भोग छ।
६६६-~मग्ग कुसीलाण जहाय सन्वं, महा नियंठाण वए पहेण ।
(उपदेश ३३),
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मन्दानुलक्षी अनुवाद ]
[ ३७३
६५१ – भावना के योग से शुद्ध आत्मा जल मे नाव की तरह कहा
गया है ।
६५२ -- भावो की विशुद्धि से निर्वाण को प्राप्त होता है ।
1
"
-६५३–कोई दूसरा बोलता हो तो बीच मे नही वोले । ६५४ - हितकारी और सत्य हो वोलना चाहिए ।
६५५ - भिक्षावृत्ति सुखो को लाने वाली है ।
६५६--- भिक्षु सत्य और मधुर बोलने वाला होता है ।
६५७ -- (भोगो की तल्लीनता) बार बार दुखो का ही घर है, और ज्यों ज्यो दुख, त्यो त्यो अशुभ ( विचार बढते ही रहते है ) 1
1
f
६५८ - भोगे हुए भोगो का परिणाम सुन्दर नही होता है । ६५९--अनासक्त रूपसे भोजन करता हुआ मेघावी कर्मों से लिप्त नहीं होता है ।
६६० – दोष से वर्जित भोजन करो ।
-६६१ - भूतो के साथ याने प्राणियो के साथ वैर भाव मत रक्खो । ६६२-प्रज्ञ पुरुष जीवघातिनी (मर्मान्तक ) भाषा नही वोले ।
६६३- ये भोग कर्मों को सगति कराने वाले होते है ।
६६४ --- भोगे हुए भोग विष फल के समान है, कहुए परिणाम वाले है बार निरन्तर दुखो को लाने वाले है ।
६६५
-भोगी ससार में भ्रमण करता है और अभोगी मुक्त हो जाता है ।
म
६६६ - (मुमुक्षु) कुशीलो के सपूर्ण मार्ग का परित्याग करके महा निर्ग्रथों के मार्ग - अनुसार बोले ।
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३७४ ]
६६७ - मच्चुणा ऽव्भा हओ लोगो जराए परिवारिओ ।
( वैराग्य १३ ) ६६८ – मच्चू नरं नेइ हु अन्त काले, नइ तस्स माया व पिया व भाया अंस हरा भवन्ति । ( वैराग्य १५ ) ६६९ - मज्ज मस लसुण च भोच्चा अनत्थ वास परिकप्पयति । ( अनिष्ट २१ ) ६७० - मज्झत्थो निज्जरा पेही, समाहि मणु पालए । ( तप २४ ), ( प्रकोर १५ )
६७१ - मज्झिमा उज्जु पन्ना उ ।
aढव्वओ ।
44
1
६७२ - मण गुत्तो वय गुत्तो काय गुत्तो जिइंदिओ जावज्जीवं ( योग ६ ), ६७३ - मणसा काय वक्केण, णारभि ण परिग्गही | योग, २५ } '६७४ - मणी साहस्सिओ भीमो दुस्सो परिधावई । (योग ५)
C
६७६ -- ममाइ लुप्पई वाले | ६७७---महष्पसाया इसिणो हवन्ति । ६७८--महव्भयाओ भीमाओ, नरएसु दुह
:
2
६७५--मन वय कायसु संबुडे स भिक्खू । ( श्रमण- भिक्षु ६ )
६७९ - महुगार समा बुद्धा । ६८० - - माणुस्स खु स दुल्लह 1 ६८१ - माणो विणय नासणो । ६८२ - माण मद्दवया जिणे । ६८३ - मातिद्वाणं विवज्जेज्जा ।
[ मूल सूक्तियां.
( वाल २६ )
( महापुरुष १९ )
वेयणा । (संसार ७ )
( श्रमण - भिक्षु १ )
( दुर्लभ १७ )
( कषाय १७ )
( सद्गुण x )
( सत्यादि २५ )
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शब्दानुलक्षी अनुवाद ६६७-यह ससार मृत्यु से पीड़ित है और बुढापे से घिरा हुआ है।
- ६६८- अंतिम काल में मृत्यु मनुष्य को निश्चय ही ले जाती है, उसके
माता, पिता, भाई, कोई भी अग रूप से भी रक्षक नही होते है। ,, ६६९--- (मूर्ख) मद्य, मास, लशुन खा करके अनर्थ वास का (नीच गति १ 'की) परिकल्पना करते है। ६७.-निर्जराप्रेक्षी मध्यस्थ (तटस्थ) रहता हुआ समाधि का अनुपा
लन करे। ६७१-दूसरे तीर्थकर से लगा कर तेइसवें तार्थकर तक के शासन काल
की जनता-सरल और बुद्धिशालिनी थी। । ६७२--जीवन पर्यंत दृढ व्रत शाली हाता हुआ मनगुप्ति, वचन गुप्ति
और काया गुप्ति वाला एव जितेन्द्रिय हावे । . ६७३–मन, वचन और काया द्वारा न - तो आरभी हो आर न परि
ग्रही हो। १६७४~~यह मन साहसिक और भयकर दुष्ट घोडा रूप है, जो
कि निरतर दौडता रहता है। । ६७५-~~-जो मन, वचन और काया द्वारा सवृत्त है, व्रत'शील' है, वही
भक्षु है । ६७६-बाल-आत्मा ममता से डूबता है । ६७७-ऋषि महान् प्रसन्न होते हैं, वे शोक रहित होते है। ६७८-नरको दुख वेदनाएँ महान् भयकर और भीषण होती हैं। ६७९-ज्ञानी मधुकर के समान होते है । .६८०-मनुप्यत्व निश्चय ही सुदुर्लभ है। ६८१-मान विनय का नाश करने वाला है।
६८२-मान को मृदुता . जाते । ६८३-छल कपट के स्थान को छाड दो।
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२६ ]
[ मूल-सूक्तियाँ ६८४-माया गई पडिग्घाओ, लोभाओ दुहमो भयं ।
( कपाय १२) ६८५--माया पिया ण्हुसा भाया नालं ते मम ताणाए ।
(वैराग्य १६) ६८६---माया मित्ताणि नासेइ ।
(कपाय ११) ६८७-माया मुस वड्ढइ लोभ दोसा । (सत्यादि ३०) ६८८-माया मोस विवजए ।
( सत्यादि ३६ ) ६८९--माया मोस विवज्जए ।
( कषाय १०) ६९०-मायाहिं पियाहिं लप्पइ, नो सुलहा सुगई य पेच्चओ।
( दुर्लभ १८) ६९१--माय अज्जव भावेण ।
( सद्गुण ५ ) ६९२--माय च वज्जए सया ।
( कपाय १४ ) ६९३- मायं न सेवेज्ज पहेज्ज लोह । ( उपदेश ४४ ) ६९४----मा वत पुणो वि विए ।
( कर्त्तव्य ५ ६९५-~-मिच्छ दिट्ठी अणारिया । ( अनिष्ट २७) ६९६-~मिच्छा दिट्ठी अणारिया, ससार अणु परियति ।
( वाल १०) ६९७-मिति भूएसु कप्पए ।
( सात्विक १) ६९८--मिय कालेण भक्खए ।
( उपदेश ४२ ) ६९९-मिहो कहाहिं न रमे । '
( उपदेश २९) ७००--मुच्छा परिगहो वुत्तो।
( अपरिग्रह २ ) ७०१-मुणी ण मज्जई।
( श्रमण-भिक्षु ४३ ) '७०२---मणी । महन्मथ नाइवाइज्ज कचण। ( अहिंमा १५ )
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शब्दानुलक्षी अनुवाद]
[३७७
६८४-~माया उच्च गति का प्रतिघात करने वाली है और लोभ से
- दोनो लोक में भय रहा हुआ है। ६८५---माता, पिता, पुत्र, वधु, भाई, कोई भी मेरी रक्षा के लिये समर्थ
नही है। ६८६-माया मित्रो का नाश करती है। ६८७-माया-मृपावाद लोभ के दोपो को बढाता है । ६८८-माया-मृपावाद को छोड दो। ६८९-माया-मृषावाद को छाड़ दो। ६९०-जो माता पिता द्वारा मोह ग्रस्त हो जाता है, उसके लिये पर
लोक में सुगति सुलभ नही होता है । ६९१---माया को सरल भाव से जीती। ६९२----सदा के लिये माया को छोड दो। ६९३- विवेकी ) माया की सेवना नहीं करे और लाभ को छोड़ दे । ६९४-~त्यागी हुई (भोग्य वस्तुओ) को पुन भोगने की इच्छा मत करो।
६९६-मिथ्या दृष्टि वाले अनार्य होते है और वे ससार में चक्कर
लगाया ही करते है। ६९७-प्राणियो पर मैत्री-भावकी कल्पना करो। ६९८:–समयानुसार परिमित भोजन क ६९९---परस्पर मे कथा-वार्ताओ द्वारा मनोरजन नहा करे ।
७०१-मुनि महकार नहीं करता है। ७०२-हे मुनि | किसी की भी हिंमा मत करो, इसमें महान् भय रहा
हुआ है।
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२७४
मूल-सूक्तियां
७०३--मुणी मोणं समायाय, धुणे कम्म सरीरंग ।
- (श्रमण ५३), ७०४--मुसा भासा निरत्थिया।
( सत्यादि ३१ ) ७०५-मुसावाय च वज्जिज्जा, अदिन्नादाण च वोसिरे ।
__ . ( सत्यादि २८ ) ७०६-- मूस न बूया मुणि अत्तगामी.। ( सत्यादि ४०)
७०७~-मुस परिहरे भिक्खू । । ( सत्यादि २२) ७०८-~-मुहा दाई मुहा जीवी दो वि गच्छति सुग्गई।..
(प्रशस्त ८ ) ७०९---मूलमेय महमस्स ।
( काम ६) ७१०-~-मेधाविणो लोभ मयावतीता। । ( महापुरुष ५ ) ७११-मेरुव्व वाएण अकम्पमाणो, परीसहे आयगुत्ते सहिज्जा।
( महापुरुष ३०), ७१२-मेहावि समिक्ख धम्म दूरेण पाव परिवज्जएज्जा।
( उपदेश १४) १७१३-मेहावी अप्पणो गिद्धि मुद्धरे। ( महापुरुष २७) ७१४-~-मेहावी जाणिज्ज धम्म । ' " (सद्गुण से१५) ७१५--मोक्ख सन्भूय साहणा, नाण च'दसण चेव चरित्त चेव ।
( मोक्ष १६), ७१६-~मोसस्स प्रच्छा य पुरत्थओ य, पयोग काले य दुही दुरन्ते।
( सत्यादि २९) ७१७-~मोहाय यण खु तण्हा। . ( लोभ, ५) ७१८-मोहेण गम्भं मरणाइ एइ।
( कषाय ३२) ७१९-मोह चतण्हाय यण ।
. ( लोभ ६),
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शेब्दांनुलक्षी अनुवाद ]
[ ३७९
. ७०३ - मुनि मौन को ग्रहण करके शरीर मे रहें हुए ( आत्मास्य) क - को कपित कर दे |
1
4
७०४ -झूठ वाली भाषा निरर्थक है ।
. ७०५ -- झूठ का वर्जन कर दो और अदत्ता दान को ( चोरी को ) छोड दो ।
७०६ - आत्मा को मोक्ष में ले जाने की इच्छा वाला मुनि झूठ नही बाले ।
७०७- - भिक्षु झूठ का परिहार कर दे ।
७०८ - निर्दोष भिक्षा देने वाला और निर्दोष भिक्षा पर जीवन निर्वाह करने वाला, दोनो ही सुगति को जाते हैं ।
७०९ -- यह काम - भोग नीचता की जड है ।
७१० -- मेधावी पुरुष (ज्ञान शाला ) लोभ से और मद से अतीत होते है, ( रहित होते है ) ।
७११ - आत्मा का गोपने वाला ( दमन करने वाला) वायु द्वारा मेरू के अकपन की तरह परिषहो को अविचलित होकर सहन करे ।
७१२ - मेधावी धर्म की समीक्षा करके पाप को दूर से ही छोड़ दे ।
७१३ – मेघावी अपने गृद्धि - भाव को हटावे ।
७१४ - मेधावी धर्म को जाने ।
७१५ – मोक्ष के सद्भूत ( यथार्थ ) साधन ज्ञान, दर्शन और चारित्र है ।
७१६ - दुष्ट आत्मा झूठ के पीछे और पहिले एवं प्रयोग काल में ( तीनो ही काल मे ) दुखी होता है ।
निश्चय ही मोह का घर हैं ।
७१७
- तृष्णा
७१८ – मोह से गर्भ को और मृत्यु को प्राप्त होता है ।
--
,७१९ -- मोह हा तृष्णा का स्थान है ।
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३८०]
[मूल-सूक्तियाँ
७२०--मदस्सावियाणओ।
( बाल २४) ७२१--मदा नरय गच्छन्ति, वाला पावियाहिं दिट्ठीहिं ।।
( बाल २५) ७२२–मदा मोहेण पाउडा।
( वाल १६ ) ७२३-मदा विसीयति उज्जाणसि व दुबला। (वाल २० )
७२४-मदा विसीयति, मच्छा विट्ठा व केयणे। ( भोग १५ )
७२५--रक्खिज्ज कोह विणएज्ज माण। ( उपदेश ४३ ) ७२६-रमइ अज्ज वयणम्मि, त वय वूम माहण । (प्रकी १)
७२७--रयाइ खेवेज्ज पुराकडाइ ।
( उपदेश ८१ ) ७२८-रसगिद्धे न सिया। .
( उपदेश ६२) ७२९-रसाणुरत्तस्स नरस्स एव कत्तो सुह होज्ज कयाइ किंचि ।
( मनिष्ट २२) '७३०~रसा पगाम न निसेवियन्वा ।
( भोग ६ }
७३१-~रसेमुजो गिद्धि मुवेइ तिब्ब, अकालिय पावइ से विणासं।
(योग २०) ७३२-~राई भोयण विरमो जीवो भदड अणासवो । ( वर्म १६)
७३३-राग दोस भयाईय, तं वय वूम माहणं । (प्रकी २) ७३४-रागदोसस्सिया वाला पाव कुवंति ते बहु । (बाल २२) ७३५-रागहोसादओ तिन्वा, नेह पासा भयंकरा। (कपाय ३ )
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[ ३८१
शब्दानुलक्षी अनुवाद ]
७२० --मद पुरुष के लिये (ज्ञान भी ) अज्ञान ही होता है ।
७२१ –मद बुद्धि वाले और मूर्ख बुद्धि वाले पाप दृष्टि के कारण स नरक को जाते है ।
७२२ - मद बुद्धि वाले ही मोह से ढके हुए होते हैं ।
७२३—–जैसे दुर्बल वैल ऊँची जमीन पर चढते हुए कष्ट पाते हैं, वैसे ही मूर्ख आत्माएं भी विषाद ( खेद ) पानी है ।
७२४—जैसे जाल मे फसी हुई मछली ( विषाद ) खेद अनुभव करतीहै, वैसे ही मूर्ख आत्माएं भी खेद अनुभव करती है 1
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७२५ - क्रोध को हटा दो और मान को विनष्ट कर दो ।
७२६——जा आर्य वचनो मे रमण करता है, उसी को हम ब्राह्मण कहते है ।
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७२७ - पूर्व कृत कर्मों की रज को फेंक दो ।
७२८ - रस में गृद्धि वाले मत वनो ।
७२९- रस में अनुरक्त मनुष्य के लिए कभी भी थोडा सा भी सुख कैसे हो सकता है ?
७३०—अत्यधिक मात्रा में दूध, घी, तेल आदि रसो का सेवन नही किया जाना चाहिए ।
७३१—जो रसो में तीव्र वृद्धि भाव रखता है वह अकाल में ही विनाश को प्राप्त होता है ।
७३२ – रात्रि - भोजन से विरक्ति करने वाला जीव अनाश्रव वाला होता है ।
७३३ – नो राग, द्वेष और भय से अतीत है, उसी को हम ब्राह्मण कहते हैं ।
७३४- राग द्वेष के आश्रित होकर बाल जन विविध पाप किया करते हैं । ७३५ - राग द्वेष आदि रूप मोह पाश तीव्र हैं और भयकर है ।
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३८२ ]
[ मूल-सूक्तियां
७३६——रागस्सं हेउ समन्न माहु, दोर्सस्स हेउ अमणुन्न माह !
( कृपाय २ )
( कर्म १ )
( कर्त्तव्य ७ )
5
७३७ - रागो य दोसोऽवि य कम्म वीय | ७३८ - रायणिएसु विणयं पउजे 1
७३९ - रूवे विरत्तो मणुओं विसोगो न लिप्पए भवमज्झेऽवि - सन्तो । ( गील ३१ ) ७४० - रूवेसु जो गिद्ध मुवेइ तिव्व, अकालिय पावइ से विणास । ( योग १८ )
७४१ - रूवेहि लुप्पति भया वहे हि ।
( काम ४ )
७४२ - रोइअ नायपुत्त वयणे, पचासव सवरे- जे स भिक्खू |
( श्रमण - भिक्षु ३ )
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७४३—लज्जा दया संजम वभचेर कल्लाण भागिस्स विसोहि
( कर्त्तव्य ८ )
ठाण । ७४४--लद्धे कामे ण पत्थेज्जा ।
( शील २७ )
७४५ - लद्धे विपट्ठी कुव्वइ से हु चाइ । ( श्रमण - भिक्षु १५ ) ७४६ - लुप्पन्ति बहुसो मूढ़ा, ससारम्मि अणन्तए । ( बाल ४ )
७४७--लेस समाहट्ट परिवएज्जा ।
७४८ - लोगुत्तमे समणे नायपुत्ते ७४९- - लोगे त सव्व दुपडीआर, जीवाचेव अजीवा चेव ।
( उपदेश १३ )
( ग्राम ५ )
७५० - लोभ सतोसओ जिणे । ७५१ -- लोभो सव्त्र विणासणी ।
( प्रकी. २८ )
( सद्गुण ६ )
( लोभ १ )
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शब्दानुलक्षी अनुवाद]
७३६-समनोज्ञ ( रमणीयता ). राग का हेतु कहा गया है, पर
अमनोज्ञ द्वेष का हेतु कहा गया है। ७३७-राग और द्वेष ही कर्म के बीज है।।
७३८-रत्नाधिक पुरुपो के प्रति ( ज्ञान दर्शन और चारित्र मे वृद्ध '.. पुरुषो के प्रति ) विनय रखना चाहिए। । ७३९-रूप मे विरक्त एव शोक रहित मनुष्य ससार में रहता हुआ भी
लिप्त नही होता है। ७४० --जो रूप में तीब्र गृद्धि रखता है, वह अकाल में विनाश को प्राप्त
होता है। । ७४१-भय लाने वाले रूप द्वारा ही प्राणी लुप्त होते है, विनाश को
प्राप्त होते है। ७४२-ज्ञातपुत्र महावीर के वचन में रुचि लाकर जा पाचो आश्रवो
का सवर करता है, वहा भिक्षु है ।
- १७४३-कल्याण की कामना वाले के लिये लज्जा, दया, सयम और ब्रह्म
चर्य विशुद्धि के स्थान है । ७४४-- ( विवेकी ) भोगो के प्राप्त होने पर भी उनकी बाछा नही करे। । ७४५-प्राप्त भोगो से भी जो मुख मोड लेता है, वही सच्चा त्यागी है। १७४६-मूढ़ आत्माएँ अनेक वार इस अनत ससार में लुप्त होती
रहती है। ७४७-~-( अशुभ ) लेश्या का परिहार करके सयम शील होवे । ७४८-श्रमण ज्ञातपुत्र महावीर लोक में उत्तम है। ७४९... इस सपूर्ण लोक को दो रूप में समावेश किया जा सकता
है -जीव और अजीव । ७५०-लोभ को सतोप से जीते । ७५१ --लोभ सव का विनाश करने वाला है।
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३८४ ]
व
७५२ -- वईसो कम्मणा होइ, सुद्दो हवइ कम्मणा । ( प्रकी ४ )
७५३ -- वज्जए इत्थी विस लित्तं व कंटग नच्चा । ( काम २७ ) ७५४-वण्ण रस गंध फासा, पुग्गलाण तु लक्खण ।
( प्रकी. १९ ) उपदेश ५३ )
७५५ - वण्ण जरा हरइ नरस्स । ७५६--वत्तणा लक्खणो कालो ।
[-मूल-सूक्तियाँ
( प्रकी. २३ )
७५७ - वन्दणएण नीया गोय कम्म खंवेइ, उच्चा गोय कम्मं ( सदगुण २० )
1
निबन्धइ |
७५८ - वमे चत्तारि दोसे उ इच्छतो हिय मप्पणो ।
( कषाय ६ )
७५९ - वसे गुरु कुले निच्चं ।
( ज्ञान २० ) ( संद्गुण २१ )
७६० - वायणाए निज्जर जणयइ । ७६१ - वाया दुरुत्ताणि दुरुद्धराणि वेराणु वधीणि महत्भयाणि ।
( सत्यादि १७ )
७६२–विगय सगामो भवाओ परिमुच्चए । ( महापुरुष ४३ )
७६५ - - विणियति
७६६ - विणीअ तिण्हो विहरे ।
७६३———–विज्जाचरणं पमोक्ख । ७६४– विणि अट्टिज्जं भोगेसु, आउ परिमि अप्पणो ।
( चारित्र ३ )
( वैराग्य १०
भोगेसु, जहां से पुरिसुत्तमो ।
( महापुरुष २ ) ( लोभ १४ )
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शब्द अनुवाद ]
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1
७५२ - आचरण अनुसार ही वैश्य होता है और आचरण अनुसार हो शूद्र होता है ।
७५३ - ब्रह्मचारी स्त्री को काटो वाली विप लता जान कर छोड़ दे ।
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[ ३८५
T
७५४ -- पुद्गलो का लक्षण. "वणं, रस, गव और स्पर्श वाला" होना ' कहा गया है ।
७५५ वुढापा मनुष्य के वर्ण को हरण कर लेता है
७५६ --- काल वर्त्तना लक्षण वाला है ।
७५७ - वन्दना से नोच- गोत्र कर्म नष्ट होता है और उच्च गोत्र कर्म कर बघ पड़ता है ।
७५८- अपनी आत्मा का हित चाहने वाला चारो दोषो को ( क्रोध मान, माया, लोभ को ) छोड दे ।
७५९ - नित्य गुरुकुल में ( ज्ञानियों की संगति में ) रहे । ७६०-वाचना से ( पठन पाठन से ) निर्जरा उत्पन्न होती हैं ।
७६१ - दुष्ट रीति से वोले जाने वाले वचन वडी कठिनाई से भूले जाने वाले होते है, वैर का बंधन लाने वाले होते है, तथा महान् भय पैदा करने वाले होते हैं ।
1
७६२–विकारों के साथ किया जाने वाला सग्राम ससार से मुक्ति दिलाने वाला होता है ।
७६३ - ज्ञान और चारित्र ही मोक्ष है ।
७६४-भोगो से निवृत्त हो जाओ, क्योकि अपनी आयु परिमित है ।
७६५~जो भोगो से निवृत्त होते हैं, वे ही पुरुषोत्तम है ।
७६६ - ज्ञानी तृष्णा को हटाकर के विचरे ।
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३८६
[मूल-सूक्तियां
७६७--विति गिच्छ समावन्नेणं, अप्पाणेणं नो लहइ समाहिं ।
(दर्शन ११) ७६८-वित्ते गिद्धे य इत्थिसु, दुहओ मलं सचिणइ ।
। ( काम २१) ७६९–वित्तेण ताण न लभे पमत्ते । (उपदेश ८४ ) ७७०-वित्त पसवो य नाइओ, त बाले सरणं ति मन्नइ ।
( बाल १४) ७७१-विद्धसण धम्म मेव तं इति, विज्जं कोऽगार मावसे ।
( उपदेश ३४) ७७२-विप्पमायं न कुज्जा ।
(उपदेश १९) ७७३-विभज्ज वायं च वियागरेज्जा। (महापुरुष ४१ ) ७७४-वियागरेज्जा समयासुपन्ने। (श्रमण-भिक्षु ३७ ) ७७५-विरए वहाओ।
( अहिंसा १३ ) ७७६-विरत्ता उ न लग्गन्ति जहा से सुक्क गोलए।
... ( वैराग्य २४) ७७७ -विरते सिणाणाइसु इत्थियासु। (शील १९) ७७८-विवत्ती अविणीअस्स, सपत्ती विणिअस्स अ । .
