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सूक्ति-सुधा]
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टीका-महत्वाकाक्षी पुरुष का, कर्तव्य है कि वह जीवनव्यवहार मे आलस्य नही करे । प्रमाद की सेवना नही करे । प्रतिज्ञापालन करते समय और लक्ष्य की पूतिके समय आने वाले उपसर्गों
और परिषहों को तथा कठिनाइयो को धैर्यता पूर्वक सहन करे और कृत-सकल्प से विचलित न हो।
पिय मप्पियं कस्सइ हो करेजा।
- सू०, १०,७ टीका---किसी का भी रागवशात् प्रिय न करे और द्वेष वशात् अप्रिय भी न करे । प्रेम-भाव और वन्धुत्व भावना तो अवश्य रक्खे, परन्तु रागद्वेष जनित प्रियता और अप्रियता से दूर रहे।
(१३) . लेसं समाहटु परिवएज्जा ।।
. .. सू०, १०, १५ टीका-योग और कषाय की मिश्रित भावना को लेश्या कहते है। ऐसी लेश्या से आत्मा को दूर कर सयम की परिपालना करे । मन और इन्द्रियो को समाधि युक्त बनावे।
' (१४).. ' महावि समिक्ख धम्म, दूरेण पावं परिवज्जएज्जा।
सू०, १०,२० टीका-बुद्धिमान् पुरुष और हितार्थी पुरुष, धर्म की मीमासा कर-समीक्षा कर, हित-अहित की पहिचान कर, विवेक-अविवेक का ध्यान कर पाप-कार्य को छोड़ दे। हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन, आसक्ति,.. परिग्रह, आदिको दूर कर दे । इनका परित्याग कर दे।