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सूक्ति-सुधा]
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(२४) मंदस्सा वियाणओ।
आ० १, ५०, उ, ६ टीका-जो मंद बुद्धि है, यानी मिथ्या-शास्त्रो के कारण से जिसकी बुद्धि मे भ्रम आ गया है, जो सासारिक-विपय-वासना को ही सर्वस्व और आराध्य मानता है, वह विवेक हीन है, और ऐसा पुरुष चिर काल तक नाना दु खो का भाजन बनता है।
(२५) मंदा नरय गच्छन्ति, वाला पावियाहिं दिट्ठीहिं ।
उ०, ८, ७ टीका-मन्द यानी हित और अहित का विवेक नही रखने वाले और बाल यानी आत्मा के गुणो की उपेक्षा करने वाले, पाप-पूर्ण विचारो मे ही ग्रस्त रहने के कारण से तथा अनीति पूर्ण आचरणों
में ही ग्रस्त रहने के कारण से मर कर नरक मे जाते है, नीच गति मे जाते है।
(२६) ममाइ लुप्पई वाले।
सू०, १, ४ उ, १ टीका-"यह मेरा है" ऐसा करके ही मूर्ख आत्मा पापों से-दुष्ट कार्यों से और दुर्भावनाओ से परिलिप्त होती है। ससारसमुद्र मे डूबती है।
(२७) सत्ता कामे हि माणवा।
उ०, १, ६, उ, १ टीका-मद वृद्धि वाले मनुष्य ही कामो में-यानी इन्द्रीय-भोगों में आसक्त रहते है । मूच्छित रहते है ।