" ! (प्रकी. ६) ७७९-विवित्त वासो मुणिण पसत्थो। (श्रमण-भिक्षु २७ ) ७८०--विसएसण झिया यति, कंका वा कलु साहमा ।
(काम ३१ } ७८१-विसएसु मणुन्नेसु पेमं नाभि निवेसए । ( शील १५ )
७८२-विसन्ना विसयं गणाहिं, दुहओऽ विलोयं अणुसचरन्ति ।
( काम ३०
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शन्दानुलक्षी अनुवाद ]
[ ३८७
-३६६ - जिस आत्मा को को ज्ञान, दर्शन, चारित्र में सकाऐं उत्पन्न हो जाती 7 हैं, ऐसी आत्मा समाधि नही प्राप्त कर सकती है ।
+
७६८ - जो धन में और स्त्रियो में गृद्ध हो जाता है, वह इस लोक और ७५ परलोक दोनो ओर से कर्म- मल को संचय करता है ।
-७६९ – प्रमादी घन से शरणभूत रक्षा नहीं प्राप्त कर सकता है ।
७७० ह
- यह धन, पशु और जाति जन मेरे शरण रूप रक्षक है, ऐसा चाआत्मा (मूर्ख जन ) ! मानता है ।
७७१ – ये सब विघ्वस धर्म वाले है, ऐसा जानता हुआ कौन भोंग रूप घर में रहेगा ? K
७७२ - प्रमाद नही करना चाहिए ।
७७३ – अपेक्षा वाली - स्याद्वाद वाली भाषा बोलनी चाहिए'।
७७४—तीव्र बुद्धि वाला समयानुसार व्याख्या करे ।
७७५ --- वघ से --- ( हिंसा ) विरक्त होवे |
७७६-जैसे सूखे गोले पर कुछ चिपक नही सकता है, वैसे ही विरक्त आत्माएँ कर्म मल से संलग्न नहीं हुआ करती' हैं ' .
७७७ - स्नान आदि शृंगारिक कार्यों से और स्त्रियों से विरक्त रहो । '७७८—अविनीत के लिये विपत्तिया है और विनीत के लिये सपत्तियाँ है ।
७७९ -मुनियो के लिए एकान्त वास ही प्रशसनीय है ।
७८० -- जो विषयो का, भोगो का ध्यान किया करते है, वे कक पक्षी के समान पापी और अधम, है ।
-
७८१ – मनोज विषयो में मोह का अभिनिवेश मत करो । मोहग्रस् मत होओ ।
- . ७८२ -- विषयो में लीन आत्माऐं विषयों के कारण से दोनों ही लोक में विविध रीति से दुखी होती है ।
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३८८]
" | मूल-सूक्तियाँ
७८३--विहडइ विद्धसइ ते सरीर यं, समयं गोयम मा पमाए । ।
( वैराग्य ३) ७८४-विहरेज्ज समाहि इंदिए,अत्त हियं ख दुहेण लब्भई। .
(योग २४ ) ७८५-वीरा असमत्त दसिणो, असुद्धं तेसिं परवंत ।
(अनिष्ट ३१) ७८६-वीरा सम्मत्त दसिणो, सुद्ध तेसिं परक्कंत । ( दर्शन ६) । -७८७.-वीरे आगमेण सया परक्कमज्जा। ( उपदेश ५५ )। ७८८-बुज्झइ से अविणी अप्पा, कट्ठ सोअगय जहा। ।
( अनिष्ट ५ ) ७८९-वेएज्ज निज्जरा पेही । --
( तप १२), ७९०-वेयावच्चेण तित्थयर नामगोत्त कम्म निबन्धइ ।
(तप २१)। . ७९१-वेराणु गिद्धे णिचय करेति। . ( कषाय ९).
७९२-वेराणु बद्धा नरय उवेति । (अनिष्ट १६ ) , ७९३-वेराणु बधीणि महब्भयाणि । ( कषाय ८) ७९४-वोच्छिद सिणेह मप्पणो । ( काम ३८). ७९५-वत इच्छसि आवेउ, सेय ते मरण भवे । ( उपदेश ४९ ),
__७९६-वंत नो पडि आयइ जे स भिक्खू । (श्रमण-भिक्ष ४ )
स.
७९७-सउणी धसयई सिय रयं, एव कम्म खवइ तवस्सि माहणे ।।
(महापुरुष ३२) ७९८-सएण दुक्खेण मूढे विपरियास मुवेइ। (बाल ३३ )
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अन्दानुलक्षी अनुवाद ]
[३८९
५८३-हे गौतम ! यह तुम्हारा शरीर टूट जाने वाला है. विध्वस हो
जाने वाला है, इसलिए समय मात्र का भी प्रमाद मत करो। ७८४- ( मुमुक्ष ) समाधि मय इन्द्रियो वाला होता हुआ विचरे, क्योकि
आत्म-हित निश्चय ही बड़ी कठिनाई से प्राप्त होता है। ७८५---जो वीर होते हुए भी असम्यक्त्वदर्शी है, उनका पराक्रम • . अशुद्ध है। ७८६-जो वीर है आर सम्यक्त्व दर्शी है, उन्ही का पराक्रम शुद्ध है। ७८७-वीर आत्मा सदा आगम अनुसार ही पराक्रम करता रहे। ७८८ --जैसे समुद्र में ( अथवा जल-स्रोत में ) सूी काठ चक्कर खाया
करता है, वैसे ही अविनीत आत्मा भी ससार-समुद्र में डूब
जाता है। ७८९--निर्जरा का आकाक्षी सहनशील होवे ।
७९०-यावृत्य ( सेवा-भाव ) मे तीर्थकर नाम गोत्र-कर्म , का वध ' पड़ता है।
७९१--वैर-भाव में अनुगृद्ध आत्मा कर्मों का समूह आकर्षित करता है। - ७९२-वैर-भावना मे बधे हुए नरक को प्राप्त करते है ।
७९३--वैर का अनुवध भहान् मय वाला होता है । ' -- ७९४-अपने मोह को विछिन्न कर दो । ७९५-वमन किए को पुन भोगना चाहता है, इसकी अपेक्षा तो तुम्हारा
मरना श्रेयस्कर होगा । ७९६-त्यागे हुए को जो पुनः नही ग्रहग करता है, वही भिक्षु है । . ... .. ... स ___०९७-जैसे शकुनि पक्षा अपनी लगी हुई धूल को झाड देता है वमे ही
1 , तपस्वी साधु भी कर्मों का क्षय कर देता है । · ७९८-स्वदुः ख से ही मूढ़ विपरीत स्थिति को प्राप्त करता है।
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३९० ।
। मूल सूक्तियां - ७९९-सक्के देवाहिवई, एवं हवइ बहुस्सुए। (ज्ञान १५ ) ' ८०-सक्ख खु दीसह तवो विसेसो, न दीसई जाइ विसेस कोई।
(तप २३) -८०१-~स कम्म बीओ अवसो पयाइ, परं भवं सुदर पावगं वा।
,. (कर्म १४) ८०२-सकम्मणा विप्परियासुवेड-।- ". , ( कर्म २५ ) ८०३-सच्चस्स आणाए से उवदिए मेहावी मारं तरइ ।
' ( सत्यादि'४ ) ८०४-सच्चा वि सा न वत्तव्वा जओ पावस्स आगमो।
. . . . . - Arth सत्यादि २०) ८०५-सच्चे तत्थ करेज्जु वक्कम । - (, सत्यादि ९) ८०६-सच्चेसु वा अणवज्ज वयति। . ( सत्यादि १०) ८०७-सच्चमि धिइ कुव्वहा । . . . (सत्यादि २) ८०८-सज्झायमि रओ सया
: ( ज्ञान १८) ८०९-सड्ढी आणाए मेहावी । " (महापुरुप १) ८१० - सत्त भयदाणा, इह लोग भए, ‘पर लोग भए, आदाण
भए,अकम्हा भए, वेयणा भए; मरण भए, असिलोग भए।
(प्रकी ४५ ) ८११.-सत्त विहे आउ भेदे, अज्झवसाण, निमिते, आहारे,
वेयणा, पराघाए, फासे, आणापाणू। (प्रकी ४६) ८१२-सत्तविहे वयण विकप्पे, आलावे, अणालावे, उल्लावे,
है “अणुल्लावे, सलावे, पलवि, विप्पलावे । ( सत्यादि.४७ ) ८१३-सत्ता कामेसु माणवा। ।ER ME काम १७) ८१४- सत्ता कामे हिमाणवाँ' BEEF बाल २७ )
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शब्दानुलक्षी अनुवाद ]
·
७९९ - जैसे शक ( इन्द्र )
---
३९१
देवताओ का अधिपति होता है, वैसे हो
८०० --- प्रत्यक्ष रूप से तप की ही विशेषता निश्चयपूर्वक देखी जाती हूँ, किसी भी जाति की विशेषता नही देखी जाती है ।
बहुश्रुत विद्वान् भी ( जनता में प्रमुख ) होता है ।
८०१ - कर्म बीज सहित होता हुआ और विवश अवस्था में पड़ा हुआ प्रत्येक आत्मा सुन्दर अथवा पापकारी परभव को जाता है ।
ܐ
-८०२ - (प्रत्येक आत्मा) कर्म के कारण से ही विपरीत स्थिति को प्राप् होता है ।
-८०३ --सत्य के पालन मे उपस्थित मेधावी ही कामदेव को जीतता है
८०४ - जिससे पाप का आगमन होता हो, तो सत्य होती हुई भी ऐसी वाणी नही बोलना चाहिये
८०५ -- सत्य हो, उसी मे पराक्रम बतलाओ ।
८०६-- ( महापुरुप ) सत्य युक्त निर्दोष वाणी को ही वोलते हैं 4
८०७ - सत्य में ही बुद्धि का सयोजित करो ।
८०८-- सदैव स्वाध्याय में ही ' रत रहो ।
'८० मेघावी आज्ञा-पालन मे ही श्रद्धाशील होता है ।
८१०–सात भय स्थान कहे गये हैं - इस लोक का भय, परलोक का भय, चोरी का भय, अम्म्मात् पैदा होनेवाला भय, वेदना भय, मृत्यु भय और अपकीर्ति का भय ।
ご
८११ - सात प्रकार से आयु
टूटती है. -सकल्प विकल्प - से; निमित्त
7 कारण से, आहार से, वेदना से, पराघात से, स्पर्श से और 'श्वासोच्छ्वास से - 1
८१२~सांत प्रकार के वचन विकल्प हैं. आलाप, अनालाप, उल्लाप अनुल्लाप, सलाप, प्रलाप और विप्रलाप ।
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८१३ - मानव समाज, काम भोगो मे आसक्त है ।
८१४--मनुष्य काम-भोगो में निश्चय ही आसक्त है ।
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6)
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३९.
- मूल सूक्तियां ७९९-सक्के देवाहिवई, एव हवइ बहुस्सुए। (. ज्ञान १५ ) । ८००-सक्खं खु दीसइ तवो विसेसो, न दीसई जाइ विसेस - कोई।
(तप २३) ८०१-स कम्म बीओ अवसो पयाइ; पर भवं सुदर पावगं वा ।
., . - ( कर्म १४) ८०२-सकम्मुणा विपरियासुवेइ , ( कर्म २५) ८०३-सच्चस्स आणाए से उवट्ठिए मेहावी मार तरइ।
(सत्यादि'४) ८०४-सच्चा वि सा न वत्तव्वा जओ पावस्स आगमो।
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rid सत्यादि २०) ८०५-सच्चे तत्थ करेज्जु वक्कम । -(सत्यादि ९) ८०६-सच्चेसु वा अणवज्ज वयति। . (सत्यादि १०) ८०७-सच्चमि धिइ कुव्वहा ।
(सत्यादि २) ८०८-सज्झायमि रओ सया। . ( ज्ञान १८) ८०९-सड्ढी आणाए मेहावी । - (महापुरुप १) ८१० - सत्त भयढाणा, इह लोग भए, पर लोग भए, आदाण ..., भए अकम्हा भए, वेयणा भए, मरण भए, असिलोग भए।
।
(प्रकी ४५) ८११--सत्त विहे आउ भेदे, अज्झवसाण, निमिते, आहारे,
वेयणा, पराघाए, फासे, आणापाणू। (प्रकी ४६ ) ८१२-सत्तविहे वयण विकप्पे, आलावे, अणालावे, उल्लावे.
में अणुल्लावे, संलाने, पलावे, विप्पलावे । ( सत्यादि ४७ ) ८१३-- सत्ता कामेसु माणवा । । ( काम १७) ८१४ सत्ता कामे हि माणवाँ
बाल २७)
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शब्दानुलक्षी अनुवाद ]
३९१
७९९ - जैसे शक ( इन्द्र ) देवताओ का अधिपति होता है, वैसे हो बहुश्रुत विद्वान् भी ( जनता में प्रमुख ) होता है ।
८०० --- प्रत्यक्ष रूप से तप को ही विशेषता निश्चयपूर्वक देखी जाती है, किसी भी जाति की विशेषता नही देखी जाती है ।
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1
८०१ - मं वीज सहित होता हुआ और विवश अवस्था में पड़ा हुआ प्रत्येक आत्मा सुन्दर अथवा पापकारी परभव को जाता है । -८०२ - ( प्रत्येक आत्मा) कर्म के कारण से ही विपरीत स्थिति को प्राप्त होता है ।
८०३ -- सत्य के पालन में उपस्थित मेवावी ही कामदेव को जीतता है
८०४ -- जिससे पाप का आगमन होता हो, तो सत्य होती हुई भी ऐस वाणी नही बोलना चाहिये
८०५ - सत्य हो, उसी मे पराक्रम बतलाओ ।
८०६~~~ ( महापुरुप ) सत्य युक्त निर्दोष वाणी को ही वोलते हैं । ८०७ - सत्य में ही बुद्धि का सयोजित करो ।
८०८ - सदैव स्वाध्याय ने हो' स्त रहो ।
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मेघावी आज्ञा-पालन में ही श्रद्धाशील होता है ।
८१० - सात
भय स्थान कहे गये है. इस लोक का भय, परलोक का भय, चोरी का भय, अक्स्मात् पैदा होनेवाला भय, वेदना भय, मृत्यु भय और अपकीर्ति का भय ।
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८११ - सात प्रकार से आयु टूटती है.
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सकल्प विकल्प से, निमित्त कारण से, आहार से, वेदना मे, पराघात से, स्पर्श से और 'श्वासोच्छ्वास से 1
८१२—सात प्रकार केळवचन विकल्प है. -आलाप, अनालाप, उल्लाप,
मनुल्लाप, सलाप, प्रलाप और विप्रलाप ।
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८१३ -- मानव समाज काम भोगो मे आसक्त है ।
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८१४-मनुष्य काम-भोगो मे निश्चय ही आसक्त है ।
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-
३९२ ]
[मूल - सूक्तियां
( कर्तव्य २० )
( धर्म ३१ )
८१५ - सत्यार भत्ती अणु वीइ वायं । ८१६ -- सद्दहइ जिणभिहिय सो धम्म रुइ । ८१७ – सद्दहणा पुणरा वि दुलहा । ८१८- सदा जए दते, निव्वाण सधए मुणी । (श्रमण - भिक्षु ३२ )
( दुर्लभ ३ )
८१९–सद्दाणु गासाणु गए य जीवे, चराचरे हिसइ ऽणेग रूवे । ( भोग ४ ) ८२० - सद्देसु जो गिद्धि मुवेइ. तिव्व अकालिय पावइ से विणास । ( योग १७ }
(दुर्लभ ४ )
८२१–सद्धा परम दुल्लहा । ८२२ - सन्ती सन्तिकरो लोए । ८२३–सन्नाइह काम- मृच्छिया, म ह जति नरा असवुडा ।
( प्रा. म. ३)
( काम २५ )
८२४ - सप्पहास विवज्जए ।
८२५ - सम्मग्ग तु जिणवखाय, एस मग्गे हि उत्तमे ।
८२६ - सम्म छिट्ठसया अमूढे । ८२७ - समत्त दसी न करेइ पाव । ८२८——समता सव्वत्थ सुव्वते । ८२९ – समयाए समणो होइ, बम्भ
( अनिष्ट १९ )
८३०-समया सव्व भूएसु, सत्तु मित्तेसु वा जागे
( प्रशस्त ११ )
( दर्शन ८ )
( दर्शन १ )
चेरेण वम्भणो ।
८३१ - समय गोयम । मा पमायए । ८३२ - समय ताथु वेहाए अप्पाण विप्पसायए ।
(क्षमा ७ )
( श्रमण- भिक्षु २४ )
। ( उपदेश ७६ )
( उपदेश २)
( कर्त्तव्य १० )
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शब्दानुलक्षी अनुवाद]
[३९३
• ८१५-आचार्य की भक्ति विचारपूर्वक वाणी में रही हुई है।
८१६--जिन वचनो में श्रद्धा करना, यही धर्म रुचि है। ८१७-पुन पुन श्रद्धा प्राप्त होना दुर्लभ है। . .
८१८-सदा जितेन्द्रिय और संयमशील होता हुआ मुनि निर्वाण की ।. . साधना करे। ८१९-शब्दो के विषय में आसक्त जीव अनेक प्रकार से त्रस स्थावर
जीवो की हिंसा करता है । , , ८२०~जो शब्दो मे तीन गृद्धि भाव रखता है, वह अकाल में ही
विनाश को प्राप्त होता है। ८२१-श्रद्धा परम दुर्लभ है। ८२२-शान्तिनाथ इस लोक में शान्ति करनेवाले है। .. ८२३--यहां पर काम-भाग में मूच्छित और आहार आदि सज्ञावाले
पुरुप-आश्रव सहित होते हुए-मोह को प्राप्त होते है । :.. ८२४-- हसीवाली ( पाप क्रिया को ) छोड़ दो। ८२५-जिन भगवान का कहा हुआ मार्ग ही सच्चा मार्ग ह, और
यही उत्तम मार्ग है। ८२६ सम्यक् दृष्टि सदैव अमूढ होता है। . . .. . ८२७-~-सम्यक्त्वदर्शी पाप नहीं करता है। ८२८-सुव्रती सर्वत्र समता रक्खे। . . . . . .८२९-समता से ही श्रमण होता है और ब्रह्मचर्य से ही ब्राह्मण
होता है। ८३०-ससार में शत्रु अथवा मित्र, सभी प्राणियो पर समता भाव . रक्खो । ८३१- हे गौतम । समय मर का भा प्रमाद मत करो। -८३२---( अवाछनाय पदार्थो के प्रति-) उपेक्षा के साथ समता धर्म के
- अनुसार अपनी आत्मा को प्रफुल्लित करो.1 - - :
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२९२]
मूल-सूक्तियां
८१५-सत्थार भत्नी अणु वीइ वाय । ' ( कर्त्तव्य २०) ८१६--सद्दहइ जिणभिहिय सो धम्म रुइ। (धर्म ३१ ) ८१७-सद्दहणा पुणरा वि दुल्लहा।
(दुर्लभ ३) ८१८-सदा जए दते, निव्वाण सधए मुणी । (श्रमण-भिक्ष ३२)
८१९-सद्दाणु गासाणु गए य जीवे, चराचरे हिंसइ ऽणेग रूवे)
. ( भोग ४ ) ८२०-सद्देसु जो गिद्धि मुवेइ तिव्व अकालिय पावइ से विणास ।
( योग १७ ॥ ८२१-सद्धा परम दुल्लहा ।
- (दुर्लभ ४) ८२२–सन्ती सन्तिकरो लोए।
(प्रा म ३) ८२३-सन्नाइह काम-मुच्छिया, म ह जति नरा असवुडा।
(काम २५) ८२४-सप्पहास विवज्जए ।
(अनिष्ट १९) ८२५-सम्मग्ग तु जिणवखाय, एस मग्गे हि उत्तमे।
(प्रशस्त ११) ८२६–सम्म दिट्ठि सया अमूढे ।
- (दर्शन ८) ८२७-समत्त दसी न करेइ पाव ।
(दर्शन १) ८२८-समता सव्वत्थ सुव्वते। '
(क्षमा ७) ८२९-समयाए समणो होइ, बम्भ चेरेण वम्भणो।
(श्रमण-भिक्षु २४) ८३०-समया सव्व भूएसु, सत्तु मित्तेसु वा जागे । (उपदेश ७६) ८३१-समय गोयम | मा पमायए । (उपदेश २) ८३२-समय त थु वेहाए अप्पाणं विप्पसायए। (कर्तव्य १०)
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शब्दानुलक्षी अनुवाद ]
८१५ - आचार्य की भक्ति विचारपूर्वक वाणी में रही हुई है । ८१६ -- जिन वचनो में श्रद्धा करना, यही धर्म रुचि है । ८१७ - पुन पुन श्रद्धा प्राप्त होना दुर्लभ है ।
८१८ --- सदा जितेन्द्रिय और सयमशील होता हुआ मुनि निर्वाण की साधना करे |
८१९ -- शब्दो के विषय में आसक्त जीव. अनेक प्रकार से त्रस स्थावर जीवों को हिंसा करता है ।
८२१ – श्रद्धा परम दुर्लभ है ।
.८२२ -- शान्तिनाथ इस लोक में शान्ति
T
८२० - जो शब्दो में तीव्र गृद्धि भाव रखता है, वह अकाल मे ही विनाश को प्राप्त होता है ।
[ ३९३
-
1
1
करनेवाले है ।
-८२३ - यहा पर काम भाग में मूच्छित और आहार आदि सज्ञावाले पुरुष आश्रव सहित होते हुए मोह को प्राप्त होते है । -
८२४ --- हसीवाली ( पाप क्रिया को ) छोड दो ।
८२५ -- जिन भगवान का कहा हुआ मार्ग ही सच्चा मार्ग ह, और यही उत्तम मार्ग है ।
८२६ - सम्यक दृष्टि सदैव अमूढ होता है ।
८२७——सम्यक्त्वदर्शी पाप नही करता है ।
८२८ - सुव्रती सर्वत्र समता रक्खे |
• ८२९ - समता से ही श्रमण होता है और ब्रह्मचर्य से ही वाह्मण होता है ।
4
८३० ससार में शत्रु अथवा मित्र, सभी प्राणियों पर समता भाव रक्खो |
८३१ - हे गौतम | समय भर का भा प्रमाद मत करो ।
-८३२ -- ( अवाहनाय पदार्थों के प्रति ) उपेक्षा के साथ समता धर्म के अनुसार अपनी आत्मा को प्रफुल्लित करो 1.
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३९४ ]
८३३ -- समय सया चरे ।
८३४ - सम सुह दुक्ख सहे अ जे स भिक्खू । ८३५ - समाहि कामे समणे तवस्सी ।
ई
(क्षमा ८).
