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व्याख्या कोष |
३ - ग्रथि
मोह की गाठ, पदार्थों के प्रति मूर्च्छा-भावना, वाह्य और आभ्यंतरिक ममता, वाह्य ममता याने भौतिक सुख का वाछा और आभ्यतरिक ममता याने क्रोध, मान, माया और लाभ का खजाना ।
४ - गुप्ति
गोपना, मन, वचन और काया की अशुभ प्रवृत्तियो को दूर कर शुभप्रवृत्तियो में सलग्न होना, मन, वचन और काया पर नियंत्रण करना । ५ - गोचरी
गाय जैसे थोडा थाडा घास हर स्थान से चूटती जाती है - खाती जाता है, वैसे ही थोडा थोड़ा आहार निर्दोष रीति से योग्य घरो से लेना |
६-- गोत्र कर्म
कर्म-वर्गणाओ का ऐसा समूह, जिसके वल पर सम्माननीय और असम्माननीय कुल को अथवा जाति की प्राप्ति हुआ करती है, जैसे कि सिंह र कुत्ते की जाति, आर्य और अनार्य का कुल ।
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१ - घन-घाती कर्म
जैन दर्शन में मूल आठ कर्म वतलाये गये है, उनमे से चार अघाती कर्म है और चार घन घाती कर्म है । ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय कर अन्तराय कर्म घन घाती हैं । नाम, गोत्र, आयु और वेदनीय अघाती कर्म है आत्मा के गुणो पर जो पूरा पूरा सघन और कठिन एव दुष्परिहार्य पटल डाल देता है, गुणो को सर्वांग रूप मे ढक देता है, ऐसे कर्म-वर्गणा घनघाले कर्म है |
२ - प्राण- इन्द्रिय
प्राणियो की सूघनें की शक्ति का नाम घ्राण इन्द्रिय है, यह कार्य नाक द्वारा होता है । पाँच इन्द्रियो में इसकी गणना तीसरे नम्बर पर है ।