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"जे आसवा ते परिम्सवा" और "ममिय ति मन्नमाणस्ससमिया वा असमिया वा समिआ होई ।" अर्थात् जिन्हे साधारण तौर पर आश्रव कहा जाता है और जिसे मिथ्यात्व माना जाता है, वे ही कार्य और प्रवृत्ति "अनासक्त और नैतिकता" वाले के लिये सवर तथा सम्यक्त्व बन जाया करते है । अतएव जैन धर्म की निवृत्ति का अर्थ अकर्मण्यता एव निष्क्रियता नही माना जाय। ___ महात्मा गाँधी का जीवन अनासक्त मोर निवृत्ति वाला होता हुआ भी महती प्रवृत्ति वाला ही था, इसी तरीके से जीवन का व्यतीत करना, जीवन में उच्च से उच्च गुणो को स्थायी रूप से विकसित करना, नैतिकता तथा सात्विकता को आधार बना कर जीवन को आदर्श बनाना, यही इस पुस्तक का तात्पर्य और उद्देश्य है । आशा है कि पाठकगण इससे समुचित लाम उठादेगे।
पुस्तक-रचना के समय यह दृष्टिकोण रक्खा गया है कि वालक, विद्यार्थी, अध्यापक, श्रावक, श्राविका, साधु, साध्वी, व्याख्याता, उपदेशक, लेखक और जन साधारण सभी के लिये पुस्तक उपयोगी हो । इसीलिए टीका, छाया
और पारिमापिक शब्द कोप ( व्याख्या-कोप )-की रचना की गई है। प्राकृन शब्द कोप सार्थ और मूल मूक्तियो को सस्कृत-छाया भी देने का पूरा विचार था । परन्तु पुस्तक की पृष्ठ-मख्या आशा मे अधिक वढ जाने के कारण यह विचार अभी स्थगित ही रखना पड़ा है । प्राकृत-शब्द कोप तैयार किया जाकर प्रेस में दिया ही जाने वाला था, परन्तु अन्तिम समय में उसे रोक देना पड़ा।
सभी सूक्तिया अकार आदि क्रम से-कोप पद्धति से-परिशिष्ट न. १ मे दी है जिससे कि स्वाध्याय करने वालो के लिये और अनुसंधान करने वालो के लिए सुविधा रहे ।
मूल गाब्दिक स्वरूप समझाने के लिये शब्दानुलक्षी अनुवाद भी दिया। है । टीका को व्यवस्थित समझाने के लिए टीका में आये हुए पारिभापिर्क शब्दो की व्याख्या भी दी है ।