( श्रमण- भिक्षु २ )
( तप १३ ) ८३६ -- समियं ति मन्न माणस्स समिया, वा असमियां वा
समिआ होइ । ( दर्शन ५) ८३७ -- समुप्पेह माणस्स इक्काययण रयस्स, इह विप्पमूक्कस्स नत्थि मग्गे विरयस्स । ( सद्गुण १९ )
-
th "" }
८३८–समो निन्दा पससासु तहा माणावमाणुओं । (प्रशस्त १६ ) ८३९ - सया सच्चेण सपने मिति भूएहिं कप्पए । ( सत्यादि २३ )
८४०-सय सय पससन्ता, गरहता पर वयं, ससार ते विउस्सिया । - (बाल ३८ ) -
7
[ मूल संक्तियों
८४१—सरीर माहु नावत्ति जीवों बच्चइ
(योग १५ ) .
८४२ -- सल्ल कामा विस कामा कामा आसी विसोवमा । ( काम ७ )
८४६ - सव्वत्थ विणीय मच्छरे ।
C
८४७ -- सव्वत्थ विरति कुज्जा । ८४८ - सव्वत्थं विरति कुज्जां ।
८४३ - सव्वओ अप्पमत्तस्स नत्थि भयं ।
९४४ - सव्वओ पमत्तस्स भय ।
८४५–सव्वओ संवडे दते, आयाण सु समाहरे ।.
MP 17 F
F
नाविओ ।
( प्रशस्त ५ )
( भोग १४ )
( तप ८ )
( कर्तव्य १७ )
( सद्गुण, १७ ) -
1
( उपदेश ७४ ),
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शब्दानुलमी अनुवाद]
८३३--सदैव समता का आचरण करो। -८३४-जो-सुख दुख सहने मे समभाव रखता है, वही भिक्षु है । ८३५ --जो श्रमण, समाधि की कामना करता है, वही तपस्वी है । ८३६. सम्यक् दृष्टि आत्मा के लिये सत्य और असत्य सभी सत्य रूप
से हो परिणित हो जाया करता है । ८३६-विवेकपूर्वक देखने वाले के लिये, ज्ञान आदि गुणो मे प्रवृत्ति;
करने वाले के लिये, आश्रव रहित के लिये, आर व्रतवारी के लिये, ( संसार में घूमने का और अधिक ) मार्ग नहीं रह
जाता है। ८३८-निन्दा और प्रंशसा मे तथा मान और अपमान में समभाव
- वाला होओ। ८३९--मदा सत्य से सपन्न होते हुए प्राणियो के साथ मैत्रा भाव
रक्सो । ८४०-अपनी अपनी ही प्रशसा करने वाले और दूसरे के वचनो का
निन्दा करनेवाले, ऐसे वे मूर्ख ससार मे डूबे हुए ही होते है। __-वे मिथ्या पक्षपाती ही है। . . ,८४१ - गरीर तो नाव कही गई है और जीव "नाविक' कहा गया है।
८४२- ये काम-भोग गल्य के समान है, विप के समान है और विष
__वाले मर्प के समान है। ८४३-जो सभी प्रकार ने अप्रमत्त है, उसके लिये भय नहा है । ८४४--प्रमादी के लिये सभी ओर से भय है। .. ८४५ सभी तरह से सव्रतशील होता हुआ, स्यमी आदान समिति
का भलीभाति आचरण करे। '' ८४६-सर्वत्र ई-मत्सर भाव को हटा दो। -
८४७-सर्वत्र विरति करो। ८४८-सब जगह विरति ( सवर-निर्जरा ) का आचरण करो।
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=९६]
{
८४९–सव्व धम्माण वत्तिणो देवेसु उववज्जई 1
( महापुरुष ३८ ) ८५०~~सव्व मणागय महं चिट्ठति सुहं पत्ता | ( मोक्ष ७ )
[ मूल-सूक्तियां
८५१ - सव्व लोयसि जे कामा त विज्ज परिजाणिया ।
( काम ३२ ) ८५२ - सव्व सँग विनिम्मुक्को सिद्धे भवइ नीरए । ( मोक्ष ५ )
८५३~~~सव्व सगावगए अ जे स भिक्खु । ८५४—सव्वारम्भ परिच्चागो निम्ममत्त । . ८५५ - सव्विदियाभि निव्बुडे पयामु ।
( श्रमण १० ) - ( अपरिग्रह १ ) ( गील २२ )
८५६ -- सव्वे अणट्ठे परिवज्जयते, अणाउले या अकसाइ भिक्खु । - ( श्रमण - भिक्षु १२ )
८५७ -- सव्वे आभरणा भारा, सव्वं कामा
दुहावहा ।
( उपदेश ५१ )
( अहिंसा ६ )
८५८ -- सव्वे पाणा पियाउया । ८५९~~सब्वे मरा नियदृति, तक्का जत्थ न विज्जइ, मई तत्थ न गाहिया, उनमा न विज्जए ।
( मोक्ष २ )
( अहिमा 9 )
८६० - सव्वेसि जीविय पिय ।
८६१ - सव्वे काम जाए पाममाणो न लिप्पई ताई ।
( महापुरुष २५ )
८६२ --~मेह भूएहि दयाणु कपी, स्वतिक्ख में संजय बभयारी
८६३ - सव्वं अप्पे जिए जिय ।
1
. (अहिंसा १७ )
(
वान्म १० )
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शब्दानुलक्षी अनुवाद ]
[ ३९७
८४९ – विविध धर्म मार्ग का अनुसरण करनेवाला देवताओ में उत्पन्न होता है।
८५०- ( मुक्त आत्माएँ ) सभी सुख प्राप्त करती हुई अनागत मार्ग में ( शाश्वत् स्थान मे ) स्थित हो जाती है । ८५१ - सम्पूर्ण ससार मे जो काम भोग है, उनको पडित पुरुष भली"भाति समझे +
-
,
37
21 11
-7.
८५२ - सभी प्रकार के सग से विनिर्मुक्त होती हुई सिद्ध आत्मा रज रोहित ( सर्वथा कर्म रहित ) हो जाती हैं।
८५३ - जो सभी प्रकार की संगति से दूर है, वही भिक्षु है ।
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Se
८५४ -- सभी प्रकार के आरम्भ का परित्याग करना ही निर्ममत्व है । ८५५ – स्त्रिय) से सभी इन्द्रियो द्वारा अभिनिवृत्त ( दूर ही ) रहना चाहिये ।
८५६ - सभी अनर्थों को छोडता हुआ, आकुलता रहित होता हुआ भिक्षु कंपाय रहित होवे ।
2
- ८५७ –– सभी आभूषण भार रूप है और सभी काम भोग दुख का लानेवाले है ।
८५८ - सभी प्राणियो को अपनी आयु ( जीवन ) प्रिय है ।
८५९ - ( मोक्ष-वर्णन में ) सभी स्वर ( शब्द ) शक्ति हीन हो जाते है, तर्क वहाँ प्रवेश नही कर सकता है, बुद्धि वहाँ अग्राहिका हो जाती है और कोई उपमा भी उसके लिये विद्यमान नही है । ८६० - सभी प्राणियो को अपना जीवन प्यारा है ।
1
८६१ - मोक्ष मे जाने की इच्छावाला सभी काम-विषयो को देखता हुआ उनमें लिप्त नही होता है ।
+
८६२ - सभी भूतो के साथ ( जीवो के साथ ) दया वाला और अनुकम्पा वाला होता हुआ सयमो ब्रह्मचारी और क्षमाशील होव । ८६३ -- आत्मा को जीत लेने पर सब कुछ जीता हुआ ! ही हैं पर विजय प्राप्त की जा चुकी है ।
( सब
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73
३३९४ }
मूलसूक्तियां ६४-सव्व जग तू समर्माणुहो। " ( उपदेश ८ ) ८६५--सव्व पि ते अपज्जत्तं, नेव ताणायें त। लिभि १६ ) ८६६- सव्व विलवियं गीय, सव्व नट्ट विडम्बियं ।' ८६७-सब्ब सुचिण्ण सफल नराण - कर्त्तव्य २) ८६८–सातागार वणिहुए, उवसते णिहे चरे । ( उपदेश ८८ ) ८६९-सादिय ण मुस बूया, एस धम्मे वुसीमओ।
. .
. . ( सत्यादि २४)
८७०-सामण्णं दुच्चर। . - (श्रमण-भिक्षु ४२) ८७१-सामाइएणं सावज्ज जोग विरइ जणयइ । - (तप्र.१६) ८७२—सामाइय माहु तस्स ज, जो अप्पाण भए ण दसए।
( चारित्र ६) ८७३-सारीर माणसा चेव, वेयणा उ अणतसो ।। संसार ६) ८७४–सावज्ज जोग परिवज्जयतो, चरिज्ज भिक्खू सुसमाहि - इदिए।
___. ... . - (योग १४ ) ८७५-सावज्ज न लवे मुणी. - (सत्यादि ३३ ) ८७६-सासय मव्वा वाह चिट्ठति सुही सुह पत्ता ।- .
. . . ., (मोक्ष १३ ) ८७७-सासय परिणिन्वुए.। , '
-(प्रशस्त २०) ८७८-सिक्ख सिक्खेज्ज पडिए। - - - - - (सद्गुण १६)
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________________
शब्दानुलक्षी अनुवाद
[३९९
_'
नही हो।
, ८६४ (हे आत्मज्ञ ! ) सम्पूर्ण ससार के प्रति तू समतापूर्वक देखने
वाला हो। ८६५ -सभी (कौटुम्बिक प्राणी) तुम्हारी रक्षा करने के.लिए अपर्याप्त
- है-असमर्थ है, और तुम भी उनकी रक्षा करने के लिये समर्थ १८६६—सभी प्रकार के गायन' विलाप: स्वरूा । सभी प्रकार के
। नृत्य-खेल विडम्वना रूप है। ८६७-सभी मुकृत्य मनुष्यो के लिये ( अच्छा ) फल लाने वाले .. होते हैं। ', ४६८: सुख शीलता युक्त होता हुआ, क्रोध नहीं करता हुआ एवं माया ___ "प्रपंच रहित होता हुआ विचरे।
- . -८६९-झूठ ( से शुरु होने ) वाला वाक्य नहीं बोले, यही जितेन्द्रिय
वालो का धर्म है। १८७० श्रमण-धर्म का आचरण करना अति कठिन है ।
८७१---सामायिक से सावद्य-योग की विरति होती है। १८८७२-जो (महात्मा) अपनी आत्मा के लिये किसी भी प्रकार का भय
नहीं देखता है, यही उसके लिये सामायिक कही गई है। .८७३-- ( इस ससार, में ) शरीर सम्वन्धी और मन सम्बन्धी अनन्त
प्रकार की वेदनाएं है। ८७४-सावद्य-योग का परित्याग करता हुमा और इन्द्रियों पर
. सुसमाधि वाला, होता हुआ भिक्षु विचरे। .. . ८७५-मुनि सावद्य ( पापकारी ) नही बोले। ८७६- ( मुक्त जीव ) शाश्वत् अव्यावाघ सुख को प्राप्त करके सुखी
रूप से स्थित है। १.८७७- (हे उच्च पुरुषो । ) शाश्वत् रूप से परिनिवृत्त होऔं ।
८७८-पडित पुरुष व्याकरण आदि विद्या का अध्ययन करें।
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________________
860]
८७९ - सिद्धाणं सोक्ख अव्वा वाह ।
८८० - सिद्धो हवइ सासओं । ८८१ - सीयति अवुहा 1
८८२ - सीयन्ति एगे बहु कायरा नरा । ८८३ - सोहे मियाण पवरे, एव हवड बहुस्सुए ।
८८४ - सुअ लाभे न मज्जिज्जा । ८८५ -- सुई धम्मस्स दुल्लहा ।
८८६ - सुत्ता अमुणी, सया मृणिणो जागरति । ८८७ - सुदुल्लह लहिउ वोहि लाभ, विहरेज्ज
।
८८८ - सुद्धेण उवेति मोक्ख । .
८८९ - सुद्धे सिया जाए न दूसएज्जा ।
८९० - सुपरिच्चाई दम चरे ।
-
८९१ – सुवभचेर वसेज्जा ।
८९२ -- सुय महिट्टिज्जा उत्तमठ्ठ गवेसए ।
[ मूल सूक्तियां
( मोक्ष १२ )
(मोक्ष ६ )
( चाल १८)
(वाल
३६ )
( ज्ञान १४ )
( कपाय २० ) (दुर्लभ २)
८९५ -- सुव्वते समिते चरे ।
८९६ - सुविणी अप्पा दीसति सुह मेहंता ।
( सात्विक १५ )
(दुर्लभ १६
(मोक्ष ३ )
( श्रमण- भिक्षु-३६)
( कर्त्तव्य १९ )
( शील ६ ),
( ज्ञान १७ )
८९३—सुयस्स आराहणयाए अन्नाण खबेइ, न य सकिलिस्सइ ।
( उपदेश ८० )
८९४-- सुयस्स पुण्णा विउलस्स ताइणो, खवित्तु कम्म गइ मुत्तम गया ।
( ज्ञान १९ )
( महापुरुष ३५ )
( सात्विक ४ )
Page #469
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________________
शब्दानुलक्षी अनुवाद]
[४०
। ८७९-सिद्ध आत्माओ का सुख अव्यांवाघ ( निरन्तर बाधा रहित ) , होता है। ८८०-सिद्ध प्रभु शाश्वत् ( नित्य, अक्षय ) होते है । ८८१ --अज्ञानी, मूर्ख दुखी होते है। ८८२-~~-अनेकानेक मनुष्य कायर होते हुए दु.खी होते हैं । ८८३-जैसे सिंह मृगो में श्रेष्ठ होता है वैसे ही बहुश्रुत व्यक्ति (जनता
में श्रेष्ठ ) होता है। ८८४-(आत्म-हितपी) ज्ञान प्राप्त हो जाने पर अहकार नहीं करे । ८८५-धर्म सुनने का प्रसग मिलना दुर्लभ है। ८८६---अमुनि सोये हुए है और मनि सदैव जागृत है । ८८७-(मेवा व्रती)सुदुर्लभ बोधि लाभ की प्राप्ति के लिये (सम्यक ज्ञान
की प्राप्ति के लिये ) विचरे। ( ज्ञान-प्राप्ति का प्रयत्न करे)। ८८८-शुद्ध आत्मा ( कर्म रहित आत्मा ) मोक्ष को प्राप्त करती है । ८८९-परापकारी अच्छी तरह से शद्ध हाता हुआ समय व्यतीत करे
आर दूषित नही होवे। ८९०-सुपरित्यागी इन्द्रिय-दमन रूप धर्म का आचरण करे । ८९१-सुब्रह्मचर्य रूप धर्म में (ब्रह्मचारी) रहे। (ब्रह्मचर्य का पालन करे) ८९२-श्रुत-शास्त्र का अध्ययन करके ( ज्ञान में सुस्थित हो करके )
उत्तम अर्थ की (मोक्ष की) गवेषणा करे; (अनंतता की)
खोज करे। ८९३, जो श्रुत-जान की आराधना से अज्ञान का नाश करता है, वह ., . सक्लेश नहा प्राप्त करेगा।
८९४-विपुल श्रुत ज्ञान से पूर्ण, स्वपर रक्षक महात्मा कर्म को क्षय ,, ...,करके उत्तम गति को प्राप्त हुए है। ,८९५ --सुबती ममितियो का परिपालन करता हुआ विचरे । , १८९६ सुविनीत आत्मा सुख प्राप्त करती हुई देखी जाती है ।
Page #470
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________________
४०२]
- - - मूल-सूक्तियाँ
८९७--सुस्सूसए आयरि अप्पमत्तो ।
(कर्तव्य ९) ८९८-सुहावहं धम्म धुर अणुत्तरं धारेह निव्वाण गुणावहं महं।
(धर्म २७) ८९९-सुहुमे सल्ले दुरुद्धरे, विउमता पयहिज्ज संथव ।
(कपाय २९)
९००-सूरा दृढ परक्कमा।
(महापुरुष १४) ९०१–सेणे जह वट्टयं हरे, एव आउखयमि तुट्टई ।
(उपदेश ५८) ९०२-से य खु मेयं ण पमाय कुज्जा । (प्रशस्त ९)
९०३-से सोयई मच्चु महोवणीए धम्म अकाऊण परमि लोए।
( धर्म १९ ) ९०४-से हु चक्खू मणुस्साण, जे कंखाए य अतए ।
( महापुरुष ७) ९०५-सोय परिण्णाय चरिज्ज दते ।
( उपदेश, ८५) ९०६-सकट्ठाण विवज्जए ।
( उपदेश २७ ) ९०७-सगाम सीसे व पर दमेज्जा । ( सद्गुण, १० )
९०८-सघ नगर । भद्द, ते ! अखड चारित्त पागारा।
(प्रा म, १८) ९०९-संघ पउमस्स भई, समण गण सहस्स पत्तस्स ।
(प्रशस्त, २५) ९१०-सजम-तव-तुंबा रयस्स, नमो सम्मत्त पारियल्लस्स ।
(प्रा, मं, १९)
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________________
सन्दानुलक्षी अनुवाद]
[४०३. ८९७-( शिष्य ) अप्रमादी होता हुआ आचार्य की सेवा-भक्ति करे । ' ८९८-जो सुख का लानवाली है, अनुत्तर-श्रेष्ठ है और निर्माण के
गुणो को देनेवाली है, ऐसी महान् धर्म-धुरा को धारण करो। ८९९-विद्वान् “अति परिचय” को सूक्ष्म शल्य रूप और कठिनाई से
दूर करने योग्य समझ कर उसे छोड दे, सम्बन्ध-विच्छेद
कर ले। ९००-शरवीर दृढ पराक्रमशील होते है । ९०१-जैसे श्येन पक्षी ( वाज पक्षी ) बटेर को पकड लेता है, वैसे
ही आयुष्य का क्षय होते ही यह जीवन टूट जाता है। ९०२---यह मेरे लिये निश्चय ही कल्याण कारी है, ऐमा समझ कर
प्रमाद याने असत आचरण नही करे। ९०३-जा विना धर्म किये ही मृत्यु के मुख में चला गया है, वह पर
लाक में दुःखा होता है। ९०४-वहा मनुष्यो के लिये चक्षु रूप है, ज्ञान रूप है, जो कि अभिला
षाओ का ( इच्छाओ का ) अत करने वाला है। ९०५ सयमी निरवद्य आचार का ज्ञान करके तदनुसार आचरण करे । ९०६-शका के स्थान को छोड़ दो। ९०७-जैसे सग्राम के अग्र भाग पर शत्रु का दमन किया जाता है,
वैसे ही इन्द्रियों के विषयो का भी दमन करो। -९०८-अखड चारित्र रूप प्राकार ( कोट, गढ ) वाले हे श्री सघ रूप
नगर ! तुम्हारा कल्याण हो ! मंगल हो । ९०९-जिसके साधु साध्वी रूप हजारो पत्र है, ऐसे श्री सघ रूप कमल
का भद्र हो, कल्याण हो, जय विजय हो। ९१०---सयम और तप ही जिसके मध्य भाग - के गोल अवयव है, ऐसे
सम्यक्त्व रूप चक्र वाले श्री. संघ को नमस्कार हो । ;
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________________
4
४०४]
דר
९११ - संजया सुसमाहिया । ९१२ - सतप्पती असाहु कम्मा | ९१३ -- सतोष पाहन्न रए स पुज्जो । ९१४ - संतो सिणो नोप करेंति पाव ९१५ – सवोही खलु दुल्लहा ।
९१६ - मिस्स भावं पयहे पयासु ।
९१७ -- सवेगेण अणुत्तरं धम्म सद्ध जणयइ |
९१८ -- ससरइ सुहा सहेहि कम्मेहिं । ९१९ - संसारो अण्णवो वृत्तो ।
ह
९२० - हम्ममाणो ण कुप्पेज्ज, वृच्चमाणो न संजले ।
९२३ -- हिरिम पडि सलीणे सुविणीए । -
[ मूल सूक्तियाँ
( महापुरुष. १६ ).
( अनिष्ट, १ )
( महापुरुष १० )
( लाभ, १२ )
( दुर्लभ ६ )
( शाल १४ )
( वैराग्य, २२ )
''
( कर्म १० )
( ससार ५ )
( उपदेश ६७ )
९२१ -- हसतो नाभिगच्छेज्जा । ९२२ - हिंडति भयाउला सढा, जाइ जरा मरणेहि अभिदुता ।
९२४ - हिंसगं न मुसं वूआ ।
९२५ हिंसन्नियं वाण कह करेज्जा ।
( उपदेश ९ )
( वाल १५ )
( महापुरुष, २० )
(सत्यादि ४३ )
( हिंसा ४ )
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________________
शब्दानुलक्षी अनुकाद]
[४०५ ९११-सयमी सुसमाधि वाले होते है। .. ९१२–असाधुकर्मी ( दुष्ट काम करने वाला) महान् ताप भोगता है। ९१३-जो सर्वोच्च सतोष से अनुरक्त है, वही पूजनीय है । ९१४–सतोषी महापुरुष पाप नहीं करते है। ९१५ - सवोधि याने सम्यक् ज्ञान और सम्यक् दृष्टि निश्चय ही
दुर्लभ है। ९१६-स्त्रियो के प्रति समिश्र भाव को ( चल विचल भावो को)
छोड दो। ९१७-सवेग भावना से- ( वैराग्य भावना से ) श्रेष्ठ धर्म रूप श्रद्धा
उत्पन्न होती है। ९१८-शुभ कामो से साता रूप सुख-शाति प्रवाहित होती है । ९१९-ससार ( एक प्रकार का ) समुद्र कहा गया है।
९२०- ( कर्त्तव्य शील पुरुष ) मारा जाता हुआ भी क्रोध नही करे,
तथा गाली आदि का उच्चारण किया जाता हुआ भी द्वेष
नही लावे। ९२१ -हसता हुमा नहा चले। ९२२--शठ पुरुष जन्म, जरा और मृत्यु से पीड़ित हाते हुए, एव भय
से व्याकुल होते हुए संसार समुद्र में चक्कर लगाया करते है। ९२३-लज्जा वाला और एकान्त वासी जितेन्द्रिय पुरुष "सु विनीत"
होता है। ९२४-हिंसा पैदा करने वाला झूठ मत बोलो। ९२५ - ( आत्म हितैषी ) हिंसा को पैदा करने वाला कथा करे नहीं।
Page #474
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________________
परिशिष्ट संख्या ३
पारिभाषिक शब्द
सूची
-
००** --
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________________
जिन शन्दों की परिभाषा और व्याख्या “अकार आदि क्रम"
से आगे दी है; उन शब्दों की अकार आदि क्रम से
सूची
-*०*
शब्द पृष्ठ सख्या | शब्द
पृष्ठ सख्या १९ अरूपी ... ४१६
२० अलोक १ अकाम निर्जरा __ ... ४१४
२१ अवधि ज्ञान २ अणगार
२२ अव्रत ३ अतिचार
२३ अविवेकी ४ अधर्मास्तिकाय
२४ अशुभ-योग ५ अनार्य
२५ असयमी ६ अनासक्ति
| २६ असविभागी ७ अनुकपा ... ४१५ ८ अनुभाव
आ ९ अनुभूति
आकाश १० अनुमान
| २ आगम ११ अनत
| ३ आचार्य १२ अप्रतिपाति दर्शन
| ४ आत्मा १३ अविनाभाव सवध
५ आत्यतिक १४ अभक्ष्य
। ६. आध्यात्मिक ५ अमूढ,
| ७ आर्त्त-भ्यान
| ८ आरंभ १७ अरति
.. ९ आर्य ,, ... १८ अरिहंत
, १० आराधना
له سه می
४
अमूर्त
Page #476
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________________
४०८]
गड
११ आलोचना
१२ आश्रय
१३ लागवित
१८ मस्तिकता
१५ नासतना
१ उच्
२
* उपभोग
२ उपयोग
३
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उपाधि
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६ नाग- मोग
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१० काल
११ कूट शाल्मली वृक्ष
१२ केवल ज्ञान
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२ गृद्धि
३ ग्रथि
४ गुप्ति
[पारिभाषिक शब्द सूची
कार्य-कारण सबंध
१
२
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३
गणधर
गोचरी
गोत्र कर्म
जमन्त्र
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घन घाती कर्म २ घाण इन्द्रिय
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१ चतुविध संघ २ चारिय
३ चेतना
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पृष्ठ संख्या
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Page #477
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________________
परिभाषिक शब्द सूची ]
शब्द
५ जिनेन्द्र
६ जीव ७ जैन
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*
१ तत्त्व.
