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[उपदेश-सूक (४) सव्वं जगं तू समयाणु ,पेही।
सू०, १०,७ . टीका-सम्पूर्ण संसार को सम-भाव से देखो। पूजा अथवा निदा के प्रति और सन्मान अयत्रा तिरस्कार के प्रति भी समभावी वने रहो । सयोग-वियोग में हर्प-शोक से दूर रहो। इष्ट और अनिष्ट वस्तु के प्रति रति-अरति भाव से विलग रहना ही मानवता है।'
हम्ममाणो ण कुप्पेज्ज, वुच्चमाणो न संजले ।
सू०, ९, ३१ टीका-कर्त्तव्य निष्ठ पुरुष को यदि कोई लाठी आदि से मारने भी लग जाय, तो भी वह परमार्थी पुरुष क्रोध नहीं करे, और न उस मारने वाले पर प्रतिकार रूप अनिष्ट विचार ही पैदा करे। इसी प्रकार किसी के गाली आदि देने पर भी परमार्थी, पुरुप,न जले । उस पर द्वेप भाव नही लावे । सागश यह है कि जीवन मे वीतरागभाव की वृद्धि करता रहे । ..
आदिनमन्नेसु य गो गहेज्जा।
सू० १०, २ , टीका--विना दी हुई किसी की भी कोई वस्तु नही लेना चाहिये यानी चोरी से-चाहे वस्तु छोटी हो या बडो, कैसी भी हो तो भी उसे नही लेना चाहिये।
(११) चरियाए अप्पमत्तो, पुठो तत्थ अहिवासए!
मू०, ९, ३०