२. तत्त्व दर्शी
३ तदुत्पत्ति सवध
४ तप
५ तर्क
६ तादात्म्य सबंध .
७ तामसिक
८ तियंच गति
९ तृष्णा - १० तीर्थं
११ तीर्थंकर
७ द्रव्य-भाश्रच -८ द्रव्य-शांति
ब्रेब
...
१ दर्शन
२ दर्शन मोहनीय ३ दुर्भावना
४ दुर्वृत्तियाँ
५ देवाधिदेव
६ द्रव्य
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पृष्ठ संख्या शब्द
४२६
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४३०
१ ध्यान
५२ धर्म
३ धर्म-ध्यान
४ धर्मास्तिकाय
१ नरक गति
२ नव तत्त्व
३ नाम कर्म
४ नियाणा
+
५ निग्रंथ
६ निर्जरा
७ निद्वंद्व
८ निर्वेद
९ निरवद्य-योग
१० |नष्कामना ११ नोकषाय
१ प्रकृति
२ प्रकृति बध
३ प्रत्यभिज्ञान
४ प्रतिक्रमण
५ प्रदेश बंध
६ प्रमाद
. ७ प्रशम
...
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[४०९
पृष्ठ संख्या
***
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४३५
Page #478
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________________
__ ४१०१
[पारिभाषिक शब्द सूची
शब्द
सख्या
शब्द
४३५
पृष्ठ संख्या ... ४४१
... , म
६ भाग ७ भौतिक-सुख
४३६
...
४३७
८ प्रायश्चित ९ पदार्थ १० परमाणु ११ पर्याय १२ परिग्रह १३ परिणाम १४ परिषह १५ पल्यापम १६ पाप १७ पाँच इन्द्रियाँ १८ पुण्य १९ पुद्गल २० पूर्वधर
...
"
१ मति-ज्ञान २ मधुकरी ३ मन; पर्याय ४ मनो गुप्ति ५ ममता ६ महात्मा ७ महाव्रत ८ माया ९ मिथ्यात्व १० मिथ्या दृष्टि ११ मुक्त १२ मुनि
".
४३८
ब
१ वध
...
" | १३ मुमुक्षु
२ वहु त ३ वाल ४ बाल-तप
१४ मूढ १५ मूर्छा १६ माह १७ माहनीय कम १८ मोक्ष '
भ
१ भव्य २ भाव ।। ३ भावाश्रव ४ भावना ५ भाव-शांति
१ यतना
२ यथास्यात चारित्र ... ४४१ । ३ योग-प्रवृत्ति ...
Page #479
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________________
[४११
पारिभाषिक शब्द सूची]
पृष्ठ सख्या
शब्द
पृष्ठ सख्या शब्द
४४७
८ विरक्त | ९ वियोग
१० विराधना ११ विवेक १२ विषय १३ वीतरागता १४ वातराग सयम १५ वृत्ति | १६ वेतरणी नदी | १७ वेदनीय-कर्म १८ वैभव
१ रत्नत्रय २ रति ३ रस
राग ५ राजस् ६ राजू ७ रूप ८ रूपी ९ रौद्र-ध्यान
... - ४५४
...
४४८
...
. ४५५
...
...
४४९
...
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१ लक्षण २ लालसा ३ लेश्या ४ लोक ५ लोकाकाश
....
४५६:
१ शब्द २ श्रद्धा ३ श्रावक ४ श्राविका ५ शील ६ श्रुत ज्ञान ७ शुक्ल ध्यान ८ शुभ-ध्यान ९ शुभ-याम १० शुभ-लेश्या
४५७.
१ व्यामोह २ वचन गुप्ति ३ वाचाल ४ वासना ५ विकथा ६ विकार ७ विपाक-शक्ति
...
४५२
, १ षट्-काय " । २ षट्-द्रव्य
Page #480
--------------------------------------------------------------------------
________________
[पारिभाषिक शब्द सूची
शब्द
पृष्ठ संख्या | शब्द
पृष्ठ संख्या
४६५
.।।
...
"
२१ सयमासयम २२ संयोग २३ सलेखना २४. संवर ... २५ संवेग । २६ सस्कृति २७ स्थविर २८ स्थावर २९ स्थित-प्रज्ञ ३० स्थिति-बंध ३१ स्पर्श ३२ स्मृति ३३ स्याद्वाद
... -
१ सम्यक्त्व २ सम्यक् दर्शन ३ सम्यक् ज्ञान ४ समाधि ५ समारभ ६ समिति ७ सराग-सयम ८ सहयोग-सबध ९ सागरोपम १० सात्विक ११ साधना १२ साध्वा १३ साधु १४ सामायिक १५ सावध -योग १६ सिद्ध १७ सूत्र १८ सत १९ सयति २० सयम
४६७
।
१ क्षेत्र
१ त्रम
-
...
४६५ _ १ ज्ञान
४६९ | नोट-कुल शब्द सख्या २४६ है
Page #481
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________________
परिशिष्ट संख्या ३
टीका में आये हुए पारिभाषिक और आवश्यक शब्दो की अकार आदि क्रम से व्याख्या, टिप्पणी. और अर्थ ।
Page #482
--------------------------------------------------------------------------
________________
४१४ ]
अ
- [ व्याख्या कोष
१ - अकाम निर्जरा
(१) निष्काम या अनियाणा वाली निर्जरा । अर्थात् किसी भी प्रकार के फल अथवा बदले की भावना और इच्छा नही रखते हुए एकान्त आत्म हित के लिये की जाने वाली तपस्या और सेवा कार्य आदि ।
(२) अनिच्छा पूर्वक सहा जाने वाला कष्ट भी जैन दर्शन में " अकामनिर्जरा" कहलाता है ।
२----- अणगार
साधु अथवा महापुरुष, जो किसी भी प्रकार का परिग्रह नही रखता हो 'एव अहिंसा, सत्य, अचार्य, ब्रह्मचर्य और निष्परिग्रह आदि व्रतो का मन, वचन और काया से परिपूर्ण रीति से पालन करन वाला हो ।
३- अतिचार
ऐसी सामग्री इकट्ठी करना अथवा ऐसा परिस्थिति पैदा करना, जिससे कलिये हुए व्रत में आर ग्रहण किये हुए त्याग में दाप पैदा होने की सभा - - वना हो, अथवा अश रूप से दोप पैदा हो गया हो ।
४- अधर्मास्ति काय
जिन छ द्रव्यो से यह सपूर्ण ब्रह्माठ अथवा लोकाकाश वना है, उनमें से एक दूथ्य । यह दूव्य जावा का आर पुद्गलो को "उनकी ठहरने की स्थिति " में ठहरने के लिये मदद करता है ।
५ - अनार्य
मनुष्यो की ऐसी जाति, जिनमें मद्य, मास, शिकार आदि व्यसनो की भरमार हो और जो दया, सत्य आदि में धर्म नही मानते हो ।
६ ---- अनासक्ति
नीति और कर्त्तव्य की ओर पूरा पूरा ध्यान देते हुए जीवन में कुटुम्ब परिग्रह, यश, सन्मान और अपने कार्य में जरा भी माह ममता नही रखना सथा किसी भी प्रकार से प्रतिफल की भावना नही रखना ।
Page #483
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________________
व्याख्या कोष ]
[ ४१५
७ - अनुकंपा
सताये जाते हुए और मारे जाते हुए, पीडित प्राणी के प्रति दया लाना ।
८- अनुभाव
प्रत्येक जीव में होने वाले क्रोध, मान, माया और लोभ के कारण जीव के साथ बधने वाले कर्मों में फल देने की जो शक्ति पैदा होती है, वह अनुभाव है ।
९ - अनुभूति
परिस्थितियो से और काल-क्रम से पैदा होने वाला ज्ञान | पाचो इन्द्रियों और मन से उत्पन्न होने वाला अनुभव रूप ज्ञान ।
१० -- अनुमान
कारणो को देखकर अथवा जानकर उनके आधार से मूल कार्यों का ज्ञान -कर लेना । जैसे घुंऐ द्वारा दूर से ही आग का होना जान लेना ।
११ - अनत
जिसकी कोई सीमा नही हो, अथवा जिसका तीनो काल में भी अन्त नही आवे । अनन्त के तीन भेद है १ जघन्य अनन्त, २ मध्यम अनन्त और
३ उत्कृष्ट अनन्त ।
१२- अप्रतिपाति दर्शन
ईश्वर, आत्मा, पाप, पुण्य आदि धार्मिक सिद्धान्तो के प्रति पूर्ण विश्वास “रखना "दर्शन" है, मोर ऐसा दर्शन प्राप्त होकर फिर कभी भी नष्ट न हो, मोक्ष के पाने तक बरावर बना रहे, वह अप्रतिपाति दर्शन है ।
१३ - - अविनाभाव सबध
दो पदार्थों का अन्योन्याश्रय - सवध, पारस्परिक सबब, अर्थात् एक के होने पर दूसरे का होना, दूसरे के नही होने पर पहले का भा नहा होना | अग्नि और घुंए का “ अविनाभाव सबघ" कहलाता है ।
१४- अभक्ष्य
ऐसे पदार्थ जो अहिंसा प्रेमा के खाने पीन के योग्य नही होते है, वे भक्ष्य है |
Page #484
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________________
४१६ ]
व्याख्या कोष
१५-~-अमूढ
जो आत्मा विवेक और ज्ञान के बल पर अपनी इन्द्रियों और मन को विषय, विकार से हटा लेता ह आर निष्कपट रीति से जीवन के व्यवहार को चलाता है, वह "अमूढ" कहलाता है। १६---अमूर्त
.. जिन द्रव्यो में रूप, रस, गध, स्पर्श, नहीं पाया जाता है।
१७-अरति
क्रोध, मान, माया, लाभ और ईर्षा द्वेष के कारण से किसी पर भी घृणा, धिक्कार, बेपर्वाही, अरुचि आदि के भाव होना “अरति" है ।
१(--अरिहत जिनकी आत्मा पूर्ण विकास कर चुकी है, जो अखड और परिपूर्ण ज्ञान को प्राप्तकर चुके है , जा ईश्वर रूप हो चुके है, ऐसे असाधारण महात्मा "अरि-- हत' है । जैन-परिभाषा के अनुसार जिन्होने चार कर्मों का सर्वथा जड़ मूल से. नाश कर दिया है, वे "मरिहत" है ।
१९-अरूपी जो वर्ण से, गध से, रस से और स्पर्श से रहित है। ' २०-अलोक
सम्पूर्ण ब्रह्मांड का वह अनन्त और असीम शून्य स्थान, जहाँ कि जीव, पुद्गल आदि कोई द्रव्य नहीं है । इसे अलोकाकाश भी कहते हैं। ..
.२१-अवधिज्ञान : . . - । । ज्ञान का वह रूप है, जो कि आत्मा की शक्ति के आधार से ही इन्द्रियो और मन की सहायता नही लेते हुए भी कुछ मर्यादा के साथ तीनों काल के रूपी पुद्गलो को जान सके-समझ सके।
.. " -अवता । । । । । । ।
किसी भा कार का त्याग, प्रत्याख्यान अथवा मर्यादा नही फरना।
.
.
FITS
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व्याख्या कोष ]
२३- अविवेको
समय, स्थान और परिस्थिति एव मर्यादा का ध्यान नही रखते हुए बेपर्वाही के साथ कार्य करने वाला ।
[४१७
२४- अशुभ योग
मन को बुरे विचारो में लगाना, भाषा को कषाय वाला रूप देना, और शरीर को आलस्य, प्रमाद और व्यर्थ के कामो में तथा क्लेशका कामो में लगाना । मन योग, वचन - योग और काया योग इस प्रकार इसके तीन भेद है ।
२५ - असमी
जिसका अपनी इन्द्रियों और मन पर काबू नही हो और जिसका जीवनव्यवहार किसी भी प्रकार की नैतिक मर्यादा से वध हुआ नही हो, ऐस प्राणी "असंयमी " है |
२६ - अस विभागी
दूसरो के सुख-दुख का और हित अहित का ख्याल नही रखनेवाला एकान्त स्वार्थी ।
आ
wing
१ आकाश
जीवो को, पुद्गलो का, पदार्थों को ठहरने के लिये स्थान देने वाला द्रव्य । मूल में यह शून्य रूप है, निराकार है और केवल शक्ति स्वरूप है अखिल ब्रह्माड व्यापी है, सपूर्ण लोक अलोक में फैला हुआ है ।
२ - आगम
अरिहतो के प्रवचन को, गणधरो के ग्रथों का और पूर्ववर आचार्य के साहित्य का आगम कहा जाता है । मोटे रूप में शास्त्रों को, सूत्रो को आगर कहा जाता है ।
२०
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४१८ ]
[ व्याख्या कोष
३- आचार्य
माधु-साध्वियों को सुनिश्चित परम्परा के अनुसार संचालन करने वाले नेता, अथवा विशेष शास्त्रो के महान् ज्ञाता, असाधारण उद्भट विद्वान् पुरुष ।
*४ -- आत्मा
चेतना वाला द्रव्य, अथवा जीव | ज्ञान-शील पदार्थ ही आत्मा है | ३ - आत्यतिक
"अत्यत" का ही विशेपण रूप "आत्यतिक" है । अर्थात् अत्यत वाला । ६ - आध्यात्मिक
"आत्मा" से सवध रखने वाले सिद्धान्तो और वातो का एक पर्याय वाचा विशेषण |
39 - आर्त्त-ध्यान
शोक करना, चिन्ता करना, भय करना, रोना, चिल्लाना, सासारिक सुख और धन-वैभव का ही चिन्तन करते रहना ।
८-- आरभ
सांसारिक सुख-सुविधा बढाने के लिये, वैभव का सामग्री इकट्ठी करने के लिये विविध प्रकार का प्रयत्न करना । अथवा ऐसे काम करना, जिनसे जीवो की हिंसा की सम्भावना हो ।
९ -- आर्य
दान, पुण्य, पाप, आत्मा, श्रद्धा रखते हुए मद्य,
मनुष्यो में ऐसी श्रेष्ठ जाति, जो कि दया, ईश्वर आदि धार्मिक सिद्धान्तो मे पूरी तरह से नाम, जुआ. शिकार आदि व्यसनो से और अभक्ष्य पदार्थों से परहेज करती हो । सात्विक और नैतिक प्रवृत्ति वाली मनुष्य जाति ।
२०--आराधना
शास्त्रों के वचनो के अनुसार चलना, वैसा ही व्यवहार जीवन में रखना ।
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व्याख्या कोष]
[४१९
११-आलोचना
ग्रहण किये हुए व्रतों में दोष लग जाने पर; भूल भरी बातें हो जाने पर, व्रत के विरुद्ध आचरण हो जाने पर गुरु के समक्ष अथवा आदरणीय बन्धु के समक्ष ईश्वर की साक्षी से दोषों का, भूलो का, विरोधीआचरण को स्पष्ट रीति से वयान करना और क्षमा मागना । १२-आश्रव ___मन, वचन और काया की प्रवृत्ति से "कर्म" नाम से वोले जाने वाले सूक्ष्म से सूक्ष्म पुदगल-वर्गणाओ का आत्मा के साथ दूध पानी की तरह सवधित होने के लिये आत्म-प्रदेशों की ओर आना आश्रव है । शुभप्रवृत्ति से शुभ-आश्रव होता है और अशुभ-प्रवृत्ति से अशुभ-आश्रव होता है। १३-आसक्ति ___ मोह को, ममता को, गृद्धि-भाव को आसक्ति कहते है । किसी पदार्थ के प्रति मूच्छित होना, अपने अच्छे कामो का फल चाहना। १४-आस्तिकता - पाप, पुण्य, पुनर्जन्म, आत्मा, ईश्वर, दया, दान, सत्य, ब्रह्मचर्य आदि सिद्धान्तो में और धार्मिक क्रियाओ में पूरा पूरा विश्वास रखना। १५-आसातना
अविनय करना, अनादर करना; उपेक्षा करना।
१-इच्छा
इन्द्रियो और मन की अतृप्त भावना । तृष्णा मय आकांक्षा । विषय और विकार के प्रति रुचि होना । २-इन्द्रिय
नांख, कान, नाक, मुह और गरीर-इन पाचो का सम्मिलित नाम इन्द्रिय है।
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४२० ]
उ
[ व्याख्या कोप
१-- उपभोग
ऐसे पदार्थ जो एक से अधिक बार भोगे जा सकें, जैसे कि वस्त्र, मकान
आभूषण, आदि ।
२ - उपयोग
""ज्ञान और दर्शन" का सम्मिलित अर्थ । जानने, अनुभव करने, सोचने समझने की शक्ति | आत्मा का मूल लक्षण उपयोग ही है । ३ – उपसर्ग
ग्रहण किये हुए व्रतों के परिपालन के समय में आने वाले हर प्रकार के कष्ट; ये कष्ट चाहे प्राकृतिक हो अथवा देव मनुष्य कृत हों अथवा पशु कृत हो ।
४
- उपाधि
1
(१) कष्ट, क्लेश, अथवा परिग्रह रूप संग्रह ( २ ) पदवी, खिताब |
E
१ - ऋषि
ऐसे सत ज्ञानी महात्मा, जो कि अपने ज्ञान वल से और चारित्र वल से भविष्य का ठीक ठीक अनुमान कर सके और दार्शनिक गहन सिद्धान्तों का सही रूप से अनुभव कर सके
क
१ -- क्रोध
चार कपाय मे से पहला कपाय, इसके कारण से आत्मा विवेक शून्य होकर वेभान हो जाता है । वोलने में और व्यवहार में पूरा जाता है | अपना भान भूलकर अविवेक के साथ क्लेशकारी बोलना ही क्रोध है ।
पूरा अज्ञान छा तथा कटु वचनः
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व्याख्या कोष ]
[४२१
२-कर्म
क्रोध, मान, माया और लोभ के कारण प्रात्मा के प्रदेशो पर जा एक प्रकार का सूक्ष्म से सूक्ष्म-परमाणुओ का पटल दूध पानी की तरह छा जाता है और आत्मा को मलिन सस्कारो से आवद्ध कर देता है, ऐसे पुद्गलो से बने हुए वर्गणाओ का समूह । ३-कम-योगी
ज्ञानी और भक्त होने पर भी जो निरन्तर विना किसी भी प्रकार के फल की इच्छा किये अपने कर्तव्य मार्ग पर आरूढ रहे तथा जीवन को कर्मण्यता मय ही बनाया रक्खे, ऐसा पुरुष । ४-कषाय
क्रोध, मान, माया, लोभ, ईर्षा, द्वेप आदि की भावनाएँ कपाय है । कषाय के १६ भेद है-अनन्तानुवंधी क्राघ, मान माया, लोभ
अप्रत्याख्यानावरण " " " " प्रत्याख्यानावरण " " " " संज्वलन
" " " , " ५-कामना 1 इच्छा, आकाक्षा, सासारिक भावना । ६-काम-मोग
स्त्री-पुरुष सबंधी मैथुन-भावनाएँ । ब्रह्मचर्य को तोडने सबंधी इच्छाएँ । ७-कायोत्सर्ग
मन, वचन और काया की प्रवृत्ति को रोक कर चित्त की वत्ति को किसी एक पर ही केन्द्रित करना, चित्त की वृत्ति को सुस्थिर करना ।
८-काय-गुप्ति
शरीर के कामो को और प्रवृत्तियो को अशुभ मार्ग से हटा कर शुभमार्ग में लगाना, एव प्राणीमात्र के हित मे शारीरिक-शक्तियो को जोड़ना।
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[ व्याख्या कोष
४.२२ ]
९ कार्य-कारण सबध
एक की उत्पत्ति में अथवा सपादन मे दूसरे का मुख्य रूप से सहायक होना, परस्पर में जन्य - जनक सवध होना । उत्पन्न - उत्पादक संबंध होना, जैसे आटा और राटी |
1
१०- -काल
समय, छः दव्यो मे से एक द्रव्य, द्रव्यो की पर्यायो के परिवर्तन मे ज़ो सहायक है । दिन, मास, वर्ष, पल्योपम, सागरोपम, अवसर्पिणी, उत्सर्पिणी आदि इसके ही भेद है । जैनाचार्यों ने "काल" को एक प्रदेशी ही माना है । ११ -- कूट शाल्मली वृक्ष
1
+45
एक प्रकार का वृक्ष, जो कि हर प्रकार से कष्ट दायक होता है । इसकी उत्पत्ति नरक - स्थान में मानी जाती है ।
१२- केवल ज्ञान
परिपूर्ण और अखड ज्ञान । इस ज्ञान की प्राप्ति के बाद आत्मा " अरिहत अवस्था प्राप्त कर लेता है । इस ज्ञान के बल पर तीनो काल की घटनाओ का सही सही और पूरा पूरा ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है । सभी द्रव्यों का और उनका सभी पर्याया का परिपूर्ण स्वरूप जा सकता है । ईश्वरीय ज्ञान ही केवल ज्ञान है ।
इसके द्वारा जाना
ग
१- गणधर
जैन-धर्म के मुख्य सस्थापक तीर्थंकरो के अग्रगण्य शिष्य, साधु समुदाय के मुख्य सचालक | ये तीर्थंकरो के प्रवचनो को उपदेशो का, आज्ञाओ को व्यवस्थित रूप से संग्रहित करते है ।
?
२ - गृद्धि
पुद्गल सववी सुखो में, इन्द्रियो के भोग में, सांसारिक वासनाओ में और धन-वैभव, यश, पद- लोलुपता में एक दम मूच्छित हो जाना, मोह ग्रसित हो जाना और आत्म-भान भूल जाना ।
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[ ४२
व्याख्या कोष |
३ - ग्रथि
मोह की गाठ, पदार्थों के प्रति मूर्च्छा-भावना, वाह्य और आभ्यंतरिक ममता, वाह्य ममता याने भौतिक सुख का वाछा और आभ्यतरिक ममता याने क्रोध, मान, माया और लाभ का खजाना ।
४ - गुप्ति
गोपना, मन, वचन और काया की अशुभ प्रवृत्तियो को दूर कर शुभप्रवृत्तियो में सलग्न होना, मन, वचन और काया पर नियंत्रण करना । ५ - गोचरी
गाय जैसे थोडा थाडा घास हर स्थान से चूटती जाती है - खाती जाता है, वैसे ही थोडा थोड़ा आहार निर्दोष रीति से योग्य घरो से लेना |
६-- गोत्र कर्म
कर्म-वर्गणाओ का ऐसा समूह, जिसके वल पर सम्माननीय और असम्माननीय कुल को अथवा जाति की प्राप्ति हुआ करती है, जैसे कि सिंह र कुत्ते की जाति, आर्य और अनार्य का कुल ।
घ
१ - घन-घाती कर्म
जैन दर्शन में मूल आठ कर्म वतलाये गये है, उनमे से चार अघाती कर्म है और चार घन घाती कर्म है । ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय कर अन्तराय कर्म घन घाती हैं । नाम, गोत्र, आयु और वेदनीय अघाती कर्म है आत्मा के गुणो पर जो पूरा पूरा सघन और कठिन एव दुष्परिहार्य पटल डाल देता है, गुणो को सर्वांग रूप मे ढक देता है, ऐसे कर्म-वर्गणा घनघाले कर्म है |
२ - प्राण- इन्द्रिय
प्राणियो की सूघनें की शक्ति का नाम घ्राण इन्द्रिय है, यह कार्य नाक द्वारा होता है । पाँच इन्द्रियो में इसकी गणना तीसरे नम्बर पर है ।
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१२४]
[व्याख्या कोष
१-चतुर्विध संघ
साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका का सम्मिलित नाम “चतुर्विध इंघ" है । चतुर्विध सघ की स्थापना श्री तीर्थकरो द्वारा की जाती है । २-चारित्र
आचार्यों और महापुरुषो द्वारा स्थापित धार्मिक-सिद्धान्तो के अनुसार अच्छा आचरण ही चारित्र है । अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य एव अममता के आधार पर किया जाने वाला अच्छा व्यहार ही चारित्र है। चारिता पाच प्रकार का कहा गया है - १ सामायिक, २ छेदोपस्थापनीय, ३ परिहारविशुद्धि, ४ सूक्ष्म साम्परायिक, और ५ यथाख्यात । ३-चेतना
ज्ञान-शक्ति का नाम ही चेतना है । चेतना ही जीव का लक्षण है । चित्त ज्ञा, मन का विकास ही चेतना है । ४-चौरासी लाख जीव-योनि ।
जीवो के उत्पन्न होने का स्थान, जीवो के शरीर धारण करने का स्थान जीव-योनि कहलाता है। स्थानो की कुल सस्या चौरासी लाख कही गई है। बह इस प्रकार है -
पृथ्वी काय (पृथ्वी के जीव-केवल शरीर वाले ) ७ लाख अपकाय (जल का पिण्ड रूप-केवल शरीर वाले ) ७ लाख तेउ काय ( अग्निका पिंड रूप-" " ) ७ लाख वायु-काय ( हवा के पिंड रूप-" " ) ७ लाख प्रत्येक वनस्पति काय-
" ) (डाली-पौधे पर लगने वाले फल फूल)
१० लाख . साधारण वनस्पति काय ( जमीकद, आलू आदि ) १४ "
वो इन्द्रिय जीव (शरीर और मुंह वाले ) २ "
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व्याख्या कोष]
[४२५
तीन इन्द्रिय जीव (शरीर, मुंह, नाक वाले ) २ लाख चार इन्द्रिय " ( शरीर, मुंह, नाक, आंख वाले) २ " देवता जीव (पाच इन्दिय वाले ऊपर की ४, कान ) ४ तिर्यंच" (पशु, पक्षी, जलचर पाच इन्दिय वाले ) ४ नारकी" ( नरक के पांच इन्दिय वाले ) ४
। " " ) १४
मनुष्य "
१--जघन्य
सस्या की दृष्टि से "कम से कम,"।
विशेषण की दृष्टि से "हल्का, नीच" । २-जड़
ऐसे व्य, जो कि ज्ञान से रहित है, अजीव तत्त्व । ये जड व्य अथवा अजीव तत्त्व दो प्रकार के होते है, १ रूपी जड और २ अरूपी जङ । जिनमें रूप, रस, गध, स्पर्श, सडन, गलन, विध्वसन आदि पाये जाते है, वे रूपी जड है। हमें जो कुछ भी दिखाई देते हैं, सभी रूपी जड द्रव्य है । इनका दूसरा नाम पुद्गल भी है । अरूपी जड़ मे रूप रस, गध, और स्पर्श आदि नही 'पाये जाते है, इनकी संख्या ४ है और ये चारो अखिल ब्रह्माड व्यापी है । इनके नाम इस प्रकार है -१धर्मास्तिकाय, २ अधर्मास्तिकाय, ३ आकाशास्ति काय और ४ काल । ३-जागरुकता
मन और इन्द्रियो को पाप से बचाने के लिये सदैव सावधान रहना । इन्द्रिय-वृत्ति पर और चित्त-वृत्ति पर प्रत्येक क्षण नियत्रण रखना। ४-जिन शासन
जिन्होने क्रोध, मान, माया, लोभ, मोह, काम वासना, विषय-विकार आदि सभी भीतरी शत्रुओ को सर्वथा जड मूल से हमेशा के लिये नाश कर दिया है और इन शत्रुओ की पुन उत्पत्ति का जरा भी कारण वाकी जिनके नही रहा
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४२६]
[ व्याख्या कोषः
है, एव ।जन्होने पूर्ण और अखड ज्ञान प्राप्त कर लिया है, जो जैन-भाषा में “अरिहत' कहलाते है, उन्हे ही "जिन" कहा जाता है। ऐसे "जिन" का चलाया हुआ धर्म ही, इनकी आज्ञा ही "जिन-शासन" है।
५-जिनेन्द्र ____ "जिन-शासन' की उपरोक्त व्याख्या के अनुसार जिन्होने राग द्वेष को पूरी तरह से जीत लिया है, ऐसे "जिनो" में, ऐसे "अरिहतो" मे जो तीर्थकर है, चार प्रकार के सघ की स्थापना करने वाले है वे "जिनेन्द्र" कहलाते हैं । “अरिहतो" मे मुख्य । “जिनो मे मुख्य महापुरुप ।
६-जीव
जिसमें ज्ञान है, अनुभव करने की शक्ति है, वह द्रव्य ही जीव है। नये नये शरीर धारण करता है, वही जीव है । ऐसे जीव सपूर्ण लोकाकाश में अनतानत और अपरिमित सख्या में सर्वव्यापी है। सभी जीवो में मूल रूप में समान ज्ञान, समान गुण, समान धर्म है । कर्म के कारण से विभिन्नता दिखाई देती है । प्रत्येक जीव असख्यात प्रदेशी है । ७-जैन
जो "जिन" का आज्ञा और आदेश को मानता है, "जिन" द्वारा बतलाये हुए धर्म मार्ग पर चलता है, वही जैन कहलाता है । "जिन" की व्याख्या "जिन-शासन" में देखें।
१-तत्त्व
पदार्थों के अथवा व्यो के मूल स्वरूप को तत्त्व कहा जाता है । वस्तु का यथार्थ स्वभाव ही उसका तत्त्व है। मुख्य रूप से नौ तत्त्व कहे गये है, वे इस प्रकार है -- १ जीव, २ अजीव, ३ पुण्य, ४ पाप, ५ आश्रव, ६ सवर, ७ निर्जरा ८ वध और ९ मोक्ष ।
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व्याख्या कोष ]
२- तत्त्वदर्शी
तत्त्वो की तह में पहुँच जाने वाले महात्मा, तत्त्वों का यथार्थ स्वरूपा नमझ लेने वाले ऋषि ।
३ - तदुत्पत्ति-सबध
पिता-पुत्र के समान, वीज वृक्ष के समान, जिन वस्तुओं का परस्पर में एक को दूसरे से उत्पत्ति हो, उनका परस्पर मे " तदुत्पत्ति सवव" माना जाता है, जैसे कि दूध से दही ।
४— तप
आत्मा को पवित्र करने के लिये, आत्मा के गुणो का विकास करने के लिए इन्द्रियो और मन के विकार को और दुर्भावनाओ को समूल नष्ट करने के लिये जो इच्छा पूर्वक कष्ट सहन किया जाता है, उसे तप कहते है । आर्यविल उपवास करना, सामायिक सवर करना, पर सेवा करना आदि अनेक भेद तप के कहे जा सकते है ।
[ ४२७,
- ५ - तर्क
कार्य-कारणो की खोज करना, परस्पर में वस्तुओ के सवध का अनु-सधान करना, अनुमान नामक ज्ञान मे सच्चाई तक पहुँचने के लिये विभिन्न वातो की खोज करना ।
६.
- तादात्म संबंध
“आत्मा आर ज्ञान” "अग्नि और उष्णता" "पुद्गल और रूप" इनदृष्टान्तो के समान जिनका परस्पर मे अभिन्न, सहचर, मौलिक और एकस्वरूप संबंध होता है, वह तादात्म्य संबंध कहलाता है ।
- तामसिक
७
क्रोध आदि कपाय संवधी, मोह आदि विकार सवघी और हिंसा आदिदुष्कृत सवधी विचार और क्रियाऐं “तामसिक" कही जाती है ।
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४२८]
[व्याख्या कोष
८-तिर्यच-गति
जलचर प्राणी, आकाश मे उड़ने वाले प्राणी, पशु, पक्षी आदि पंचेन्द्रिय और एकेन्दिय से लगाकर चतुरिन्द्रिय प्राणी-तियंच गति के जीव कहे जाते है । ९-तृष्णा
विस्तृत पैमाने वाली इच्छाऐ, अति लोभ मय दुर्भावनाऐ, अतृप्त महान् -आकाक्षाएं। १०.-तीर्थ
एक प्रकार का धर्म-मार्ग, जो कि तीर्थंकरो द्वारा स्थापित किया जाता है । साधु-साध्वी सस्था और श्रावक-श्राविका-सस्था भी कही जाती है । तीर्थ पवित्र स्थान को भी कहा जाता है।
तीर्थ एक प्रकार का उच्च धार्मिक मार्ग, जिसका अवलम्बन लेकर आत्मा अपना विकास कर सकती है ।
११-तीथंकर
केवल ज्ञान, केवल दर्शन सम्पन्न वे महापुरुप जो कि साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका रूप तीर्थ की स्थापना करते है। जैन-शासन और जैन-धर्म का विस्तृत रूप से सचालन करनेवाले । प्रत्येक उत्सर्पिणी काल और अवपिणी काल मे २४-२८ तीर्थकर हुआ करते है। ऐसे आज दिन तक अनन्तानन्त तीर्थंकर हो चुके है और भविष्य मे भी होगे ।
१-दर्शन
१ दार्शनिक सिद्धान्तो पर, धार्मिक आचरणो पर, और नैतिक वातो __ पर पूरा पूरा विश्वास करना "दर्शन" है । आत्मा, ईश्वर, पाप, पुण्य आदि के प्रति पूरा पूरा आस्तिक रहना “दर्शन" है ।
२ किसी वस्तु का पूरा पूरा ज्ञान होने के पहले उस वस्तु सम्बन्धी - साधारण आभास होना भी 'दर्शन कहा जाता है ।
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व्याख्या कोष
[४२९.
३ धर्म-विशेष के साथ भी जोड़ कर इसके द्वारा विशेषता बतलाई जाती है, जैसे कि जैन दर्शन, बौद्ध दर्शन, वैदिक दर्शन आदि ।
४ "आदरपूर्वक देखने" के अर्थ मे भी दर्शन का उपयोग किया जाता है । २-दर्शन मोहनीय
यह एक महान् अनिष्ट और घातक कर्म है, जो कि आत्मा के धार्मिक विश्वास को और सिद्धान्तो के प्रति आस्तिकता को उत्पन्न नहीं होने देता है । अच्छी और उच्च बातो के प्रति उत्पन्न होनेवाले विश्वास का यह कर्म नाश करने वाला है। इसके तीन भेद हैं -१ सम्यक्त्व मोहनीय, २ मिश्र मोहनीय, ३ मिथ्यात्वमोहनीय । ___ आत्मा के उच्च विकास के लिये, याने परमात्मपद की ओर वढने के लिये सब से पहले इसी कम का नाश करना पडता है, इसका नाश हो जाने पर ही चारित्र की प्रगति होना और गुणो का विकास होना शुरू हो जाता है।
३-दुर्भावना खराव विचार, अनिष्ट चिन्तन । भय, चिन्ता, शोक, तृष्णा, क्रोध,. झूरना आदि सभी दुर्भावनाएं ही है ।
४-दुर्वृत्ति
खराव आदतें, हल्का और तुच्छ स्वभाव, अनिष्ट व्यवहार, निन्दा योग्य आचरण, तथा धिक्कारने योग्य जीवन का वर्ताव, ये सव दुर्वत्तियाँ ही है।
५-देवाधिदेव
देवताओ के भी पूजनीय, इन्द्रो के भी आराधनीय महापुरुष । ईश्वर का एक विशेषण । देवताओ के भी देवता याने अरिहत अथवा तीर्थकर ।
६-द्रव्य जिसमें नई नई पर्यायें उत्पन्न होती रहती है, तथा फिर भी जिसकी मूलसत्ता अथवा धौव्यत्व तीनो काल में सदैव बना रहे, पर्यायो के उत्पन्न और नाश होने पर भी जिसकी मूलसत्ता का कभी भी नाश नही हो, वही द्रव्य है।
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४३०]
[व्याख्या कोष
ऐसे दृव्य कुल मिला कर सारे ब्रह्माड में केवल ६ ही है, न अधिक है और न्न कम है। पाच अरूपी है और केवल एक ही रुपी है । वे छ. इस प्रकार है -१ जीवास्तिकाय, २ धर्मास्तिकाय, ३ अधर्मास्तिकाय ४ पुद्गलास्तिकाय, ५ आकाशास्तिकाय और ६ काल ।
७-द्रव्य-आश्रव कर्मों का आत्मा के साथ दूध-पानी की तरह मिलने के लिये आत्मा की ओर आकर्षित होना ही आश्रव हैं। यह आश्रव दो प्रकार का है - १ भाव-आश्रव, २ दृव्य आश्रव। क्रोध आदि १६ कपाय और रति अरति आदि ९ नो कपाय-ये २५ तो भाव-आश्रव है, इन्ही भाव-आश्रवो के कारण जो रूपी, अति सूक्ष्म से अति सूक्ष्म पुद्गल-परमाणु आत्मा के साथ सम्मिलित होने के लिये बाते है, वे ही परमाणु द्रव्य-आश्रव कहलाते हैं। इन्हा व्य-आश्रव रूप परमाणुओ में भाव-आश्रव के अनुसार सुख-दुख देने की शक्ति तथा आत्मा के साथ अमुक समय तक रहकर गुणो को ढंक रखने की शक्ति पैदा हुमा करती है ।
८-द्रव्य-शाति
जो गान्ति वाह्य कारणो पर निर्भर रहती है, जो अस्थायी होती है और जिसका सम्बन्ध आत्मा के गुणो के साथ नही रह कर केवल पुद्गलो के साथ ही रहे, भौतिक-सुखो के साथ ही जिसका सम्बन्ध रहे, वह व्य शान्ति है।
९-द्वेप
अप्रिय और अरुचि वाले पदार्थो के प्रति क्रोध होना, नफरत होना, धिक्कार बुद्धि होना, अमान्य वुद्धि होना ही द्वेप है।
ध १--ध्यान ___ मन, वचन और काया की प्रवृत्तियो को नियन्त्रण करके, काबू में ले करके, किसी एक वस्तु पर उनको जमाना, किसी एक पदार्थ पर उन्हे स्थिर करना ध्यान है । ध्यान दो प्रकार का है -~-१ अशुभ ध्यान
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व्याख्या कोष ]
[ ४३१
और २ शुभ ध्यान । अशुभ ध्यान के भी दो भेद है :-१ आर्त ध्यान और २ रौदू ध्यान । शुभ ध्यान के भी दो भेद है -१ धर्म ध्यान और २ शुक्ल ध्यान । रोने, चिल्लाने, स्व को अथवा पर को दुखी करने, शोक करने, हिंसा आदि के विचार करने, इत्यादि अशुभ प्रवृत्तियो की ओर मन, वचन, काया की शक्ति को स्थिर करना अशुभ ध्यान है । आत्मचिन्तन, ईश्वर-भजन, पर-सेवा, सुसिद्धान्त विचारना, अनिष्ट-हिंसक विचारो से निवृत्ति आदि सात्विक और श्रेष्ठ विचारधारा की ओर शरीर, वचन और मन की वृत्तियो को सुस्थिर करना ही शुभ ध्यान है।
२-धर्म
जो क्रियाएँ आत्मा को पाप से वचावे और आत्मा के गुणो का विकास करें, वे ही धर्म है। अहिंसा, सयम, तप, सत्य, ब्रह्मचर्य, अचौर्य, परिग्रह की मर्यादा और अममत्व एव रात्रि में खान-पान का त्याग आदि सत्क्रियाएं धर्म की ही अग है । ३-धर्म-ध्यान
शरीर की और वचन की प्रवृत्ति को रोक कर चित्त को वृत्ति को धार्मिक चिन्तन में, सिद्धान्तो के विचारणा में और दोर्शनिक वातो के मनन में एव ईश्वरीय स्तुति में सुस्थिर करना, दृढ़ करना ही धर्म-ध्यान है। ४-धर्मास्तिकाय
जो व्य जीवो को और पुद्गलो को इधर उधर घूमने फिरने के समय में सहायता करता है और जिसकी सहायता होने पर ही जीव अथवा पुद्गल चल फिर सकते हैं, वह द्रव्य धर्मास्तिकाय है । यह दृव्य संपूर्ण लोकाकाश में फैला हुआ है, अरूपी है और शक्ति का पुज रूप है। असख्यात प्रदेशी है। "जल जैसे मछली को तैरने में सहायक है" वैसे ही जीव और पुद्गल की गति में यह दव्य सहायक होता है। "रेडियो में शब्द-प्रवाह' के प्रवाहित होने में अनेक कारणो में से एक कारण यह दव्य भी है।
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४३२]
[व्याख्या कोष
१-नरकगति
महान् पापी, चोर दुष्कर्मी, महा मारभी और महा परिग्रही जीव के लिये पाप कर्मों का फल भोगने का स्थान-विशेष। ऐसे म्यान सात कहे गये है। जहां वनंत भूत्र-प्यास के साथ अनन्न सर्दी गरमी के दुख, एव दूसरे नानाप्रकार के दुख भोगे जाते हैं। २-नवतत्व
तत्त्व की व्याख्या पहले लिखी जा चुकी है । ये तन्त्र नो होते हैं, वे इस प्रकार है -१ जीव, २, अजीव, ३ पुण्य, ४ पाप, ५ आश्रव, ६ संवर, ७, निर्जरा ८, वध और ९ मोक्ष । ३-नाम कर्म
जिस कर्म के कारण से, शरीर, इन्दियां, गति, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, शरीर, बनावट, चाल, स्वर, मादि गारीरिक संपूर्ण व्यवस्था का योग प्राप्त होता है वह नाम कर्म है । जैसे चित्रकार संपूर्ण चित्र का निर्माण करता है, वैसे ही यह कर्म सभी प्रकार की शारीरिक बनावट का सयोग प्राप्त कराता है। इसके १०३ नेट कहे गये हैं। ४-नियाणा
अपनी को हुई वम-क्रियाओं का, अपनी तपस्या का, अपने पुण्य का इच्छानुसार फल मांगना अथवा मनोनुकूल फल की वांठा करना नियाणा है । नियाणा करना पाप माना गया है। ५. निर्ग्रय
जिसके न तो आतरिक रूप से मोह, कपाय मादि की गांठ है और न वाह्य रूप ने किमी भी प्रकार का परिग्रह जिसके पास है, अर्थात जो वाह्य और याभ्यंतर दोनो प्रकार ने गांठ रहित है, वह साबू निग्रंय कहलाता है। दीवं तपस्वी नगवान महावीर स्वामा का यह एक विशेषण भी है।
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व्याख्या कोष ]
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[ ४३३
६ - निर्जरा
ऐसे पवित्र और सात्विक तथा धार्मिक काम, जिनसे आत्मा के माथ बचे हुए पुराने कर्म दूर हो जाते है और आत्मा पवित्र हो जाती है। निर्जरा के १२ भेद कहे गये है । वे इस प्रकार है १ अनशन, २ ऊनोदरता ३ वृत्तिसक्षेप ४ रस त्याग, ५ काय- क्लेश, ६ सलीनता, ७ प्रायश्चित, ८ विनय, ९ वैयावृत्य, १० स्वाध्याय, ११ ध्यान आर १२ उत्सर्ग |
७- निद्वंद्र
वाह्य और आभ्यतर दोनो प्रकार के झगडो, क्लेशो, और मोह-ममता से रहित होना । हर प्रकार से अनासका और मस्त रहना ।
८- निर्वेद
स्त्रा-पुरुष सवन्धी भोगो की इच्छा का नही होना । पूर्ण ब्रह्मचर्य - भावना ही निर्वेद है |
९ - निरवद्य-योग
-
मन की, वचन की और काया की ऐसी प्रवृत्ति, जो कि निर्दोष हो । मन द्वारा, वचन द्वारा, और काया द्वारा ऐसे काम करना, जिनसे कि व्रतो में; सम्यक्त्व में, चारित्र में दोष नही आवे, वह निरवद्य योग है ।
१० - निष्काम भावना
जिन सुन्दर विचारों में किसी भी प्रकार के फल की आकाक्षा नही होती है, जो विचारधारा मोह-ममता के कीचड से रहित होती है, जिस विचारप्रवाह में एक'न्त रूप से विश्व-हित की भावना ही प्रवाहित होती रहती है, उसे निष्काम भावना कहते है ।
११ - नो कषाय
जो स्वय क्रोध, मान, माया और लोभ रूप कषाय की श्रेणी में तो नहीं है, किन्तु जो कषाय की श्रेणा को उत्तेजित करता है, कषाय की श्रेणी को वेग देता है और इस प्रकार कषाय का जा छोटा भाई है, वही नोकपाय
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४३४ ]
[ व्याख्या कोष
हूँ । नोकषाय के ९ भेद है, वे इस प्रकार है: -१ हास्य २ रति ३ अरति * भय ५ शोक ६ जुगुप्सा ७ स्त्री वेद ८ पुरुष वेद ९ नपुंसक वेद ।
प
१ - प्रकृति
(१) स्वभाव ( २ ) संसार |
२ - प्रकृति बध
कषाय और योग के कारण से आत्मा के साथ दूध पानी की तरह मिलने के लिये आने वाले कर्म- पुद्गलो का जो तरह तरह का स्वभाव भावनानुसार बनता है, वह प्रकृति वध है ।
प्रकृति बध के आठ भेद कहे गये है, वे इस प्रकार है
१ ज्ञानावरण, २ दर्शनावरण, ३ वेदनीय, ४ मोहनीय, ५ आयु, ६ नाम, ७ गोत्र और ८ अन्तराय ।
३ - प्रत्यभिज्ञान
स्मृति के बल पर किसी प्रत्यक्ष पदार्थ के सम्बन्ध में जा जोड़ रूप ज्ञान होता है, वह प्रत्यभिज्ञान है । जैसे - यह वही तालाव है, जिसका कल देखा 'था, यह आदमी तो उस मनुष्य के समान है, इत्यादि ।
४— प्रतिक्रमण
जो व्रत, त्याग-प्रत्याख्यान, नियम, सयम ग्रहण किये हो, उनमें जो कुछ भी दोप अथवा त्रुटी मूर्खता वश या प्रमाद वश आ गई हो तो व्रत आदि को निर्मल करने के लिये उन दोषो को खेद पूर्वक प्रकट करते हुए, पाप से निवृत्त होना और पुन दोष अथवा त्रुटी को नहा पैदा का पोषण करना ही प्रतिक्रमण है ।
होने देने की भावना
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व्याख्या कोष ]
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[ ४३५
५ -- प्रदेश - बंध
योग और कषाय के कारण से जब कर्म परमाणु आत्मा की ओर दूधपानी के समान मिलने के लिए आते हैं, उस समय आने वाले कर्म - परमाणुओ की जो तादाद अथवा समूह होता है, उसे ही प्रदेश वध कहते है ।
मन, वचन आर काया की शुभ अथवा अशुभ प्रवृत्ति प्रत्येक क्षण होती रहती है । निद्रा लेना भी एक प्रवृत्ति ही है, अतएव भावनानुसार कर्म - परमागुओ का आगमन आत्मा की ओर प्रत्येक क्षण होता ही रहता है, और प्रत्येक क्षण- इनकी तादाद अनतानत की सख्या में हा होती है। इसी प्रकार जिन कर्म परमाणुओ का कार्य-काल समाप्त हो जाता है और प्रत्येक क्षण ऐसा होता ही रहता है, इनकी भी तादाद अनतानत रूप से ही होती है |
इन प्रदेश वध के परमाणुओ का आठ कर्मो के भिन्न २ स्वभाव के रूप में विभाजन भावनानुसार आत्मा के प्रदेशो के साथ मिलने के समय ही हो जाया करता है । इसी प्रकार इनकी कार्य-काल की अवधि और इनकी भावनानुसार फल देने की शक्ति, दोनो का निर्माण भी उसी समय आत्म- प्रदेशों के साथ मिलने के वख्त ही हो जाया करता है |
६--प्रमाद
धार्मिक कार्यों के करने मे यानी पर-सेवा के कामो में और अपने नैतिक उत्थान के कामो में वेपर्वाही करना, आलस्य करना और उन्हें निश्चित किये हुए समय मे पूरा नही करना, “प्रमाद" कहलाता है ।
७-- प्रशम
चित्त के विकारो पर नियंत्रण रखना, कोच, मान, माया और लोभ को काबू में करना, विषयो को दबाना तथा नैतिकता का जीवन में विकास करना ही "प्रशम" अवस्था है । सम्यक्त्व के मूल पाँच लक्षणो में से यह पहला लक्षण है । - ८- प्रायश्चित
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लिए हुए व्रत, नियम, त्याग, प्रत्याख्यान, सयम में जो कोई दोप अथवा त्रुटा प्रमाद वश अथवा मूर्खता वश आ गई हो तो उसको स्पष्ट तौर पर गुरु
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४३६ ]
[ व्याख्या कोष जन के आगे विनयपूर्वक निवेदन करके उसके लिए क्षमा मागना और व्रत नियम आदि को पुन पवित्र करने के लिए वे जो कुछ भी दड दे, उसका सहर्ष पालन करना और आगे भविष्य मे वैिसा दोष पुन नही करने की भावना करना ही प्रायश्चित है ।
९ – पदार्थ
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शब्दो द्वारा कही जा सकने वाली विस्तु, जसका शब्दो द्वारा बयान किया जा सके । " तत्त्व" शब्द का पर्यायवाची शब्द |
१०- परमाणु
रूपवाला, रस वाला, गध वाला, स्पर्श वाला और पुद्गल का एक अश यह पुद्गल का इतना सूक्ष्म से सूक्ष्म अश है, कि जिसके यदि किसी भी प्रकार से टुकड़े करना चाहे, ता त्रिकाल में भी जिसके दो टकडे नही हो सके - ऐसा अति सूक्ष्म तम, स्वतंत्र पुद्गल का अश परमाणु है ।
एक से अधिक परमाणुओ का समूह "देश" पुद्गल कहलाता है । एटम बम, और हाइड्रो एलेक्ट्रिक वम “देश” पुद्गलो के बने हुए होते हैं । देशपुद्गलो से “परमाणु” पुद्गल को अलग करके केवल "परमाणु" पुद्गल से काम लेने की शक्ति वर्तमान विज्ञान को नही प्राप्त हुई है ।
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सभी “देश-पुद्गलो” का सम्मिलित नाम "स्कध " पुद्गल समूह हैं । यह समस्त लोकाकाश में फैला हुआ है ।
११ -- पर्यांय
प्रत्येक द्रव्य में प्रत्येक क्षण मे उत्पन्न होने वाली नई नई अवस्था अथवा नया नया रूप ही "पर्याय" कहलाता है । छ ही द्रव्यो मे प्रत्येक क्षण-द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से और भाव से कुछ न कुछ फर्क पडता ही रहता है, कोई भी क्षण ऐसा नही होता कि जिस में कुछ न कुछ फर्क नही पडे, इस प्रकार हर दूव्य मे उत्पन्न होने वाली हर अवस्था ही "पर्याय" है । सिद्धो मे मो ज्ञान की पर्यायों में परिवर्तन होता ही रहता है । इसी लिये जगत् को " संसार याने परिवर्तन होते रहने वाला" यह सज्ञा दी गई है ।
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ब्याख्या कोष
[४३७
१२-परिग्रह
इस के दो भेद है-१ भाव परिग्रह है, और दूसरा द्रव्य परिग्रह ।
ममता अथवा मूछी तो भाव परिग्रह है, और धन-धान्य, पशु-पक्षी; मोटर, मकान, दास-दासी, स्त्री-पुत्र, भाई बन्धु, सोना-चादी, और विभिन्न वैभव सामग्री दृव्य परिग्रह है। १३-परिणाम
फल अथवा नतीजा। १४-परिषह
इच्छा पूर्वक लिये हुए व्रतो की रक्षा के लिये, नियम, तप, संयम की रक्षा के लिए और त्याग-प्रत्याख्यान का पवित्रता के साथ पालन करने के लिये जो कष्ट अथवा दुख आकर पडे उन्हे शाति के साथ और निर्मलता पूर्वक दृढता के साथ सहन करना ही परिषह है । परिषहो का उत्पत्ति कुदरती कारणो से, मनुष्यो से, पशुओ से और देवताओ से हुआ करती है। परिषह के कुल २२ भेद शास्त्रो में बतलाये गये है। १५-पल्योपम
काल का माप विशेप जा कि असंख्यात वर्षों का होता है । १६-पाप
वुरी वात, जिन बुरे कामों के करने से आत्मा मर कर तिर्यच गति में अथवा नरक गति में एवं दुर्गति मे जाता हो । पाप के मुख्य १८ भेद कहे गये है और इनका फल ८२ प्रकार से-अशुभ रीति से भागा जाता है । १७--पांच इन्द्रियाँ
शरीर, मुख,नाक आँख, और कान-ये पाच इनिया कहलाती है। १८-पुण्य
भले काम, नैतिकता पूर्ण काम । जिन कामो को करने से आत्मा को अच्छी गति मिले, सुख-सुविधा, यश, सन्मान आदि की प्राप्ति हो; वे काम
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४३४]
[व्याख्या कोप
पुण्य कहलाते है । सक्षेप मे पुण्य के ९ भेद किये गये है और उनका फल ४२ प्रकार से भोगा जाता है। १९-पुद्गल
जो दृव्य अजीव याने जा रूप होता हुआ रूप वाला, रस वाला, गध। वाला और वर्ण वाला हो, तथा जो मिलने विचरने, सटने गलने वाला हो, ऐसा पदार्थ-पुद्गल कहलाता है ।
हमे ने यो द्वारा जो कुछ भी दिखलाई पड़ रहा है, यह सब पुद्गल का ही रूपान्तर है । सूर्य, चन्द, तारा, धूप, प्रकाश, छाया, चादनी, शब्द, जल, पृथ्वी, हवा, वनस्पति, पहाड, जीदो के शरीर, लोहा, साना, चादी, मिट्टी, सभी पुद्गल के हा विभिन्न रूप है। सारा स्थूल ब्रह्माड पुद्गलो का ही बना हुआ है। उपरोक्त पदार्थों में विभिन्न जीव-समूह इन्ही को शरीर बना कर रहते है । दृश्यमान सारा मसार पुद्गलो का ही बना हुआ है । पुद्गल तत्त्व को मुग्य रूप से चार भागो मे वाटा है । १ स्कध, २ देश, ३ प्रदेश, और ४ परमाणु ।
विश्व-व्यापी पुद्गलो का सपूर्ण समूह ''स्फ" कहलाता है।
स्कघ के हिस्से "देश" कहलाते है । परमाणु का स्वरूप पहले लिखा जा चुका है। देश अथवा स्कघ मे मिला हुआ “परमाणु" जितना ही अश "प्रदेश" के नाम से बोला जाता है । स्वतत्र अवस्था मे जो परमाणु है, वही सम्मिलित अवस्था मे “प्रदेश" के नाम से पुकारा जाता है। २०--पूर्वधर
से जानी महात्मा और सत ऋपि, जो कि महान् ज्ञान के धारक हो। तीर्थकरो और अरिहतो द्वारा फरमाये हुए विशाल और विस्तृत ज्ञान के पारक "पूर्वधर" कहलाते है।
१ बंध - योग और कषाय के कारण से आत्मा के प्रदेशा के साथ कर्म-परमाणओ का दूध पानी की तरह मिल जाना ही "बंध" कहलाता है। बध के चार
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व्याख्या कोष
४३९
भेद कहे गये है :-१ प्रकृति-बध, २.प्रदेश-वध, ३ स्थिति-वध और ४ अनभाग-वेध, इनकी व्याख्या इसी कोप में यथास्थान पर दी जा चुकी है। २ बहुश्रुत
जिस ज्ञानी पुरुष का, शास्त्रो का वाचन, मनन, चिन्तन और विचारणा खूब ही गहरी, विस्तृत और प्रामाणिक हो, वह "बहुश्रुत" कहलाता है।
३ वाल ___ विवेक और व्यवहार से हीन पुरुप, मूर्ख बुद्धि वाला और अनभिज्ञ पुरुष । ४ वाल तप
"उपरोक्त स्थिति वाले वाल पुरुप" की तपस्या वाल तप कहलाती है। अज्ञान, मविवेक और मिथ्यात्व के आधार से वाल पुरुप की तपस्या "वालतप” ही है । बाल-तप शरीर को कष्ट देने वाला मात्र है, इससे आत्म-गर्दै का विकास नही हो सकता है और न कर्मों की निर्जरा ही हो सकती है, अतएव शास्त्रो में इसे हेय, जघन्य और व्यर्थ कष्ट मात्र ही कहा गया है।
भ
१ भव्य
जो जीव कभी भी ज्ञान, दर्शन और चारित्र का आराधन कर के मोक्ष जाने की स्वाभाविक शक्ति रखता हो, वह भव्य कहलाता है । भव्य प्राणी के लिये कभी न कभी एक दिन ऐसा अवश्य आता है, जव कि वह पूर्ण सम्य. क्त्वी बन कर अवश्य ही मोक्ष में जाता है।
किन्तु शास्त्रो में ऐसा भी उल्लेख है कि कई एक भव्य आत्माएं ऐसी भी है, जो कि भव्य-गुण वाली होती हुई भी सम्यक्त्व-प्राप्ति का सयोग उन्हें नहीं मिलेगा, और इसलिये वे मुक्त भी नही हो सकेगी।
२ भाव
___ आत्मा मे समय-समय पर होने वाली विभिन्न प्रकार की विचार-चाय ही "भाव" है। भाव के ५ भेद कहे गये है :-१ औपशमिक-भाव, २ क्षायिक
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४४०
[ व्याख्या कोष
भाव, ३ क्षायोपशमिक-भाव, ४ औदयिक-भाव और ५ पारिणामिक-भाव ।
१ कर्मो के शान्त रहने की हालत में आत्मा में पैदा होने वाले विचार "औपशमिक-भाव" है। __ २ कर्मो के क्षय हो जाने पर अथवा निर्जरा होने पर आत्मा में पैदा होने वाले विगर "क्षायिक-भाव" है ।
३ कुछ कर्मों के तो उपशम होने पर और कुछ के क्षय होने पर, इस प्रकार मिश्र स्थिति होने पर आत्मा मे पैदा होने वाले विचार "क्षायोपशमिकभाव" है।
४ कर्मों के उदय होने पर, कर्मो द्वारा अपना फल दिये जाने के समय मे आत्मा मे पैदा होन वाले विचार "औदयिक-भाव" हैं।
५ आत्मा की स्वाभाविक विचारधारा ही पारिणामिक"-भाव है। ३ भावाश्रव
आत्मा में उत्पन्न होने वाले अच्छे अथवा बुरे विचार ही, शुभ-अशुभ अध्यवसाय ही, इष्ट-अनिष्ट भावना ही "भावाश्रव है।
सात्विक, पवित्र और निर्दोप भावना से तो शुभ-भावाश्रव होता है और कषाय से, नो कपाय से, एव अनिष्ट विचार-धारा से अशुभ-भावाश्रव होता है।
भावाश्रव के बल पर ही कर्म-परमाणु आत्मा की ओर आकर्षित होते है और यही द्रव्याश्रव कहलाता है । शुभ दृव्याश्रव से सुख-सामग्री और वैभवविपुलता की प्राप्ति होती है, जव कि अशुभ दृष्याश्रव से दु.ख-दरिदता एवं वियोग-विपत्ति आदि की प्राप्ति हाती है । ४ भावना
आत्मा के सुन्दर, सेवामय, अनासक्ति वाले और पवित्र विचार ही भावना कहलाते है । शुभ-ध्यान, शुभ-लश्या, शुभ-अध्यवमाय, ममता-रद्वित परिणाम, अविचल ईश्वर-भक्ति आदि "भावना" के हा अन्तर्गत सो जाते है।
स्थल रूप से भावना के ४ भेद और १२ भद किये गये है, वे इस प्रकार है -१ मंत्री-भावना, २ प्रमोद-भावना, ३ करुणा-भावना और ४ माध्यस्थ-भावना ।
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व्याख्या कोष]
[४४१
१ अनित्य, २ अशरण, ३ संसार, ४ एकत्व, ५ अन्यत्व, ६ अशुचित्व, •७ मानव, ८ संवर, ९ निर्जरा, १० लाक-स्वभाव, ११ वोधि-दुर्लभ और “१२ धर्म-भावना। ५-भाव-शाति
अपनी आत्मा के गुणो में ही आनद अनुभव करना, आत्मा के विकास में ही प्रफुल्लता की अनुभूति होना एवं सांसारिक सुख-सामग्री को हेय, तुच्छ अनुभव करते हुए उसमें दुख ही दुख समझना भाव-शाति है। सांसारिक सुख-शाति व्य-शाति है। ६-भोग
जो वस्तु एक ही बार भोगी जा सके; जैसे-खाने पीने के पदार्थ, आदि। ७-भौतिक-सुख
पुद्गलो मवधी सुख, इन्दियो सवंधी सुख, और सब प्रकार का सांसारिक सुख, भौतिक-सुख के ही अन्तर्गत है।
१–मति ज्ञान
पाचो इन्द्रियों को महायता से और बुद्धि की सहायता से जो ज्ञान पैदा होता है, वह मातनान है। आज कल जितना भी सब प्रकार का साहित्यिकज्ञान उत्पन्न हुआ है, और हा रहा है तथा होगा; वह सब मति ज्ञान के ही अन्तर्गत समझा जाता है। मति ज्ञान के भेदानुभेद मे ३६४ भेद किये गये है। २-मधुकरी
जैसे भवरा-प्रत्येक फूल से विना उमे किसी भा प्रकार का कष्ट पहुँचाये थोडा सा शहद (फूल का अन्ग) लेता है आर इस प्रकार अनेकानेक फूलो से-सहज रीति में ही अपनी इच्छा पूरी कर लेता है, वैसे ही अपने जीवन का बतमय और आदर्श बनाने के लिये जो व्यक्ति थोड़ा थोडा आहार-पानी,
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४४२]
[व्याख्या कोष
वस्त्र आदि सहज भाव से सुविधा पूर्वक गृहस्थो से ग्रहण करता रहता है, इसे ही "मधुकरी'' कहते है। ३-मन. पर्याय ____ आत्मा की शक्ति के आधार से ही विना इन्दियो और मन की मदद लिए ही दूसरो के विचारो को जान लेना, दूसरो के मन की भावनामो को समझ लेना ही मन पर्याय ज्ञान है । यह ज्ञान सिर्फ उच्च चारित्र वाले और दृढ सम्यक्त्वी-मुनिराजो मे से किसी किसी को ही उत्पन्न हुआ करता है । आज कल ता इतना उच्च कोटि का ज्ञान किसी को भी नही हो सकता है। इसके दो भेद है;-१-ऋजुमति मन पर्याय और २ विपुलमति मनः पर्याय ।। ४ मनो-गुप्ति -
मन की चचलता को, अस्त-व्यस्तता को और बुरे विचार-प्रवाह को रोकना, एव इनके स्थान पर सद् विचारो के प्रवाह को प्रवाहित करना "मनोगुप्ति है।" ५ ममता
किसी पदार्थ के प्रति मेरापन रखना, कुटुम्बी-जनो के मोह में अंधा हो जाना, बाह्य आदर-प्रतिष्ठा-यश-सन्मान-पद की इच्छा रखना और अपने स्वार्थ को ही सब कुछ समझना "ममता" है । ६ महात्मा
जिसकी आत्मा बुराइयो से और पापो से रहित हो गई हो और जिसके सारे जीवन का समय, प्रत्येक क्षण, परोपकार में, पर-कल्याण मे, पवित्र विचारो में तथा ईश्वर की भक्ति में ही व्यतीत होता हो, वही महात्मा है। ७ महाव्रत
'जीवन भर के लिये जिस व्रत का परिपालन मन, वचन और काया की पूरी-पूरी सलग्नता के साथ किया जाता हो, कराया जाता हो और कराने की अनुमोदना की जाती हो, ऐसा प्रत "महाव्रत" कहलाता है।
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व्याख्या कोष
[४४३:
महावत के पालक “साधु-अथवा साध्वी" ही होते है । महाव्रत की साधनातीन करण और तीन योग ( मन, वचन, काया से पालना, पलवाना और ऐसी ही अनुमोदना करना) से की जाती है । महाव्रत 'सर्वविरति' रूप होता है । इसके पाच भेद है .-१ पूर्ण अहिंसा २ पूर्ण सत्य ३ पूर्ण-अचौर्य ४ पूर्ण ब्रह्मचर्य और ५ पूर्ण अनासक्त याने निप्परिग्रह । ८-माया
कपट, कपाय के चार भेदो में से तीसरा भेद अधिक व्याज लेना, अधिक मुनाफा खोरी 'माया' के ही अन्तर्गत है । माया से अक्सर तिर्यचगति की प्राप्ति हुआ करती है। ९-मिथ्यात्व
"आत्मा, ईश्वर, पुण्य, पाप" आदि मूलभूत सिद्धान्तो पर जिसका विश्वास विल्कुल ही न हो, जो इनको केवल ढकोसला समझता हो तथा जिसका ध्येय एक मात्र ससार-सुख को ही भोगना हो वह मिथ्यात्वी कहलाता । है और उसकी विचार-धारा मिथ्यात्व कही जाती है । १०--मिथ्या दृष्टि
जिस आत्माका दृष्टि कोण ऊपर लिखे गये "मिथ्यात्व की ओर सलग्न - हो वह 'मिथ्या दृष्टि" कहलाता है। ११-मुक्त
जो आत्मा आठो कर्मो से रहित हो गई हो, जिसमें परिपूर्ण रीति से आत्मा के सभी गुणो का पूरा पूरा विकास हो गया हो और जैन मान्यतानुसार जो स्वय ईश्वर रूप हो गई हो वह आत्मा "मुक्त" कही जाती है।
मुक्त आत्मामें अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त निर्मलता, निराकारता अनन्त आत्मिक सुख, अखड अमरत्व, सर्वोच्च विशेपता और निराबाय स्थिति - की उत्पत्ति हो जाती है यही ईश्वरत्व है । इस स्थिति को प्राप्त करना हर सांसारिक आत्मा का अतिम ध्येय-है।
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४४४ ]
- १२ -- मूर्ति
जा परमार्थी पुरुष अपनी इन्द्रियों और मन पर पूरा पूरा नियंत्रण रखता = हुआ, अहिंसा, सत्य. अचाय, ब्रह्मचर्य आर निष्परिग्रह धर्म का परिपूर्ण राति से पालन करता हा, वही " मुनि " हैं । ' ईश्वर प्राप्ति" नामक साधक महापुरुष ही मनि कहलाता है ।
सावना का
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[ व्याख्या कोष
१३ – मुमुक्षु
मोक्ष की इच्छा करन वाला और मक्ष-पथ का पथिक ही - कषाय - भावना से छुटकारा चाहने वाला "ममुक्ष" कहा जाता है ।
मुमुक्षु है ।
१४—मूढ
जो पुरुष मन ही मन में विषयो का चिन्तन करता रहता है, चित्त द्वारा - भोगो की प्राप्ति की इच्छा करना रहता है, वह मूढ है ।
१५-- मूर्च्छा
विपयो के प्रति अन्वा हो जाना, मोह में डूब जाना, यही "मूर्च्छा” का - लक्षण है ।
१६ --मोह
आत्मा में रहे हुए मुख्य और मूल गुणों को जो कपाय नष्ट कर देता है, वही "माह" है | सभी कपायो का और विषय विकारो का सम्मिलित नाम "मोह" ही है ।
१७ -- मोहनीय कर्म
जैसे मदिरा मनुष्य को वेभान कर देती है, स्थान भष्ट करके इधर - उबर लुढका देती है, वैसे ही यह कर्म भी हर आत्मा की विषयो में, विकारो = में और कपायों में जकड देता है । इस कर्म के कारण से आत्मा का चारित्र
और आत्मा की भावनाऐं पाप पूर्ण हो जाती हैं । इसके वलपर आत्मा भोगो -में फँस जाती है । इसके मुख्य दो भेद है – १ दर्शन माहनीय और २ चारित्र
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व्याख्या कोष ]
[ ४४५.
मोहनीय । ___ दर्शन मोहनीय के तीन भेद पहले लिखे जा चुके है । चारित्र मोहनीय के "१६ प्रकार के कषाय और ९ प्रकार के नो कपाय" इस प्रकार कुल २५ भेद होते हैं। १८--मोक्ष
आत्मा का आठो कर्मों से छूट जाना ही और पुन कर्मो से लिप्त नहींहोना ही मोक्ष है । आठो कर्मों के क्षय से आत्मा में सभी प्रकार के मल गुण अपने सर्वोच्च रूप में विकसित हो जाते है । तथा सभी प्रकार के सांसारिक झझट और सभी प्रकार के दुर्गुण हमेशा के लिये आत्मा से अलग हो जाते है । पूर्ण ईश्वरत्व प्राप्ति ही "मोक्ष-अवस्था" है ।
मोक्ष-प्राप्ति अथवा ईश्वरत्व-प्राप्ति प्रत्येक आत्मा का स्वाभाविक अघि-- कार है; तदनुसार हर आत्मा अपने ज्ञान-दर्शन, चारित्र द्वारा माक्ष प्राप्त कर सकती है।
१-यतना
विवेक पूर्वक और सावधानी के साथ जीवन-व्यवहार चलाना, यतना है।। अपने कर्तव्य का ध्यान रखते हुए, अपने उत्तरदायित्व को स्मृति में रखते हुए और अपनी पद-मर्यादा का ख्याल रखते हुए जीवन-व्यवहार चलाना “यतना" है। २-यथाख्यात चारित्र
क्रोध, मान, माया और लोभ; इन चारो कषायो के सर्वथा उपशम होने पर जिस सर्वोच्च चारित्र की प्राप्ति होती है, वह यथाख्यात चारित्र है। ग्यारहवे गणस्थान में वर्तमान आत्मा को औपशमिक यथाख्यात चारित्र होता है और १२ वे, १३ वे; तथा १४ वे गृणस्थान में वर्तमान आत्मा का क्षायिक यथाख्यात चारित्र होता है । पाचो चारित्रो में से यही चारित्र सर्वोच्च और श्रेष्ठ है।
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[ व्याख्या कोष
३-योग-प्रवृत्ति __ मन, वचन और काया की प्रवृत्तियो का सम्मिलित नाम “योग-प्रवृत्ति" है। इनकी शुभ-प्रवृत्ति हो तो "शुभ-याग-प्रवृत्ति" और इनकी अशुभ-प्रवृत्ति हो तो "अशुभ योग-प्रवृत्ति" कही जाती है। ____ योग के मुख्य तीन भेद है.–१ मनो योग, २ वचन योग और ३ काया योग । इनके पुन उपभेद १५ होते है । (१) सत्य मन योग; (२) असत्य मन योग, (३ ) मिश्र मन योग; (४) व्यवहार मन-योग । (१) सत्य भाषा, (२) असत्य भाषा, (३) मिश्र भापा, और (४) व्यवहार भाषा (१)औदारिक योग, ( २ ) औदारिक मिश्र योग, (३) वैक्रिय योग ( ४ ) वैक्रिय मिश्र योग ( ५ ) आहारक योग, ( ६ ) आहारक मिश्र योग (७) कार्मण योग ।
१-रत्न त्रय
सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान, और सम्यक् चारित्र का सम्मिलित नाम • "रत्न-त्रय" है ।
"आत्मा, ईश्वर, पुण्य पाप" आदि मूल भूत सिद्धातो पर पूरा पूरा विश्वास करना और सासारिक-सामग्री को अनित्य और अत में दुख देने वाली विश्वास करना सम्यक् दर्शन है।
"सम्यक्-दर्शन" के अनुसार ही जगत् का तथा आत्मिक-सिद्धान्तो का ज्ञान करना अथवा स्वरूप समझना "सम्यक् ज्ञान" है ।
"सम्यक् दर्शन" और "सम्यक् ज्ञान" के अनुसार ही अपने जीवन का व्यवहार रखना; जीवन का आचरण रखना, तथा इन्ही सिद्धान्तो के अनुसार अपने आचरण का क्रमिक विकास करते हुए सर्वोच्च स्थिति को पहुँचना ही "सम्यक् चारित्र" है।
सम्यक् दर्शन होने पर ही "ज्ञान और चारित्र" की गणना सम्यक् रूप से होती है; अन्यथा-सम्यक दर्शन के अभाव में "मिथ्या ज्ञान और मिथ्या __-चारित्र" समझा जाता है ।
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व्याख्या कोष ]
[४४७
इन तीनो का सम्मिलित रूप से विकास होने पर ही मोक्ष की प्राप्ति हुआ करती है, किसी भी एक के अभाव में मोक्ष नही प्राप्त हो सकता है। २-रति
मोह के वश से इष्ट पदार्थो में; प्रिय पदार्थों में प्रेम रखना, उनकी वाछा करना, रति है। विषयो से सबधित भौतिक-सुख में उत्सुकता रखना "रति" है। यह नोकषाय का एक भेद है 1 ३-रस
इन्द्रियो और मन द्वारा भोगे जाने वाले सासारिक-सुख में जो "एक सुख रूप अनुभूति होती है, वह रस है । खाने, पीने, देखने, सूंघने, के पदार्थों में तथा स्त्री-पुरुप को परस्पर में और सासारिक विचार-धारा में,इन्दियो द्वारा तथा मन द्वारा जो सुख अथवा आनद का अनुभव होता है, उसे ही "रस" कहते है । स्थूल रूप से "रस" के पाच भेद दूसरे भी कहे गये है, वे ये हैं -(१) तीखा (२) कडुआ ( ३ ) कषायला ( ४ ) खट्रा और ( ५ ) मीठा । ४-रोग
माया और लोभ के सम्मिलित सयोग से आत्मा में जो विचार धारा उत्पन्न होती है, वही "राग" है । इन्द्रियो के तथा मन के इष्ट एव प्रिय पदार्थों मे जो एक प्रकार का मोह-भाव, अथवा उत्सुकता भाव या वाछा-भाव प्पैदा होता है, वही ''राग" भाव है ।
राग-भाव में कपट और लालच का समिश्रण रहता है। ५-राजस्
गृहस्थाश्रम और राज्य-व्यवस्था को चलाने के समय में जिस ढग की मनोवृत्ति होती है, तथा जैसा जीवन का आचरण होता है, एव जैसी जैसी कपाय की प्रवृत्ति होती है, वह सब "राजस्" भावना के अन्तर्गत समझा जाता है प्रकृति से सम्बन्धित सासारिक.आत्मा के वैदिक साहित्य में तान गण चताये गये हैः-१ तामस्, २ राजस् और -(-३ ) सात्विक !- 15
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४४८
[व्याख्या कोफ
कृष्ण लेश्या वाला और नील लेश्या वाला "तामस्" प्रकृति का होता है । कापोत लेग्या वाला और कुछ कुछ तेजो लेश्या वाला "राजस्" प्रकृतिः का होता है। इसा प्रकार कुछ कुछ तेजा लेश्या वाला और पद्म लेश्या वाला "सात्विक' प्रकृति का होता है।
जा आत्मा "राजस्, तामस् और सात्विक", तीनो गुणो अतीत हो. जाता है, इनसे रहित हो जाता है, वह जैन-परिभाषा में "शुक्ल लेश्या" वाला कहा जाता है, जिसे वेदान्त मे "परब्रह्म" कहते है । ६-राजू
दूरी आर विस्तीर्णता मापने का एक माप दड, जो कि करोडो और अरबों माइलो वाला होता है। खगोल विज्ञान वाले जैसे आलोक-वर्ष" नामक दूराका माप-दड निर्धारित करते है, वैसा हा किन्तु उससे ज्यादा बडा. यह माप-दंड है । विशेप उल्लेख इसी पुस्तक की भूमिका में देखें । ७--रूप ( १ ) सौन्दर्य,
(२) पुद्गलो का एक धर्म, जो कि आखो आदि इन्दियो द्वारा अथवा ज्ञान द्वारा देखा जाता है और जाना जाता है।
(३) रूप के ५ भेद किये गये है :
(१) काला, (२) नीला, ( ३ ) लाल, ( ४ ) पीला और (५ सफेद ।
इन पाचो के समिश्रण से सैकडो प्रकार का रूप-रग तैयार किया जा सकता है। ८-रूपी
रूप वाला, केवल पुद्गल ही रूपी होता है, वाका के सब दृव्य रूप रहिता ही होते है । रूपी दो प्रकार के होते है -
१ स्थूल रूपी २ सूक्ष्म रूपी ।
जो पुद्गल आखो आदि इन्द्रियो द्वारा देखा जा सके, वह तो स्थूल रूपा है, और जो पुद्गल आखो आदि इन्दियों द्वारा नही देखा जाकर केवल आत्मा की
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[ ४४९
व्याख्याकोष ]
शक्ति से ही याने अवधि ज्ञान, मन पर्याय ज्ञान, और केवल ज्ञान द्वारा जाना जा सकता हो, वह सूक्ष्म रूपी होता है ।
पहाड, नदी, सूर्य, चन्द्र, तारे, वृक्ष, जल, अग्नि, हवा, वनस्पति, शब्द, गंध, खाने पीने की वस्तुए, मिट्टी, छाया धूप, आदि तो स्थूल रूपी पुद्गल है और कर्म परमाणु, आहारक शरीर परमाणु, तेजस शरीर परमाणु इत्यादि विभिन प्रकार के परमाणु सूक्ष्म रूपी पुद्गल कहलाते है ।
९ -- रौद्र ध्यान
हिमा, निर्दयता, जुल्म, अत्याचार, शोषण, भयकरता आदि दुष्ट आचरण और नीच कृत्यों का ध्यान करना, इनका विचार करना रौद्र ध्यान है !
ल
१--लक्षण
जिस विशेष चिह्न के आधार से किसी की पहिचान की जाय, जो विशेष चिन्ह उसी पदार्थ में पाया जाय तथा अन्य मे नही पाया जाय, ऐसे असाधारण धर्म को – विशेष चिह्न को "लक्षण" कहा जाता है, जैसे कि आत्मा का लक्षण ज्ञान, पुद्गल का लक्षण रूप, अग्नि का लक्षण उष्णता आदि ।
-
1
レ
.२. -लालसा
तीव्र इच्छा । ऐसी महती अभिलाषा कि जिसकी पूर्ति करने के लिये व्य हो जाना । ऐसी असाधारण कामना - कि जिसको परिपूर्ण करने के लिये अधा
हो जाना ।
-
३ - लेश्या
योग और कषाय के सयोग से आत्मा मे जो विचारों की विशेष - विशेष तरगं उत्पन्न हुआ करती है उन्हें ही लेश्या कहते हैं । यदि कषाय की कलुषित अवस्था वहुत ही तीव्र और भयानक हुई तो लेश्या की तरंगें भी बहुत अनिष्ट और निकृष्ट होगी इसके विपरीत यदि कषाय की स्थिति सर्वथा नहीं
२९
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४५०
[ व्याख्या कोष
रही और चल योग की सर्वोच्च अवस्था ही रहीं तो उस समय लेश्या की तरगें सत्यत विशुद्ध और प्रशस्त ही होगी । योग और कषाय के अभाव में लेश्या का भी अभाव हो जाता है। ' लेश्या के ६ भेद है -१ कृष्ण २ नील ३ कापोत ४ तेजो ५ पद्म और शुक्ल ।
१ कृष्ण लेश्या मे हिंसा, क्रोध, द्वेष, निर्दयता, वैर और दुष्टाचरण की भधानता होती है ।
२ नील में आलस्य, मद बुद्धि, माया, भोग-भावना, कायरता और अहकार की प्रधानता होती है।
३ कापोत में शोक, पर निन्दा एव कषाय की स्थिति बराबर बनी रहती है । कषाय का दबाव अपेक्षाकृत कम हो जाता है ।
४ तेजो लेश्या में विद्या, प्रेम, दया, विवेक, हिताहित की समझ और सहानुभूति की भावना रहती है। ' ५ पपलेश्या में क्षमा; त्याग, देव-गुरु-धर्म में भक्ति, निष्कपटता और सदैव प्रसन्न भावना बनी रहती है ।
६ शुक्ल लेश्या में राग द्वेष का सर्वथा विनाश हो जाता है, शोक और निन्दा से परे स्थिति हो जाती है एव परमात्म-भाव के दर्शन हो जाते है।
प्रथम तीन लेश्याओं में कषाय की स्थिति न्यूनाधिक रूप से बराबर वनी रहती हैं जबकि चौथी और पाचवी लेश्या में कषाय का क्षय और उपशम अच्छी मात्रा में प्रारम्भ हो जाता है
छट्ठी लेश्या में कषाय का सर्वथा क्षय हो जाता है । ४-लोक
जहाँ तक छ द्रव्यो की स्थिति है, वह सारा क्षेत्र लोक कहलाता है। लोक की लवाई में ऊंचे से नीचे तक १४ राजू तक की मर्यादा कही गई है, मेबकि चौडाई में केवल सात राज तक की मर्यादा वतलाई है। इस क्षेत्र. पल के अतिरिक्त शेप आकाश में छ दव्यो का अभाव है अतएव उसे लोक
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यास्या कोष
[१५१
नहीं कहकर अलॉकाकाश की संज्ञा दी गई है जो कि शून्य रूप ही है और जिसके क्षेत्रफल की मर्यादा का माप कोई भी यहां तक कि ईश्वर भी नहीं निकाल सकते है उसका क्षेत्रफल अनंतानंत राजू प्रमाण है ।। ____ लोक के तीन भाग किये गये है :-उच्च लोक, मध्य लोक आर नोचालोक। ५-लोकाकाश
आकाश लोक और अलोक दोनो स्थानो पर है ! लोक मर्यादित आकाश को अथवा छ व्यो से संयुक्त आकाश को लोकाकाश कहते है और छः दव्यों से रहित आकाश को अलोकाकाश कहा जाता है । लोकाकाश के व्यो का एक भी परमाणु अथवा प्रदेश अलोकाकाश मे नही जा सकता है, क्योकि धर्मास्तिकाय का वहाँ पर अभाव होने से किसी भी दशा मे गति अथवा स्थिति नहीं हो सकती है।
१-व्यामोह
कपाय और मोह के उदय से जीव की ऐसी मूच्छित अवस्था जिसमें कि केवल भोगो का ही ध्यान रहे, पुद्गल-सवधी सुखो का ही ख्याल रहे और आत्मा के हिताहित का विचार सर्वथा ही नहीं रहे । २----वचन गुप्ति , भाषा के ऊपर नियत्रण रखना, घातक और अनिष्ट भाषा का परित्याग करते हुए शिष्ट, मधुर और सत्य एव आवश्यक भाषा ही वोलना, वचन
गुप्ति है। ... ३-वाचाल ... वहत बोलने वाला । आवश्यकता और अन-आवश्यकता का ख्याल नहीं
रखते हुए वहुत अधिक बोलने वाला। '४-वासना
कषाय के कारण से आत्मा में जो अनिष्ट और नाचे बांदतों की जा जमे
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__४५२]
[व्याख्या कोष
जाती है, आत्मा में जो कुसंस्कार दृढीभूत हो जाते है, उन्हे ही "वासना" शब्द द्वारा पुकारा जाता है ।
५-विकथा । - जो कथा नैतिकता, चारित्र, और उच्च आचरण के विरुद्ध हो, जिस कथा के कहने से नैतिकता, चारित्र और उच्च आचरण में दोष आता हो अथवा पतन की शुरुवात होती हो, उसे "विकथा" कहते है। “विकथा" विपरीत कथा, घातक कथा !.
विकथा के चार भेद कहे गये हैं ::- १ स्त्री विकथा, २ भोजन विका ३ देश विकथा और ४ राजविकथा । ६---विकार
अच्छी बात में बुरी वात का पैदा हो जाना ही "विकार" कहलाता है। सम्यक् दर्शन का विकार "मिथ्या दर्शन" है, सम्यक्-जान का विकार "मिथ्याज्ञान" है और सम्यक् चारित्र का विकार “इन्द्रिय-भाग, कषाय का उदय, और सासारिक सामग्री में ही शक्ति का अपव्यय करना" है। इन्द्रियो के भोग पदार्थो के लिहाज से विकारो के भेद २४० कहे गये है। . ७–विपाक-शक्ति
कषाय के कारण से कर्मों में जो फल देने की शक्ति पैदा होती है, उसे ही विपाक शक्ति कहते है।
जिस तरह कोई लड्डू ज्यादा मीठा होता है और काई थोडा, कोई अधिक कडुआ होता है तो कोई कम, इसी प्रकार कोई ज्यादा तीखा होता है तो कोई अल्प, इत्यादि अनेक प्रकार के रस वाले होते है, उसी तरह से वधे हुए कर्म. परमाणुओ में भी अनेक तरह का फल अथवा रस देखा जाता है, किसी का रस-फलं ज्यादा शुभ देखा जाता है, तो किसी का कम, किसी का रस-फल अधिक अशुभ देखा जाता है, तो किसी का अल्प । इत्यादि रूप से कर्मों की जो फल-शक्ति है, वही "विपाक-शक्ति" के नाम से पुकारी जाती है। कर्मों के मूल भेद आठ कहे गये है, तदनुसार"विपाक-शक्ति" भी आठ प्रकार की हा है।
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व्याख्या कोष]
[४५३
८-विरक्त
जो आत्मा-इन्द्रियो के भोगो से, और सासारिक सुखो से, तथा मोह को पैदा करने वाली बातो से अथवा वातावरण से दूर ही रहे, वह “विरक्त" कहलाता है। . ९-वियोग
किसा भी वस्तु का एक वार अथवा अधिक बार सयोग होकर, तत्पश्चात् उसका सवध छूट जाना, "वियोग" कहलाता है सबध-विच्छेद ही "वियोग" है। १०-विराधना
तीर्थकर, गणधर, स्थविर, आचार्य, बहुश्रुत आदि की आज्ञा के विपरात चलना, शास्त्र-मर्यादा के खिलाफ आचरण का रखना "विराधना" है।
विराधना मिथ्यात्व का ही रूप है, जो कि आत्मा के लिये अहितकर है। ११-विवेक
हित और अहित का भान होना, अच्छे और बुरे की पहचान होना, व्यवहार योग्य और अव्यवहार योग्य वातो का ज्ञान होना।
१२-विषय __इन्द्रियों के भोग और परिभोग पदार्थ ही विषय कहलाते है। मन द्वारा भोग और परिभोग पदार्थों की जो मधुर कल्पना और भोग-कल्पना की जाती है, वही इस सबंध में "मन का विषय" कहा जा सकता है इन्दियो के विषय इस प्रकार है ----
१-कान के लिये-जीव शब्द, अजीव शब्द और मिश्र शब्द ! .
२- आंख के लिये .-देखी जाने वाली वस्तुओं का रूप-काला, पीला, लीला, लाल और सफेद । नाटक आदि का अन्तर्गत इसामें हो गया है !
'३-नाक के लिये .-सुगंध और दुगंध ।
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४५४ ]
[ स्याच्या कोष
४ - जिह्वा इन्द्रिय के लिये - खट्टा मीठा; कडुआ, कषायला और
तीसा ।
५ - शरीर के लिये : ठड़ा, गरम, रूखा, चिकना, भारी, हलका, खरदरा और सुंहाला । इस प्रकार पाचो इन्दियो के कुल २३ विषय हैं ।
१३- वीतरागता
वीतरागता के दो भेद है; १ औपशमिक वीतरागता और २ क्षायिक्क वीत
सगता ।
जहाँ मोहनीय कर्म के २८ ही भेद, याने दर्शन मोहनीय के ३, कषाय के १६ और नो कपाय के ९, इस प्रकार कुल २८ ही प्रकृतियाँ पूर्ण रूप से ज्ञात हो जाय; उस अवस्था को औपशमिक वीतरागता कहते है, और यह अवस्था ११ वे गुणस्थान की मानी जाती है ।
जहाँ उपरोक्त २८ हो प्रवृत्तियो का जड़ मूल से आत्यतिक क्षय हो जाता है, जो फिर कभी भी पुन: उत्पन्न होने वाली नही है, ऐसी क्षायिक अवस्था को " क्षायिक वीतरागता " कहते है । यह अवस्था बारहवे गुणस्थान से प्रारभ हो जाती है जो कि मोक्ष प्राप्ति के बाद भी वरावर कायम रहती है । क्षायिक वीतरागता ही अरिहत अवस्था है, जो कि सिद्ध अवस्था के रूप मे परिणित हुआ करती है । औपशमिक वीतरागता अस्थायी होती है; - जो कि शीघ्र ही पुन. कर्मों के उदय होते ही अवीतरागता के रूप मे परिणित हो जाती है
1
-
राग और द्वेप पर विजय प्राप्त करना ही वीतरागता है । माया और लोभ से राग की उत्पत्ति होती है; तथा क्रोध और मान से द्वेष की उत्पत्ति हुआ करती है ।
- १४ - वीतराग सयम
ग्यारहवे गुणस्थान में रहे हुए आत्मा का संगम औपशमिक वीतरागं सयम है । तथा बारहवे, तेरहवे और चौदहवें गुणस्थान में रहे हुए आत्माओ
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व्याख्या कोष ]
४५ का संयम क्षायिक वीतराग सयम है। वीतराग-सयम का ही दूसरा नाम “यथाख्यात चारित्र" है । १५-वृत्ति
व्यवहार अथवा स्वभाव । १६-वैतरणी नदी
नरक से संबधित नदी; जिसके लिये उल्लेख है कि, जिसमें खून, पोल हड्डी, मास आदि दुर्गधित और बीभत्स पदाथ ही भरे पड़े हैं, जिसके जलजार प्राणी बहुत ही तीक्ष्ण पीड़ा पहुचाने वाले हैं ! और जिसको पार करते समय पापी जीव को नाना विधि घोर कष्ट एव तीक्ष्ण पीडाएँ सहन करनी पढ़ती है। १७~-वेदनीय-कर्म
जिस कर्म के कारण से ससार में जीव को सुख-अनुभव करने का अथवा दुख-अनुभव करने का प्रसग प्राप्त हो, वह वेदनीय कर्म है ।
इसके दो भेद है, १ साता वेदनीय और २ असाता वेदनीय । १८-वैभव __ सभी प्रकार की विशाल और विस्तृत पैमाने पर सासारिक सुख-सामग्री घन, मकान, यश आदि वैभव के ही अन्तर्गत है ।
१-शब्द __ कान इन्दिय का विषय है, यह शुभ और अशुभ दो प्रकार का होता है। यह पौद्गलिक है, रूपी है, अनित्य है । क्षण भर में संपूर्ण लोक में फैल जाने की शक्ति रखने वाला है । - - - - - - -
२-श्रद्धा ___ "विश्वास" के अर्थ में प्रयुक्त होता है । सम्यक् दर्शन और अदाका एक ही अर्थ होता है। "आत्मा, ईश्वर, पाप, पुण्य" आदि मूलभूत आस्तिक सिद्धान्तो पर पूर्ण विश्वास करना श्रद्धा है। . . .
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[ व्यास्या कोष
. श्रद्धा के पाच लक्षण है-१ प्रशम, २ सवेग, ३ निर्वेद, ४ अनुकपा, दीर ५. मास्तिकता।
३-श्रावक
जो मनुष्य श्रद्धा के साथ जिन वचनो को सुनता हो, उन पर विश्वास करता हो तथा शक्ति के अनुसार व्रत-नियमो की परिपालना करता हो, और अपनी श्रद्धा को निर्दोप रखता हो, वही श्रावक कहलाता है । श्रावक के १२ अतं और २१ गुण होते है । ४-श्राविका
"श्रावक" शब्द मे उल्लिखित गुणो वाली और वैसी ही श्रद्धा वाली कथा तदनुसार आचरण करने वाली, महिला, "श्राविका" है ।।
-शील
"ब्रह्मचर्य धर्म" शील कहलाता है । मन, वचन, और काया से, शुद्ध और निर्दोप ब्रह्मचर्य पालना ही शील है ।
६-श्रुत-ज्ञान ___ शास्त्रों के सुनने से, विविध साहित्य के पढने से, चिन्तन से मनन से वो ज्ञान प्राप्त होता है, वह श्रुत ज्ञान है । चौदह पूर्वो का ज्ञान भी श्रुत ज्ञान के ही अन्तर्गत है। आज कल का उपलब्ध सपूर्ण ज्ञान, मति ज्ञान और श्रुत मान के ही अन्तर्गत आता है ।
७- शुक्ल-ध्यान , __ सर्व श्रेष्ठ ध्यान, इस ध्यान में केवल विशुद्ध आत्म तत्त्व का और ईश्वर तत्त्व का एव तटस्थ भाव से लोक का गभीर, अनुभव एव चिन्तन मनन होता है । स्थितप्रज्ञ रूप से और अनासक्त भाव से असाधारण सुन्दर विचारों का प्रवाह चलता रहता है, ! उच्च कोटि के महात्मा का ही इस ध्यान का प्राप्ति हो सकती है। इसके ४ सेव कहे गये हैः-१-पृथक्त्व
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[ ४५७
व्याख्या कोष ]
वितर्क सविचारे, २ एकत्व वितर्क अविचार, ३ सूक्ष्म क्रिया- अप्रतिपाति मोर ४ व्युपरत क्रिया अनिवृत्तिं ।
८- शुभ - ध्यान
श्र ेष्ठ, आदर्श, सात्विक विचार प्रवाह को शुभ ध्यान कहते हैं । धर्मव्यान और शुक्ल - ध्यान को " शुभ ध्यान" के अन्तर्गत गिना जा सकता है ।
·
९ - शुभ- योग
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मन, वचन, और काया की अच्छी प्रवृत्ति को, निर्दोष भाषा-शैली को और सात्विक विचारो को ही शुभ योग कहते है । मन शुभ योग, वचन शुभ योग, और काया शुभ योग, ये तीन इसके भेद कहे जाते है ! शुभ योग का विस्तृत और विकसित रूप ही पाच समिति एव तीन गुप्ति है
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१० - शुभ - लेश्या
“लेश्या” का स्वरूप पहले लिखा जा चुका है । छ लेश्याओ में से कृष्ण, नील और कापोत ये तीन लेश्याऐं तो अशुभ है और तेजो, पद्म आर शुक्ल ये तीन शुभ लेश्याऐं कही जाती है ।
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१ - षट् - काय
पृथ्वी काय, अप काय, तेउ काय, वायु काय, वनस्पति काय और स काय, ये षट्–काय कहलाते है । प्रथम से पाँचवें तक एकेन्द्रिय जीव ही है । इनके केवल शरीर ही होता है । त्रस काय में दो इन्द्रिय जीव से पांच इन्द्रिय चाले जीवो की तथा मन सज्ञा वाले जीवो की गणना की जाती है ।
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२- षट् द्रव्य
१' धर्मास्तिकाय, २ अधर्मास्तिकाय,
३ आकाशास्तिकाय,
- ४ काल द्रव्य,
५ जीवास्तिकाय, और ६ पुद्गलास्तिकाय ' 1
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४५८
[व्याख्या कोष
- इन छ. ही द्रव्यों का समूह "पट्-व्य" कहलाता है । इन छ. ही। दुव्यो की सामान्य परिभाषा यथास्थान पर इसी कोश में दे दी गई है।
१-सम्यक्त्व
नव तत्त्वो पर, षट्-दव्यों पर, जिन-वचनो पर, एवं "आत्मा, ईश्वर, पुण्य, पाप" आदि आस्तिक सिद्धान्तों पर पूरा पूरा विश्वास करना ही सम्यक्त्व है !
सम्यक्त्व के साधारण तौर पर दो भेद है.--- . . १. व्यवहार सम्यक्त्व (२) निश्चय सम्यक्त्व ! निश्चय सम्यक्त्व के पाच भेद है:
१ सास्वादन सम्यक्त्व, २ औपशयिक-सम्यक्त्व, ३ क्षायोपशमिक सम्यक्त्व, ४ वेदक सम्यक्त्व और ५ क्षायिकसम्यक्त्व ।
(१) बाह्य लक्षणों को देखकर याने किसी के देव, गुरु और धर्म के प्रति विश्वास को देख कर उसके विश्वास को सम्यक्त्व के नाम से कहना-व्यवहार सम्यक्त्व है।
(२) निश्चित और निश्शक रूप से देव, गुरु और धर्म पर विश्वास होना, अचल और अडोल श्रद्धा होना-निश्चय सम्यक्त्व है।
(३) उपशम सम्यक्त्व से गिरते समय एव मिथ्यात्व का ओर आते समय; जब तक मिथ्यात्व नही प्राप्त हो जाय, तब तक मध्य वर्ती समय में जीव के जो परिणाम होते है-उसे ही सास्वादन सम्यक्त्व कहते है ।
(४) अनन्तानुबधी क्रोध, मान, माया और लोभ, सम्यक्त्व मोहनीय, , मिथ्यात्व मोहनीय और मिश्र मोहनीय, इन सात मोहनीय प्रकृतियों के उपगम से होने वाले जीव के परिणाम को औपशमिक सम्यक्त्व कहते हैं। ।
(५) उपरोक्त सातों प्रकृतियो में से कुछ के उपशम होने पर एव कुछ के क्षक होने पर जो परिणाम जीव के होते है, उसे बायोप्रशमिक सम्यक्त्वकहते हैं ।
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व्याख्या कोष]
[४५९.
(६) क्षायिक सम्यक्त्व की प्राप्ति के पूर्व क्षण में जो परिणाम जीव के होते है; उसे वेदक सम्यक्त्व कहते है । (७) उपरोक्त सातो प्रकृतियो का जड मूल से नाश होने पर याने आत्यंतिक क्षय होने पर, जो परिणाम जीव के होते हैं, उसे क्षायिक सम्यक्त्व कहते है । २- सम्यक् दर्शन
जो सम्यक्त्व की व्याख्या है, वही व्याख्या सम्यक् दर्शन को भी समझना चाहिये । सम्यक् दर्शन दो प्रकार से पैदा होता है - (१) स्वभाव से (२) परनिमित्त से !
(१) अनन्त काल से यह जीव नाना जीव-योनियो में भटक रहा है और अनन्त दुःख उठाता रहा है, तदनुसार भटकने से और दुख उठाने से कर्मों की निर्जरा होती रहती है, और इस कारण से देव-योग से माहनीय कर्म के हल्का पड जाने पर जीव को विना प्रयत्न के ही धर्म-मार्ग की रुचि और श्रद्धा पैदा हो जाया करती है, यही स्वभाव जनित सम्यक् दर्शन है ।
(२) पर के उपदेश से, पर-प्रेरणा से; सासारिक अनित्य पदार्थों को देख कर उन द्वारा उत्पन्न वैराग्य से, आदि कारणो से जो सम्यक् दर्शन पैदा होता है, वह पर-निमित्त जनित सम्यक् दर्शन है। ३-सम्यक् ज्ञान
सम्यक दर्शन उत्पन्न होने के बाद जीव का ज्ञान “सम्यक् ज्ञान'' कह- . लाता है।
सम्यक ज्ञान के पाचो भेरो का “मति, श्रुति, अवधि, मनःपर्याय और केवल" का स्वरूप यथास्थान पर लिखा जा चुका है। ज्ञान ही आत्मा का असाधारण और अभिन्न मूल लक्षण है। ज्ञान की विकृति को मिथ्या ज्ञान अथवा अज्ञान कहा जाता है । ज्ञान में विकृति मोह और कषाय से पैदा हुआ करती है। ४-समाधि मन, वचन और काया की प्रवृत्तिमय चंचलता को हटा कर इन्ने
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४६२ ]
१२- साध्वी
वह आदर्श महिला, जो कि पाच समिति और तीन गुप्ति का निर्दोष 'राति से परिपालना करती हुई अपने जीवन में ज्ञान, दर्शन और चारित्र की आराधना करती हो ।
[ व्याख्या कोष
१३ साधु
वह आदर्श पुरुष; जो कि पाच समिति और तीन गुप्ति का निर्दोष राति से परिपालना करता हुआ अपने जीवन मे ज्ञान, दर्शन और चारित्र की आराधना करता हो । १४ -- सामायिक
अमुक समय के लिये अथवा जीवन पर्यन्त के लिये ज्ञान, दर्शन और चारित्र की आराधना करते हुए सदोष प्रवृत्ति का त्याग करके निर्दोष व्यवहार का आराधना ही "सामायिक" है । सामायिक दो प्रकार की कही गई है
( १ ) अमुक समय तक के लिये मर्यादित समय की; यह सामायिक गृहस्थो के लिये कही गई है। इसमें दो करण और तीन योग से पाप की
निवृत्ति की जाती है ।
( २ ) जो सामायिक जीवन पर्यन्त के लिये ग्रहण की जाती हैं; वह - साधु-सामायिक कहलाती है और यह तीन करण और तीन योग द्वारा ग्रहण की जाती है ।
१५ - सावद्य - योग
मन, वचन और काया की दोष वाली प्रवृत्ति; एव पापमय व्यवहार ही - सावध-योग है |
( १ ) मन द्वारा अनिष्ट विचार किया जाना और पर के लिये हानिकारक विचारो को ही सोचते रहना "मन - सावद्य-योग" है ।
( २ ) पर को हानि पहुंचानेवाली भाषा बोलना, झूठ बोलना, मर्म 'घातक शब्द बोलना; अनीतिपूर्ण बोलना, " वचन - सावद्य-योग" है ।
( ३ ) शरीर द्वारा पर को हानि पहुचानेवाली प्रवृत्ति करना, हिंसा, चोरी, मैथुन, परिग्रह सग्रह आदि ढंग को पापपूर्ण प्रवृत्ति करना, गरीबों का
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व्याख्या कोष ]
शोषण करना; गैर-जबावदारी के साथ अविवेकपूर्ण कार्य करना,
"
सावद्य-योग" है |
१६ -- सिद्ध
जो महापुरुष "संवर ओर निर्जरा" की आराधना करके आठों ही कर्मों का परिपूर्ण क्षय कर देतें हैं और यथास्यात चारित्र के बल पर अरिहंत होकर मोक्ष में जाते हैं, वे सिद्ध कहलाते हैं । इन्हे ही ईश्वर और परमात्मा कहा जाता है ।
4
- पन्द्रह प्रकार से सिद्ध होते हैं, और वे इस प्रकार है
( १ ) तीर्थंकर होकर जा सिद्ध होते हैं; वे तीर्थंकर सिद्ध है; जैसे कि-- ऋषभ, महावीर आदि ।
( २ ) सामान्य केवली होकर जो सिद्ध होते हैं; वे अतीर्थंकर सिद्ध - जैसे कि जवू स्वामी आदि ।
है
[ ४६३
"काय
( ३ ) चतुर्विच सघ की स्थापना होने के बाद जो सिद्ध होते हैं, वे गौतम आदि गणधर । तीर्थ सिद्ध है । जैसे कि
-
( ४ ) चतुर्विध सघ की स्थापना से पूर्व ही जो सिद्ध होते हैं, वे अतीर्थ सिद्ध है; जैसे कि "मरुदेवी" आदि }
( ५ ) गृहस्थ के वेष में हो जिन्होने सिद्धि पाई है, वे "गृहस्थलिंग सिद्ध" है, जैसे कि भरत चक्रवर्त्ती आदि ।
(८) "स्त्रीलिंग" में सिद्ध होने
( ६ ) सन्यासी आदि अन्य वेष द्वारा मुक्ति पानेवाले “अन्यलिंगसिद्ध" कहलाते है । जैसे कि “ वल्कल चोरी - साधु ” आदि ।
चन्दन वाला आदि ।
(७) जैन- परम्परा के अनुसार वेष धारण करते हुए मोक्ष पाने वाले "स्वलिंग सिद्ध" है, जैसे कि गजसुकुमार आदि !
वाले
'स्त्रीलिंग सिद्ध" है, जैसे कि
(९) पुरुषलिंग" में सिद्ध होने यातम आदि !
वाले
7
" है, जैसे कि
पुरुषलिंग सिद्ध "
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४६४]
[ ब्याख्या कोष !
(१०) " नपुन्सक लिंग" में सिद्ध होने वाले "नपुन्सके लिंग सिद्ध" है जैसे कि भीष्म आदि ।
( ११ ) किसी भा अनित्य पदार्थ को देख कर विचार करते करते ज्ञान प्राप्त हुआ और तत्पश्चात् केचल - ज्ञान प्राप्त करके मोक्ष प्राप्त हुए हो; ऐसे “प्रत्येक बुद्ध” सिद्ध कहलाते है, जैसे करकडु राजा ।
( १२ ) स्वयमेव ज्ञान प्राप्त करके मोक्ष प्राप्त किया हो, ऐसे "स्वयबुद्ध सिद्ध" कहलाते है जैसे कपिल आदि ।
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( १३ ) गुरु उपदेश से ज्ञानी होकर सिद्ध हुए, वे "बुद्ध-बोधित सिद्ध” कहलाते हैं, जैसे अर्जुन माली आदि ।
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( १४ ) एक समय में एक ही मोक्ष जाने वाले "एक सिद्ध" कहलाते है, जैसे महावीर स्वामी आदि ।
(१५) एक समय में अनेक मुक्त होने वाले "अनेक सिद्ध" कहलाते हैं, जैसे ऋषभदेव स्वामी आदि । ये उपरोक्त भेद ससारी स्थिति तक ही है, सिद्ध होने के पश्चात मोक्ष मे पहुँच जाने के बाद किसी भी प्रकार का भेद वा अन्तर नहा रह जाता है ।
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१७ - सूत्र
थोड़े शब्दों
अनेक शब्दो द्वारा कहे जाने वाले, विस्तृत और गभीर अर्थवाले वाक्यों को बुद्धिमाना के साथ उसके सपूर्ण अर्थ की रक्षा करते हुए अति में ही, न्यून से न्यून शब्दो में ही गूथ देना अथवा सग्रथित कर रचना" है । ऐसी शब्द रचना सूत्र कहलाती है, जो कि अति थोडे होती हुई भी विस्तृत और गभीर अर्थ रखती हो ।
देना " सूत्र - शब्दो वाली
महती शाति को धारण करने वाला ऋषि-मुनि संत कहला
कहलाता है
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सपूर्ण जैन आगम शब्द रचना की शैली से अति सूक्ष्म होते हुए भी अर्थ के दृष्टिकोण से विस्तृत और गभीर है, इसीलिए इनका एक सज्ञा सूत्र भी समाज में प्रसिद्ध और रूढ हो गई है ।
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१८- संत
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व्याख्या कोष]
१९--सयति - पाचों इन्द्रियो और मन के विकारो पर पूरी तरह से विजय प्राप्त करन __वाला मुनि अथवा आदर्श पुरुष 'सयति' कहलाता है। ।
२०-सयम __ पांचो इन्द्रियो और मन के विकारो पर पूरी तरह से अथवा वा तरह से विजय प्राप्त कर लेना ही सयम है । अथवा हिंसा, झुल, चोयें, मैथुन, परिग्रह, का त्याग करना भी 'सयम' ही कहलाता है।
२१-~सयमासयम - श्रावक और श्राविकाओ का चारित्र ‘सयमासयम' ही कहलाता है।
२२-संयोग - पुण्य के उदय से प्राप्त होनेवाला योग अथवा अच्छा प्रसग । २३-संलेखना
यह एक विशेष प्रकार की जीवन-पर्यत की पाप-दोषों को स्पष्ट पार खली आलोचना और प्रायश्चित है । जव जीवन का अत अति निकट वाया ___ जान लिया जाता है, तव इसका आचरण किया जाता है। इसमे सभी प्रकार
आहार, ममता और परिग्रह से पूर्णतया सक्ध विच्छेद कर लिया जाता है निर्दोष स्थान पर विधि अनुसार शैय्या विछाकर शेष जीवन पर्यन्त के लिये आहार आदि का त्याग कर गुरु आदि के सम्मुख जीवन भर के पास काह साफ साफ बयान किया जाता है, उनके लिए क्षमा और पूरा पूर खेद प्रकट किया जाता है । जीव-माश के साथ क्षमा मांगते हुए उनसे मैत्रा संबंध जोडा जाता है। तीन कारण और तीन योग से आहार आदि सभी प्रवृक्षियों कर
करके शेष जीवन में ईश्वर-भजन और आत्म-चिंतन मे पूरी पूरी कह से सलान हो जाना पडता है । मृत्यु के प्रति सर्वथा अनासक्त और रिसरमा भावना रखते हए समय व्यतीत करना पडता है। यही सलेखना व्रत है।
जो कि जानने योग्य है किन्तु आचरण योग्य नहीं है। वे इस प्रकार है :
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[व्याख्या कोष
१) सलेखना के जीवन मे न ता इस लोक सवधी सुख-धन, राज्य और ऋद्धि की कामना करे।
(२) और न परलाक सवधी देवता आदि से सबधित, सुख की भावना करे। . ( ३ ) यश आदि के लिये विशेष जीवित रहने की भावना भी नही रखें। , (४) सलेखना से जनित कष्ट उपसर्ग आदि से छुटकारा पाने के लिये शीघ्र मृत्यु की कामना भी नही करे ।
(५) मेरी संलेखना तपस्या सच्ची हो तो मुझे आगे पाचो इन्द्रियो के । भोगो की और सुख की प्रप्ति होवे ऐसा नियाणा मा नहीं करे । २४-सवर
भाते हुए नवीन कर्म को रोकने वाले आत्मा के परिणाम को "भावखवर" कहते है और कर्म-पुद्गलो की रुकावट को "द्रव्य संवर" कहते है ! - सवर के सत्तावन भेद कहे गये है। वे इस प्रकार है:
पाच समिति, तीन गुप्ति, वाइस परिपह, दस प्रकार का यति धर्म, वारह भावना, और पाच प्रकार का चारित्र, इस प्रकार ५७ भेद है। २५-सवेग
सासारिक भोग, सुख-सामग्री के प्रति उनके घातक परिणामो पर विश्वास करते हुए मोक्ष की मभिलापा रखना "सवेग" है । २६-सस्कृति
देशगत, अथवा जाति गत, अथ्वा वर्म गत सपूर्ण व्यवहार, विचार, जीवन-प्रणा जीवन-प्रणालि, और सभी प्रकार की प्रवृत्तियो का सम्मिलित नाम ही . और
व्यवहार, विचार, "संस्कृति" है। जैसे कि भारतीय सस्कृति, जैन सस्कृति आदि । २७-स्थविर ' दार्घ कालीन दीक्षित एव वृद्ध, अनुभवी और योग्य साघु "स्थविर" कहलाते है ।
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- व्याख्या- कोष ]
२८- स्थावर
जो जीव एकेन्द्रिय है आर केवल शरीर नामक इन्द्रिय से ही अपना - सारा जीवन-व्यवहार चला लेते है, वे नाव स्थावर कहलाते हैं । स्थावर के ५ भेद है; - १ पृथ्वी काय २ अप काय, ३ तेज काय, ४ वायु, काय, ५ वन-स्पति काय,
२९ – स्थित प्रज्ञ'
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जिसकी बुद्धि, मन, और इन्द्रियाँ चचल नहा होती हो, जो विषय और -विकार द्वारा आकर्षित नही होता हो, जो सदैव बिना यश-कीर्ति, और -सन्मान की इच्छा रक्खे ही अनासक्त भाव से स्वं परं हित में सलग्न रहता : हो, वही स्थित प्रज्ञ कहलाता है । ३० - स्थिति बंध
आत्मा के प्रदेशो के साथ दूध पानी की तरह मिले हुए कर्म - प्रदेशों का आत्मा के साथ अमुक समय तक बने रहना, आत्म- प्रदेशो के साथ मर्यादित -समय तक घुले मिले रहना अथवा बधे रहना ही स्थिति वध है । जैसे औषधि का वना हुआ लड्डू कई महिने तक रह सकता है; कोई छः महीने तक और कोई साल भर तक; वैसे ही कोई कर्म अन्तर्मुहूर्त तक रहता है, ता काई ७० करोडाकरोड़ी सागरोपम तक रहता है; तो कोई वर्ष तक । इसी को स्थिति बघ कहते है |
ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय और अन्तराय की, चारो की - उत्कृष्ट स्थिति तीस करोड़ाकरोडी सागरोपम की है । मोहनीय की ७० -करोड़ाकरोडी सागरोपम की है । नाम, गोत्र कर्म की वीस करोड़ करोडी सागरोपम की है और आयु की तेतीस सागरोपम की है ।
जघन्य स्थिति इस प्रकार की है : - वेदनीय की बारह मुहूर्त्त की; नामगोत्र की आठ मुहूर्त्त की और शेष पाँच कर्मों की अन्तर्मुहूर्त्त का है । ३१ – स्पर्शं
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शरीर इन्द्रिय का धर्म और सुख, स्पर्श कहलाता है, और उसके आठ -भेद हैं, वे इस प्रकार है. -१ गुरु, २ लघु, - ६ मृदु, ४ र ५ शीत, ६ उष्ण, ७ स्निग्ध, और ८ रुक्ष
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१४६८]
[ व्याख्या कोष
३२--स्मृति ___ पाचो इन्दियो और मन द्वारा जाने हुए एवं अनुभव किये हुए पदार्थ का याद आ जाना ही "स्मृति कहलाती है । स्मृति मतिज्ञान का ही भेद है।" ३३--स्याद्वाद लिया
एकान्त एक दृष्टि कोण से ही पदार्थो का विवेचन, ज्ञान और अनुभव नहीं करते हुए अनेक दृष्टि कोणो से पदार्थों का, और व्यो का विवेचन करना, उनका ज्ञान करना और उनका अनुभव करना ही "स्याद्वाद" है।
स्याद्वाद को अपेक्षा वाद, अनेकान्त वाद भी कहते है। इसके सात भागे "अस्ति, नास्ति और अवक्तव्य" इन तीन शब्दो के आधार से बनते है। ज्ञान और नय का सम्मिलित नाम ही स्याद्वाद है । स्याद्वाद के सबध में विशेष इसी पुस्तक की भूमिका से समझना चाहिये ।
१-क्षेत्र
क्षेत्र के दो भेद है:-१ दव्य क्षेत्र और २ भाव क्षेत्र ।
( १ ) भौतिक पदार्थों और जड द्रव्यो की पृष्ठ-भूमि को स्याल में रखकर कहा जाने वाला विवेचन प्रणालि "द्रव्य-क्षेत्र" से सबंधित मानी जाती है।
(२) आत्मा से सवधित पृष्ठ भूमि को ख्याल मे रखकर कही जाने ___ वाली विवेचन प्रणाली "भाव-क्षेत्र" के नाम से वोली जाती है।
१-त्रस
जो जीव भूख, प्यास, सर्दी, गरमी आदि से अपनी रक्षा करने के लिए एक स्थान से दूसरे स्थान पर जा सकता हो, वह बस कहलाता है ।।
प्रस के ४ भेद है --१ दो इन्द्रिय जीव-२ तीन इन्द्रिय जीव, ३ चार इन्द्रिय जीव और ४ पाच इन्द्रिय जीव !
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व्याख्या कोष ]
[४६९
शरीर और जीभ वाले जीव दो इन्दिय जीव है, जैसे केचुया, जोक और . शख आदि । शरीर, जीभ और नाक वाले जीव तीन इन्दिय जीव है, जैसे कि चींटी, खटमल, जूं आदि । शरीर, जीभ, नाक और आँख वाले जीव चार इन्दूिय है, जैसे कि विच्छू, भौरा, मक्खी, मच्छर आदि । पचेन्दिय जीव दो प्रकार के होते है, एक तो मन वाले; जो कि सज्ञी कहलाते है और दूसरे विना मन वाले, जो कि असज्ञी कहलाते हैं।
पचेन्दिय जीव के शरीर, जीभ, नाक, आख और कान-ये पांचो इन्द्रियाँ होती है।
संज्ञी जीवो में नारकीय जीव, देवता, मनुष्य, और पशु पक्षी, तथा जलचर पंचेन्द्रिय जीव माने जाते है ।
ज्ञ
१-ज्ञान
जिस शक्ति द्वारा पदार्थों का स्वरूप जाना जाता हो, पदार्थो का निश्चय किया जाता है, वह ज्ञान है । ज्ञान आत्मा का मूल और अभिन्न लक्षण है।
मिथ्या दृष्टि का ज्ञान "अज्ञान" कहा जाता है और सम्यक्-दृष्टि का ज्ञान : सम्यक् ज्ञान" बोला जाता है।
ज्ञान के पांच भेद हैं-१ मति ज्ञान, २ श्रुति ज्ञान ३ अवधि ज्ञान, ४ मन. पर्याय ज्ञान और ५ केवल ज्ञान । इनका स्वरूप यथा स्थान पर लिखा जा चुका है। ___ अज्ञान के ३ भेद है-१ मति अज्ञान, २ श्रुति-अज्ञान और ३ कुअवधि अथवा विपरीत अवधि ज्ञान ।
सम्यक् ज्ञान का ही नाम-प्रमाण है। प्रमाण के दो भेद किये हैं:१ प्रत्यक्ष और २ परोक्ष ।
उपरोक्त पांचो भेद प्रत्यक्ष के ही समझना चाहिये । इसी प्रकार परोक्ष के भी जो पाँच भेद-स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगम किये जाते हैं उनका भी मति ज्ञान और श्रुति ज्ञान में अन्तर्भाव समझ लेना चाहिए।
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